काव्यदोष- परिभाषा,स्वरूप,संख्या

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल'
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काव्यदोष : परिभाषा, स्वरूप एवं संख्या
काव्यदोष - परिभाषा, स्वरूप, संख्या

काव्यदोष- परिभाषा,स्वरूप,संख्या

जिस प्रकार अलंकार से काव्य शोभायमान होता है, गुण से काव्य में माधुर्य, प्रसाद और ओज उत्पन्न होता है। उसी प्रकार न्यूनपदत्व,ग्राम्यत्व,अक्रमत्व,क्लिष्टत्व आदि से काव्य में दोष भी उत्पन्न होता है।

❖ काव्यदोष — विभिन्न विद्वानों द्वारा दी गयी परिभाषाएँ एवं मत ❖

काव्यदोष काव्य गुण की ही भाँति आचार्य भरत प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने काव्यदोषों की चर्चा नाट्यशास्त्र में की है। उनके अनुसार दोष- गुण विपर्यय रूप हैं-

एते दोषास्तु विज्ञेयाः सूरिभिर्नाटकाश्रयाः ।
एत एव विपर्यस्तः गुणा: काव्येषु कीर्तिता ॥

काव्य के दस गुणों के विपर्यय स्वरूप काय के क्या 10 दोष हो सकते हैं, इस पर विद्वानों में वैमत्य है । आचार्य भरत के इस सिद्धान्त का समर्थन आचार्य वामन करते हैं। उनका स्पष्ट कथन है कि- “गुणा विपर्ययात्मानो दोषाः'' दोष विवेचन का यह सिद्धान्त प्रतिष्ठित नहीं हो पाया क्योंकि 10 गुणों और बाद में उनकी संख्या मात्र तीन हो जाने के बाद दोषों की संख्या का क्या औचित्य बनेगा, यह स्पष्ट नहीं हो पाता। आचार्य दण्डी एवं भामह दोष को परिभाषित तो नहीं करते किन्तु उन से बचने की चिन्ता अवश्य रखते हैं। आचार्य दण्डी ने काव्यादर्श में बताया है कि-

तदल्पमपि नीपेक्ष्यं काव्यं दुष्टं कथंचन ।
स्यावपुः सुन्दरमपि शिवत्रणेकेन दुर्भगम् ।।

आचार्य भामह ने ‘‘कु कवित्व' को साक्षात मृत्यु कहा है। हिन्दी के आचार्य केशवदास भी इसी प्रकार की चेतावनी देते हैं।

रंचक दोष न राजई कविता वनिता मित्त।
बूंदक हाला परत ज्यों गंगाघट अपवित्त ।।

दोष की भावात्मक परिभाषा आचार्य वामन ने ही दी है। उनके अनुसार- “काव्यसौन्दर्याक्षेप हेतवः त्यागाय दोषा ज्ञातव्याः” अर्थात काव्यसौन्दर्य के काव्यात्मक तत्व दोष है, और रचना करते समय कवि इनका त्याग करना चाहिए।

आचार्य आनन्दवर्धन ने "हेयता' को काव्यदोष की परिभाषा के जोड़ने की चेष्टा की है-

श्रुतिदुष्टादयो अनित्या ये च सूचिता।
ध्वन्यात्मन्येव श्रृंगारे ते हेया इत्युदीरिता ।।

आचार्य अभिनवगुप्त दोषों को ‘‘नित्य एवं अनित्य'' इन दो भागों में विभक्त करके गुण विपर्यय सिद्धान्त का खण्डन करते हैं ।

आचार्य मम्मट दोष को परिभाषित करते हुए कहते हैं-'मुख्यार्थहतिदोषः" रस एवं तात्पर्य कविता में मुख्यार्य हैं। और उनके विघातक तत्व ही दोष हैं ।

परवर्ती आचार्यों ने दोष का विवेचन अपने- अपने ढंग से किया है -

अलंकार शेखर के अन्तर्गत आचार्य केशव मिश्र ने बताया है कि- दोषत्वं च रसोत्पत्ति प्रतिबन्धकत्वम् । काव्यरचना के अन्तर्गत रसोत्पत्ति के बाधक तत्त्व को दोष कहा जाना चाहिए ।

आचार्य विद्यानाथ ने “एकावली' नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ में दोष को इस प्रकार परिभाषित किया है- . "दोषः काव्यापकर्षहेतुः” काव्य के अपकर्ष हेतु का नाम दोष ।

इस प्रकार काव्यदोष सम्बन्धी विविध परिभाषाओं से यह स्पष्ट है कि काव्य दोष गुणों का विपर्यय नहीं है। काव्य रचना के वे तत्व जिनसे काव्यधामिता कहीं भी और किचित् मात्र क्षरित होती है, दोष के नाम से पुकारे जा सकते हैं।

❖ काव्यदोषों की संख्या❖

  • आचार्य भरत ने दोषों की संख्या 10 बताई है।—1.गूढार्थ, 2.अर्थान्तर, 3.अर्थहीन, 4.भिन्नार्थ, 5.एकार्थ, 6.अनिप्लुतार्थ, 7.न्यायोपेत, 8.विषम, 9 विसन्धि तथा 10. शब्दच्युत ।
  • आचार्य भामह ने दोषों की चर्चा करते हुए आचार्य मेंधाविन् द्वारा गिनाए गए सप्त दोषों का उल्लेख किया है ।

    हीनता सम्भवो लिंगवचोभेदो विपयर्यः ।।
    उपमानाधिकत्वं च तेनासदृशतापि च ।।
    त एत उपमादोषाः सप्तमेधा विनोदितः ।।

  • ➤उनके अनुसार दोषों की संख्या 11 है-
  • (1) सामान्य दोष- क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक, अयुक्तिमत, गूढ़ शब्द
  • (2) बाणी दोष- श्रुतिदुष्ट, अर्थदुष्ट, कल्पनादुष्ट, श्रुति कष्ट
  • (3) अन्य- अपार्थ, एकार्थ
  • आचार्य दण्डी काव्य में दोष का निषेध अनिवार्य मानते हैं। उनके अनुसार गुण विपर्यय रूप प्रमुख दोष निम्नवत् हैं-शैथिल्य, अनतिरुद्ध, शब्दार्थ ग्राम्यत्व, निष्ठुरत्व, नेयार्थ, अयुक्ति आदि ।
  • आचार्य वामन अपने काव्यालंकार सूत्र ग्रन्थ में सबसे पहली बार दोष को परिभाषित करते हैं- गुणविपर्ययात्मानो दोषाः अर्थात, गुण के विपर्य धर्म दोष हैं । दोष को चार भागों में विभक्त करते हैं-
  • (1) पदगत दोष- असाधुवाद, कष्टपद, ग्राम्यपद, अप्रतीतपद, अनर्थकपद
  • (2) पदार्थगत दोष- अन्यार्थ, नेयार्थ, गूढार्थ, अश्लीलार्थ, क्लिष्टार्थ
  • (3) वाक्य दोष- भिन्नवर्त, यतिभ्रष्ट, विसन्धि
  • (4) वाक्यार्थ दोष- व्यर्थ, एकार्थ, सन्दिग्ध, अप्रयुक्त, उपक्रम, लोकविरुद्ध, विद्यााविरुद्ध ।
  • आचार्य मम्मट -‘काव्य प्रकाश' के अन्तर्गत काव्य दोष को परिभाषित करते हुए कहते हैं- ‘मुख्यार्थहतिर्दोषो रसश्च मुख्यस्तदाश्रयावाच्यः मुख्य अर्थ के विधातक या अपकर्षक को दोष कहा जाता है। काव्य के मुख्य अर्थ–रसादि रूप (अर्थ) का यह अपकर्षक है। इन्होंने दोषों की संख्या 70 बताई है और इनको तीन वर्गों में रखा है-शब्द दोष, अर्थ दोष तथा रस दोष ।
  • आचार्य मम्मट द्वारा स्वीकृति रस दोष विशेष महत्त्वपूर्ण हैं। इनका आधार ध्वन्यालोक एवं लोचन है । ये इस प्रकार हैं—स्वशब्द वाच्यत्वदोष, कष्ट व्यक्ति दोष, प्रतिकूल विभावादिग्रहण दोष, पुन-पुन दीप्ति-दोष, अकाण्डप्रथम, अकाण्च्छेद, अङ्गविस्तार, अङ्गिनोऽननु-संधान, प्रकृति विपर्यय, अनङ्ग अभिधान दोष ।
  • परवर्ती आचार्य ने दोष का विस्तारपूर्वक विवेचन एवं उसे परिभाषित करने का प्रयास किया। साहित्य दर्पण में कविराज विश्वनाथ ने दोष को परिभाषित करते हुए बताया है- 'रसापकर्पका दोषाः अर्थात्, दोष रसापकर्षक होते हैं। वे रस प्रतीति के वाधक बन कर काव्य के आस्वाद्य को शिथिल, दोष युक्त एवं विनष्ट कर देते हैं। वे पुनः कहते हैं- 'दूषयति काव्यमिति दोषाः जो काव्य तत्त्व को दूषित करते हैं, वे दोष हैं । वे साहित्य दर्पण के सातवें अध्याय में पुनः बताते हैं-
  • काव्यापकर्षका दोषास्ते पुनः पंचधा मताः ।।
    पद पदांश वाक्यार्थ रसानां दूषणेन हि ।

    उनके अनुसार ये पाँच प्रकार के हैं-
  • (1) पद दोष
  • (2) पदांश दोष
  • (3) वाक्य दोष
  • (4) अर्थ दोष
  • (5) रस दोष
  • हिन्दी साहित्य में दोष के प्रबल विरोधी आचार्य केशवदास दोष विवेचका में अग्रगण्य है। उन्होंने काव्य एवं अन्य दोष के अन्तर्गत क्रमशः अट्टारह(18) दोषों को मान्यता दी हैः अंघ, बधिर,पंगु,नग्न, मृतक, अगण, हीनरस यतिभंग, व्यर्थ, अपार्थ, हीनकम, कर्णकटू पुनरुक्ति,देश-विरोधी, काल विरोधी, लोक विरोध, न्याय विरोध, आगम विरोध । आगे चलकर, रीतिकालीन कवियों ने इस विषय पर संस्कृत की परम्परा के अनुक्रम में विशेष विस्तार से विचार किया है।

सबसे प्रमाणिक और स्वीकार्य मान्यता — (मम्मट के अनुसार) काव्यदोष तीन प्रकार के हैं:

  • शब्ददोष — भाषा की अशुद्धि / ध्वनि की खुरदरापन।
  • अर्थदोष — भाव की त्रुटि / असंगति।
  • रसदोष — किसी तत्व की अत्यधिकता।

❖ शब्द दोष ❖

1.श्रुतिकटुत्व-

आचार्य वामन ने इसका नाम 'कष्ट' दिया है। इसको परिभाषित करते हुए कहा है कि-'श्रुतिविरसे कष्टम्' अर्थात सुनने में रसहीन श्रुति कटु कष्ट दोष है। आचार्य केशवदास ने इसे कर्णकटु दोष कह कर इस प्रकार परिभाषित किया है-

कहत न नीको लागई, सो कहिये कटु कर्ण ।।
केशवदास कवित्त में, भूलि न ताको बर्ण ।

शृंगार आदि में रसों में रौद्र एवं वीरता को प्रदशित करने वाले कठोर वर्गों का प्रयोग आदि ।

2.च्युति संस्कृति-

आचार्य वामन ने इसे 'असाधु' नाम से पुकारा है। वे इस प्रकार परिभाषित करते हैं-शब्द स्मृति विरुद्ध अमाधु-व्याकरण विरुद्ध शब्दादि का काव्य में प्रयोग च्युति संस्कृति है।

मरम बचन सीता जब बोला । हरि प्रेरित लछिमन मन डोला।

‘अवधी' बोली में सीता स्त्रीलिंग के साथ 'बोला' क्रिया रूप असंगत है। किन्तु यदि खड़ी बोली का वाक्य मानकर सीता (ने) स्वीकार किया जाये तो च्युति संस्कृति दोष नहीं होगा।

3.अप्रयुक्त-

आचार्य वामन इसे अप्रतीत के रूप में स्वीकार करते हैं । शास्त्र आदि में प्रयुक्त होने वाले वे शब्द जो लोक में न प्रचलित हों, अप्रयुक्त हैं—तुलसीदास कहते हैं- सरिस स्थान मघवान जुवानू' यह पाणिनि के सूत्र का रूपांतरण है।

4.ग्राम्यत्व-

आचार्य वामन ने इसे ग्राम्य दोष माना है उन्होंने इसे इस प्रकार परिभाषित किया है- 'लोकमात्रप्रयुक्तम् ग्राम्यम् केवल ‘ग्राम्य' जनों द्वारा प्रयुक्त काध्य शब्दों का प्रयोग ग्राम्यत्व दोष है। यथा-

सत्य सराहि कछहु-बरू देना । जान लें इहि मांगि चबेना।

इस में ‘चबेना' शब्द में ग्राम्यत्व दोष है ।

5.क्लिष्टत्व-

कवि द्वारा काव्य में प्रयुक्त दुर्बोध एवं अर्थ दुःसाध्य जटिल शब्दों को क्लिष्ट कहते हैं । जैसे-

कहहु सुप्रेम प्रगट को करई । केहि छाया कवि मति अनुसरई ।

यहाँ शब्द ध्वनि सिद्धान्त में प्रयुक्त ‘कवि परम्परा' के अर्थ में है, सामान्य ‘छाया' के अर्थ में नहीं ।

6.न्यूनपदत्व-

जहाँ काव्य के अन्तर्गत अर्थ सिद्धि के लिए एक या एकाधिक शब्द बाहर से जोड़ने की आवश्यकता पड़े वहाँ न्यूनपदत्व दोष है । जैसे-

नाना सरोवर खिले नव पंकजों को,

ले अंक में बिहँसते, मन मोहते थे। यहाँ सरोवर के बाद ‘में' शब्द वाक्य में न्यून है ।

7.अधिकपदत्व-

जहाँ छन्द की यति, गति एवं पाद की पूर्ति में बाधक के रूप में अधिक शब्द पड़ते हैं, उसे अधिक पदत्व दोष कहा जाता है। जैसे-

साक्षी है गिरि धवल हिमाचल,
गंगा यमुना का पावन जल ।

‘हिमाचल' शब्द हिम+‘अचल' अर्थात् पर्वतवाची स्वतः फिर गिरि' शब्द का प्रयोग अनुचित और अधिक है।

8.अक्रमत्व-

लोक या शास्त्र में निर्धारित क्रम का काव्य के शब्द प्रयोग में व्यतिक्रम हो जाना ही अक्रमत्व दोष है । सामान्यतया व्याकरण के अन्य विरोध से इसका सम्बन्ध होता है । जैसे-

क्यों नहीं करुणा तुम्हारी छलकती है मूक ।।

यहाँ 'मूक' शब्द करुणा का विशेषण है जो पद के अन्त में रखा हुआ है।

9.अश्लीलत्व-

जुगुप्सा, नग्न श्रृंगार या कामुकता, अमंगल सूचक आदि शब्दों का स्पष्ट या अप्राकरणिक प्रयोग अश्लीलत्व दोष कहलाता है। यथा-

जेहि विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटात। ज्यों नर डारत वमन करि, स्वान स्वाद सों खात ।

इसमें जुगुप्सामूलक अश्लीलत्व व्यंजित है ।

10.असमर्थ दोष-

अभीष्ट अर्थ को प्रतीति कराने में प्रयुक्त असमर्थ शब्द प्रयोग को असमर्थ दोष के नाम से जाना जाता है । यथा-आई नव उत्क्रान्ति, देश समृद्ध हुआ है। यहाँ ‘उत्क्रान्ति' शब्द का प्रयोग क्रान्ति के अर्थ में है किन्तु उसका अर्थ ‘मृत्यु' है। ‘क्रान्ति' अर्थ के लिए उत्क्रान्ति शब्द उचित नहीं है।

❖ अर्थ दोष ❖

‘अर्थाश्रित होने पर दोष विशेष को अर्थ दोष कहा जाता है। इनमें से कुछ प्रमुख अर्थ दोष इस प्रकार हैं-

1.पुनरुक्ति दोष-

आचार्य केशवदास पुनरुक्ति को इस प्रकार परिभाषित करते हैं-

एक बार कहिये कछु, बहुरि जु कहिये सोइ । अर्थ होय कै शब्द अब, सुनु पुनरुक्ति सुहोय ।

एक ही अर्थ को शब्दान्तर से बार-बार कहना पुनरुक्ति दोष है । यथा-

मघवा घन आरूढ़, इन्द्र अजु अति सोहियो। ब्रज पर कोप्यो मूढ, मेध दसौ दिसि देखिये ।

इसमें मघवा तथा इन्द्र, मेध तथा घन की पुनरुक्ति है ।

2.दुष्क्रमत्व दोष-

आचार्य भामह इसे अपक्रम नाम देते हैं। उन्होंने इसे इस प्रकार परिभाषित किया है-

यथोपदेशं क्रमशो निर्देशोऽत्र क्रमो मतः । तदपेतं विपर्यासादित्यास्यातपक्रमम् ।

उपदेश के अनुसार क्रमशः निर्देश को क्रम कहते हैं । उपदेश का अर्थ है,वस्तुओं का प्रथम विन्यास । उसमें व्यतिकरण कर देना ही दुष्क़मत्व है। गोस्वामीतुलसीदास का विवेचन करते हुए आचार्य पण्डित रामचन्द्र शुक्ल ने इसका उदाहरण कवितावली से इस प्रकार दिया है-

‘मारुत नन्दन मारुत को मन को खगराज को बेग लजायो,

शुक्ल जी के अनुसार मन, मारुत और खगराज का क्रम रखना चाहिए था।

3.प्रसिद्धि विरुद्ध-

लोक प्रसिद्धि या कवि प्रसिद्धियों के प्रतिकूल वर्णन को लोक विरुद्ध अर्थ दोष कहा गया है। जैसे-

मरु सुदेस मोहन महा, देखहु सकल सभाग। अमल कमल कुल ललित जह, पूरण सलिल तड़ाग ।

मरु प्रदेश में निर्मल कमल समूह एवं सलिलपूर्ण तालाब का वर्णन प्रसिद्धि के प्रतिकूल है ।

4.अपार्थ-

जिस काव्य वाक्य का अर्थ स्पष्ट न हो, उसे अपार्थ दोष कहा जाता है ।

सूरदास भगवंत भजन बिनु चले जाउ भइ पोइस ।।

यहाँ ‘भइ पोइस' शब्द का अर्थ संगति नितान्त अस्पष्ट है ।आचार्य केशवदास ने इसको स्पष्ट करते हुए बताया है जहाँ सुसंगत अर्थ न निकले वहाँ अपार्थ दोष है । इसको स्पष्ट करते हुए बताया है-

पिये लेत नर सिंधु कहें, है अति संदर देह ।। ऐरावत हरि भावतो, देख्यो गरजत मेह।

❖ रस दोष ❖

1.स्वशब्दवाच्यत्व-

रस ध्वनि का विषय होने के कारण व्यंग्य होता है, वाच्य नहीं । अतः रस निरुपण करते समय उसका एवं उसके अनुभवों का शब्दों में उल्लेख कर देना स्वशब्दवाच्यत्व दोष है । जैसे-

फरकत रद भौंहें सतर, बंकिम लोहित नैन वीर भाव की भंगिया, घन इव घहरत बैन ।

उत्साह का प्राधान्य है किन्तु 'वीर भाव' कह देने से स्वशब्द वाच्यत्व होगा।

2.अकाण्ड प्रथन-

रस विशेष के लिए उपयुक्त अवसर न होने पर भी उनको हठात् अभिव्यक्त कराना अकांड प्रथन दोष है। यथा-

अस विचारि गुह जाति सन, कहेउ सजग सब होहु ।।
हथबाँसहु बोरहू तरनि, कीजिय घाटारोहु।
चले निषाद जोहारि जोहारी । सूर सकल रन रूचइ रारी ।।
सुमिरि राम पद पंकज पनही । भाँथी बाँधि चढ़ाइन्हि धनुही।

करुणा के अवसर पर वीर रस का यह अवतरण अकाण्ड प्रथन है ।

3.अकांड छेदन दोष-

रस के पूर्ण परिपाक के बिना उसे बीच में ही भंग कर देना रस का अकांड छेदन दोष माना जाता है । जैसे-

सुनु जानकी तोहि बिनु आजू । हरषे सकल पाइ जनु राजू ।।
किमि सहि जात अनख तोहि पाहीं । प्रिया बेगि प्रकटसि कस नाही
एहि विधि खोजत विलपत स्वामी । मनहु महा बिरही अति कामी ।
पूरन काम राम सुख रासी । मनुज चरित कर अज अविनासी।

‘विप्रलम्भ शृंगार' को बीच में खण्डित करके भक्ति भाव से सम्पर्कित कराना अकाण्ड छेदन रस दोष है।

❖ दोषों का समाहार ❖

इन दोनों का वर्णन करते हुए आचार्यों ने कतिपय दोषों के परिहार की भी चर्चा की है। दोषों के परिहार की चर्चा सर्वप्रथम आचार्य भामह ने की । वे एकार्थ (पुनरुक्ति) दोष का परिहार करते हुए बताते हैं-

भ्रमशोकाभ्यसूयासु-हर्ष विस्मयोरपि ।
यथाह गच्छ गच्छेति पुनरुक्तं न तद्विदुः ।

भय, शोक, डाह, हर्ष, विस्मय में पुनरुक्त दोष नहीं माना जाता। जैसे क्रोध में कोई कहता-जाओ, जाओ आदि । आचार्य दण्डी ने इस समस्या पर अधिक विस्तार से विचार किया है ।
  • 1. दुःखादि से अभिभूत व्यक्ति के विवेक सूत्र मन में विरुद्धार्थ का ध्यान नहीं रहता।
  • 2. काम-पीड़ा में सज्जन पुरुष द्वारा पर स्त्री की कामना ।
  • 3. संशय दोष' में वाक्य यदि संशय उत्पादन के लिए किया जाए तो वह दोष न होकर अलंकार होगा।
  • इस प्रकार, परम्परा में कतिपय दोषों के परिहार की चर्चा आगे चलकर आचार्य विश्वनाथ आदि ने भी की।

उदाहरण

शब्ददोष:
“गाय घास चरने बगीचे में गई।” → यहाँ वाक्य क्रम असंगत है।

अर्थदोष:
“सागर सूख गया उसकी एक आह से।” → असम्भव अतिशयोक्ति।

अतिदोष:
बहुत अधिक अलंकार ठूँस देना → कविता अप्राकृतिक हो जाती है।

काव्यदोष का महत्व

काव्यदोषों की पहचान से काव्य की **शुद्धता, सौन्दर्य और प्रभाव** को सुरक्षित रखा जा सकता है। कवि को यह ज्ञात होना चाहिए कि कहाँ **रोकना है और कहाँ जोड़ना** है।

"दोषैरपतति काव्यं, गुणैरुद्वहते शनैः"
अर्थ — दोष काव्य को गिराते हैं, गुण उसे उठाते हैं।

सामान्य प्रश्न (FAQ)

प्रश्न 1: काव्यदोष क्या है?
उत्तर: काव्य में वह तत्व जो सौन्दर्य को नष्ट करे, उसे काव्यदोष कहते हैं।

प्रश्न 2: काव्यदोष कितने प्रकार के होते हैं?
उत्तर: मुख्यतः शब्ददोष, अर्थदोष और अतिदोष।

प्रश्न 3: काव्य में दोष क्यों नहीं होने चाहिए?
उत्तर: दोष काव्य की भावनात्मक और सौन्दर्यमूलक शक्ति को कम कर देते हैं।

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