जयशंकर प्रसाद
1.आशा सर्ग
निज अस्तित्व बना रखने में,जीवन आज हुआ था व्यस्त।49
विश्वरंग में कर्मजाल के,सूत्र लगे घन हो घिरने। 50
उस एकांत नियति-शासन में,चले विवश धीरे-धीरे।
एक शांत स्पंदन लहरों का,होता ज्यों सागर-तीरे। 51
विजन जगत की तंद्रा में,तब चलता था सूना सपना।
ग्रह-पथ के आलोक-वृत्त से,काल जाल तनता अपना। 52
प्रहर, दिवस, रजनी आती थी,चल-जाती संदेश-विहीन।
एक विरागपूर्ण संसृति में,ज्यों निष्फल आंरभ नवीन। 53
धवल,मनोहर चंद्रबिंब से,अंकित सुंदर स्वच्छ निशीथ।
जिसमें शीतल पवन गा रहा,पुलकित हो पावन उद्गीथ। 54
अंतरिक्ष में व्यस्त उसी सा,रहा चंद्रिका-निधि गंभीर। 55
खुलीं उसी रमणीय दृश्य में,अलस चेतना की आँखें।
हृदय-कुसुम की खिलीं अचानक,मधु से वे भीगी पाँखे। 56
एक अतींद्रिय स्वप्न-लोक का,मधुर रहस्य उलझता था। 57
नव हो जगी अनादि वासना,मधुर प्राकृतिक भूख-समान।
चिर-परिचित-सा चाह रहा था,द्वंद्व सुखद करके अनुमान। 58
दिवा-रात्रि या-मित्र वरुण की,बाला का अक्षय श्रृंगार,
मिलन लगा हँसने जीवन के,उर्मिल सागर के उस पार। 59
तप से संयम का संचित बल,तृषित और व्याकुल था आज।
अट्टाहास कर उठा रिक्त का,वह अधीर-तम-सूना राज। 60
कुछ शेष चिह्न हैं केवल,मेरे उस महा मिलन के ।2
यह व्यर्थ साँस चल-चल कर,करती हैं काम अनिल का ।3
प्यासी मछली-सी आँखें,थी विकल रूप के जल में। 4
पाकर इस शून्य हृदय को,सबने आ डेरा डाला। 19
घिर जाती प्रलय घटाएँ,कुटिया पर आकर मेरी
तम चूर्ण बरस जाता था,छा जाती अधिक अँधेरी। 20
बिजली माला पहने फिर,मुसक्याता था आँगन में
हाँ, कौन बरस जाता था,रस बूँद हमारे मन में? 21
तुम सत्य रहे चिर सुन्दर!,मेरे इस मिथ्या जग के
थे केवल जीवन संगी,कल्याण कलित इस मग के। 22
कितनी निर्जन रजनी में,तारों के दीप जलाये
स्वर्गंगा की धारा में,उज्जवल उपहार चढायें। 23
गौरव था ,नीचे आये,प्रियतम मिलने को मेरे
मै इठला उठा अकिंचन,देखे ज्यों स्वप्न सवेरे। 24
परिचित से जाने कब के,तुम लगे उसी क्षण हमको। 25
ऊपर से किरणें आती,मिलती हैं गले लहर से। 26
मै अपलक इन नयनों से,निरखा करता उस छवि को
प्रतिभा डाली भर लाता,कर देता दान सुकवि को। 27
निर्झर-सा झिर झिर करता,माधवी कुंज छाया में
चेतना बही जाती थी,हो मन्त्र मुग्ध माया में। 28
पतझड़ था, झाड़ खड़े थे,सूखी-सी फूलवारी में
किसलय नव कुसुम बिछा कर,आये तुम इस क्यारी में। 29
शशि मुख पर घूँघट डाले,अंचल में चपल चमक-सी
आँखों मे काली पुतली,पुतली में श्याम झलक-सी। 30
तपस्वी के वीराग की प्यार !
सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज!
जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप,सुमनों के पुञ्ज!
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार.
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे संसार .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
तुम्हारे कुंजो में तल्लीन, दर्शनों के होते थे वाद .
देवताओं के प्रादुर्भाव, स्वर्ग के सपनों के संवाद .
स्निग्ध तरु की छाया में बैठ, परिषदें करती थी सुविचार-
भाग कितना लेगा मस्तिष्क,हृदय का कितना है अधिकार?
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
छोड़कर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार .
पिता का वक्ष भरा वात्सल्य, पुत्र का शैशव सुलभ दुलार .
दुःख का करके सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार .
सुनाने आरण्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़,जगत की ज्वाला करती शांत .
तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कांत .
देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध, प्राणियों से कह उठा पुकार –
तोड़ सकते हो तुम भव-बंध, तुम्हें है यह पूरा अधिकार .
छोड़कर जीवन के अतिवाद, मध्य पथ से लो सुगति सुधार.
दुःख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मो का व्यापार .
विश्व-मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र .
मिला था वह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चंद्र .
तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार .
सकल वसुधा को दे संदेश, धन्य होता है बारम्बार.
आज कितनी शताब्दियों बाद, उठी ध्वंसों में वह झंकार .
प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त, विश्व वाणी का बने विहार .
✨ अरी वरुणा की शांत कछार ✨
तपस्वी के विराग का अमर गान
🌸 अरी वरुणा की शांत कछार 🌸
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
सतत व्याकुलता के विश्राम, अरे ऋषियों के कानन कुञ्ज!
जगत नश्वरता के लघु त्राण, लता, पादप, सुमनों के पुञ्ज!
तुम्हारी कुटियों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार.
स्वर्ग की वसुधा से शुचि संधि, गूंजता था जिससे संसार .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
तुम्हारे कुंजो में तल्लीन, दर्शनों के होते थे वाद .
देवताओं के प्रादुर्भाव, स्वर्ग के सपनों के संवाद .
स्निग्ध तरु की छाया में बैठ, परिषदें करती थी सुविचार-
भाग कितना लेगा मस्तिष्क, हृदय का कितना है अधिकार?
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
🌸 अरी वरुणा की शांत कछार 🌸
छोड़कर पार्थिव भोग विभूति, प्रेयसी का दुर्लभ वह प्यार .
पिता का वक्ष भरा वात्सल्य, पुत्र का शैशव सुलभ दुलार .
दुःख का करके सत्य निदान, प्राणियों का करने उद्धार .
सुनाने आरण्यक संवाद, तथागत आया तेरे द्वार .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
मुक्ति जल की वह शीतल बाढ़, जगत की ज्वाला करती शांत .
तिमिर का हरने को दुख भार, तेज अमिताभ अलौकिक कांत .
देव कर से पीड़ित विक्षुब्ध, प्राणियों से कह उठा पुकार –
तोड़ सकते हो तुम भव-बंध, तुम्हें है यह पूरा अधिकार .
दुःख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मो का व्यापार .
विश्व-मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद्र .
मिला था वह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चंद्र .
अरी वरुणा की शांत कछार !
तपस्वी के वीराग की प्यार !
तुम्हारा वह अभिनंदन दिव्य और उस यश का विमल प्रचार .
सकल वसुधा को दे संदेश, धन्य होता है बारम्बार.
आज कितनी शताब्दियों बाद, उठी ध्वंसों में वह झंकार .
प्रतिध्वनि जिसकी सुने दिगन्त, विश्व वाणी का बने विहार .
🌸 अरी वरुणा की शांत कछार 🌸
✨ यह वाणी आज भी युगों बाद मानवता को प्रकाश और शांति का संदेश देती है ✨
🌿 यह कविता मानवता, तपस्या और विराग की अनन्त ध्वनि है 🌿