लंका की एक रात



लंका की एक रात, अर्थात् पहले दबी-पाँव, सावधान चक्षु, सन्ध्या तब निर्मल चन्द्रोदय, फिर मुक्त ज्योत्स्ना और अन्त में मर्दिता-घर्षिता शेष रात्रि, जिसका अवसान उबासी,उपरति और अपच में होता है। उत्तरकाण्ड के सर्ग 4 से सर्ग 11 तक पढ़ता गया और अन्त में मुझे लगा कि मैं गाँव के प्रीतिभोज के बाद फेंके गये जूठे पत्तलों और मृद् भाण्डों के बीच बैठा हुआ हूँ। वाल्मीकि ने सचमुच यहाँ संकेतगर्भी काव्य प्रस्तुत किया है। एक कामबिद्ध पुरी है। उस पर कामरूपी रात अपनी उदार, विदग्ध और विकृत तीनों भूमिकाओं के साथ उतरती है और इसी मायामय वातावरण में एक स्थितधी पुरुष निराहार व्रत-बद्ध रूप में, खण्ड-प्रतिखण्ड, कोण-प्रतिकोण दबे-पाँव सावधानी से चल रहा है। वह पछताता है, फिर सँभलता है, कुछ क्रुद्ध होता है,फिर सँभलता है। अद्बुत धीरता के साथ एक वानर वीर लंका का कोना-कोना छान रहा है।
          सीता-हरण हुए दस मास हो चुके हैं, सीता हरण माघ के अन्तिम भाग में या फाल्गुन के प्रारम्भ में बिन्दु मुहूर्त में हुआ था। तबसे यह दसवाँ मास चल रहा है और सम्भवतः अगहन शुक्ला एकादशी तिथि है। कम से कम ‘पद्मपुराण’ का तो यहीं साक्ष्य है। यद्यपि उत्तर भारत के रामायणियों में प्रचलित तिथिक्रम में ‘पद्मपुराण’ में उल्लिखित तिथि-क्रम मेल नहीं खाता है, विशेषतः सीता-हरण प्रसंग के बाद। पर मार्गशीर्ष की एकादशी को समुद्र लंघन,द्वादशी को सीता-दर्शन और तेरस को लंका-दहन दोनों परम्पराओं में मान्य है। भेद आता है पक्ष के सम्बन्ध में। पर यदि वाल्मीकि रामायण को पढ़ें तो ज्ञात होता है कि रात्रि के प्रारम्भ होते ही चन्द्रोदय हो गया। अतः यह निश्चय ही शुक्ल-पक्ष का वर्णन है।
          सुन्दर काण्ड पढ़ने से ज्ञात होता है कि सीता से भेंट जिस दिन हुई, उसके पहले की रात को वे सन्ध्या से रात्रि के अन्तिम क्षणों तक ‘लंका काम-रूपिणी’ नगरी के सारे लीला-व्यापार को हाट-बाट, वन-वीथी घूम-घूमकर देखते रहे। जिस सन्ध्या को वे रात्रि आगमन के साथ ही प्रवेश करते हैं उस सन्ध्या को चन्द्रोदय लांछित रूप में वर्णित किया गया है। मारुति के सहायक के रूप में ‘साचिव्यमिव’ चन्द्रमा का उदय द्वितीय सर्ग में ही कह दिया गया है-
शंखप्रभ-क्षीर-मृणाल वर्णम्
उद्गच्छमानं व्यवभासमानम्
ददर्श चन्द्रं स कवि प्रवीरः
पोलूप्यमानं सरसीव हंसम्।।
-ज्योत्स्ना की धारा में प्लावित होकर यह मायापुरी और कामरूपिणी एवं और बहुरूपी बन जाती है। कपि इस ‘रावण बाहुपालिता’ पुरी के सिंहद्वार से न प्रवेश करके परकोटे को फाँदता है और वाम पग से इसमें प्रवेश करता है।
          चाँदनी एक मायादर्पण है, जिसमें कटु कठोर चेहरे पर भी एक अस्पष्टता का और फलतः एक कोमलता का प्रलेप हो जाता है। चेहरे की स्पष्ट,कटु-तीक्ष्ण रेखाएँ दुग्धाभ छाया में लुप्त-सी हो जाती हैं। कपिश्रेष्ठ के कवि-मन को इस ज्योत्सना वितान और चन्द्रमण्डल ने बड़ा ही प्रभावित किया । वाल्मीकि की अन्तर्दृष्टि कपि के मन में ‘मृगपति सरिस असंक’ चन्द्र को देखते हुए उठे हुए वीरोपम उदात्त भाव बिम्बों को पहचान जाती है और उन्हें इस प्रकार व्यक्त करती है-
हंसो यथा राजत पंजरस्थः
सिंहो यथा मन्दर कन्दरस्थः
वीरो यथा गर्वित कुंजरस्थ-
श्चन्द्रोपिबभ्राज तथाऽम्बरस्थः।
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शिलातल प्राप्य यथा मृगेन्द्रो
महरणं प्राप्य यथा गजेन्द्रः
राज्यंसमासाद्य यथा नरेन्द्र-
स्तथा प्रकाशो विरराज चन्द्रः।
वाल्मीकि,व्यास और तुलसीदास उन कवियों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें योगी अरविन्द के शब्दों में पुरुष-प्रधान या मरदाने कवियों की श्रेणी में रखा जा सकता है। चन्द्रमा के देखकर कवि को किसी चन्द्रोपम उर्वशी मुख की याद नहीं आती। कवि की सारी उपमाएँ मरदानी हैं, मत्तवृषभ,मत्तगयन्द,शिला-समासीन,मृगेन्द्र,गर्वोन्नत कुंजरस्थ वीर आदि। ये सारी उपमाएँ उस वानर चरित्र के समानान्तर जाती हैं, जिनकी सृष्टि करना इस सुन्दरकाण्ड का मूल उद्देश्य है। इसी से चन्द्रमा का प्रथम वर्णन कवि ने श्रृंगार-सम्पन्न पर श्रृंगारिकताहीन अपूर्व श्रीमती भाषा में किया है। उदात्त पौरुषमय श्लोंकों के बीच में ऐसे लक्ष्मी-सम्पन्न श्री-सम्पृक्त श्लोक भी गुँथे गये हैं कि चन्द्रोदय का प्रथम दर्शन वीरता और ओज के साथ निर्मलता,कान्ति,स्वास्थ्य,दोषमुक्ति और सम्पन्नता का वातावरण भी तैयार करता जाता है।
लोकस्य पापानि विनाशयन्तं
महोदधिं चापि समेधयन्तम्
भूतानि सर्वाणि विराजयन्तं
ददर्श शीतांशुमथाभिन्याम
या भाति लक्ष्मीर्भुवि मन्दरस्था
यथा प्रदोषेषु च सागरस्था
तथैव तोयेषु च पुष्करस्था
रराज सा चारु निशाकरस्था।
परन्तु महाकवि की दृष्टि सर्वसंग्रही होती है। आगे चलकर इसी निर्मल चन्द्रिका को इस कामरुपिणी पुरी के स्वभाव के अनुरूप अन्य भूमिका लेनी होगी। यह शंखप्रभा,दुग्धोपम,मृणालवर्णी चन्द्रज्योत्सना अपनी सरल उदात्त और सहज श्री को छोड़कर वैभव की विदग्धता का कलाप धारण करेगी। जो हंसवर्णी बनकर उदित हुई वह इस विलासपुरी में उतरकर पहले मयूर-कलापी बनेगी और से अन्त में विलास-मर्दित बोकर बासी पाण्डुर काक-ज्योत्सना बनकर अस्त हो जाना पड़ेगा और तब रात्रि के अन्तिम प्रहर में बाहर-बाहर विडाल चक्षु अन्धकार घूमेगा और भीतर-भीतर श्रृंगारवर्तिका रात-भर जलती रहेगी, आत्मक्षय की सुलगती अन्तर्व्यथा के साथ। इस पुरी की आसक्ति के साथ-साथ ज्योत्स्ना को भी तालमेल बैठाकर चलना ही होगा। इस आसक्ति का विदग्ध चित्र तो रावण के वद्धकक्ष- दीपलोक से सज्जित अन्तःपुर में मिलता है, जहाँ ज्योत्स्ना की कोई भूमिका ही नहीं। पर बाहर से इसका क्या असर होगा, यह कौन-सी मत्तता, किस उन्माद की सृष्टि करेगी इसका संकेत चन्द्रोदय वर्णन के ही सन्दर्भ में महाकवि ने कर दिया है। धीरे-धीरे सारी लंका ‘चन्द्राहत' भाव में आ जाती है, प्रकाश कान्ति और निर्मल स्वास्थ्य के साथ, पर अब चन्द्रमा भोग, उद्दीपन और ममता का स्रोत बन गया है। मदिरा और मांस-भक्षण की इच्छा बढ़ रही है, पखावज पर बजती वीणा के साथ-साथ गात्रवीणा भी अन्तःकम्पित हो उठी है और स्नायु-मण्डलों में मत्तता और आसक्ति का अपूर्व संगीत बज रहा है। कोई वक्षस्थल से वक्षस्थल
टकराकर बलोन्माद का प्रदर्शन करता है, तो कोई धनुष को इस बेमौके चढ़ाकर टंकार कर रहा है। लगता है कि भुजाएँ वश में नहीं हैं, कुछ कर डालना चाहती हैं। दूसरी ओर कोई किसी अपनी ही छवि से दीप्त कान्ता को निशीथ-अन्धकार में दृढ़ आलिंगन में बाँध लेता है, तो कोई तप्त
कांचनवर्णी प्रगल्भा दीप जलाकर प्रतीक्षारत है।
          लंका में कहीं रंग है, कहीं प्रतिरंग है, कहीं विरंग है। बाहर भीतर चारों ओर बहुवर्णी रात छमाछम नृत्य कर रही है। सारे लीला-व्यापार उसके ही कलाप हैं। चन्द्र-ज्योत्स्ना के नृत्य कलाप का यह अन्तिम मण्डल है। अन्त में महाकवि कहता है- “रात धूसर-पाण्डुर होती जा रही है। पर आह, अभी तक जानकी नहीं मिली।'' और वानर वीर चाँदनी के अन्तिम चरण में ही रावण के अन्तःपुर में प्रवेश कर जाता है। दो तिहाई रात तो लंका की विशाल एवं ज्योत्स्ना-आहत नगरी में घूमते-छानते-खोजते बीत गयी। अब इस महापुरी का केन्द्र रावण के प्रसाद का अन्तःपुर शेष बचा है। और वानर वीर बड़ी सावधानी से अन्तःपुर में प्रविष्ट हो जाता है। इसके बाद असंख्य दीपों के सतरंगी कलाप से झिलमिल इन
विलासकक्षों का वर्णन करते समय महाकवि बाहर क्षीण होती हुई ज्योत्स्ना का एक बार भी नाम नहीं लेता कि कब उसका सोलहों श्रृंगार से युक्त श्वेत मयूर-कलाप अस्त हो गया, कब वह डूब गयी, कब लंका की चन्द्राहत मुग्ध मनोदशा का अन्धनिद्रा में अवसान हो गया।
अब कवि दूसरे प्रकार के मिजाज या 'मूड' की सृष्टि करने में रत हो जाता है। वह ज्वलन्त रूप-सज्जा के मध्य दग्धता, घर्षण और उच्छिष्टता का मूड रचने की चेष्टा करता है।
रावण का अन्तःपुर, ‘समुद्रमिव गम्भीर’ समुद्रमिव निःस्वनं' दुर्गम, अतलोपम अन्तःपुर है, जिसमें कोई परपुरुष डूबे तो फिर थाह न पा सके। कभी-कभी वाल्मीकि का एक हो। वाक्यांश बहुत बड़ा संकेत दे देता है और तब शेष चित्र पाठक की कल्पना अपने-आप पूरा कर लेती है। रावण के अन्तःपुर को, ‘समुद्रमिव गम्भीरं समुद्रमिव निःस्वनं' कहकर वे दो- एक श्लोकों में रीतिबद्ध ढंग से उपमा उपमेय समानता बताते हुए आगे बढ़ जाते हैं। पर रस- प्रवण मन इस बिम्ब को कल्पना के धरातल पर ग्रहण करके रावण के अन्तःपुर का अद्भुत दृश्य देखता है। की ही तरह वह अन्तःपुर प्रमदा रत्नों से भरपूर, महोदधि की तरह वह ध्वनि-प्रति-ध्वनि युक्त, नाद-संकुल और अतल रहस्यमय है, और रावण के क्रुद्ध होने पर या कोई विशेष घटना घटने पर यह अचानक शान्त, मूक गिराबद्ध भी हो जाता है, जैसे मध्याह का शान्त सागर हो।  इसके स्वभाव में इसके अपने पूर्व के रत्नाकर, पश्चिम के सागर तथा दक्षिण के महोदधि तीनों समुद्रों की अभिव्यक्ति होती है। यह उनके मिलन बिन्दु पर जो स्थित है।
          जैसे समुद्र में घहराती हुई लहरें उठती हैं; नाद की, एवं अविराम गर्जन की घटा पर घटा तहीभूत होती जाती है उसी के ऊपर-ऊपर दूर से बहती हवा का हू-हू स्वर एवं दुरागत खिंची ध्वनि सिटकारी भरती हुई फिर अन्तिम क्षण में तीव्र सीटी-जैसी ध्वनि, सुनने को मिलती हैं और
इन सब गर्जन-तर्जन, ध्वनियों-महाध्वनियों के अगल-बगल समुद्री पक्षियों का क्रेकार उठता हैं, साथ ही कभी-कभी उनके ‘पी-पी' स्वर एवं उनके कोमल कलरव भी सुनाई पड़ते हैं। रह-रहकर सब-कुछ मिलाकर एक अद्भुत अन्तर्खनन (आर्केस्ट्रेशन) का स्वाद मिलता है। पर इससे भी
अद्भुत अन्तर्खनन बजता है रावण के इस प्रतापशाली अन्तःपुर में। चारों ओर नौकरों-चाकरों का विविध कर्म-कोलाहल, शोरगुल है। पर उसी के मध्य कहीं नेपथ्य से गुरु-गम्भीर पखावज के साथ बजती वीणा के स्वर आ रहे हैं और गन्धर्व कण्ठों से तालों का पद-पाठ भी कड़क रहा है। यों
सुननेवाले को पता नहीं चल पाता है कि किस दिशा से, कहाँ से यह ध्वनि आ रही है, किन्नरों का अभ्यास-कक्ष किधर है। तो दसरी ओर जाने पर राक्षस कविगणों के कण्ठों से प्रशस्त संस्कृत में रुद्र-स्तव या स्वस्ति-पाठ या कीर्तिगान के छन्द पर छन्द समुद्रतरंगवत घहराते हुए ज्ञात हात
हैं। तो तीसरी ओर किसी गैल से किसी प्रमदा के नूपुर और कटिमेखला की झंकार उसक नृत्य- शिक्षित पगों के साथ छमाछम एक ओर से दूसरी ओर निकल जाती हैं। सुननेवाले के मन में उस ध्वनिरूपा अदृश्य नारी के प्रति एक कौतूहल जगता है, पर मात्र क्षण-भर के लिए। क्योंकि अगले
ही क्षण वह दूसरी ओर निकल गया रहता है, जहाँ अपने को अपश्रव्य अपशब्दों की धारा में गाली-गलौज और चाकरों के कोलाहल के बीच छाती-भर नहीं तो कमर-भर घैसा पाता है। उसे लगता है कि वह अन्तःपुर में नहीं, बल्कि समुद्र के किनारे की छाड़न या दलदल में फंसा है।
जिसके कीचड़ में सरीसृप और मकर नक्र झख लोट-पोट कर रहे हैं और पाश्र्व से वायुविकल महोदधि की क्रुद्ध फूत्कार आ रही हैं। तो वाल्मीकि ने इस अन्तःपुर के लिए ठीक ही लिखा है- ‘समुद्रमिव गम्भीरं समुद्रमिव निःस्वनं।'
          यह समुद्रोपम अन्तर्ध्वनन और कोलाहल तभी तक है जब तक रावण दरबार में, पूजागृह में या मन्त्रणागृह में है। सान्ध्य रुद्रोपासना के बाद ज्यों ही वह प्रवेश करेगा उसके आते ही आते सब-कुछ शान्त, निःशब्द, सब-कुछ तालबद्ध, नृत्यबद्ध एवं अनुशासित! तब मारे भय के यह समुद्रीपम अन्तःपुर निःस्वन, नि:शब्द हो जायेगा।
           मारुति इसी दुर्गम अतल अन्तःपर में धँसा है, ऊभ-चूभ हो रहा है। बाहर-बाहर ज्योत्स्ना अस्त हो गयी है। पर भीतर स्तम्भ-स्तम्भ पर प्रदीप जल रहे हैं। अभी तक पाण्डुरवर्णी उदास श्री, मात्र लावण्यशेष रामचन्द्र की वधू सीता का पता नहीं चला! मारुति क्षण-भर के लिए खिन्न हो जाता है। निष्फल श्रम, निष्फल साहस, निष्फल विक्रम। मारुति उन स्तम्भों की चित्रकारी और मूर्तिटंकण की ओर दृष्टि देता है। यत्र-तत्र सोने और चाँदी के ईहामृग भेड़िये सजे हैं। पाँत पर पाँत शिकार को विदीर्ण करती भूखे कुत्तों की आकृतियाँ उकेरी गयी हैं, अंगुर की लताओं में साँप चुनते हए मयूर स्तम्भों के टोड़ या 'पेमेल' पर अंकित हैं। गवयों पर कंकालिनी चामडा की मुख मूर्तियाँ बैठायी गयी है, एक कतार में टमटमाती जीभ निकाले आकर्ण मुख फाड़े चमचमाते ताँबे की श्वापद प्रतिमाओं पर रोशनी झर रही है और उसकी चमक में उनके मुख और विकराल, और तमतमाये हुए जान पड़ते हैं।
          क्रूरता रस की इन अभिव्यक्तियों को देखकर वानर वीर को अरुचि हो गयी। किष्किन्धा की पाठशाला में गुरुओं द्वारा डिंगल-पिंगल, छायावाद-मायावाद आदि से मार्जित प्रक्षालित निरामिष, शुद्ध फलाहारी रुचि को यह सब कुरूप लगा। इसी समय ध्यान उचटा और उसकी नाक में भक्ष्य और पेय पदार्थों की सुगन्धि प्रवेश करने लगी। उसे लगा कि यह गन्ध नहीं पिता का आदेश है। वानर श्रेष्ठ उसी दिशा में बढ़ता गया।
          अग्रहायण की एकादशी का अन्तिम प्रहर है। कपिश्रेष्ठ इसी में उलूकाभिसार कर रहा है। रात रहते-रहते कोई फॉक, कोई दरार खोज लेनी है, जिससे रहस्य के भीतर झाँका जा सके। “मरुदगण मेरे अंग-अंग की रक्षा करें। जहाँ किसी का प्रवेश नहीं, वहाँ पिता प्रवेश कर जाते हैं। वे पिता मेरी रक्षा करें'', ऐसा मन-ही-मन कहत मरुतनन्दन हनुमान रावण की पान-भूमि और विहार-भूमि के मध्य प्रवेश कर जाते हैं। आधी रात कब की ढल चुकी है। चारों ओर मर्दित शोभा, अवश निद्रा और उच्छिष्ट गन्ध है। वाल्मीकि की कविता यहाँ पर पढ़ते हुए इलियट का 'वेस्टलैण्ड' याद आ जाता है, विशेषतः द्वितीय भाग में वर्णित किसी वीरांगना के श्रृंगार-कक्ष का रतिगन्धी चित्र। वह दर्पण के सम्मुख बैठी है। सम्मुख मखमली केसों में रखे गये रत्नजटित आभूषण अलमला रहे हैं, उसके हीरे के टॉप्स और उसकी स्वर्ण कुन्तलराशि रोशनी में अपूर्व आभामय हो उठे हैं। सामने प्रसाधन सामग्री है : गन्ध पर गन्ध, आभा पर आभा, एक उत्कट मद-विहलता, एक उत्कट रति-निमन्त्रण चारों ओर व्याप्त है।
शीतकालीन अग्निकुण्ड भी लेलिह्यमान रति-यज्ञ की तरह दमक रहा है और उसके 'मैण्टेल। पीस' के ऊपर श्रीक आरण्यक कथाओं का अंकन है - टीरियस फिलामेला के साथ बलात्कार करते हार। बलात्कार के बाद टीरियस ने फिलामला की जिल्ला काट ली। उसका जन्म हुआ बुलबुल के रूप में। वह सारी धरती को अपनी फरियाद सुनाती है। उसकी बलात्कार की करुण चीख हम बाग-बाग में सुनते हैं, फिर भी निरन्तर बलात्कार में हम
तल्लीन हैं। निरन्तर रतिक्रिया में लीन हैं। धरती का कामं-अगृत हमारे बलात्कार से। गलितविषाक्त हो चुका है। आज धरती बन्ध्या है, ऊसर है, मृत प्रसवा हैं। क्योंकि रतिक्रिया आज अग्नि-भक्षण बन चुकी है। यह प्राण, स्वास्थ्य और अमृत का स्रोत नहीं रही, इलियट का सारा 'वेस्टलैण्ड' इसी आत्मधिक्कार, इसी वितृष्णा, इसी वन्ध्याति की आत्मिक ग्लानि का चित्र देता है। वाल्मीकि द्वारा रावण के अन्तःपुर के अन्तिम चित्र को पढ़ते समय वितृष्णा, उच्छिष्टता और निरर्थक रतिक्रिया के प्रति वैसा ही आत्मधिक्कार मन उठता है। वाल्मीकि का कैनवास बहुत बड़ा है। उसमें यही नहीं, और-और बहुत-सी बातें हैं। यह सही है। पर घर्धित शोभा और वितृष्णा के काव्य के हिसाब से यह अंश अति ही मूल्यसम्पल ज्ञात
होता है और वेस्टलैण्ड के संस्कारों के माध्यम से य मूल्य और अधिक अर्थमय तथा स्पष्ट हो आते हैं। किस प्रकार नवलेखन और नये साहित्य द्वारा प्राचीन, जो जड़ नहीं हो चुका है, नया प्राण और संस्कार पाता है, इस तथ्य का कुछ-कुछ अनुभव यहाँ पर हो जाता है। नवीन को प्राचीन आधार देता है। और बदले में नवीन से पुन:संस्कार या कायाकल्प पाता है।।
          मारुति देखता है कि रावण के अन्तःपुर में श्रृंगार लीला से थककर या पान-भक्षण से बेसुध हो, जो जहाँ पड़ा, वहीं पड़ा रहा। चारों ओर मौन उदासी, श्री-हीनता और वमिषा अर्थात् उबकाई का वातावरण है और इस सारे दृश्य को एकटक, एकमात्र देखनेवाले हैं। जलते हुए दीपक, जो ‘हारे हुए धूर्त जुआरियों की तरह एक पॉत में चुपचाप बैठे हैं सिर पर हाथ देकर।' जलते दीपों को छोड़कर शेष सभी अस्तव्यस्त, मर्दित-धर्षत, सुप्त, अवश हैं। रौंदी लताओं की तरह, वाहिता किशोरी घोड़ियों-जैसी, श्रान्त अवश सुप्त प्रमदाएँ इधर-उधर, चित्त-पट उत्तान करवट बेखबर सोयी हैं। कोई वीणा को कसकर आलिंगन में बाँधे हैं, कोई मदपान से बेसुध मृदंग को ही कामातुर भाव से दबाये है। कोई अन्य प्रमदा को ही प्रेमी
मानकर लिपटी हुई है। चारों ओर घोर रमणतृषा, घोर उत्कट देह-गन्ध और रति-मर्दित उच्छिष्ट श्री! सन्ध्याकाल में जो कुछ लक्ष्मी की छवि, श्री-जैसा मनोहर था, वह सब-कुछ कुश्री विश्री हो चुका है। कपिश्रेष्ठ के ब्रह्मचारी चित्त में बड़ी वितृष्णा हुई। उन्हें सन्तोष भी। हुआ कि अन्य नरों की भाँति, कूकर-शूकर की भाँति उन्होंने इस उच्छिष्ट अपावन भोग को अपने शरीर में कभी नहीं लपेटा और निरन्तर ब्रह्मचर्य का अमृत पीकर, जाँघों पर ताल ठोंककर, विचरण करते रहे। सुप्त मांस की विशाल राशि की तरह पलंग पर पड़ा था। उसकी ओर उपेक्षा की दृष्टि डालते वे बाहर निकल गये। रास्ते में सारी पान-भूमि जूठे बरतनों, शृंगारों, करकों, मृदभांडों, उलटी सुराहियों से भरी पड़ी थी। कहीं माँस की ढेरियाँ, कहीं फल-मूल, कहीं व्यंजनों की राशि, तो कहीं-कहीं लबा भरे मदिरा के घट अब भी पड़े थे। दही और मसालों की गन्ध से तथा मदिरा की उत्कट वाष्प से उनका माथा भिन्न गया। वे बाहर निकल आये।
पूर्व दिशा में लालिमा के आसार अभी प्रकट नहीं हुए हैं। पर रात्रि एक घड़ी शेष है। चहचहिया बोलने लगी है। मारुति एक प्राचीर पर बैठकर ताजी स्वच्छ हवा से प्राण शुद्ध कर रहे हैं। रात के झरते बकुल और पारिजात की गन्ध से सम्पृक्त हवा उन्हें बार-बार इशारा कर रही है. एक दिशा-विशेष की ओर। यह सुगन्ध उन्हें वैसे ही रावण की अशोकवाटिका की ओर खींच रही है, जैसे कोई बहन उत्कण्ठा से भाई को पत्र लिख-लिखकर बुलाती है।
अशोकवाटिका का ख्याल आते ही महाकपि के असीम धीर-गम्भीर हुदय में नयी आशा का। संचार हो गया। वे मन-ही-मन विश्वात्मा ईश्वर और विश्वमन की उदात्त शक्तियों से प्रार्थना करने लगे कि उस उन्नत नासिका, कुन्दश्वेत दन्तपंक्ति, व्रणहीन स्निग्ध मुख-मण्डल, पद्म पलाश लोचन एवं निर्मल चन्द्रोपम अंगकान्तिवाली आयो भगवती मैथली के दर्शन पा जाये, जो कहीं पर यहीं पिंजरबद्ध सारिका-सी छटपटा रही होगी-
तदुन्नसं पांडुरदंतमव्रणं
शुचिस्मितं पद्य पलाशलोचनम्
द्रक्ष्ये तदार्या वदनं कदान्वहं
प्रसन्न ताराधिप तुल्य दर्शनम्।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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इमेल- atul15290@gmail.com
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