कवि और कविता - महावीर प्रसाद द्विवेदी



यह बात सिद्ध समझी गयी है कि अच्छी कविता अभ्यास से नहीं आती । जिसमें कविता करने का स्वाभाविक माद्दा होता है वहीं कविता कर सकता है। देखा गया है कि जिस विषय पर बड़े-बड़े विद्वान अच्छी कविता  नहीं कर सकते उसी पर अपढ़ और कम उम्र के लड़के कभी-कभी अच्छी कविता लिख देते हैं। इससे स्पष्ट है कि किसी-किसी में कविता लिखने की इस्तेदाद स्वाभाविक होती है ,ईश्वरदत्त होती है। जो चीज ईश्वरदत्त है वह अवश्य लाभदायक होगी । वह निरर्थक नहीं हो सकती । इसमें समाज को कुछ न कुछ लाभ अवश्य पहुँचता है। अतएव कोई यह समझता हो कि कविता करना व्यर्थ हेै तो वह इसकी भूल है, हाँ कविता के लक्षणों से च्युत तुले हुए वर्णों या मात्राओ की पद्य नामक पंक्तियाँ व्यर्थ हो सकती हैं । आजकल पद्यमालाओं का प्राचुर्य है। इससे यदि कविता को कोई व्यर्थ समझे तो आश्चर्य नहीं होगा ।
                   कविता यदि यथार्थ में कविता है तो संभव नहीं कि उसे सुनकर सुनने वाले पर कुछ असर न हो । कविता से दुनिया में आजतक बहुत बड़े -बड़े काम हुए हैं । इस बात के प्रमाण मौजूद हैं अच्छी कविता सुनकर कवितागत रस के अनुसार दुख शोक क्रोध करुणा और जोश आदि भाव पैदा हुए बिना नहीं रहते । जैसा भाव मन में पैदा होता है कार्य के रूप में फल भी वैसा ही होता है। हम लोगों में पुराने जबाने में भाट चारण आदि अपनी कविता ही की बदौलत बीरता का संचार कर देते थे। पुराणादि में कारुणिक प्रसंगो का वर्णन सुनने और उत्तररामचरित आदि दृश्य काव्यों का अभिनय देखने से जो अश्रुपात होने लगता है वह क्या है? वह अच्छी कविता का ही प्रभाव है ।
    संसार में जो बात जैसी दीख पड़े कवि को उसे वैसी ही वर्णन करना चाहिए। उसके लिए किसी तरह की रोक या पाबन्दी का होना अच्छा नहीं। दबाव से कवि का अंश दब जाता है। उसके मन में जो भाव आप ही आप पैदा होता हैं उन्हें जब वह निडर होकर अपनी कविता में प्रकट करता है तभी उसका असर लोगों पर पूरा-पूरा पड़ता है। बनावट से कविता बिगड़ जाती है। किसी राजा या किसी व्यक्ति विशेष के गुण-दोषोको देख कर कवि के मन में जो भाव उद्भूत हों उन्हे यदि वह बेरोक-टोक प्रकट कर दे तो उसकी कविता हृदयद्रावक हुए बिना ना रहे, परन्तु परतन्त्रता या पुरस्कार प्राप्ती या और किसी कारण से, यदि उसे अपने मन की बात कहने का साहस नहीं होता तो, कविता का रस जरूर कम हो जाता है।इस दशा से अच्छे कवियों की भीरविता नीरस, अतएव प्रभावहीन हो जाती है। सामाजिक और राजनीतिक बिषयों में कटु होने के कारण, सच कहना भी जहॉं मना है वहॉं इन बिषयों पर कविता करने वाले कवियों के उक्तियों का प्रभाव क्षीण हुए बिना नहीं रहता। कवि के लिए कोई रोक न होनी चाहिए अथवा जिस बिषय पर रोक हो उस बिषय पर कवित ही न लिखनी चाहिए। नदी, तालाब, वन, पर्वत, फूल, पत्ती, गरमी, सरदी आदि के ही वर्णन से उसे संतोष करना उचित है।
खुशामद के जमाने में कविता की बुरी हालत होती है। जो कवि राजों नबाबों या बादशाहों के आश्रय में रहते हैं, अथवा उनको खुश करने के इरादे से कविता करते हैं, उनको खुशामद करनी पड़ती है। वे अपने आश्रयदाताओं की इतनी प्रशंसा करते हैं,इतनी स्तुति करते हैं कि उनकी उक्तियाँ असलियत से बहुत दूर जा पड़ती हैं। ससे कविता को बहुत हानि पहुँचती है। विशेष करके शिक्षित और सभ्य देशों में कवि का काम प्रभावोत्पादक रीति से यथार्थ घटनाओं का वर्णन करना है। आकाश-कुसुमों के गुलदस्ते तैयार करना नहीं। अलंकार शास्त्र के आचार्यों ने अतिशयोक्त एक अलंकार जरूर माना है परन्तु अभावोक्तियाँ भी क्या कोई अलंकार है, किसी कवि की बेसिर-पैर की बातें सुनकर किस समझदार आदमी को आनन्द-प्राप्ति हो सकती है¿ जिस समाज के लोग अपनी झूठी प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते हैं वह समाज कभी प्रशंसनीय नहीं समझा जाता ।
           कारणवश अमीरों की झूठी प्रशंसा करने,अथवा किसी एक की विषय की कविता में कवि समुदाय के आमरण लगे रहने से कविता की सीमा कटछँट कर बहुत थोड़ी रह जाती है। इस तरह की कविता उर्दू में बहुत अधिक है। यदि यह कहें कि आशिकाना (श्रृंगारिक) कविता के सिवा और तरह की कविता उर्दू में है ही नहीं,तो बहुत बड़ी अत्युक्ति न होगी। किसी दीवान को उठाइए, किसी मसनबी को उठाइए,आशिक-माशूकों को रंगीन रहस्यों से आप उसे आरम्भ से अन्त तक रंगी हुई पाइएगा। इश्क भी यदि सच्चा हो तो कविता में कुछ असलियत आ सकती है। पर क्या कोई कह सकता है कि आशिकाना शेर कहने वालों का सारा रोना, कराहना,ठंडी साँसे लेना,जीते जी अपनी कब्रों पर चिराग जलाना सब सच है¿ सब न सही,उनके प्रलापों का क्या थोड़ा सा भी अंश सच है¿ फिर,इस तरह की कविता सैकड़ों वर्षों से होती आ रही है। अनेक कवि हो चुके,जिन्होंने इस विषय पर न मालूम क्या-क्या लिख डाला है। इस दशा में नये कवि अपनी कविता में नयापन कैसे ला सकते हैं¿ वही तुक,वही छन्द, वही शब्द, वही उपमा, वही रूपक। इस पर भी लोग पुरानी लकीर को बराबर पीटते जाते हैं। कवित्त,सवैये,घनाक्षरी,दोहे-सोरठे लिखने से बाज नहीं आते। नख-शिख, नायिका-भेद,अलंकारशास्त्र पर पुस्तकों पर पुस्तकें लिखते चले जाते हैं।अपनी व्यर्थ बनावटी बातों से देवी-देवताओं तक को बदनाम करने से नहीं सकुचाते। फल इसका यह हुआ है कि कविता की असलियत काफूर हो गई है। उसे सुनकर सुनने वाले के चित्त पर कुछ भी असर नहीं होता उल्टा कभी मन में घृणा का द्रेक अवश्य उत्पन्न हो जाता है।
          साहित्य के बिगड़ने और उसकी सीमा परिमित हो जाने से साहित्य पर भारी आघात होता है। यह बरबाद हो जाता है। भाषा में दोष आ जाता है। जब कविता की प्रणाली बिगड़ जाती है तब उसका असर सारे ग्रन्थकारों पर पड़ता है। यही क्यों,साधारण तक की बोलचाल तक में कविता के दोष आ जाते हैं। जिन शब्दों जिन भावों, जिन उक्तियों का प्रयोग कवि करते हैं उन्हीं का प्रयोग और लोग भी करने लगते हैं। भाषा और बोलचाल के सम्बन्ध में कवि ही प्रमाण माने जाते हैं, कवियों ही के प्रयुक्त शब्दों और मुहावरों को कोशकार अपने कोशों में रखते हैं, मतलब यह है कि भाषा और बोलचाल का बनना और बिगड़ना प्रायः कवियों के हाथ में ही रहता है। जिस भाषा के कवि अपनी कविता में बुरे शब्द और बुरे भाव भरते रहते हैं, उस भाषा की उन्नति तो होती नहीं, उल्टी अवनति हो जाती है ।
          कविता प्रणाली के बिगड़ जाने पर कोई नए तरह की स्वाभाविक कविता करने लगता है तो लोग उसकी निन्दा करते हैं। कुछ नासमझ और नादान आदमी कहते हैं यह बड़ी भद्दी कविता है। कुछ कहते है यह कविता ही नहीं। कुछ कहते है कि यह कविता तो छन्दोदिवाकर में दिये लक्षणों में च्युत है अतएव यह निर्दोष नही। बात यह है कि जिसे अब तक कविता कहते आते हैं वहीं उनकी समझ में कविता है और सब कोरी काँव-कांव। इसी तरह की नुक्ताचीनी से तंग आकर अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि गोल्डस्मिथ ने अपनी कविता को संबोधन करके उसकी सान्तवना की  है वह कहता है कविते यह बेकदरी का जमाना है। लोगों के चित्त तेरी तरफ खिंचने तो दूर रहे उल्टी सब कहीं तेरी निन्दा होती है। तेरी बदौलत सभा समाजों और जलसों में मुझे लज्जित होना प़ड़ता है । पर जब मैं अकेला होता हूं तो तब तुझपर मैं घमण्ड करता हूँ। याद रख तेरी उत्पत्ति स्वाभाविक है जो लोग अपने प्राकृतिक बल पर भरोसा रखते हैं वे निर्धन होकर भी आनन्द से रह सकते हैं पर अप्राकृतिक बल पर किया गया गर्व कुछ दिन बाद जरूर चूर्ण हो जाता है।
                   गोल्डस्मिथ ने इस विषय में बहुत कुछ कहा है पर हमने उसके कथन का सारांश बहुत ही थोड़े शब्दों में दे दिया है। इससे प्रकट है कि नई कविता प्रणाली पर भृकुटी टेढ़ी करने वाले कवि प्रकाण्डों के कहने की कुछ भी परवाह न करके अपने स्वीकृत पथ से जरा भी इधर-उधर होना उचित नहीं। कई बातों से घबराना और उनके पक्षपातियों की निन्दा करना मनुष्य का स्वभाव सा ही हो गया है। अतएव नयी भाषा और नयी कविता पर यदि कोई नुक्ताचीनी करे तो कोई आश्चर्य नहीं।
          आजकल लोगों ने कविता और पद्य को एक ही चीज समझ रखा है यह भ्रम है। कविता और पद्य में वहीं भेद है जो अंग्रेजी की पोयेट्री और वर्स में है। किसी प्रभावोत्पादक और मनोरंजन लेख बात या वक्तृता का नाम कविता है और नियमानुसार तुली हुयी सतरों का नाम पद्य है । जिस पद्य को पढ़ने या सुनने से चित्त पर असर नहीं होता यह कविता नहीं वह नपी-तुली शब्दस्थापना मात्र है। गद्य और पद्य दोनों में कविता हो सकती है। तुकबन्दी और अनुप्रास कविता के लिए अपरिहार्य नहीं। संस्कृत का प्रायः सारा पद्य समूह बिना तुकबन्दी का है और संस्कृत से बढ़कर कविता शायद ही किसी और भाषा में हो। अरब में भी सैकडों अच्छे-अच्छे कवि हो गये हैं। वहाँ भी शुरू-शुरू में तुकबन्दी का बिलकुल ख्याल न था। अंग्रेजी में भी अनुप्रास हीन बेतुकी कविता होती है। हाँ एकबात जरूर है कि वजन और काफिये से कविता अधिक चित्ताकर्षक हो जाती है। पर कविता के लिए ये बातें ऐसी ही है जैसे कि शरीर के लिए वस्त्राभरण। यदि कविता का प्रधान धर्म मनोरंजकता और प्रभावोत्पादकता उसमें न हो तो इसका होना निष्फल समझना चाहिए। पद्य के काफिये वगैरह की जरूरत है कविता के लिए नहीं। कविता के लिए तो ये बाते एक प्रकार से उल्टा हानिकारक है। तुले हुए शब्दों में कविता करने और तुक अनुप्रास आदि ढ़ूढ़ने से कवियों के विचार स्वातत्र्य में बड़ी बाधा आती है। पद्य के नियम कवि के लिए एक प्रकार की बेड़या हैं। उनके जकड़ जाने से कवियों को अपने स्वाभाविक उड़ान में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कवि का काम है कि वह अपने मनोभावों को स्वाधीनतापूर्वक प्रकट करें पर काफिये और वजन उसकी स्वाधीनता में विघ्न डालते हैं। वे उसे अपने भावों को स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट होने देते। काफिये और वजन को पहले ढूंढ़कर कवि को मनोभाव तदनुकूल गढ़ने पड़ते हैं। इसका यह मतलब हुआ कि प्रधान बात अप्रधानता को प्राप्त हो जाती है और एक बहुत ही गौण बात प्रधानता के आसन पर जा बैठती है। इससे कवि अपने भाव स्वतंत्रतापूर्वक नहीं प्रकट कर सकता। फल यह होता है कि कवि की कविता का असर कम हो जाता है। कभी-कभी तो यह बिलकुल ही जाता रहता है। अब आप ही कहिये कि जो वजन और काफिया कविता के लक्षण का कोई अंश नही उन्हे ही प्रधानता देना भारी भूल है या नहीं।
          कवि का सबसे बड़ा गुण नई-नई बातों का सूझना है। उसके लिए कल्पना की बड़ी जरूरत है। जिसमें जितनी अधिक यह शक्ति होगी वह उतनी ही अच्छी कविता लिख सकेगा। कविता के लिए उपज चाहिए, नये-नये भावों की उपज जिसके हृदय में ही नहीं वह कभी अच्छी कविता नही लिख सकता। यें बातें प्रतिभा की बदौलत होती है। इस लिए संस्कृत वालों ने प्रतिभा को प्रधानता दी है। प्रतिभा ईश्वरदत्त होती है। अभ्यास से वह नहीं प्राप्त होती है। इसी की बदौलत वह भूत और भविष्यत् को हस्तामलकवत् देखता है, वर्तमान की तो कोई बात ही नहीं। इसी की कृपा से वह सांसारिक बातों को एक अजीव निराले ढंग से बयान करता है जिसे सुनकर सुनने वाले के हृदयोदधि में नाना प्रकार के सुख, दुःख, आश्चर्य आदि विकारों की लहरें उठने लगती हैं। कवि कभी-कभी ऐसी अद्भुत बातें कह देते हैं कि जो कवि नहीं है उनकी पहुँच वहाँ तक कभी हो ही नहीं सकती।
  कवि का काम है कि वह प्राकृतिक विकास को खूब ध्यान से देखे। प्रकृति की लीला का कोई ओर-छोर नहीं। वह अनन्त है। प्रकृति अदभुत-अदभुत खेल खेला करती है। एक छोटे से फूल में वह अजीब-अजीब कौशल दिखाती है। वे साधारण आदमियों के ध्यान में नही आते। वे उनको समझ ही नहीं सकते। पर कवि अपनी सूक्ष्म दृष्टि से प्रकृति के कौशल अच्छी तरह देख लेता है, उनका वर्णन भी करता है उससे नाना प्रकार की शिक्षा भी ग्रहण करता है और अपनी कविता के द्वारा संसार को लाभ भी पहुँचाता है। जिस कवि में प्राकृतिक दृश्य औऱ प्रकृति के कौशल देखने और समझने का जितना भी अधिक ज्ञान होता है वह उतना बड़ा कवि भी होता है। कवि-कुल-गुरू कासिदास में विश्व-विख्यात काव्य रघुवंश तथा कविवर बिहारी लाल की सतसई से, विषय का, एक-एक प्रत्युदाहरण सुनिए-
इक्षुच्छायनिषादिन्यस्तस्य गोप्तुर्गुणोदयम्।
आकुमारकखोद्घातं शालिगोप्यो जगुर्यशः।।
-रघुवंश
रघु की दिग्विजय यात्रा के उपोद्घात में शरदृतु का वर्णन करते हुए कवि कहता है कि ईख की छाया में बैठी हुई धान रखाने वाली स्त्रियाँ रघ का यश गाती थां। शरत् काल में जब धान के खेत पकते है, तब ईख इतनी-इतनी बड़ी हो जाती है कि उसकी छाया में हैठकर खेत रखा सकें। ईख और धान के खेत प्रायः पास ही पास हुआ करते हैं। कवि को ये सब बाते विदित थीं। श्लोक में इस दशा का-इस वास्तविक घटना का चित्र सा खींच दिया गया है। शलोक पढ़ते ही वह समाँ आँखों में फिरने लगता है।
  महाराजाधिराज विक्रमादित्य के सखा राजसी ठाठ से रहने वाले कालिदास ने गरीब किसानों की, नगर से दूर जंगल में सम्बन्ध रखने वाली एक वास्तविक घटना का कैसा मनोहर चित्र उतारा है। यह उसके प्रकृति पर्यायलोचक होने का दृढ़ प्रमाण है। दूसरा प्रत्युदाहरण-
सन सूक्यौ बीत्यौ बनौ ऊखौ लई उखरि।
हरी-हरी अरहर अजौं धर घर हर हिय नारि।।
-सतसई
पहले सन सूखता है, फर बन-बाड़ी या कपास के खेत की बहार खत्म होती है। पुनः ईख उखड़ने की बारी आती है और इन सबसे पीछे गेहुँओं के साथ तक अरहर हरी-भरी खड़ी रहती है।
प्रकृति पर्य्यालोचना के सिवा कवि को मानव स्वभाव की आलोचना का अभ्यास करना चाहिए। उसकी दशा कभी एक सी नहीं रहती। अनेक प्रकार के विकार तरंग उसके मन में उठा ही करते है। इन विकारों की जाँच ज्ञान और अनुभव करना सबका काम नहीं। केवल कवि ही इनके अनुभव करने और कविता द्वारा औरों को इनका अनुभव कराने में समर्थ होता है। जिसे कभी पुत्र शोक नहीं हुआ उसे उस शोक का यथार्थ ज्ञाना होना सम्भव नहीं। पर यदि वह कवि है तो वह पुत्र शोकाकुल पिता या माता की आत्मा में प्रवेश सा करके उसका अनुभव कर लेता है।उस अनुभव का वह इस तरह वर्णन करता है कि सुनने वाला तन्मनस्क होकर उस दुःख से अभिभूत हो जाता है। उसे ऐसा मालूम होने लगता है कि स्वयं उसी पर वह दुःख पड़ रहा है। जिस कवि को मनोविकारों और प्राकृतिक बातों का यथेष्ट ज्ञान नहीं वह कदापि अच्छा कवि नहीं हो सकता।
          कविता को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए उचित शब्द-स्थापना की भी बड़ी जरूरत होती है। किसी मनो-विकार या दृश्य के वर्णन में ढूँढ़-ढूढ़ कर ऐसे शब्द रखने चाहिए जो सुनने वालों की आँखों के सामने वर्ण्य विषय का चित्र सा खींच दे। मनोभाव चाहे कैसा ही अच्छा क्यों न हो,यदि वह तदनुकूल शब्दों में न प्रकट किया गया तो उसका असर यदि जाता नहीं रहता तो कम जरूर हो जाता है। इसीलिए कवि को चुन-चुन कर ऐसे शब्द रखने चाहिए और इस क्रम से रखने चाहिए,जिससे उसके मन का भाव पूरे तौर पर व्यक्त हो जाय। उस पर कसर न पड़े। मनोभाव शब्दों ही के द्वारा व्यक्त होता है। अतएव युक्तिसंगत शब्द स्थापना के बिना कवि की कविता तादृश्य जानता अथवा यों कहिए कि उसके पास काफी शब्द समूह नहीं है कि किस शब्द में उनका भाव प्रकट करने की एक बाल भर की कमी होती है,उसका वे कभी प्रयोग नहीं करते। आजकल पद्य रचनाकर्ता महाशयों को इस बात का बहुत कम ख्याल रहता है इसी से उनकी कविता,यदि अच्छे भाव से भरी हुई भी हो तो भी बहुत कम असर पैदा करती है। जो कवि प्रति पंक्ति में, निरर्थक सु,जु और रु का प्रयोग करता है,वह मानों इस बात का खुद ही सार्टिफिकेट दे रहा है कि मेरे अधिकृत शब्दकोष में शब्दों की कमी है। ऐसे कवियों की कविता सर्व-सम्मत और प्रभावोत्पादक नहीं हो सकती।
          अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि मिल्टन ने कविता के तीन गुण वर्णन किये हैं। उनकी राय है कि कविता सादी हो,जोश से भरी हो और असलियत से गिरी हुयी न हो ।
         सादगी से यह मतलब नहीं कि सिर्फ शब्द-समूह ही सादा हो, किन्तु विचार परम्परा भी सादी हो, भाव और विचार ऐसे सूक्ष्म और छिपे हुए न हों कि उनका मतलब समझ में न आवे, या देर से समझ आवे। यदि कविता में कोई ध्वनि हो तो इतनी दूर की न हो जो उसे समझने में गहरे विचार की जरूरत हो। कविता पढ़ने या सुनने वाले को ऐसी साफ-सुथरी सड़क मिलनी चाहिए जिस पर कंकड़, पत्थर, टीले, खंदक, काँटे और झाड़ियों का नाम न हो। वह खूब साफ और हमवाय हो, जिससे उस परचलने वाला आराम से चला जाय। जिस तरह सड़क जरा भी ऊँची-नीची बाइसिकल (पैरगाड़ी) के सवार को दचके लगते हैं, उसी तरह यदि कविता की सड़क यदि थोड़ी भी नाहमवार हुई तो पढ़ने वाले के हृदय पर धक्का लगे बिना नहीं रहता। कविता रूपी सड़क के इधर-उधर स्वच्छ पानी के नदी-नाले बहते हों, दोनो तरफ फल-फूलों से लदे हुए पेड़ हों, जगह-जगह पर विश्राम करने योग्य स्थान बने हों, प्राकृतिक दृश्यों की नई-नई झाँकियाँ आँखों को लुभाती हों। दुनिया में आजतक जितने भी अच्छे-अच्छे कवि हुए हैं उनकी कविता ऐसी ही देखी गयी है। अटपटे भाव और अटपटे शब्द प्रयोग करने वाले कवियों की कद्र नहीं हुयी। यदि कभी किसी की कुछ हुयी भी है तो थोड़े ही दिनों तक ऐसे कवि विस्मृत के अन्धकार में ऐसे छुप गये हैं कि इस समय उनका कोई नाम तक नहीं जानता । एकमात्र सूची शब्द झंकार की जिन कवियों की करामात है उन्हे चाहिए कि वे एकदम ही बोलना बन्द कर दें।
                   भाव चाहे कैसा ही ऊँचा क्यों न हो, पेचीदा न होना चाहिए। वह ऐसे शब्दों के द्वारा प्रकट किया जाना चाहिए जिनसे सब लोग परिचित हों। मतलब यह कि भाषा बोलचाल की हो। क्योंकि कविता की भाषा बोलचाल से जितनी ही अधिक दूर जा पड़ती है,उतनी ही उसकी सादगी कम हो जाती है । बोलचाल से मतलब उस भाषा से है जिसे खास और आम सब बोलते हैं विद्वान और अविद्वान दोनों जिसे काम में लाते हैं। इसी तरह कवि को मुहावरों का भी ख्याल रखना चाहिए जो मुहाविरा सर्वसम्मत है,उसी का प्रयोग करना चाहिए। हिन्दी और उसमें कुछ शब्द अन्य भाषाओं के भी आ गए हैं। वे यदि बोलचाल के हैं तो उनका प्रयोग सदोष नहीं माना जा सकता। उन्हें त्याज्य नहीं समझना चाहिए। कोई-कोई ऐसे शब्दों को उनके मूल रूप में लिखना ही सही समझते हैं पर यह उनकी भूल है। जब अन्य भाषा का कोई शब्द किसी और भाषा में आ जाता है,तब वह उसी भाषा का हो जाता है। अतएव उसे उसकी मूल भाषा के रूप में लिखते जाना ही भाषा विज्ञान के नियमों के खिलाफ है।
          असलियत से मतलब नहीं कि कविता एक प्रकार का इतिहास समझा जाय और हर बात में सच्चाई का ख्याल रखा जाय। यह नहीं कि सच्चाई की कसौटी पर यदि कुछ भी कसर मालूम हो तो कविता का वितापन जाता रहे । असलियत से सिर्फ इतना ही मतलब है कि कविता बेबुनियाद न हो, उसमें जो उक्ति हो वह मानवी मनोविकारों और प्राकृतिक नियमों के आधार पर कही गई हो। स्वाभाविकता से उसका लगाव न छूटा हो। क्योंकि स्वाभाविक अर्थात नेचुरल(Natural) उक्तियाँ ही सुनने वाले के हृदय पर असर कर सकती हैं,अस्वाभाविक नहीं। असलियत को लिए हुए कवि स्वतंत्रतापूर्वक जो चाहे कह सकता है,असल बात को एक नये साँचे में ढाल कर कुछ दूर इधर-उधर भी उड़ान भर सकता है, पर असलियत के लगाव को वह नहीं छोड़ता। असलियत को हाथ से जाने देना मानो कविता को प्रायः निर्जीव कर डालना है। शब्द और अर्थ दोनों ही के सम्बन्ध में उसे स्वाभाविकता का अनुधावन करना चाहिए। जिस बात के कहने में लोग स्वाभाविक रीति का जैसे और जिस क्रम से शब्द प्रयोग करते हैं वैसे ही कवि को भी करना चाहिए। कविता में कोई बात ऐसी न कहनी चाहिए जो दुनिया में न होती हो। जो बाते हमेशा हुआ करती हैं अथवा जिन बातों का होना सम्भव है, वही स्वाभाविक हैं।
          जोश से मतलब है कि कवि जो कहे इस तरह कहे मानों उसके प्रयुक्त शब्द आप ही आप उसके मुँह से निकल गये हैं। उनसे बनावट न जाहिर हो। यह न मालूम हो कि कवि ने कोशिक करके यह बाते कही हैं,किन्तु यह मालूम हो कि उसके हृदयगत भावों ने कविता के रूप में अपने को प्रकट कराने के लिए उसे विवश किया है। जो कवि है,उसमें जोश स्वाभाविक होता है। वर्ण्य वस्तु को देखकर,किसी अदृश्य शक्ति की प्रेरणा से वह उस पर कविता करने के लिए विवश सा हो जाता है। उसमें एक अलौकिक शक्ति पैदा हो जाती है। इसी शक्ति के बल से वह सजीव ही नहीं निर्जीव चीजों तक का वर्णन ऐसे प्रभावोत्पादक ढंग से करता है कि यदि उन चीजों में बोलने की शक्ति होती तो खुद वे भी उससे अच्छा वर्णन न कर सकतीं।
                   सादगी,असलियत और जोश यदि ये तीनों गुण कविता में हो तो कहना ही क्या है परन्तु बहुधा अच्छी कविता में भी इनमें से एकाध गुण की कमी पाई जाती है। कभी-कभी देखा जाता है कि कविता में केवल जोश रहता है,सादगी और असलियत नहीं। परन्तु बिना असलियत के जोश का होना बहुत कठिन है। अतएव कवि को असलियत का सबसे अधिक ध्यान रखना चाहिए।
                   अच्छी कविता की सबसे बड़ी परीक्षा यह है कि उसे सुनते ही लोग बोल उठें कि सच कहा। वही कवि सच्चे कवि हैं,जिनकी कविता सुनकर लोगों के मुँह से सहसा यह उक्ति निकलती है, ऐसे कवि धन्य हैं और जिस देश में ऐसे कवि पैदा होते हैं वह देश भी धन्य है। ऐसे ही कवियों की कविता चिरकाल तक जीवित रहती है।

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आचरण की सभ्यता-सरदार पूर्ण सिंह




विद्या, कला, कविता, साहित्‍य, धन और राजस्‍व से भी आचरण की सभ्‍यता अधिक ज्‍योतिष्‍मती है। आचरण की सभ्‍यता को प्राप्‍त करके एक कंगाल आदमी राजाओं के दिलों पर भी अपना प्रभुत्‍व जमा सकता है। इस सभ्‍यता के दर्शन से कला, साहित्य, और संगीत को अद्भुत सिद्धि प्राप्‍त होती है। राग अधिक मृदु हो जाता है; विद्या का तीसरा शिव-नेत्र खुल जाता है, चित्र-कला का मौन राग अलापने लग जाता है; वक्‍ता चुप हो जाता है; लेखक की लेखनी थम जाती है; मूर्ति बनाने वाले के सामने नये कपोल, नये नयन और नयी छवि का दृश्‍य उपस्थित हो जाता है।
            आचरण की सभ्‍यतामय भाषा सदा मौन रहती है। इस भाषा का निघण्‍टु शुद्ध श्‍वेत पत्रों वाला है। इसमें नाममात्र के लिए भी शब्‍द नहीं। यह सभ्‍याचरण नाद करता हुआ भी मौन है, व्‍याख्‍यान देता हुआ भी व्‍याख्‍यान के पीछे छिपा है, राग गाता हुआ भी राग के सुर के भीतर पड़ा है। मृदु वचनों की मिठास में आचरण की सभ्‍यता मौन रूप से खुली हुई है। नम्रता, दया, प्रेम और उदारता सब के सब सभ्‍याचरण की भाषा के मौन व्‍याख्‍यान हैं। मनुष्‍य के जीवन पर मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव चिरस्‍थायी होता है और उसकी आत्मा का एक अंग हो जाता है।
            न काला, न नीला, न पीला, न सफेद, न पूर्वी, न पश्चिमी, न उत्‍तरी, न दक्षिणी, बे-नाम, बे-निशान, बे-मकान, विशाल आत्‍मा के आचरण से मौन रूपिणी, सुगन्धि सदा प्रसारित हुआ करती है; इसके मौन से प्रसूत प्रेम और पवित्रता-धर्म सारे जगत का कल्‍याण करके विस्‍तृत होते हैं। इसकी उपस्थिति से मन और हृदय की ऋतु बदल जाते हैं। तीक्ष्‍ण गरमी से जले भुने व्यक्ति आचरण के काले बादलों की बूँदाबाँदी से शीतल हो जाते हैं। मानसोत्‍पन्‍न शरद ऋतु क्‍लेशातुर हुए पुरुष इसकी सुगंधमय अटल वसंत ऋतु के आनंद का पान करते हैं। आचरण के नेत्र के एक अश्रु से जगत भर के नेत्र भीग जाते हैं। आचरण के आनंद-नृत्‍य से उन्‍मदिष्‍णु होकर वृक्षों और पर्वतों तक के हृदय नृत्‍य करने लगते हैं। आचरण के मौन व्‍याख्‍यान से मनुष्‍य को एक नया जीवन प्राप्‍त होता है। नये-नये विचार स्वयं ही प्रकट होने लगते हैं। सूखे काष्‍ठ सचमुच ही हरे हो जाते हैं। सूखे कूपों में जल भर आता है। नये नेत्र मिलते हैं। कुल पदार्थों के साथ एक नया मैत्री-भाव फूट पड़ता है। सूर्य, जल, वायु, पुष्‍प, पत्‍थर, घास, पात, नर, नारी और बालक तक में एक अश्रुतपूर्व सुंदर मूर्ति के दर्शन होने लगते हैं।
            मौनरूपी व्‍याख्‍यान की महत्ता इतनी बलवती, इतनी अर्थवती और इतनी प्रभाववती होती है कि उसके सामने क्‍या मातृभाषा, क्‍या साहित्‍यभाषा और क्‍या अन्‍य देश की भाषा सब की सब तुच्‍छ प्रतीत होती हैं। अन्‍य कोई भाषा दिव्‍य नहीं, केवल आचरण की मौन भाषा ही ईश्‍वरीय है। विचार करके देखो, मौन व्‍याख्‍यान किस तरह आपके हृदय की नाड़ी-नाड़ी में सुंदरता को पिरो देता है। वह व्‍याख्‍यान ही क्‍या, जिसने हृदय की धुन को - मन के लक्ष्‍य को - ही न बदल दिया। चंद्रमा की मंद-मंद हँसी का तारागण के कटाक्षपूर्ण प्राकृतिक मौन व्‍याख्‍यान का प्रभाव किसी कवि के दिल में घुसकर देखो। सूर्यास्‍त होने के पश्‍चात श्रीकेशवचंद्र सेन और महर्षि देवेंद्रनाथ ठाकुर ने सारी रात एक क्षण की तरह गुजार दी; यह तो कल की बात है। कमल और नरगिस में नयन देखने वाले नेत्रों से पूछो कि मौन व्‍याख्‍यान की प्रभुता कितनी दिव्‍य है।
                   प्रेम की भाषा शब्‍द-‍रहित है। नेत्रों की, कपोलों की, मस्‍तक की भाषा भी शब्‍द-रहित है। जीवन का तत्‍व भी शब्‍द से परे है। सच्‍चा आचरण - प्रभाव, शील, अचल-स्थित संयुक्‍त आचरण - न तो साहित्‍य के लंबे व्‍याख्‍यानों से गढ़ा जा सकता है; न वेद की श्रुतियों के मीठे उपदेश से; न अंजील से; न कुरान से; न धर्मचर्चा से; न केवल सत्‍संग से। जीवन के अरण्‍य में धंसे हुए पुरुष पर प्रकृति और मनुष्‍य के जीवन के मौन व्‍याख्‍यानों के यत्‍न से सुनार के छोटे हथौड़े की मंद-मंद चोटों की तरह आचरण का रूप प्रत्‍यक्ष होता है।
            बर्फ का दुपट्टा बांधे हुए हिमालय इस समय तो अति सुंदर, अति ऊंचा और अति गौरवान्वित मालूम होता है; परंतु प्रकृति ने अगणित शताब्दियों के परिश्रम से रेत का एक-एक परमाणु समुद्र के जल में डुबो-डुबोकर और उनको अपने विचित्र हथौड़े से सुडौल करके इस हिमालय के दर्शन कराये हैं। आचरण भी हिमालय की तरह एक ऊंचे कलश वाला मंदिर है। यह वह आम का पेड़ नहीं जिसको मदारी एक क्षण में, तुम्‍हारी आँखों में मिट्टी डालकर, अपनी हथेली पर जमा दे। इसके बनने में अनंत काल लगा है। पृथ्‍वी बन गयी, सूर्य बन गया, तारागण आकाश में दौड़ने लगे; परंतु अभी तक आचरण के सुंदर रूप के पूर्ण दर्शन नहीं हुए। कहीं-कहीं उसकी अत्‍यल्‍प छटा अवश्‍य दिखाई देती है।
            पुस्‍तकों में लिखे हुए नुसखों से तो और भी अधिक बदहजमी हो जाती है। सारे वेद और शास्‍त्र भी यदि घोलकर पी लिए जायँ तो भी आदर्श आचरण की प्राप्ति नहीं होती। आचरण की प्राप्ति की इच्‍छा रखने वाले को तर्क-वितर्क से कुछ भी सहायता नहीं मिलती। शब्‍द और वाणी तो साधारण जीवन के चोचले हैं। ये आचरण की गुप्‍त गुहा में नहीं प्रवेश कर सकते। वहां इनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता। वेद इस देश के रहने वालों के विश्‍वासानुसार ब्रह्मवाणी है, परंतु इतना काल व्‍यतीत हो जाने पर भी आज तक वे समस्‍त जगत की भिन्‍न-भिन्‍न जातियों को संस्‍कृत भाषा न बुला सके - न समझा सके - न सिखा सके। यह बात हो कैसे? ईश्‍वर तो सदा मौन है। ईश्‍वरीय मौन शब्‍द और भाषा का विषय नहीं। यह केवल आचरण के कान में गुरुमंत्र फूँक सकता है। वह केवल ऋषि के दिल में वेद का ज्ञानोदय कर सकता है।
            किसी का आचरण वायु के झोंके से हिल जाय, तो हिल जाय, परंतु साहित्‍य और शब्‍द की गोलन्‍दाजी और आंधी से उसके सिर के एक बाल तक का बाँका न होना एक साधारण बात है। पुष्‍प की कोमल पंखुड़ी के स्‍पर्श से किसी को रोमांच हो जाय; जल की शीतलता से क्रोध और विषय-वासना शांत हो जायँ; बर्फ के दर्शन से पवित्रता आ जाय; सूर्य की ज्‍योति से नेत्र खुल जायँ - परंतु अंगरेजी भाषा का व्‍याख्‍यान - चाहे वह कारलायल ही का लिखा हुआ क्‍यों न हो - बनारस में पंडितों के लिए रामलीला ही है। इसी तरह न्‍याय और व्‍याकरण की बारीकियों के विषय में पंडितों के द्वारा की गई चर्चाएँ और शास्‍त्रार्थ संस्‍कृत-ज्ञान-हीन पुरुषों के लिए स्‍टीम इंजिन के फप्-फप् शब्‍द से अधिक अर्थ नहीं रखते। यदि आप कहें व्‍याख्‍यानों के द्वारा, उपदेशों के द्वारा, धर्मचर्चा द्वारा कितने ही पुरुषों और नारियों के हृदय पर जीवन-व्‍यापी प्रभाव पड़ा है, तो उत्तर यह है कि प्रभाव शब्‍द का नहीं पड़ता - प्रभाव तो सदा सदाचरण का पड़ता है। साधारण उपदेश तो, हर गिरजे, हर मंदिर और हर मस्जिद में होते हैं, परंतु उनका प्रभाव तभी हम पर पड़ता है जब गिरजे का पादड़ी स्‍वयं ईसा होता है - मंदिर का पुजारी स्‍वयं ब्रह्मर्षि होता है - मसजिद का मुल्‍ला स्‍वयं पैगंबर और रसूल होता है।
            यदि एक ब्राह्मण किसी डूबती कन्‍या की रक्षा के लिए - चाहे वह कन्‍या जिस जाति की हो, जिस किसी मनुष्‍य की हो, जिस किसी देश की हो - अपने आपको गंगा में फेंक दे - चाहे उसके प्राण यह काम करने में रहें चाहे जायं - तो इस कार्य में प्रेरक आचरण की मौनमयी भाषा किस देश में, किस जाति में और किस काल में, कौन नहीं समझ सकता? प्रेम का आचरण, दया का आचरण - क्‍या पशु क्‍या मनुष्‍य - जगत के सभी चराचर आप ही आप समझ लेते हैं। जगत भर के बच्‍चों की भाषा इस भाष्‍यहीन भाषा का चिह्न है। बालकों के इस शुद्ध मौन का नाद और हास्‍य ही सब देशों में एक ही सा पाया जाता है।
            मनुष्‍य का जीवन इतना विशाल है कि उसमें आचरण को रूप देने के लिए नाना प्रकार के ऊंच-नीच और भले-बुरे विचार, अमीरी और गरीबी, उन्‍नति और अव‍नति इत्‍यादि सहायता पहुंचाते हैं। पवित्र अपवित्रता उतनी ही बलवती है, जितनी कि पवित्र और पवित्रता। जो कुछ जगत में हो रहा है वह केवल आचरण के विकास के अर्थ हो रहा है। अंतरात्‍मा वही काम करती है जो बाह्य पदार्थों के संयोग का प्रतिबिंब होता है। जिनको हम पवित्रात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन कूपों से निकलकर वे अब उदय को प्राप्‍त हुए हैं। जिनको हम धर्मात्‍मा कहते हैं, क्‍या पता है, किन-किन अधर्मों को करके वे धर्म-ज्ञान पा सके हैं। जिनको हम सभ्‍य कहते हैं और जो अपने जीवन में पवित्रता को ही सब कुछ समझते हैं, क्‍या पता है, वे कुछ काल पूर्व बुरी और अधर्म अपवित्रता में लिप्‍त रहे हों? अपने जन्‍म-जन्‍मांतरों के संस्‍कारों से भरी हुई अंधकारमय कोठरी से निकल ज्‍योति और स्‍वच्‍छ वायु से परिपूर्ण खुले हुए देश में जब तक अपना आचरण अपने नेत्र न खोल चुका हो तब तक धर्म के गूढ़ तत्‍व कैसे समझ में आ सकते हैं। नेत्र-रहित को सूर्य से क्‍या लाभ? कविता, साहित्‍य, पीर, पैगंबर, गुरु, आचार्य, ऋषि आदि के उपदेशों से लाभ उठाने का यदि आत्‍मा में बल नहीं तो उनसे क्‍या लाभ? जब तक यह जीवन का बीज पृथ्‍वी के मल-मूत्र के ढेर में पड़ा है, अथवा जब तक वह खाद की गरमी से अंकुरित नहीं हआ और प्रस्‍फुटित होकर उससे दो नये पत्ते ऊपर नहीं निकल आये, तब तक ज्‍योति और वायु किस काम के?
            वह आचरण ही धर्म-संप्रदायों के अनुच्‍चारित शब्‍दों को सुनाता है, हम में कहां? जब वही नहीं तब फिर क्‍यों न ये संप्रदाय हमारे मानसिक महाभारतों का कुरुक्षेत्र बनें? क्‍यों न अप्रेम, अपवित्र, हत्‍या और अत्‍याचार इन संप्रदायों के नाम से हमारा खून करें। कोई भी संप्रदाय आचरण-रहित पुरुषों के लिए कल्‍याणकारक नहीं हो सकता और आचरण वाले पुरुषों के लिए सभी धर्म-संप्रदाय कल्‍याणकारक हैं। सच्‍चा साधु धर्म को गौरव देता है, धर्म किसी को गौरवान्वित नहीं करता।
            आचरण का विकास जीवन का परमोद्देश्‍य है। आचरण के विकास के लिए नाना प्रकार की सामाग्रियों का, जो संसार-संभूत शारीरिक, प्राकृतिक, मानसिक और आध्‍यात्मिक जीवन में वर्तमान हैं, उन सबकी (सबका) क्‍या एक पुरुष और क्‍या एक जाति के आचरण के विकास के साधनों के संबंध में विचार करना होगा। आचरण के विकास के लिए जितने कर्म हैं उन सबको आचरण के संघटनकर्ता धर्म के अंग मानना पड़ेगा। चाहे कोई कितना ही बड़ा महात्‍मा क्‍यों न हो, वह निश्‍चयपूर्वक यह नहीं कह सकता कि यों ही करो, और किसी तरह नहीं। आचरण की सभ्‍यता की प्राप्ति के लिए वह सब को एक पथ नहीं बता सकता। आचरणशील महात्‍मा स्‍वयं भी किसी अन्‍य की बनायी हुई सड़क से नहीं आया, उसने अपनी सड़क स्‍वयं ही बनायी थी। इसी से उसके बनाए हुए रास्‍ते पर चलकर हम भी अपने आचरण को आदर्श के ढाँचे में नहीं ढाल सकते। हमें अपना रास्‍ता अपने जीवन की कुदाली की एक-एक चोट से रात-दिन बनाना पड़ेगा और उसी पर चलना भी पड़ेगा। हर किसी को अपने देश-कालानुसार रामप्राप्ति के लिए अपनी नैया आप ही बनानी पड़ेगी और आप ही चलानी भी पड़ेगी।
            यदि मुझे ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो ऐसे ज्ञान से क्‍या प्रयोजन? जब तक मैं अपना हथौड़ा ठीक-ठीक चलाता हूँ और रूपहीन लोहे को तलवार के रूप में गढ़ देता हूं तब तक मुझे यदि ईश्‍वर का ज्ञान नहीं तो नहीं होने दो। उस ज्ञान से मुझे प्रयोजन ही क्‍या? जब तक मैं अपना उद्धार ठीक और शुद्ध रीति से किये जाता हूं तब तक यदि मुझे आध्‍यात्मिक पवित्रता का ज्ञान नहीं होता तो न होने दो। उससे सिद्धि ही क्‍या हो सकती है? जब तक किसी जहाज के कप्‍तान के हृदय में इतनी वीरता भरी हुई है कि वह महाभयानक समय में अपने जहाज को नहीं छोड़ता तब तक यदि वह मेरी और तेरी दृष्टि में शराबी और स्‍त्रैण है तो उसे वैसा ही होने दो। उसकी बुरी बातों से हमें प्रयोजन ही क्‍या? आँधी हो - बरफ हो - बिजली की कड़क हो - समुद्र का तूफान हो - वह दिन रात आँख खोले अपने जहाज की रक्षा के लिए जहाज के पुल पर घूमता हुआ अपने धर्म का पालन करता है। वह अपने जहाज के साथ समुद्र में डूब जाता है, परंतु अपना जीवन बचाने के लिए कोई उपाय नहीं करता। क्‍या उसके आचरणों का यह अंश मेरे तेरे बिस्‍तर और आसन पर बैठे-बिठाए कहे हुए निरर्थक शब्‍दों के भाव से कम महत्‍व का है?
            न मैं किसी गिरजे में जाता हूं और न किसी मंदिर में, न मैं नमाज पढ़ता हूं और न ही रोजा रखता हूं, न संध्या ही करता हूं और न कोई देव-पूजा ही करता हूं, न किसी आचार्य के नाम का मुझे पता है और न किसी के आगे मैंने सिर ही झुकाया है। तो इससे प्रयोजन ही क्‍या और इससे हानि भी क्‍या? मैं तो अपनी खेती करता हूं, अपने हल और बैलों को प्रात:काल उठकर प्रणाम करता हूं, मेरा जीवन जंगल के पेड़ों और पत्तियों की संगति में गुजरता है, आकाश के बादलों को देखते मेरा दिन निकल जाता है। मैं किसी को धोखा नहीं देता; हाँ यदि कोई मुझे धोखा दे तो उससे मेरी कोई हानि नहीं। मेरे खेत में अन्‍न उग रहा है, मेरा घर अन्‍न से भरा है, बिस्‍तर के लिए मुझे एक कमली काफी है, कमर के लिए लँगोटी और सिर के लिए एक टोपी बस है। हाथ-पाँव मेरे बलवान हैं, शरीर मेरा अरोग्‍य है, भूख खूब लगती है, बाजरा और मकई, छाछ और दही, दूध और मक्‍खन मुझे और बच्‍चों को खाने के‍ लिए मिल जाता है। क्‍या इस किसान की सादगी और सच्‍चाई में वह मिठास नहीं जिसकी प्राप्ति के लिए भिन्‍न-भिन्‍न धर्म संप्रदाय लंबी-चौड़ी और चिकनी-‍चुपड़ी बातों द्वारा दीक्षा दिया करते हैं?
            जब साहित्‍य, संगीत और कला की अति ने रोम को घोड़े से उतारकर मखमल के गद्दों पर लिटा दिया - जब आलस्‍य और विषय-विकार की लंपटता ने जंगल और पहाड़ की साफ हवा के असभ्‍य और उद्दंड जीवन से रोमवालों का मुख मोड़ दिया तब रोम न‍रम तकियों और बिस्‍तरों पर ऐसा सोया कि अब त‍क न आप जागा और न कोई उसे जगा सका। ऐंग्‍लोसेक्‍सन जाति ने जो उच्‍च पद प्राप्‍त किया बस उसने अपने समुद्र, जंगल और पर्वत से संबंध रखने वाले जीवन से ही प्राप्‍त किया। जाति की उन्‍नति लड़ने-भिड़ने, मरने-मारने, लूटने और लूटे जाने, शिकार करने और शिकार होने वाले जीवन का ही परिणाम है। लोग कहते हैं, केवल धर्म ही जाति की उन्‍नति करता है। यह ठीक है, परंतु यह धर्मांकुर जो जाति को उन्‍नत करता है, इस असभ्‍य, कमीने पापमय जीवन की गंदी राख के ढेर के ऊपर नहीं उगता है। मंदिरों और गिरजों की मंद-मंद टिमटिमाती हुई मोमबत्तियों की रोशनी से यूरप इस उच्‍चावस्‍था को नहीं पहुँचा। वह कठोर जीवन जिसको देश-देशांतरों को ढूँढ़ते फिरते रहने के बिना शांति नहीं मिलती; जिसकी अंतर्ज्‍वाला दूसरी जातियों को जीतने, लूटने, मारने और उन पर राज रकने के बिना मंद नहीं पड़ती - केवल वहीं विशाल जीवन समुद्र की छाती पर मूँग दलकर और पहाड़ों को फाँदकर उनको उस महानता की ओर ले गया और ले जा रहा है। राबिनहुड की प्रशंसा में जो कवि अपनी सारी शक्ति खर्च कर देते हैं उन्‍हें तत्‍वदर्शी कहना चाहिए, क्‍योंकि राबिनहुड जैसे भौतिक पदार्थों से ही नेलसन और वेलिंगटन जैसे अंगरेज वीरों की हड्डियां तैयार हुई थीं। लड़ाई के आजकल के सामान - गोला, बारूद, जंगी जहाज और तिजारती बेड़ों आदि - को देखकर कहना पड़ता है कि इनसे वर्तमान सभ्‍यता से भी कहीं अधिक उच्‍च सभ्‍यता का जन्‍म होगा।
            धर्म और आध्‍यात्मिक विद्या के पौधे को ऐसी आरोग्‍य-वर्धक भूमि देने के लिए, जिसमें वह प्रकाश और वायु सदा खिलता रहे, सदा फूलता रहे, सदा फलता रहे, यह आवश्‍यक है कि बहुत-से हाथ एक अनंत प्रकृति के ढेर को एकत्र करते रहें। धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रियों को सदा ही कमर बांधे हुए सिपाही बने रहने का भी तो यही अर्थ है। यदि कुल समुद्र का जल उड़ा दो तो रेडियम धातु का एक कण कहीं हाथ लगेगा। आचरण का रेडियम - क्‍या एक पुरुष का, और क्‍या जाति का, और क्‍या जगत का - सारी प्रकृति को खाद बनाये बिना सारी प्रकृति को हवा में उड़ाये बिना भला कब मिलने का है? प्रकृति को मिथ्‍या करके नहीं उड़ाना; उसे उड़ाकर मिथ्‍या करना है। समुद्रों में डोरा डालकर अमृत निकाला है : सो भी कितना? जरा सा! संसार की खाक छानकर आचरण का स्‍वर्ण हाथ आता है। क्‍या बैठे-बिठाये भी वह मिल सकता है?
            हिंदुओं का संबंध यदि किसी प्राचीन असभ्‍य जाति के साथ रहा होता तो उनके वर्तमान वंश में अधिक बलवान श्रेणी के मनुष्‍य होते - तो उनमें भी ऋषि, पराक्रमी, जनरल और धीर-वीर पुरुष उत्‍पन्‍न होते। आजकल तो वे उपनिषदों के ऋषियों के पवित्रतामय प्रेम के जीवन को देख-देखकर अहंकार में मग्‍न हो रहे हैं और दिन पर दिन अधोगति की ओर जा रहे हैं। यदि वे किसी जंगली जाति की संतान होते तो उनमें भी ऋषि और बलवान योद्धा होते। ऋषियों को पैदा करने के योग्‍य असभ्‍य पृथ्‍वी का बन जाना तो आसान है; परंतु ऋषियों की अपनी उन्‍नति के लिए राख और पृथ्‍वी बनाना कठिन है, क्‍योंकि ऋषि तो केवल अनंत प्रकृति पर सजते हैं, हमारी जैसी पुष्‍प-शय्या पर मुरझा जाते हैं। माना कि प्राचीन काल में, यूरप में, सभी असभ्‍य थे, परंतु आजकल तो हम असभ्‍य हैं। उनकी असभ्‍यता के ऊपर ऋषि-जीवन की उच्‍च सभ्‍यता फूल रही है और हमारे ऋषियों के जीवन के फूल की शय्या पर आजकल असभ्‍यता का रंग चढ़ा हुआ है। सदा ऋषि पैदा करते रहना, अर्थात अपनी ऊंची चोटी के ऊपर इन फूलों को सदा धारण करते रहना ही जीवन के नियमों का पालन करना है।
            धर्म के आचरण की प्राप्ति यदि ऊपरी आडंबरों से होती तो आजकल भारत-निवासी सूर्य के समान शुद्ध आचरण वाले हो जाते। भाई! माला से तो जप नहीं होता। गंगा नहाने से तो तप नहीं होता। पहाड़ों पर चढ़ने से प्राणायाम हुआ करता है, समुद्र में तैरने से नेती धुलती है; आँधी, पानी और साधारण जीवन के ऊँच-नीच, गरमी-सरदी, गरीबी-अमीरी, को झेलने से तप हुआ करता है। आध्‍यात्मिक धर्म के स्‍वप्‍नों की शोभा तभी भली लगती है जब आदमी अपने जीवन का धर्म पालन करे। खुले समुद्र में अपने जहाज पर बैठकर ही समुद्र की आध्‍यात्मिक शोभा का विचार होता है। भूखे को तो चंद्र और सूर्य भी केवल आटे की बड़ी-बड़ी दो रोटियां से प्रतीत होता है। कुटिया में ही बैठकर धूप, आँधी और बर्फ की दिव्‍य शोभा का आनंद आ सकता है। प्राकृतिक सभ्‍यता के आने पर ही मानसिक सभ्‍यता आती है और तभी वह स्थिर भी रह सकती है। मानसिक सभ्‍यता के होने पर ही आचरण सभ्‍यता की प्राप्ति संभव है, और तभी वह स्थिर भी हो सकती है। जब तक निर्धन पुरुष पाप से अपना पेट भरता है तब तक धनवान पुरुष के शुद्धाचरण की पूरी परीक्षा नहीं। इसी प्रकार जब तक अज्ञानी का आचरण अशुद्ध है तब तक ज्ञानवान के आचरण की पूरी परीक्षा नहीं - तब तक जगत में आचरण की सभ्‍यता का राज्‍य नहीं।
          आचरण की सभ्‍यता का देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्‍यात्मिक। न उसमें विद्रोह है, न जंग ही का नामोनिशान है और न वहां कोई ऊँचा है, न नीचा। न कोई वहां धनवान है और न ही कोई वहां निर्धन। वहां प्रकृति का नाम नहीं, वहां तो प्रेम और एकता का अखंड राज्‍य रहता है। जिस समय आचरण की सभ्‍यता संसार में आती है उस समय नीले आकाश से मनुष्‍य को वेद-ध्‍वनि सुनायी देती है, नर-नारी पुष्‍पवत् खिलते जाते हैं, प्रभात हो जाता है, प्रभात का गजर बज जाता है, नारद की वीणा अलापने लगती है, ध्रुव का शंख गूँज उठता है, प्रह्लाद का नृत्‍य होता है, शिव का डमरू बजता है, कृष्‍ण की बाँसुरी की धुन प्रारंभ हो जाती है। जहाँ ऐसे शब्‍द होते हैं, जहां ऐसे पुरुष रहते हैं, वहाँ ऐसी ज्‍योति होती है, वही आचरण की सभ्‍यता का सुनहरा देश है। वही देश मनुष्‍य का स्‍वदेश है। जब तक घर न पहुँच जाय, सोना अच्‍छा नहीं, चाहे वेदों में, चाहे इंजील में, चाहे कुरान में, चाहे त्रिपीटिक (त्रिपिटक) में, चाहे इस स्‍थान में, चाहे उस स्‍थान में, कहीं भी सोना अच्‍छा नहीं। आलस्‍य मृत्‍यु है। लेख तो पेड़ों के चित्र सदृश्‍य होते हैं, पेड़ तो होते ही नहीं जो फल लावें। लेखक ने यह चित्र इसलिए भेजा है कि सरस्‍वती में चित्र को देखकर शायद कोई असली पेड़ को जाकर देखने का यत्‍न करे।

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श्रद्धा-भक्ति-रामचन्द्र शुक्ल



किसी मनुष्य में जनसाधारण से विशेष गुण व शक्ति का विकास देख उसके संबंध में जो एक स्थायी आनंदपद्धाति हृदय में स्थापित हो जाती है उसे श्रद्धा कहते हैं। श्रद्धा महत्तव की आनंदपूर्ण स्वीकृति के साथ साथ पूज्य बुद्धि का संचार है। यदि हमें निश्चय हो जाएगा कि कोई मनुष्य बड़ा वीर, बड़ा सज्जन, बड़ा गुणी, बड़ा दानी, बड़ा विद्वान्, बड़ा परोपकारी वा बड़ा धार्मात्मा है तो वह हमारे आनंद का एक विषय हो जाएगा। हम उसका नाम आने पर प्रशंसा करने लगेंगे, उसे सामने देख आदर से सिर नवाएँगे; किसी प्रकार का स्वार्थ न रहने पर भी हम सदा उसका भला चाहेंगे, उसकी बढ़ती से प्रसन्न होंगे और अपनी पोषित आनंदपद्धाति में व्याघात पहुँचने के कारण उसकी निंदा न सह सकेंगे। इससे सिद्ध होता है कि जिन कर्मों के प्रति श्रद्धा होती है उनका होना संसार को वांछित है। यही विश्वकामना श्रद्धा की प्रेरणा का मूल है।
          प्रेम और श्रद्धा में अंतर यह है कि प्रेम स्वाधीन कार्यों पर उतना निर्भर नहीं-कभी कभी किसी का रूप मात्र, जिसमें उसका कुछ भी हाथ नहीं उसके प्रति प्रेम उत्पन्न होने का कारण होता है, पर श्रद्धा ऐसी नहीं है। किसी की सुंदर ऑंख या नाक देखकर उसके प्रति श्रद्धा नहीं उत्पन्न होगी, प्रीति उत्पन्न हो सकती है। प्रेम के लिए इतना ही बस है कि कोई मनुष्य हमें अच्छा लगे, पर श्रद्धा के लिए आवश्यक यह है कि मनुष्य किसी बात में बढ़ा हुआ होने के कारण हमारे सम्मान का पात्र हो। श्रद्धा का व्यापार स्थल विस्तृत है, प्रेम का एकांत। प्रेम में घनत्व अधिक है और श्रद्धा में विस्तार। किसी मनुष्य से प्रेम रखनेवाले दो ही एक मिलेंगे, पर उसपर श्रद्धा रखनेवाले सैकड़ों, हजारों, लाखों क्या करोड़ों मिल सकते हैं। सच पूछिए तो इसी श्रद्धा के आश्रय से उन कर्मों के महत्तव का भाव दृढ़ होता है जिन्हें धर्म कहते हैं और जिनमें मनुष्य समाज की स्थिति है। कर्तव्यर से बढ़कर कर्म का स्मारक दूसरा नहीं। कर्म की क्षमता प्राप्त करने के लिए बार बार कर्तव्यग ही की ओर ऑंख उठती है। कर्मों से कर्तव्ये की स्थिति को जो मनोहरता प्राप्त हो जाती है उसपर मुग्ध होकर बहुत से प्राणी उन कर्मों की ओर प्रेरित होते है। कर्तव्ये अपने सत्कर्म द्वारा एक विस्तृत क्षेत्र में मनुष्य की सद्वृत्तियों के आकर्षण का एक शक्ति केंद्र हो जाता है। जिस समाज में किसी ज्योतिष्मान शक्ति केंद्र का उदय होता है उस समाज में भिन्न भिन्न हृदयों से शुभ भावनाएँ मेघखंडों के समन उठकर तथा एक ओर और एक साथ अग्रसर होने के कारण परस्पर मिलकर, इतनी घनी हो जाती हैं कि उनकी घटा सी उमड़ पड़ती है और मंगल की ऐसी वर्षा होती है कि सारे दु:ख और क्लेश बह जाते हैं।
            हमारे अंत:करण में प्रिय के आदर्श रूप का संघटन उसके शरीर या व्यक्ति मात्र के आश्रय से हो सकता है, पर श्रद्धेय के आदर्श रूप का संघटन उसके फैलाए हुए कर्म तंतु के उपादान से होता है। प्रिय का चिंतन हम ऑंख मूँदे हुए, संसार को भुलाकर करते हैं, पर श्रद्धेय का चिंतन हम ऑंख खोले हुए, संसार का कुछ अंश सामने रखकर करते हैं। यदि प्रेम स्वप्न है तो श्रद्धा जागरण है। प्रेमी प्रिय को अपने लिए और अपने को प्रिय के लिए संसार से अलग करना चाहता है। प्रेम में केवल दो पक्ष होते हैं, श्रद्धा में तीन। प्रेम में कोई मध्यरस्थ् नहीं, पर श्रद्धा में मध्यकस्‍थ अपेक्षित है। प्रेमी और प्रिय के बीच कोई और वस्तु अनिवार्य नहीं, पर श्रद्धालु और श्रद्धेय के बीच कोई वस्तु चाहिए। इस बात का स्मरण रखने से यह पहचानना उतना कठिन न रह जाएगा कि किसी के प्रति किसी का कोई आनंदांतर्गत भाव प्रेम है या श्रद्धा। यदि किसी कवि का काव्य बहुत अच्छा लगा, किसी चित्रकार का बनाया चित्र बहुत सुंदर जँचा और हमारे चित्त में उस कवि या चित्रकार के प्रति एक सुहृद्भाव उत्पन्न हुआ तो वह श्रद्धा है; क्योंकि यह काव्य या चित्ररूप मध्य स्थ द्वारा प्राप्त हुआ है।
          प्रेम का कारण बहुत कुछ अनिर्दिष्ट और अज्ञात होता है; पर श्रद्धा का कारण निर्दिष्ट और ज्ञात होता है। कभी कभी केवल एक साथ रहते रहते दो प्राणियों में यह भाव उत्पन्न हो जाता है कि वे बराबर साथ रहें; उनका साथ कभी न छूटे। प्रेमी प्रिय के संपूर्ण जीवनक्रम के सतत साक्षात्कार का अभिलाषी होता है। वह उसका उठना, बैठना, चलना फिरना, सोना, खाना पीना सब कुछ देखना चाहता है। संसार में बहुत से लोग उठते बैठते, चलते फिरते हैं, पर सबका उठना बैठना, चलना फिरना उसको वैसा अच्छा नहीं लगता। प्रेमी प्रिय के जीवन को अपने जीवन से मिलाकर एक निराला मिश्रण तैयार करना चाहता है। वह दो से एक करना चाहता है। सारांश यह है कि श्रद्धा में दृष्टि पहले कर्मों पर से होती हुई श्रद्धेय तक पहुँचती है और प्रीति में प्रिय पर से होती हुई उसके कर्मों आदि पर आ जाती है। एक में व्यक्ति को कर्मों द्वारा मनोहरता प्राप्त होती है, दूसरी में कर्मों को व्यक्ति द्वारा। एक में कर्म प्रधान है, दूसरी में व्यक्ति।
            किसी के रूप को स्वयं देखकर हम तुरंत मोहित होकर उससे प्रेम कर सकते हैं, पर उसके रूप की प्रशंसा किसी दूसरे से सुनकर चट हमारा प्रेम नहीं उमड़ पड़ेगा। कुछ काल तक हमारा भाव लोभ के रूप में रहेगा, पीछे वह प्रेम में परिणत हो सकता है। बात यह है कि प्रेम एकमात्र अपने ही अनुभव पर निर्भर रहता है; पर श्रद्धा अपनी सामाजिक विशेषता के कारण दूसरों के अनुभव पर भी जगती है। रूप की भावना का बहुत कुछ संबंध व्यक्तिगत रुचि से होता है। अत: किसी के रूप और हमारे बीच यदि तीसरा व्यक्ति आया तो इस व्यापार में सामाजिकता आ गई; क्योंकि हमें उस समय यह ध्या न हुआ कि उस रूप से एक तीसरे व्यक्ति को आनंद या सुख मिला और हमें भी मिल सकता है। जब तक हम किसी के रूप का बखान सुनकर 'वाह वाह' करते जाएँगे तब तक हम एक प्रकार के लोभी अथवा रीझनेवाले या कद्रदान ही कहलाएँगे, पर जब हम उसके दर्शन के लिए आकुल होंगे, उसे बराबर अपने सामने ही रखना चाहेंगे, तब प्रेम का सूत्रपात समझा जाएगा। श्रद्धाभाजन पर श्रद्धावान अपना किसी प्रकार का अधिकार नहीं चाहता, पर प्रेमी प्रिय के हृदय पर अपना अधिकार चाहता है।
          श्रद्धा एक सामाजिक भाव है, इससे अपनी श्रद्धा के बदले में हम श्रद्धेय से अपने लिए कोई बात नहीं चाहते। श्रद्धा धारण करते हुए हम अपने को उस समाज में समझते हैं जिसके किसी अंश पर-चाहे हम व्यष्टि रूप में उनके अंतर्गत न भी हों-जानबूझकर उसने कोई शुभ प्रभाव डाला। श्रद्धा स्वयं ऐसे कर्मों के प्रतिकार में होती है जिसका शुभ प्रभाव अकेले हम पर नहीं बल्कि सारे मनुष्य समाज पर पड़ सकता है। श्रद्धा एक ऐसी आनंदपूर्ण कृतज्ञता है जिसे हम केवल समाज के प्रतिनिधि रूप में प्रकट करते हैं। सदाचार पर श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध या घृणा प्रकट करने के लिए समाज ने प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिनिधित्व प्रदान कर रखा है। यह काम उसने इतना भारी समझा है कि उसका भार सारे मनुष्यों को बाँट दिया है, दो चार मननीय लोगों के ही सिर पर नहीं छोड़ रखा है। जिस समाज में सदाचार श्रद्धा और अत्याचार पर क्रोध प्रकट करने के लिए जितने ही अधिक लोग तत्पर पाए जाएँगे उतना ही वह समाज जागृत समझा जाएगा। श्रद्धा की सामाजिक विशेषता एक इसी बात से समझ लीजिए कि जिस पर हम श्रद्धा रखते हैं उसपर चाहते हैं कि और लोग भी श्रद्धा रखें-जिस पर हमारा प्रेम होता है उससे और दस पाँच आदमी प्रेम रखें-इसकी हमें परवा क्या, इच्छा ही नहीं होती; क्योंकि हम प्रिय पर लोभवश एक प्रकार का अनन्य अधिकार या इजारा चाहते हैं। श्रद्धालु अपने भाव में संसार को भी सम्मिलित करना चाहता है, पर प्रेमी नहीं।
            जब तक समष्टि रूप में हमें संसार के लक्ष्य का बोध नहीं होता और हमारे अंत:करण में सामान्य आदर्शों की स्थापना नहीं होती तब तक हमें श्रद्धा का अनुभव नहीं होता। बच्चों में कृतज्ञता का भाव पाया जाता है पर सदाचार के प्रति उस कृतज्ञता का नहीं, जिसे श्रद्धा कहते हैं। अपने साथ किए जानेवाले जिस व्यवहार के लिए वे कृतज्ञ होते हैं उसी को दूसरों के साथ होते देख कर्तव्या के प्रति कृतज्ञ होना वे देर में सीखते हैं-उस समय सीखते हैं जब वे अपने को किसी समुदाय का अंग समझने लगते हैं। अपने साथ या किसी विशेष मनुष्य के साथ किए जानेवाले व्यवहार के लिए जो कृतज्ञता होती है वह श्रद्धा नहीं है। श्रद्धालु की दृष्टि सामान्य की ओर होनी चाहिए, विशेष की ओर नहीं। अपने संबंधी के प्रति किसी को कोई उपकार करते देख यदि हम कहें कि उसपर हमारी श्रद्धा हो गई है तो यह हमारा पाखंड है, हम झूठ मूठ अपने को ऐसे उच्च भाव का धारणकर्तव्यं प्रकट करते हैं। पर उसी सज्जन को दस पाँच और ऐसे आदमियों के साथ जब हम उपकार करते देखें जिन्हें हम जानते तक नहीं और इस प्रकार हमारी दृष्टि विशेष से सामान्य की ओर हो जाए, तब यदि हमारे चित्त में उसके प्रति पहले से कहीं अधिक कृतज्ञता या पूज्य बुद्धि का उदय हो तो हम श्रद्धालु की उच्च पदवी के अधिकारी हो सकते हैं। सामान्य रूप में हम किसी के गुण या शक्ति का विचार सारे संसार से संबद्धा करके करते हैं, अपने से या किसी विशेष प्राणी से संबद्धा करके नहीं। हम देखते हैं कि किसी मनुष्य में कोई गुण या शक्ति है जिसका प्रयोग वह चाहे जहाँ और जिसके प्रति कर सकता है।
            श्रद्धा का मूल तत्व है दूसरे का महत्तव स्वीकारना। अत: जिनकी स्वार्थबद्धा दृष्टि अपने से आगे नहीं जा सकती अथवा अभिमन के कारण जिन्हें अपनी ही बड़ाई के अनुभव की लत लग गई है उनकी इतनी समायी नहीं कि वे श्रद्धा ऐसे पवित्र भाव को धारण करें। स्वार्थियों और अभिमानियों के हृदय में श्रद्धा नहीं टिक सकती। उनका अंत:करण इतना संकुचित और मलिन होता है कि वे दूसरों की कृति का यथार्थ मूल्य नहीं परख सकते।
            स्थूल रूप से श्रद्धा तीन प्रकार की कही जा सकती है-
1. प्रतिभा संबंधिनी
2. शील संबंधिनी, और
3. साधन संपत्ति संबंधिनी।
            प्रतिभा से मेरा अभिप्राय अंत:करण की उस उद्भाविका क्रिया से है जिसके द्वारा कला, विज्ञान आदि नाना क्षेत्रों में नई नई बातें या कृतियाँ उपस्थित की जाती हैं। यह ग्रहण और धारणा शक्ति से भिन्न है, जिसके द्वारा इधर उधर से प्राप्त ज्ञान (विद्वता) संचित किया जाता है। कला संबंधिनी श्रद्धा के लिए श्रद्धालु में भी थोड़ी बहुत मार्मिक निपुणता चाहिए, इससे उसका अभाव कोई भारी त्रुटि नहीं, वह क्षम्य है। यदि किसी उत्तम काव्य या चित्र की विशेषता न समझने के कारण हम कवि या चित्रकार पर श्रद्धा न कर सकें तो यह हमारा अनाड़ीपन है-हमारे रुचि संस्कार की त्रुटि है। इसका उपाय यही है कि समाज कला संबंधिनी मर्मज्ञता के प्रचार की व्यवस्था करे, जिससे विविधा कलाओं के सामान्य आदर्श की स्थापना जनसमूह में हो जाए। पर इतना होने पर भी कला संबंधिनी रुचि की विभिन्नता थोड़ी बहुत अवश्य रहेगी। अश्रद्धालु रुचि का नाम लेकर ईर्ष्याा या अहंकार के दोषारोपण से बच जाया करेंगे।
            पर शील संबंधिनी श्रद्धा प्रत्येक व्यक्ति का कर्तव्य् है। शील या धर्म के सामान्य लक्षण संसार के प्रत्येक सभ्य जन समुदाय में प्रतिष्ठित हैं। धर्म ही से मनुष्य-समाज की स्थिति है, अत: उसके संबंध में किसी प्रकार का रुचिभेद, मतभेद आदि नहीं। सदाचार के प्रति यदि हम श्रद्धा नहीं रखते तो समाज के प्रति अपने कर्तव्यर का पालन नहीं करते। यदि किसी को दूसरों के कल्याण के लिए भारी स्वार्थ त्याग करते देख हमारे मुँह से 'धन्य' भी न निकला तो हम समाज के किसी काम के न ठहरे, समाज को हमसे कोई आशा नहीं, हम समाज में रहने योग्य नहीं। किसी कर्म में प्रवृत्त होने से पहले यह स्वीकार करना आवश्यक होता है कि वह कर्म या तो हमारे लिए या समाज के लिए अच्छा है। इस प्रकार की स्वीकृति कर्म की पहली तैयारी है। श्रद्धा द्वारा हम यह आनंदपूर्वक स्वीकार करते हैं कि कर्म के अमुक अमुक दृष्टांत धर्म के हैं, अत: श्रद्धा धर्म की पहली सीढ़ी है। धर्म के इस प्रथम सोपान पर प्रत्येक मनुष्य को रहना चाहिए, जिसमें जब कभी अवसर आए तब वह कर्मरूपी दूसरे सोपान पर हो जाए।
            अब रह गई साधन संपत्ति संबंधिनी श्रद्धा की बात। यहाँ पर साधन संपन्नता का ठीक ठीक भाव समझ लेना आवश्यक है। साधन संपत्ति का अनुपयोग भी हो सकता है, सदुपयोग भी हो सकता है और दुरुपयोग भी हो सकता है। किसी को पद्य रचने की अच्छी अभ्यास संपन्नता है। यदि शिक्षा द्वारा उसके भाव उन्नत हैं, वह सहृदय है तो वह अपनी इस संपन्नता का उपयोग मनोहर उच्चभावपूर्ण काव्य प्रस्तुत करने में कर सकता है; यदि उसकी अवस्था ऐसी नहीं है तो वह या तो साधारण, भाव शून्य गद्य को गीतिका, शिखरिणी आदि नाना छंदों में परिणत करेगा या अपनी भद्दी और कुरुचिपूर्ण भावनाओं को छंदोबद्धा करेगा। उसके इस कृत्य पर श्रद्धा रखनेवाले भी बहुत मिल जाएँगे। ऐसे व्यक्ति के प्रति जो श्रद्धा होती है वह साधन संपन्नता पर ही होती है, साध्ये की पूर्णता पर नहीं।
            देशी कारीगरी, चित्रकारी, संगीत आदि में नियम पालन के अभ्यास द्वारा प्राप्त इस साधन संपन्नता पर ही इधर बहुत दिनों से अधिक ध्याकन दिया जाने लगा था और मनव हृदय पर इन मनोहारिणी कलाओं के प्रभाव का बहुत कम विचार होने लगा था। बहुत से पुराने मकानों की कारीगरी देखिए तो उनमें बहुत सा काम गिचपिच किया हुआ दिखाई देगा, ऐसे महीन बेलबूटों की भिन्न भिन्न पटरियाँ दीवारों में जमाई हुई मिलेंगी जो बिना ऑंख को पास ले जाकर सटाए स्पष्ट न जान पड़ेंगे। सारे मकान को एक बार में देखने से इन सबों का सम्मिलित प्रभाव दृष्टि और मन पर क्या पड़ेगा, इसका कुछ भी विचार बनानेवालों ने नहीं किया, यह स्पष्ट दिखाई पड़ेगा। ऐसे कामों में अभ्यास का तथा समय और श्रम के व्यय (या अपव्यय) का पूरा परिचय मिलता है, पर विचार और सहृदयतापूर्वक उनके उपयोग का बहुत कम। समझने की बात है कि इमारत हाथ पर लेकर देखने की चीज नहीं है, दस पाँच हाथ दूर पर खड़े होकर देखने की चीज है।
            चित्रकारी की दशा भी इसी प्रकार की हो गई थी। राधा कृष्ण कदंब के नीचे खड़े हैं। कदंब की एक एक पत्तीू अलग अलग बारीकी के साथ बनी दिखाई पड़ती है। राधा की चुनरी की एक एक बूटी बड़ी सावधानी और मेहनत के साथ बनाई गई है। देखनेवाले को यह नहीं जान पड़ता कि वह कुछ दूर पर खड़ा होकर कदंब और राधा कृष्ण को एक साथ देख रहा है, बल्कि यह जान पड़ता है कि कभी तो पत्तियाँ गिनने के लिए वह पेड़ पर चढ़ता है और कभी नमूना लेने के लिए चुनरी हाथ में लेता है। ऐसी रचनाओं के प्रति यदि श्रद्धा प्रकट की जायगी तो वह अभ्यास, श्रम और बारीकी अर्थात् साधन संपन्नता के विचार से होगी, साध्यी की पूर्णता अर्थात् कला के विचार से नहीं, जिसका उद्देश्य मनव हृदय पर मधुर प्रभाव डालता है।
            संगीत के पेचपाँच देखकर भी हठयोग याद आता है। जिस समय कोई कलावंत पक्का गाना गाने के लिए आठ अंगुल मुँह फैलाता है और 'आ आ' करके विकल होता है, उस समय बड़े बड़े धीरों का धैर्य छूट जाता है-दिन दिन भर चुपचाप बैठे रहनेवाले बड़े बड़े आलसियों का आसन डिग जाता है। जो संगीत नाद की मधुर गति द्वारा मन में माधुर्य का संचार करने के लिए था वह इन पक्के लोगों के हाथ में पड़कर केवल स्वरग्राम की लंबी चौड़ी कवायद हो गया। श्रद्धालुओं के अंत:करण की मार्मिकता इतनी स्तब्धा हो गई कि एक खरश्वान के गले से भी इस लंबी कवायद को ठीक उतरते देख उनके मुँह से 'वाह वाह', 'ओहो हो' निकलने लगा। काव्य पर शब्दालंकार आदि का इतना बोझ लादा गया कि उसका सारा रूप ही छिप गया। बात यह हुई कि इन विविधा कलाओं के जितने अभ्यासगम्य और श्रमसाध्यू अंग थे वे तो हद से बाहर घसीटे गए और जितने सहृदयता से संबंध रखनेवाले थे उनपर ध्याअन ही न रहा। यदि ये कलाएँ मूर्तिमन रूप धारण करके सामने आतीं तो दिखाई पड़ता कि किसी को जलोदर हुआ है, किसी को फीलपाँव! इनकी दशा सोने और रत्नों से जड़ी गुठली धारदार तलवार की सी हो गई।
            किसी मनुष्य में बहुत अधिक शारीरिक बल देख उसपर जन साधारण की श्रद्धा होती है और होनी चाहिए। प्रो. राममूर्ति को मोटर रोकते, लोहे की मोटे मोटे सीकड़ तोड़ते, छाती पर 40 मन का पत्थर रखते, हाथी खड़ा करते और गाड़ी दौड़ाते देख उनके शारीरिक बल के कारण उनपर श्रद्धा होती है। अब इस संपन्नता का वे सदुपयोग भी कर सकते हैं, दुरुपयोग भी कर सकते हैं और अनुपयोग भी कर सकते हैं। वे इसके द्वारा किसी भारी संकट से अपनी या दूसरे की रक्षा भी कर सकते हैं और किसी निरपराध को पीड़ित भी कर सकते हैं पर हमारी श्रद्धा बिना सदुपयोग या दुरुपयोग की संभावना की कल्पना किए शुभ साधन संपन्नता ही पर होती है, कोरे विद्वानों के प्रति जो श्रद्धा होती है वह भी साधन संपन्नता ही पर होती है। उसके उपयोग की निपुणता या प्रतिभा पर निर्भर नहीं होती। विद्वता किसी विषय की बहुत सी बातों की जानकारी का नाम है, जिसका संचय बहुत कष्ट, श्रम और धारणा से होता है। यह बात विद्वान् की प्रतिभा पर निर्भर है कि वह ज्ञान का भंडारी और उपयोगकर्तव्यी दोनों हो-अर्थात् वह उत्तम चिंतक, वक्ता, लेखक, अन्वेषक या कवि भी होकर उस संचित साधन का उपयोग करे और अपने मूल विचारों का प्रभावपूर्ण प्रकाश करे। यदि विद्वान् में यह प्रतिभा नहीं है, यह शक्ति नहीं है, तो वह अपनी संचित जानकारी को कला कुशल और प्रतिभाशाली लेखकों या तत्तवान्वेषकों के सामने रख दे कि वे उससे आवश्यकतानुसार काम लें। इस रीति से उसकी विद्वता सामाजिक उपयोग में आ जाएगी।
            भिन्न भिन्न मनसिक संस्कार के लोगों में किसी विषय से संबंध रखनेवाली श्रद्धा भिन्न भिन्न मात्रा की हुआ करती है। यदि किसी को शारीरिक बल, साहस्य या चतुराई पर अत्यंत अधिक श्रद्धा है तो वह इनका दुरुपयोग देखकर भी बनी रह सकती है। अत्याचारियों के बल, डाकुओं के साहस और लंपटों की चालाकी की तारीफ संसार में थोड़ी बहुत होती ही है। एक बात और है, यदि किसी पर किसी एक विषय में अत्यंत अधिक श्रद्धा है तो उसकी अन्य विषयों की त्रुटियों पर ध्यालन नहीं जाता और कभी ध्यांन भी जाता है तो वे भी सुहावनी लगती हैं। कोई प्रतिभाशाली कवि विलासप्रिय, मद्यप या सनकी है तो जो अत्यंत काव्य प्रेमी होंगे उनकी घृणा को उसके ये दुर्गुण पूर्ण रूप से आकर्षित न कर सकेंगे। यहाँ तक कि उसके इन दुर्गुणों की चर्चा भी वे बड़ी रुचि के साथ करेंगे और सुनेंगे। बात यह है कि मनुष्य का अंत:करण एक है। उसकी एक साथ दो परस्पर विरुद्धा स्थितियाँ नहीं हो सकतीं। इस प्रकार की मनसिक स्तब्धता को श्रध्दांधाता कह सकते हैं। यद्यपि श्रध्दांधा समाज में उतना अनर्थकारी नहीं हो सकता, उतना अपराधी नहीं ठहराया जा सकता, जितना मदांधा, क्रोधंधा या ईष्यांधा, पर उसकी श्रद्धा के बढ़ते बढ़ते क्रियमाण रूप धारण करने पर और शील संबंधिनी चेतना को बिलकुल जवाब मिल जाने पर समाज के अनिष्ट में ब्याज से सहायता पहुँच सकती है।
            यदि किसी अपव्ययी और मद्यप कवि पर अत्यंत श्रद्धालु होकर कोई उसकी आर्थिक सहायता करता जाता है तो वह उस अन्याय और उपद्रव का थोड़ा बहुत उत्तरदाता अवश्य होता है जो कविजी अपने सहवर्तियों के बीच करने में समर्थ होते हैं। यदि किसी पहलवान के बल पर प्रसन्न होकर कोई उसे हलवा पूरी खाने के लिए कुछ महीना बाँधाता है तो उसके गुंडेपन के कारण लोगों की पहुँची हुई पीड़ा के दोष का वह कम से कम उतना भाग अवश्य पा सकता है जितना इंद्रकृत हत्या की बँटाई के समय बहुतों को मिला था। उद्देश्य के अभाव के बल से यद्यपि इन श्रद्धालुओं पर दोष उतना सटीक नहीं लग सकता, पर समाज की दृष्टि में वे दान के पात्रता संबंधी अविवेक के अभियोग से नहीं बच सकते।
            अब यहाँ पर यह प्रश्न उठता है कि शील, कला और साधन संपत्ति श्रद्धा के इन तीनों विषयों में से किसका ध्या न मनुष्य को पहले होना चाहिए और किसका पीछे। इसका बेधड़क यही उत्तर दिया जा सकता है कि जन साधारण के लिए शील का ही सबसे पहले ध्याोन होना स्वाभाविक है; क्योंकि उसका संबंध मनुष्य मात्र की सामान्य स्थिति रक्षा से है। उसके अभाव में समाज या उस आधार की स्थिति ही नहीं रह सकती जिसमें कलाओं की उपयोगिता या मनोहारिता का प्रसार और साधन संपत्ति की प्रचुरता का वितरण और व्यवहार होता है।
            दूसरों की श्रद्धा संसार में एक अत्यंत वांछनीय वस्तु है, क्योंकि वह एक प्रकार का ऐसा परकीय निश्चय या विश्वास है जिसके सहारे स्वकीय कार्य सुगम होता है-जीवन की कठिनता कम होती है। जिस पर लोगों की अश्रद्धा होती है-उसके लिए व्यवहार के सब सीधा और सुगम मार्ग बंद हो जाते हैं-उसे या तो काँटों पर या ढाई कोस नौ दिन में चलना पड़ता है। पर जो किसी प्रकार दूसरों की श्रद्धा संपादित कर लेता है, उसके पैर रखने के लिए फूलों की पंखुड़ियाँ-आजकल लाल कनातें बिछाई जाती हैं। समाज में ये वस्तुएँ सच्चे गुणियों और परोपकारियों के लिए हैं पर इन्हें छीनने और चुराने की ताक में बहुत से चोर, चाईं और लुटेरे रहते हैं जो इनके द्वारा स्वार्थ साधन करना या अपनी तुच्छ मनसिक वृत्तियों को तृप्त करना चाहते हैं। इनसे समाज को हर घड़ी सावधान रहना चाहिए। इन्हें सामाजिक दंड देने के लिए उसे सदा सन्नद्धा रहना चाहिए। ये अनेक रूपों में दिखाई पड़ते हैं-कोई गेरुआ वस्त्रा लपेटे धर्म का डंका पीटता दिखाई देता है, कोई देश हितैषिता का लंबा चोगा पहने देशोद्धार की पुकार करता पाया जाता है।
            मनुष्य किसी ओर तीन प्रकार से प्रवृत्त होता है-मन से, वचन से और कर्म से। इनमें से मन तो देखने दिखाने की चीज नहीं। वाणी और कार्यप्रणाली की नकल की जाती है और बड़ी सफाई से की जाती है। हितोपदेश के गदहे ने तो बाघ की खाल ही ओढ़ी थी, पर ये लोग बाघ की बोली भी बोल लेते हैं। कहीं कहीं केवल वचन ही से काम निकल जाता है। एक दिन मैं काशी की एक गली से जा रहा था, एक ठठेरे की दूकान पर कुछ परदेशी यात्री किसी बरतन का मोलभाव कर रहे थे और कह रहे थे कि इतना नहीं, इतना लो तो लें। इतने ही में सौभाग्यवश दूकानदारजी को ब्रह्मज्ञानियों के वाक्य याद आ गए और उन्होंने चट कहा-'माया छोड़ो और इसे ले लो।' सोचिए तो, काशी ऐसा पुण्य क्षेत्र! वहाँ न माया छोड़ी जाएगी तो कहाँ छोड़ी जाएगी। थोड़े दिन हुए, किसी लेखक ने कहीं पढ़ा कि प्रतिभाशाली लोग कुछ उग्रता और पागलपन लिए होते हैं। तब से वे बराबर अपने में इन दोनों शुभ लक्षणों की स्थापना के यत्न में लगे रहते हैं। सुनते हैं कि पहले में वे कुछ कृतकार्य भी हुए हैं, पर पागलपन की नकल करना कुछ हँसी खेल नहीं; भूल चूक से कुछ समझदारी की बातें मुँह से निकल ही जाती हैं।
            जैसे और सब विद्याओं की, वैसी ही परश्रद्धाकर्षण की विद्या की भी आजकल खूब उन्नति हुई है। आश्चर्य नहीं कि इसके लिए कुछ दिनों में एक अलग विद्यालय खुले। श्रद्धा के यथार्थ कारण का जितना ही अभाव हो, आकर्षण की अपनी विद्या में उतना ही दक्ष समझना चाहिए। आजकल सार्वजनिक उद्योगों की बड़ी धुम रहा करती है और बहुत से लोग निराहार परोपकार व्रत करते सुने जाते हैं। ऊपर कहा जा चुका है कि पर श्रद्धा के सहारे कार्य में सुगमता आती है, अत: किसी कार्य साधना के लिए जो लोग प्रयत्न द्वारा दूसरों के हृदय में श्रद्धा उत्पन्न करते हैं वे उस कार्य के अनुसार चतुर, नीति कुशल, धूर्त या पाखंडी कहे जाते हैं, पर संसार में बहुत ऐसे लोग भी होते हैं जिन्हें अपने ऊपर परायी श्रद्धा के चिंतन से जो एक प्रकार का आनंद मिलता है उसकी लत पड़ जाती है। वे पर श्रद्धा को मनोरंजन या मनसिक भोग विलास की एक सामग्री समझते हैं। वे परायी श्रद्धा केवल इसी निमित्त चाहते हैं, और किसी उद्देश्य से नहीं। ऐसे पर श्रद्धाभिलाषियों को मनसिक दुर्वव्य सन रहता है और वे उसी प्रकार दुर्वव्यससनी कहे जा सकते हैं जिस प्रकार शराबी, गँजेड़ी और चंडूबाज आदि। पर समाज की श्रद्धा ऐसे अपव्यय के लिए नहीं है, प्रयोजन के लिए है। ऐसे लोग अपनी धुन में कभी कभी बड़े बड़े सार्वजनिक कार्य भी छोड़ बैठते हैं जिनका होना उन्हें इतना अभीष्ट नहीं होता जितना अपने द्वारा होना। ये लोग पहचाने इस प्रकार जाते हैं कि उन कार्यों से अपने नाम का वियोग घड़ी भर भी नहीं सह सकते, यहाँ तक कि यदि वे दूसरों को कोई ऐसा कार्य हाथ में लेते देखते हैं जिसमें समाज के साधुवाद की संभावना होती है तो इनका पेट फूलने लगता है और ये या तो गुप्त रूप से उसमें विघ्न की व्यवस्था करते हैं या कम से कम उसके महत्तच को बहुत कम करके दिखाया करते हैं। दूसरी पहचान यह है कि वे लोग ऐसे ही काम ठानते हैं जिनका नाम और आडंबर बड़ा होता है।
            ऊपर कहा जा चुका है कि श्रद्धावान् अपनी श्रद्धा द्वारा श्रद्धेय में कोई ऐसा परिवर्तन उपस्थित नहीं करना चाहता जिसका अपने लिए कोई अनुकूल फल हो। श्रद्धावान् श्रद्धेय को प्रसन्न करने की इच्छा कर सकता है, पर उस प्रसन्नता से आप कोई लाभ उठाने की नहीं। श्रद्धा न्याय बुद्धि के पलड़े पर तुली हुई एक वस्तु है जो दूसरे पलड़े पर रखे हुए श्रद्धेय के गुण, कर्म आदि के हिसाब से होती है। श्रद्धा सत्कर्म या सद्गुण ही का मूल्य है जिससे और किसी प्रकार का सौदा नहीं हो सकता; पर जब कि इस व्यापार युग में ज्ञान बिकता है, न्याय बिकता है, धर्म बिकता है-तब श्रद्धा ऐसे भाव क्यों न बिके? पर असली भाव तो इस लेन देन के व्यवहार के लिए उपस्थित नहीं किए जा सकते। खैर, नकली सही। एक भाव पर दूसरे भाव की कलई करके हम बाजार में क्यों न जाएँ? अपनी भीरुता या चापलूसी को हम 'श्रद्धा श्रद्धा' कहकर गलियों और संवादपत्रों में क्यों न पुकारें? ऐसे झूठे श्रद्धावानों से घिरकर झूठे श्रद्धा पात्र सच्चे श्रद्धा पात्रों को क्यों न मात करें, जब कि आजकल झूठे मोती सच्चे मोतियों को मात करते हैं?
            कला कुशल या सदाचारी अपने चारों ओर प्रसन्नता देखना चाहता है; अत: अपनी श्रद्धा द्वारा हम अपनी प्रसन्नता का निश्चय मात्र कराते हैं। हमारी प्रसन्नता से उसे अपनी सामर्थ्य का बोध हो जाता है और उसका उत्साह बढ़ता है। इस प्रकार अपनी श्रद्धा द्वारा हम भी समाज का मंगल साधन करते हैं। दूसरे की श्रद्धा का श्रद्धेय पर इतना ही प्रभाव पड़ना चाहिए, इससे अधिक नहीं। यदि हमारी श्रद्धा के कारण वह हमें किसी प्रकार का लाभ पहुँचाना चाहता है तो वह हमारी श्रद्धा को खुशामद समझता है और हमारा अपमन करता है। श्रद्धा में याचकता का भाव लेश मात्र भी नहीं है। श्रद्धा द्वारा हम अपने हृदय का परिचय मात्र देते हैं कि उसमें मार्मिकता या धर्म भाव है, सात्तिवक आचरण या प्रतिभा की कला में प्रसन्न होने की क्षमता है। यदि हमें किसी पर श्रद्धा है तो हमें उसके पास जाकर यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि 'महाराज मेरी यह श्रद्धा स्वीकार हो'। इस प्रकार की स्वीकृति की हमें कोई आवश्यकता नहीं। हम अपनी श्रद्धा लिए अपने घर बैठे रह सकते हैं। या उसे इस रीति से प्रकट कर सकते हैं जिस पर श्रद्धेय का कोई वश नहीं। यदि हमें किसी सुलेखक पर श्रद्धा है और वह हमसे रुष्ट है तो भी हम उसका सच्चा चित्र और चरित्र छाप सकते हैं। इसका स्वत्व हमें समाज द्वारा प्राप्त है-इसका हक हमें कानूनन हासिल है पर वहीं यदि हम उस सुलेखक से प्रेम करने चलें, उसके साथ साथ लगे फिरें और हरदम उसे घेरे रहें तो वह हमें हटा सकता है। श्रद्धा प्रदर्शित करने का जितना विस्तृत सामाजिक अधिकार हमें प्राप्त है उतना उसके विपरीत भाव अश्रद्धा या घृणा प्रकट करने का नहीं, क्योंकि श्रद्धा यदि हमने भूल से या स्वार्थवश प्रकट की तो किसी को उतनी हानि नहीं, पर यदि घृणा भूल से या द्वेषवश प्रकट की तो व्यर्थ का असंतोष और दु:ख फैल सकता है।
            ऊपर कहा जा चुका है कि श्रद्धा के विषय तीन हैं-शील, प्रतिभा और साधन संपत्ति। शील या धर्म से समाज की स्थिति, प्रतिभा से रंजन और साधन संपत्ति से शील साधन और प्रतिभा विकास दोनों की संभावना है। श्रद्धेय समाज की स्थिति या सुख का विधान करता है और समाज उसकी स्थिति और सुख का विधान करता है। समाज अपने श्रद्धालु प्रतिनिधियों को कभी तो उसे आपत्ति से बचाने के लिए भेजता है-कभी कुछ्र भेंट उसके सामने रखने के लिए। श्रद्धावश जो दान दिया जाता है वह उसी प्रकार की भेंट है। सच्चा दान दो प्रकार का होता है-एक वह जो दयावश दिया जाता है, दूसरा वह जो श्रद्धावश दिया जाता है। पंडितों, विद्वानों और धार्मिकों को जो दान दिया जाता है वह दयावश दिया जाता है। अंधो, लूलों और लँगड़ों को जो दान दिया जाता है वह श्रद्धावश दिया जाता है। श्रद्धा सामर्थ्य के प्रति होती है और दया असामर्थ्य के प्रति। जनसाधारण अपनी दया द्वारा केवल असामर्थ्य के उपस्थित परिणामों का, कुछ स्थान के बीच और कुछ काल तक के लिए निवारण कर सकते हैं, अत: श्रद्धा द्वारा वे ऐसे असाधारण जनों को अपने वित्तनुसार थोड़ी थोड़ी शक्ति दान करते हैं जो असामर्थ्य के कारणों के निराकरण में समर्थ होते हैं।
            श्रद्धावश दान में उपयोगिता का तत्व छिपा हुआ है। स्मृतियों में श्रद्धावश दान पर बड़ा जोर दिया गया है और ऐसे दान के विषय में पात्रापात्र का विचार भी खूब किया गया है। विद्या दान में रत विद्वानों को, परोपकार में रत कर्मवीरों को, मनवज्ञान की वृद्धि में तत्पर तत्तवान्वेषकों को जो अभाव हो उसे हमें समाज की भूख समझनी चाहिए। इन्हें जो कुछ हम श्रद्धावश देते हैं, वह ठीक समाज के दुरुस्त पेट में जाता है, जहाँ से रस रूप में उसका संचार अंग अंग में होता है। इसके विरुद्धा स्वार्थियों, अन्यायियों आदि को जो कुछ दिया जाता है वह समाज के अंग में उसी प्रकार नहीं लगता जिस प्रकार अतिसार या संग्रहणीवाले को खिलाया हुआ अन्न। भारतवर्ष में श्रद्धा का संबंध दान के साथ इतना गहरा समझा जाता है कि अश्रद्धापूर्वक दिया हुआ दान निष्फल माना जाता है। इसी से शुष्क प्रथानुसरण के रूप में भी यदि कुछ दिया जाता है तो श्रद्धा का नाम ले लिया जाता है। पंडों पुरोहितों को देते हुए यजमन भी कहता है कि 'महाराज! इतनी ही श्रद्धा है' और पंडे पुरोहित भी कहते हैं कि 'जितनी श्रद्धा हो उतना दो', यद्यपि इन पंडों और पुरोहितों के संबंध में सदा यह निश्चय नहीं रहता कि वे बड़े विद्वान्, बड़े धार्मिक या बड़े परोपकारी हैं। मनोविकार के उपयुक्त विषयों के निश्चय में कभी कभी बुद्धि की भी थोड़ी बहुत आवश्यकता होती है। क्योंकि एक ही व्यक्ति के प्रति किसी को श्रद्धा होती है और किसी को अश्रद्धा। इसका कारण घृणा के अंतर्गत अच्छी तरह दिखाया गया है।
          श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। जब पूज्य भाव की वृद्धि के साथ श्रद्धाभाजन के सामीप्य लाभ की प्रवृत्ति हो, उसकी सत्ता के कई रूपों के साक्षात्कार की वासना हो, तब हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव समझना चाहिए। जब श्रद्धेय के दर्शन, श्रवण, कीर्तन, ध्या,न आदि से आनंद का अनुभव होने लगे-जब उससे संबंध रखनेवाले श्रद्धा के विषयों के अतिरिक्त बातों की ओर भी मन आकर्षित होने लगे, तब भक्तिरस का संचार समझना चाहिए। जब श्रद्धेय का उठना, चलना, फिरना, हँसना, बोलना, क्रोध करना आदि भी हमें अच्छा लगने लगे तब हम समझ लें कि हम उसके भक्त हो गए। भक्ति की अवस्था प्राप्त होने पर हम अपने जीवनक्रम पर भी अपना कुछ प्रभाव रखना चाहते हैं। कभी हम अर्पण करते हैं और कभी याचना करते हैं। सारांश यह कि भक्ति द्वारा हम भक्ति भाजन से विशेष घनिष्ठ संबंध स्थापित करते हैं-उसकी सत्ता में विशेष रूप से योग देना चाहते हैं। किसी के प्रति श्रद्धा धारण करके हम बहुत करेंगे तो समय समय पर उसकी प्रशंसा करेंगे, उसकी निंदा करनेवालों से झगड़ा करेंगे या कभी कुछ उपहार लेकर उपस्थित होंगे, पर जिसके प्रति हमारी अनन्य भक्ति हो जाएगी वह अपने जीवन के बहुत से अवसरों पर हमें अपने साथ देख सकता है। वह अपने बहुत से उद्योगों में हमारा योगदान पा सकता है। भक्त वे ही कहला सकते हैं जो अपने जीवन का बहुत अंश स्वार्थ (परिवार व शारीरिक सुख आदि) से विभक्त करके किसी के आश्रय से किसी ओर लगा सकते हैं, इसी का नाम है आत्मनिवेदन।
            महात्माओं के ऊपर श्रद्धामात्र करके हम उन्हें जीवनशक्ति द्वारा उपार्जित कोई फल अर्पित कर सकते हैं, पर उनके भक्त होकर हम अपने जीवन ही के कुछ अंश को अर्पित कर देते हैं। किसी वीरव्रती महात्मा पर बहुत श्रद्धालु होकर हम आर्थिक सहायता द्वारा उसके लिए कुछ सुबीता कर सकते हैं, अपने वचनों से उसे प्रसन्न और उत्साहित कर सकते हैं, पर उसके भक्त बनकर हम अपने शारीरिक बल को उसका शारीरिक बल बनाएँगे, अपनी जानकारी और चतुराई को उसकी जानकारी और चतुराई बनाएँगे, अपनी वाग्मिता को उसकी वाग्मिता बनाएँगे, अपनी तत्परता को उसकी तत्परता बनाएँगे, यहाँ तक कि जो कुछ हमसे होगा उसे हम उसका कर डालेंगे और इसी प्रकार उसके जीवन में अपने जीवन का योग देकर उसके सामाजिक महत्तव या प्रभाव को बढ़ाएँगे और उसके थोड़े बहुत हम भी भागी होंगे। श्रद्धा द्वारा हम दूसरे के महत्तव के किसी अंश के अधिकारी नहीं हो सकते, पर भक्ति द्वारा हो सकते हैं। यहाँ तक कि दूसरे की भक्ति करके हम तीसरे की भक्ति के अधिकारी हो सकते हैं। राम पर अनन्य भक्ति करके हनुमन, अन्य राम भक्तों की भक्ति के अधिकारी हुए।
            श्रद्धालु महत्तव को स्वीकार करता है, पर भक्त महत्तव की ओर अग्रसर होता है। श्रद्धालु अपने जीवनक्रम को ज्यों का त्यों छोड़ता है; पर भक्त उसकी काटछाँट में लग जाता है। अपने आचरण द्वारा दूसरों की भक्ति के अधिकारी होकर ही संसार के बड़े बड़े महात्मा समाज के कल्याण साधन में समर्थ हुए हैं। गुरु गोविंद सिंह को यदि केवल दंडवत करनेवाले और गद्दी पर भेंट चढ़ानेवाले श्रद्धालु ही मिलते, दिन रात साथ रहनेवाले अपने सारे जीवन को अर्पित करनेवाले भक्त न मिलते तो वे अन्याय दमन में कभी समर्थ न होते। इससे भक्ति के सामाजिक महत्तव को, इसकी लोकहितकारिणी शक्ति को स्वीकार करने में किसी को आगा पीछा नहीं हो सकता। सामाजिक महत्तव के लिए आवश्यक है कि या तो आकर्षित करो या आकर्षित हो। जैसे इस आकर्षण विधान के बिना अणुओं द्वारा व्यक्त पिंडों का आविर्भाव नहीं हो सकता, वैसे ही मनव जीवन की विशद अभिव्यक्ति भी नहीं हो सकती।
भक्ति में किसी ऐसे सान्निधय की प्रवृत्ति होती है जिसके द्वारा हमारी महत्तव के अनुकूल गति का प्रसार और प्रतिकूल गति का संकोच होता है। इस प्रकार का सामीप्य लाभ करके हम अपने ऊपर पहरा बिठा देते हैं-अपने को ऐसे स्वच्छ आदर्श के सामने कर देते हैं जिससे हमारे कर्मों का प्रतिबिंब ठीक ठीक दिखाई पड़ता है। जिसे अपनी वास्तविक क्षुद्रता का परिज्ञान अरुचिकर होगा वह सापेक्षिकता के भय से ऐसे महत्तवादर्श का सामीप्य कभी न चाहेगा, दूर दूर भागा फिरेगा। 'हमीं हम' वाले 'तुम भी' नहीं सह सकते, 'तुम्हीं तुम' की क्या बात है? ऐसे लोग तो स्वयं अपने लिए भक्त ढूँढ़ने निकलते हैं। भक्ति के लिए दैन्य अर्थात् दूसरे के महत्तव के साथ अपने लघुत्व की भावना पहली बात है। इस भावना को जब हम मुक्त हृदय से मुग्ध होकर धारण करेंगे और दूसरे पर श्रद्धा कर लेंगे, तब हम उसके महत्तव के सतत साक्षात्कार के लिए, अनेक रूपों में परिचय के लिए उसके सामीप्य की इच्छा करते हुए इस श्रद्धा में प्रेम का भी मिश्रण करेंगे और अपने बहुत से क्रियाकलाप को अपने पूज्य प्रेमपात्र के अधीन करके स्वयं महत्तव के अभ्यास में प्रवृत्त होंगे। जन साधारण के लिए इस प्रकार के आश्रय द्वारा महत्तव प्राप्ति सुगम होती है। जो उच्च पथ पहले कष्टकर और श्रमसाध्य् जान पड़ता है वही भक्ति के बल से मनोहर लगने लगता है।
            व्यक्ति संबंधहीन सिद्धांतमार्ग निश्चयात्मिका बुद्धि को चाहे व्यक्त हो, पर प्रवर्तक मन को अव्यक्त रहते हैं। वे मनोरंजनकारी तभी लगते हैं, जब किसी व्यक्ति के जीवनक्रम के रूप में देखे जाते हैं। शील की विभूतियाँ अनंत रूपों में दिखाई पड़ती हैं। मनुष्य जाति ने जब से होश सँभाला, तब से वह इन अनंत रूपों को महात्माओं के आचरणों तथा आख्यानों और चरित्र संबंधी पुस्तकों में देखती चली आ रही है। जब इन रूपों पर मनुष्य मोहित होता है, तब सात्विक शील की ओर आप से आप आकर्षित होता है। 'सदा सत्य बोलो', 'दूसरों की भलाई करो', 'क्षमा करना सीखो'-ऐसे ऐसे सिद्धांत वाक्य किसी को बार बार बकते सुन वैसा ही क्रोध आता है जैसे किसी बेहूदे की बात सुनकर। जो इस प्रकार की बातें करता चला जाय उससे चट कहना चाहिए-'बस चुप रहो, तुम्हें बोलने की तमीज नहीं, तुम बच्चों या कोल भीलों के पास जाओ। ये बातें हम पहले से जानते हैं। मनव जीवन के बीच हम इसके सौंदर्य का विकास देखना चाहते हैं। यदि तुम्हें दिखाने की प्रतिभा या शक्ति हो तो दिखाओ, नहीं तो चुपचाप अपना रास्ता लो। 'गुण प्रत्यक्ष नहीं होता, उसके आश्रय और परिणाम प्रत्यक्ष होते हैं। अनुभवात्मक मन को आकर्षित करनेवाले आश्रय और परिणाम हैं, गुण नहीं। ये ही अनुभूति के विषय हैं। अनुभूति पर प्रवृत्ति और निवृत्ति निर्भर है। अनुभूति मन की पहली क्रिया है, संकल्प विकल्प दूसरी। अत: सिद्धांत पथों के संबंध में जो आनंदानुभव करने की बातें हैं, जो अच्छी लगने की बातें हैं, वे पथिकों में तथा उनके चारों ओर पाई जाएँगी। सत्पथ के दीपक उन्हीं के हाथ में हैं या वे ही सत्पथ के दीपक हैं। सत्तवोन्मुख प्राणियों के लिए ऐसे पथिकों के सामीप्य लाभ की कामना करना स्वाभाविक ही है।
            सामीप्य से अभिप्राय केवल किसी के साथ साथ बना रहना नहीं है। श्रवण, कीर्तन और स्मरण आदि भी सामीप्य ही के विधान हैं। वाह्य और आभ्यंतर दोनों प्रयत्नों से सामीप्य की सिद्धि होती है। स्मरण द्वारा हम अपने आराधय को, उसके कर्मक्षेत्र को अपने अंत:करण के सामने उपस्थित करते हैं। यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि जब हम इष्ट के कर्मक्षेत्र को सामने लाते हैं तब उसमें ऐसे लोग भी तो आ जाते हैं जिन पर हमारी कुछ भी भक्ति नहीं। हाँ, आते अवश्य हैं। इनके द्वारा हमारे इष्ट के स्वरूप का पूर्ण विकास दिखाई पड़ता है-इनके बीच उनका (इष्टका) रंग और खुल पड़ता है। यदि राम हमारे काम के हैं तो रावण भी हमारे काम का है। एक में हम अपने लिए प्रवृत्ति का क्रम पाते हैं, दूसरे में निवृत्ति का। जीवन में इस निवृत्ति और प्रवृत्ति का प्रवाह साथ साथ चलता है। दुराचारी भी यदि अपने दुराचार का फल संसार के सामने पूर्ण रूप से भोग लेता है तो समाज के लिए उपयोगी ठहर जाता है राम के हाथ से मारे जाने से रावण का जीवन भी सार्थक हो गया। यदि पापी अपने पाप का फल एकांत में या आत्मा में ही, भोगकर चला जाता है तो वह अपनी जीवन की सामाजिक उपयोगिता की एकमात्र संभावना को भी नष्ट कर देता है। इसी से बहुत से प्रायश्चितो के विधान में किए हुए पापों का सबके समक्ष कथन आवश्यक होता है।
            पाप का फल छिपानेवाला पाप छिपानेवाले से अधिक अपराधी है पर ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो किसी का घर जलाते हाथ जलता है तो कहते हैं कि होम करते जला है। दुराचारियों के जीवन का सामाजिक उपयोग करने के लिए ही, संसार में धर्म की मर्यादा स्थापित करने के लिए ही श्रीकृष्ण ने अर्जुन को युद्ध में प्रवृत्त किया। यदि अधर्म में तत्पर कौरवों का नाश न होता और पांडव जीवन भर मारे मारे ही फिरते तो संसार में अन्याय और अधर्म की ऐसी लीक खिंच जाती जो मिटाने से न मिटती। जिस समाज में सुख और वैभव के रंग में रँगी अधर्म की ऐसी लीक दिखाई पड़े उसमें रक्षा करनेवाली आत्मा का अभाव तथा विश्वात्मा की विशेष कला के अवतार की आवश्यकता समझनी चाहिए, क्योंकि भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है-
            यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
            अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥
यदि कहीं पाप है, अन्याय है, अत्याचार है तो उनका आशुफल उत्पन्न करना और संसार के समक्ष रखना, लोकरक्षा का कार्य है। अपने ऊपर किए जानेवाले अत्याचार और अन्याय का फल ईश्वर के ऊपर छोड़ना व्यक्तिगत आत्मोन्नति के लिए चाहे श्रेष्ठ हो; पर यदि अन्यायी या अत्याचारी अपना हाथ नहीं खींचता है तो लोकसंग्रह की दृष्टि से वह उसी प्रकार आलस्य या कायरपन है जिस प्रकार अपने ऊपर किए हुए, उपकार का कुछ भी बदला न देना कृतघ्नता है।
            अब भगवद्भक्ति को लीजिए। ऊपर जो कुछ कहा गया उससे स्पष्ट हो गया होगा कि मनुष्य की भक्ति के आधार क्या क्या हैं। मनुष्य विश्व विधान का एक क्षुद्र चेतन अंश है। उसमें धर्म, अधर्म, दया, निष्ठुरता आदि से भाव विश्व के उतने ही अंश से संबंध रखते हैं जितने के भीतर उसे कार्य करना है। यह कार्य और कुछ नहीं, अपनी समष्टि स्थिति और सुख संतोष का प्रयत्न मात्र है। अपने कार्यक्षेत्र के बाहर यदि वह अपने इन भावों का सामंजस्य ढूँढ़ता है तो नहीं पाता है-कहीं उसे 'जीवो जीवस्य जीवनम्' का सिद्धांत चलता दिखाई पड़ता है, कहीं लाठी और भैंस का। वह सोचता है कि इन बातों का अनुसरण मनुष्य समाज में भी जानबूझकर क्यों न किया जाए, यह नहीं सोचता कि मनुष्य जाति की स्थिति इन अवस्थाओं से बहुत आगे बढ़ी है और चेतना की श्रेणी में उससे आगे की ओर से कोई भूमि दिखाई नहीं पड़ रही है। वह दया को निरर्थक समझ अपने अंत:करण का एक अंग ही खंडित करना चाहता है। वह किसी को काना देखकर अपनी एक ऑंख फोड़ने चलता है। कुछ दिन पहले की सभ्यता मनुष्य जीवन को देवतुल्य बनाने में थी; अब मर्कटतुल्य और मत्स्यतुल्य बनाने में समझी जाने लगी है। पर यह सभ्यता जड़त्व और नाश की ओर ले जानेवाली है जब हृदय की कुछ उदात्त प्रवृत्तियाँ बोझ मालूम होने लगी हैं। तब और प्राणियों की अपेक्षा अपने अंत:करण की पूर्णता का गर्व मनुष्य जाति कब तक कर सकती है? उसके मार्मिक अंग की व्यापकता के हास और स्तब्धता की वृद्धि के भयंकर परिणाम का आभास यूरोप दे रहा है। अंत:करण की जितनी वृत्तियाँ हैं उनमें से कोई निरर्थक नहीं-सबका उपयोग है। इनमें से किसी की शक्ति फालतू नहीं। यदि मनुष्य इनमें से किसी को निष्क्रिय करने का अभ्यास डालेगा तो अपनी पूर्णता को खोएगा और अपनी स्थिति को जोखिम में डालेगा।
            मिट्टी के ढेले, गुलाब के पौधो, कुत्तो और बिल्ली की अपेक्षा मनुष्य अपने में अंशी का अधिक अंश समझता है-उस सर्वात्मा का अधिक अंश समझता है-विश्व विधान जिसकी नित्य क्रिया है; अत: स्थिति रक्षा विधान की जो जो बातें अपने में हैं उनका अभाव उसे अंशी या सर्व में मनते नहीं बनता। दया, दाक्षिण्य, प्रेम, क्रोध आदि अपनी अंशात्मा में देखते हुए सर्वात्मा में उनके अभाव की धारणा मनुष्य करे तो कैसे करे? अत: ज्ञान क्षेत्र में ईश्वर की खोज हम उतने ही घेरे में करेंगे जितने में इंद्रियों की सहायता लेकर बुद्धि पहुँचती है और कर्मक्षेत्र में उसकी भावना हम उसे उतने ही भावों से परिमित करके करेंगे जितने की हमारे मन में जगह है। हम हैं, हम समझते हैं कि हम हैं और हम चाहते हैं कि हम रहें, ऐसी अवस्था में हम अपने स्थिति रक्षा संबंधी भावों को परमावस्था पर पहुँचाकर ही उस परम भावमय की भावना करेंगे। हम उसे धर्ममय, दयामय, प्रेममय मानेंगे और यह प्रेम उसी रूप का होगा जिस रूप में उसका व्यवहार मनुष्य जाति में दिखाई पड़ता है, जिस रूप में मनुष्य जाति को उसकी आवश्यकता पड़ती है। अत्याचारी से पीड़ित होकर मनुष्य उसके कोप का आह्नान करता है, आपद्ग्रस्त होकर उसकी दया का भिखारी होताहै, सुख से संपन्न होकर उसके धन्यवाद के लिए हाथ उठाता है, भक्ति से पूर्ण होकरउसके आश्रय की वांछा करता है। ये ही व्यवहार वह मनुष्यों के साथ भी करता है।
            अपने व्यवहार पथ में आश्रय प्राप्ति के निमित्त मनुष्य के लिए ईश्वर की स्वानुरूप भावना ही संभव है। स्वानुभूति द्वारा ही वह उस परमानुभूति की धारणा कर सकता है। इसी से भर्तृहरि ने 'स्वानुभूत्यैकमनव' कहकर नमस्कार किया है। यदि चिन्मय में अपनी इतनी अनुभूति का भी निश्चय मनुष्य को न हो वह प्रार्थना आदि क्यों करने जाए? कुत्तो प्रार्थना क्यों नहीं करते? उनमें धर्म की प्रतिष्ठा नहीं है-अर्थात् वे चेतना की उस भूमि तक नहीं पहुँचे हैं जिनमें समष्टि स्थिति की रक्षा से संबंध रखने वाले भावों का संचार होता है। वे यह नहीं जानते कि एक दूसरे को काटने दौड़ने से कुक्कुर समाज की उन्नति और वृद्धि नहीं हो सकती। समष्टि रक्षा या धर्म की ओर प्रवृत्त करनेवाले दया आदि भाव उन्हें प्राप्त नहीं हैं। उनमें स्वार्थ का भाव है, परमार्थ का भाव नहीं। 'धार्मो रक्षति रक्षित:' की धारणा उन्हें नहीं होती। जहाँ धर्मभाव है वहीं ईश्वर की भावना है। जिन प्राणियों में जिन भावों का विकास नहीं हुआ है उनमें उनकी चरितार्थता की आवश्यकता प्रकृति नहीं समझती।
            भक्ति का स्थान मनव हृदय है-वहीं श्रद्धा और प्रेम के संयोग से उसका प्रादुर्भाव होता है। अत: मनुष्य की श्रद्धा के जो विषय ऊपर कहे जा चुके हैं उन्हीं को परमात्मा में अत्यंत विशद रूप में देखकर ही उसका मन खिंचता है और वह उस विशद रूप विशिष्ट का सामीप्य चाहता है, उसके हृदय में जो सौंदर्य का भाव है, जो शील का भाव है, जो उदारता का भाव है, जो शक्ति का भाव है, उसे वह अत्यंत पूर्ण रूप में परमात्मा में देखता है और ऐसे पूर्ण पुरुष की भावना से उसका हृदय गद्गद हो जाता है और उसका धर्मपथ आनंद से जगमगा उठता है। धर्मक्षेत्र या व्यवहार पथ में वह अपने मतलब भर ही ईश्वरता से प्रयोजन रखता है। राम, कृष्ण आदि अवतारों में परमात्मा की विशेष कला देख एक हिंदू के हृदय की सारी शुभ और आनंदमयी वृत्तियाँ उनकी ओर दौड़ पड़ती हैं, उनके प्रेम, श्रद्धा आदि को बड़ा भारी अवलंब मिल जाता है। उसके सारे जीवन में एक अपूर्व माधुर्य और बल का संचार हो जाता है। उसके सामीप्य का आनंद लेने के लिए कभी वह उनके अलौकिक रूप सौंदर्य की भावना करता है, कभी उनकी बाललीला के चिंतन से विनोद प्राप्त करता है, कभी धर्म-बलपूर्ण उनके निर्मल चरित्र का गान करता है, कभी सिर झुकाकर वंदना करता है, यहाँ तक कि जब जी में आता है, प्रेम से भरा उलाहना भी देता है। यह हृदय द्वारा अर्थात् आनंद अनुभव करते हुए धर्म में प्रवृत्त होने का सुगम मार्ग है। भक्ति हृदय से की जाती है। बुद्धि से भक्ति करना ऐसे ही है जैसे नाक से खाना और कान से सूँघना। हमारे यहाँ भक्ति विधान के अंतर्गत श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवा, अर्चन, वंदन, दास्य, सख्य और आत्म निवेदन ये नौ बातें ली गई हैं। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कोरी श्रद्धा में याचकता का भाव नहीं है, जब प्रेम के साथ उसका संयोग होता है तभी इस भाव की प्राप्ति होती है। श्रद्धावान् श्रद्धेय पर अपने निमित्त किसी प्रकार का प्रभाव डालना नहीं चाहता, पर भक्त दाक्षिण्य चाहताहै।
            रामलीला, कृष्णलीला आदि सामीप्य सिद्धि के विधान हैं। सामीप्य की कामना, भक्तवर रसखान ने बड़ी मार्मिकता से इस प्रकार प्रकट की है-
मानुष हों तो वही 'रसखान' बसौं सँग गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हों तो कहा बस मेरो,चरौं नित नंद के धोनु मझारन।
पाहन हों तो वही गिरि को,जो किए हरि छत्रा पुरंदर धारन।
जो खग हों तो बसेरो करौ,मिलि कालिंदी कूल कदंब केडार।।
            रामलीला द्वारा लोग वर्ष में एक बार अपने पूज्यदेव की आदर्श मनवलीला का माधुर्य देखते हैं। जिस समय दूर दूर के गाँवों के लोग एक मैदान में आकर इकट्ठे होते हैं तथा एक ओर जटा मुकुटधारी विजयी राम लक्ष्मण्ा की मधुर मूर्ति देखते हैं और दूसरी ओर तीरों से बिंधा रावण का विशाल शरीर जलता देखते हैं, उस समय वे धर्म के सौंदर्य पर लुब्धा और अधर्म की घोरता पर क्षुब्धा हो जाते हैं। इसी प्रकार जब कृष्णलीला में जीवन की प्रफुल्लता के साथ धर्मरक्षा के अलौकिक बल का विकास देखते हैं, तब हमारी जीवन धारणा की अभिलाषा दूनी चौगुनी हो जाती है। हिंदू जाति इन्हीं की भक्ति के बल से इनकी प्रतिकूल अवस्थाओं के बीच अपना स्वतंत्र अस्तित्व बचाती चलती चली आई है-इन्हीं की अद्भुत आकर्षणशक्ति से वह इधर उधर ढलने नहीं पाई है। राम और कृष्ण को बिना ऑंसू बहाए छोड़ना हिंदू जाति के लिए सहज नहीं था, क्योंकि ये अवतार अलग टीले पर खड़े होकर उपदेश देनेवाले नहीं थे, बल्कि मनव जीवन में पूर्ण रूप से सम्मिलित होकर उसके एक एक अंग की मनोहरता दिखानेवाले थे। मंगल के अवसरों पर उनके गीत गाए जाते हैं-विमाताओं की कुटिलता की, बड़ों के आदर की, दुष्टों के दमन की, जीवन के कष्ट की, घर की, वन की, संपद की, विपद की जहाँ चर्चा होती है, वहाँ इनका स्मरण किया जाता है।
            संसार से तटस्थ रहकर शांति सुखपूर्वक लोक व्यवहार संबंधी उपदेश देनेवालों का उतना अधिक महत्तव हिंदू धर्म में नहीं है जितना संसार के भीतर घुसकर उसके व्यवहारों के बीच सात्विक विभूति की ज्योति जगानेवालों का है। हमारे यहाँ उपदेशक ईश्वर के अवतार नहीं माने गए हैं। अपने जीवन द्वारा कर्म सौंदर्य संघटित करने वाले ही अवतार कहे गए हैं। कर्म सौंदर्य के योग से उनके स्वरूप में इतना माधुर्य आ गया है कि हमारा हृदय आप से आप उनकी ओर खिंचा पड़ता है। जो कुछ हम करते हैं-खेलना, कूदना, हँसना, बोलना, क्रोध करना, शोक करना, प्रेम करना, विनोद करना, उन सबमें सौंदर्य लाते हुए हम जिन्हें देखेंगे उन्हीं की ओर ढल सकतेहैं।वे हमें दूर से रास्ता दिखानेवाले नहीं हैं, आप रास्ते में चलकर हमें अपने पीछेलगाने क्या खींचनेवाले हैं। जो उसके स्वरूप पर मोहित न हो वह निस्संदेह जड़है।
सुनि सीतापति सील सुभाउ।
मोद न मन, तन पुलक, नयन जल सो नर खेहर खाउड्ड
            जो उनका नाम सुनकर पुलकित होता है, जो उनके स्वरूप पर मोहित होता है, उसके सुधारने की बहुत कुछ आशा हो सकती है। जो संसार या मनुष्यत्व का सर्वथा त्याग न कर दे, उसके लिए शुद्ध सात्विक जीवन का यही मार्ग है। रागों के संपूर्ण दमन की अपेक्षा रागों का परिष्कार ज्यादा काम में आनेवाली बात है। निर्लिप्त रहकर दूसरों का गला काटनेवालों से लिप्त होकर दूसरों की भलाई करनेवाले लोक कल्याण के विचार से कहीं अच्छे हैं।
            जनता के संपूर्ण जीवन को स्पर्श करनेवाला क्षत्रियधर्म के इसी व्यापकत्व के कारण हमारे मुख्य अवतार राम और कृष्ण क्षत्रिय हैं। क्षत्रिय धर्म ऐकांतिक नहीं है। उसका संबंध लोकरक्षा से है। 'कोई राजा होगा तो अपने घर का होगा' इससे बढ़कर झूठ शायद ही कोई मिले। झूठे खिताबों के द्वारा यह कभी सच नहीं की जा सकती। कर्म सौंदर्य की योजना क्षत्रिय जीवन में जितने रूप में संभव है, उतने रूपों में और किसी जीवन में नहीं। शक्ति के साथ क्षमा, वैभव के साथ विनय, पराक्रम के साथ रूप माधुर्य, तेज के साथ कोमलता, सुख भोग के साथ परदु:खकातरता; प्रताप के साथ कठिन धर्म पथ का अवलंबन इत्यादि कर्म सौंदर्य के इतने अधिक प्रकार के उत्कर्ष योग और कहाँ घट सकते हैं। इसी से क्षत्रिय धर्म के सौंदर्य में जो मधुर आकर्षण है वह अधिक व्यापक, अधिक मर्मस्पर्शी और अधिक स्पष्ट है। मनुष्य की संपूर्ण रागात्मिका वृत्तियों को उत्कर्ष पर ले जाने और विशुद्ध करने की सामर्थ्य उसमें है।
            संसार में मनुष्य मात्र की समन वृत्ति कभी नहीं हो सकती। इस बात को भूलकर जो उपदेश दिए जाया करते हैं वे पाखंड के अंतर्गत आते हैं। वृत्तियों की भिन्नता के बीच से जो मार्ग निकल सकेगा वही लोकरक्षा का मार्ग होगा, वही धर्म का चलता हुआ मार्ग होगा। जिसमें शिष्टों के आदर, दीनों पर दया, दुष्टों के दमन आदि जीवन के अनेक रूपों का सौंदर्य दिखाई पड़ेगा, वही सर्वाúपूर्ण लोकधर्म का मार्ग होगा। क्षत्रियधर्म पालन की आवश्यकता संसार में सब दिन बनी रहेगी। कोई व्यापार युग उसे नहीं हटा सकता। किसी अनाथ अबला पर अत्याचार करने पर एक क्रूर पिशाच को हम उद्यत देख रहे हैं। समझाना बुझाना या तो व्यर्थ है अथवा उसका समय ही नहीं है। ऐसी दशा में यदि उस अबला की रक्षा इष्ट है, तो हमें चटपट उस कर्म में प्रवृत्त होना होगा जिससे उस दुष्ट को बाधा पहुँचे। उस समय का हमारा क्रोध कितना सुंदर और अक्रोध कितना गर्हित होगा।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

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