विक्रमसेन के हीरे-श्रीप्रसाद



          ‘बैतालपचीसी’ के आरंभ में कहा गया है भिक्षु शांतिरत्न रोज राजा विक्रमसेन के पास आता था और उन्हें एक फल भेंट करता था। राजा जिस सहज भाव से फल लेता था, उसी सहज भाव से फल मंत्री को दे देता था। मंत्री भी सहज भाव से फल महल की एक अँधेरी कोठरी में फेंक देता था। न राजा कभी मंत्री को दिए गए फलों की बात सोचता था और न मंत्री कभी उन फलों की जानकारी लेता था।
           एक दिन एक विचित्र घटना घट गयी। जैसे ही राजा ने मंत्री की ओर फल उछाला की रनिवास में से निकले बंदर ने एक बच्चे ने फल झपट कर ले लिया। बंदरों की जैसी आदत होती है, उसी के अनुसार उसने फल को दाँतो से काटना शुरु कर दिया। दाँत लगते ही पल में फाँक हुई और कुछ हीरे उसमें से निकल कर जमीन पर गिरे। राजा को आश्चर्य हुआ। भिक्षु जा चुका था। वह रहस्य किससे पूछता। पर मंत्री से वह बोला-‘ मैं जो रोज तुम्हें फल देता हूँ, उसका तुम क्या करते हो?
‘हुजूर, उस फल को मैं महल की एक अँधेरी कोठरी में फेंक देता हूँ।‘
‘तुमने कभी यह पता नहीं लगाया कि फलों का क्या हुआ?
‘नहीं।‘
‘तो चलो देखें।‘
राजा और मंत्री चल पड़े।
जब कोठरी का दरवाजा खोल कर देखा तो बड़ा अचंभा हुआ। पूरी कोठरी हीरों से जगमगा रही थी, मानों कोठरी में सूरज उतर आया है या चाँद। फल सड़-गल कर समाप्त हो गए थे और कोठरी हीरों से भरी हुई थी।
           बहुत सी प्रतिभाएँ, बहुत से अच्छे अवसर और बहुत से अच्छे लोग ऐसे ही पास आकर निकल जाते हैं। उपेक्षित रह जाते हैं और उनके महत्व को नहीं जान पाता। बंदर का बच्चा हमारी चेतना है और जो कभी-कभी अवसर को पकड़ लेती है, परिस्थितियों का विश्लेषण कर बैठती है और तब हमें मिल जाती है कोई अमूल्य प्रतिभा और कोई महान अवसर। अन्यथा प्रतिभाएँ उपेक्षित होकर अंधकार में चली जाती हैं और कुछ हाथ नहीं रहता।
           आदमी रूढ़ियों में बँधा हुआ है। उसका संपूर्ण चिंतन रूढ़िबद्ध होता है। शांतिरत्न फल देता रहता है, राजा फल लेकर मंत्री को दिया करता है और मंत्री अँधेरी कोठरी में फल फेंकता रहता है। न राजा नए सिरे से फल के बारे में सोचता है, न मंत्री। हमारी धारणा बन गई है की प्रतिभाएँ किन्हीं विशेष जातियों में ही जन्म लेती हैं- वे जातियाँ धनी हो सकती हैं, उच्च वर्ण की हो सकती हैं। पर वास्तविकता यह नहीं है। प्रतिभा प्राकृतिक अवदान है। वह किस में घर करेगी, यह कोई नहीं जानता। उसकी खोज के लिए हमें अपनी चेतना को रूढ़िमुक्त करना पड़ेगा। नए सिरे से सोचना पड़ेगा। हमें जो व्यक्ति रूपी फल मिला है उसके आभ्यंतर को सावधानी से देखना पड़ेगा।
           प्रायः यह माना जाता है कि शिक्षा में नगर निवासी ही आगे बढ़ सकते हैं और नगरों में भी धनी परिवारों को ही ऊँची से ऊँची तथा अधिक से अधिक शिक्षा लेने का अधिकार है- सिद्धांततः न सही पर व्यवहारतः तो ऐसा ही दिखाई देता है। मँहगी शिक्षा में भला गरीब घर का बच्चा कैसे जा सकता है। कान्वेंट, पब्लिक और आधुनिक शिक्षा पद्धति के साधन संपन्न स्कूलों में जाने के लिए काफी पैसा चाहिए। तुलसीदास ने लिखा है- करमजाल कलिकाल कठिन, आधीन सुसाधित दाम को।’
          तुलसीदास भक्त थे। उन्हें धन पर आश्रित भक्ति मँहगी लगी। इसलिए उन्होंने निर्धनों का मार्ग पकड़ा, राम नाम का स्मरण। आज का गरीब, धनी और निर्धन के दो वर्गों में बैठकर गरीबों की दुनिया में चला जाता है। कान्वेंट और पब्लिक स्कूलों के बच्चे रिक्शों और बसों में पढ़ने जाते हैं और गरीबों के बच्चे पैदल जाते हैं। धनियों के विद्यालयों की शानदार इमारतें हैं, खेल के मैदान हैं और बच्चों की अंग्रेजी पोशाक है, गरीबों के बच्चे खंडहर में या पेड़ों के नीचे अथवा मैदान की धूल में बैठकर पढ़ते हैं। बरसात में मैदान में जब पानी भर जाता है तो ये रेनी-डे मनाते हैं। एक के लिए रेनी-डे मनोरंजन है दूसरे के लिए रेनी-डे एक लाचारी। यही तो आइंस्टीन का सापेक्षतावाद है। सापेक्षतावाद परिस्थिति विशेष में अलग-अलग होता है। प्रिय से बात करते हुए एक घंटा पाँच मिनट लगता है और प्रिय के वियोग में पाँच मिनट एक घंटे के बराबर। कृष्ण के वृंदावन से मथुरा चले जाने पर गोपियों की इस बात से बड़ा आश्चर्य होता था कि वन हरे-भरे बने हुए हैं, विरह की आग में जले नहीं।
   प्रतिभा अपने को प्रकट करके ही रहती है, पर यदि शिक्षा और वातावरण न मिले तो प्रतिभा का पूरा विकास कदापि न हो सकेगा। यदि किसी का विकास हुआ है तो वह अपराध है। आज शिक्षा ने भी समाज को दो भागों में बांट दिया- धनिकों का समाज, निर्धनों का समाज। सरस्वती के भी छोटे-बड़े दो तरह के मंदिर हैं। इतना ही नहीं, बहुत बड़ी संख्या में तो ऐसे बच्चे भी हैं, जिन्होंने कभी विद्यालय के दर्शन भी नहीं किए। आज की परिस्थितियों में भी दर्शन वे करेंगे, इसकी भी कम ही संभावना है। शिक्षा के क्षेत्र में आज जो आपाधापी और व्यक्तिवाद पनप रहा है उससे अशिक्षा और बढ़ेगी। देश की शिक्षा की समस्या को सुलझाने के प्रयास में समस्या और उलझ रही है। शिक्षा का प्रश्न पूर्णतः राष्ट्रीय है और राष्ट्र का कर्तव्य है कि शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति को नहीं तो प्रत्येक बालक को अवश्य मिले। शिक्षा केवल एक पारिवारिक प्रश्न ही नहीं है। गली-कूचों में घूमनेवाले, होटलों में काम करने वाले, रईसघरों के बच्चों को खेलाने वाले और गाँव में जानवर चरानेवाले और घास खोदनेवालें बच्चों को शिक्षा कौन देगा? राष्ट्र ही न। देश की सत्तर करोड़ की आबादी के प्रत्येक बालक को शिक्षित होने का अधिकार है। इसके लिए धन की कमी या साधनों के अभाव की बात न युक्तिसंगत है, न व्यावहारिक। सिद्धांततः किसी बात को मानते रहने से कुछ नहीं होता।
           और जो शिक्षा चल रही है, उसमें एक ओर जहाँ मात्रा का अभाव है, वहीं जो शिक्षा दी जा रही है, उसमें गुणवत्ता की भी बेहद कमी है। आज की शिक्षा में वैयक्तिक प्रतिभा की खोज के अवसर कम हैं- सबको सामान्य शिक्षा देने पर बल अधिक है, ऐसी शिक्षा, जिसका लक्ष्य मात्र आजीविका कमाना है। आज की शिक्षा, कला और साहित्य की सरसता से शून्य है। कला और साहित्य से मानवीय मूल्यों का सहजता से विकास होता है। देश में मूल्यों के ह्रास में इस शिक्षा की प्रकृति भी है। हमने शिक्षा में मनुष्य की सत्ता का गुण नहीं बताया और इंजीनियर और डॉक्टर बना दिए- भौतिक समृद्धि की मृगमरीचिका तो दिखाई, पर मानवीय आदर्शों का बीज नहीं बोया। शायद इस ओर अब भी ध्यान नहीं है और शिक्षा का नीरस व्यापार अबाध गति से चल रहा है।
           विक्रमसेन को एकाएक असंख्य हीरे मिल गए। हमारे पास भी फल हैं, पर उनमें छिपे प्रतिभारूपी हीरों को हम पहचानना नहीं चाहते, उन फलों की अंतर्निहित सत्ता को हम उद्घाटित ही नहीं करना चाहते, क्योंकि अवसरों को खास व्यक्तियों के लिए सुरक्षित मान लिया गया है। यह उचित नहीं है। कहते हैं, गणितज्ञ रामानुजन एक साधारण क्लर्क थे। कुछ लोगों ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और उनकी शिक्षा-दीक्षा की पूरी व्यवस्था की। वे विश्वप्रसिद्ध गणितज्ञ सिद्ध हुए। संपूर्ण समाज में ऐसी अनेक प्रतिभाएँ होगी, जो पूर्ण शिक्षा और अवसर न मिलने के कारण अन्धकार में खो रही होंगी। प्रतिभा का सही उपयोग न होने के कारण ही देश में प्रतिभा पलायन की समस्या से उत्पन्न हुई है। भारतीय संस्कारों में पला व्यक्ति सहसा यावत् जीवन विदेश में जाकर रहना पसन्द नहीं करेगा। पर अपना पूरा उपयोग न होते देख कर विदेश की सीमा में पाँव रखेगा ही। राम दुलारे की शिक्षा मात्र कक्षा चार है और रामनरेश की हाईस्कूल। रामदुलारे में गणित की प्रतिभा छिपी रह गई और रामनरेश में अपनी शिक्षा के सभी विषयों की प्रतिभा। हाईस्कूल उत्तीर्ण रामनरेश ने आचार्य उत्तीर्ण पंडित जी को अपने संस्कृत ज्ञान से चक्कर में डाल दिया था। यदि इन प्रतिभाओं को अवसर मिला होता, इन हीरो को परख लिया गया होता तो यह एक अच्छी बात होती। शिक्षा का ध्यान इस ओर होना चाहिए। समाज और राष्ट्र के सोचने का भी यही आधार होना चाहिए। निश्चित है कि ऐसा सोचने से समाज का स्वरूप बदलेगा, समाज में क्रान्ति जैसी उपस्थिति होगी। पर यह अनुचित नहीं, यह राष्ट्र के हित में है। सही व्यक्तियों से ही राष्ट्र का हित होता है। सही शिक्षा से सही लोगों में ही देश प्रेम पैदा होगा और ही राष्ट्र को आगे ले जायेंगे।
           कबीर, रैदास, दादू और पलटू आदि अनेक प्रतिभाएँ ऐसी ही रही हैं। जिन्हें रूढ़ि में बँधा समाज महत्व देने से कतराता रहा। पर क्या ये दैवी प्रतिभाएँ नहीं थी। कबीर ने ललकार कर रूढ़ियों का विरोध किया-
भेरे चढ़े ते अधधर डूबे,
निराधार भए  पार।
           रूढ़ियों के दिन लद गए। अब नये प्रकाश की आवश्यकता है। सभी मान्यताओं को नए सिरे से देखना होगा, नए सिरे से पहचानना होगा और नई व्यवस्था करनी होगी अन्यथा विक्रमसेन हीरे खोता रहेगा और हीरे अन्धकार में पड़े रहेंगे, निरर्थक- निष्प्रयोजन।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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