काम नहीं प्रेम



कालिदास मूलतः मिलन के कवि हैं। देखने में जो विरह है। वह भी विरह मिलन की कसौटी है। वीरह का मिलन श्रेष्ठ है। टिकाऊ, स्थायी, आनन्ददायक है। केवल मिलन बाधित हो जाता है। मिलन की सीमा है। विरह निस्सीम है। लंका में बंदिनी, वियोगिनी सीता कहती हैं- तत्व प्रेम कर मम अरु तोरा। जानत प्रिया एक मनु मोरा। प्रेम का तत्व ‘एक’ में है। एक रहने, होने में है। सीताराम जहाँ जैसे रहे। एक हैं। एक मन वाले। मन नाही दस-बीस। राधाकृष्ण का मन भी ऐसा ही है। किन्तु शिव-पार्वती के मन में अन्तर है। तभी ‘संपृक्त’ शब्द का प्रयोग हुआ। सम्पृक्त अर्थात मिला हुआ। जुड़ा। युगनद्ध। देवी सती ने शिव मन के विरुद्ध राम की परीक्षा ली। शिव इस परीक्षा के विरुद्ध थे किन्तु सती अपने संदेह पर अटल थी। जौं तुम्हरे मन अति संदेहू। यह ‘अति सुदेह’ राम की भगवत्ता पर था। शिव के विश्वास पर था। शिव को अतिक्रान्त कर सती ने राम की, शिव विश्वास की परीक्षा ली। सती का मन शिव मन नहीं था। उनका मन अलग। तन अलग था। तन शिव के साथ। मन अविश्वास के साथ। ऐसा परिवार कैसे चलता?
          मन ही तो असली चीज है। सती का मन बहक गया था। शिव ने संकल्प किया। वह बेमन वाले तन से संपर्क नहीं करेंगे। एहिं तन सतीहि भेंट मोहि नाही।  शिव और सती साथ हैं, किंतु मन अलग है। राम और सीता अलग हैं, किन्तु मन साथ से भी अधिक साथ है। एक हैं शरीर दो हैं। मन एक है। कालिदास दो मन को एक करते हैं। शिव मन अत्यंत विरक्त है। सती मन अपनी भूल स्वीकार करता है। शिव मन का होना चाहता है। मन की एकता तपस्या से संभव है। पार्वती तपस्या करती हैं। शिव से सम्पृक्त होने के लिए। वियुक्त मन को जलाती हैं। शुद्ध करती हैं। शिव का मन बनाती हैं। शिव ने काम जलाया था। पार्वती अविश्वास को जलाती हैं। प्रत्येक पत्नी पति मन बनाती है। पति मन न बनाने वाली का पतन हो जाता है। पति भी ऐसा ही करता है। शिव का मन वियुक्त है। कामदेव दो मनों को एक करना चाहता है, किन्तु शिव ने काम को जला दिया। शिव और पार्वती के बीच में काम का स्थान नहीं है। काम पक्ष दो से भिन्न तीसरा है। पति-पत्नी के बीच तीसरे का स्थान नहीं होना चाहिए। काम वाला तन, मन पुनः पुनः धोखा खा जाएगा। अलग हो जाएगा, अतः शिव और पार्वती काम को जलाकर मिलते हैं। सम्पृक्त होते हैं। काम के बाद ही अर्धनारीश्वर की कल्पना साकार होती है। अर्धनारी, अर्ध ईश्वर, आधा पार्वती। आधा कृष्ण। आधी राधा। राधाकृष्ण। कृष्ण कृष्ण जपते राधा कृष्ण हो जाती है। राधा भेल मधाई। एक हो गई। पूछा जा सकता राधा कृष्ण हुई। कृष्ण राधा नहीं हुए। कृष्ण तो राधा पहले से हैं। संपूर्ण दृश्य कृष्ण का। परमात्मा का प्रतिबिंब है। इसलिए कृष्ण को, पुरुष को, प्रकृति बनने की आवश्यकता नहीं है। प्रकृति परमात्मा से वियुक्त है। उसे परमात्मा बनना है। सम्पृक्त होना है। वियोग प्रकृति को होता है। प्रकृति पुरुष से जुड़ती है। वही विराट् से अलग हुई थी।
          सामान्यतः लोग समझते हैं, स्त्री, पुरुष या पति-पत्नी का सम्बन्ध काम-सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध अव्यावहारिक है। विच्छेद वाला है। काम सम्बन्ध नित्य-सम्बन्ध, सम्पृक्त सम्बन्ध नहीं हो सकता। काम में चंचलता है, स्थिरता का अभाव है, सम्पृक्त होना है तो काम से मुक्ति लो। चंचल काम कभी न कभी तुम्हें छोड़ेगा तो उसे पहले ही छोड़ दो। जुड़ने की उम्र होती है तो टूटने की भी उम्र होती है। शिव-पार्वती परिवार चाहते हैं। रति चाहते हैं, किन्तु काम रहित रति, आनन्द। कालिदास का कुमारसंभव काम को जलाता भी है। जगाता भी है। शापित कर वरदान देता है, काम एक प्रकार का गोंद है जो दो शरीरों को जोड़ता है। किंतु मन जोड़ना उसका काम नहीं है। सन्तान उत्पन्न कर भी वह परिवार और समाज का विरोधी है। गोंद का काम जोड़ना भर है, काम का काम जोड़ना भर है। उसके बाद नहीं। अच्छा हो, काम को अस्वीकार कर, जलाकर उसकी राख से जोड़ा जाय। यह पद्धति अधिक अच्छी है। परिवार द्वारा निर्धारित विवाह में काम का स्थान अत्यंत गौण है। निर्धारित विवाह में काम बाद में आता है, अतिथि रूप में आता है, लौट जाता है। सावधान हैं कालिदास। सावधान हैं पार्वती। तपस्या परिवार की सहमति से करती हैं। तपस्या की पूर्णता पर पुनः शिव से आग्रह करती हैं। पार्वती को पाने के लिए उनके माता-पिता से निवेदन करना होगा। शिव और पार्वती काम विवाह नहीं। गुरुजन निर्धारित विवाह करेंगे। यह सम्पृक्त विवाह होगा। स्थायी और जन्म-जन्मांतर का होगा।
           कालिदास स्वच्छंदतावादी नहीं है। स्वच्छंद विवाह नहीं। स्वच्छंद काम नहीं। प्रतिबन्धित और अनुबन्धित काम। ऊपर ऊपर से देखने में लगेगा कालिदास का मेघदूत स्वच्छंदता का काव्य है, किन्तु यक्ष की संपूर्ण पीड़ा और रोमिक कथनों में काम पीड़ा नहीं। प्रिय वियोग की पीड़ा है। प्रेम की पीर है। भक्ति के आचार्यों ने काम और प्रेम में अन्तर किया है। चैतन्य महाप्रभु कहते हैं- ‘काम स्वकेंद्रित होता है, प्रेम कृष्ण केन्द्रित है। काम में निज भोग की प्रधानता है। प्रेम में कृष्ण सुख का प्राबल्य है।1 यक्ष हो या राम, उन्हें प्रिया के दुख का दुख अधिक है। संपूर्ण मेघ में प्रिया के दुख को मिटाने का सन्देश है। लंका से लौटे हनुमान देवी सीता के विशाल दुख को नहीं कहने में ही भलाई मानते हैं। बिना कहे भल। सीता के दुख को सुनकर दुखी राम और दुखी होंगे। फिर भी राम की आँखों में जल भर आया। भरि आए जल राजिव नयना। काम और प्रेम का अंतर स्पष्ट करने के लिए ही शूर्पणखा के नाक-कान काटे गए थे। राम में काम अस्थिरता नहीं, प्रेम का शाश्वत है। परिवारी प्रेम की पीड़ा अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए होती है। पर दुख दुखिता पर सुख सुखिता। ऐसा प्रेम भागवत है, इस प्रेम से बड़ा कुछ भी नहीं है। रसखान कहते हैं-
प्रेम हरी कौं रूप है जो हरि प्रेम सरूप।
एक होइ वह द्वैं यों लसे, ज्यौं सूरज औ धूप।।
           कबीर इसे कभी ना घटने वाला ‘अघट प्रेम’ कहते हैं। रसखान प्रेम और परमात्मा को एक मानते हैं, सम्पृक्त नहीं। सम्पृक्त से बड़ा। कालिदास का उपमान वागर्थ है।  रसखान का सूर्य और धूप। सूर्य और धूप सम्पृक्त नहीं है, एक ही है। देखने में दो हैं। मीमांसा सम्पृक्त को नित्य सम्बन्ध कहती है। यह सम्बन्ध के बाद नित्य होता है, किन्तु नित्य कभी अनित्य न था, न है, न होगा। तुलसीदास का उपमान दूसरा है- शब्द -अर्थ की स्थिति जल और लहर सी है। राम-सीता का सम्बन्ध भी शब्द और अर्थ जैसा है। किन्तु यह पार्वती परमेश्वरी नहीं है। यह देखने कहने में भिन्न है। मूलतः अभिन्न है। रसखान के धूप और सूर्य के समान है।
पार्वती, परमेश्वर दो होकर एक हैं। राम सीता एक हैं, दो दीखते भर हैं। लहर और धूप की अलग सत्ता नहीं है, वागर्थ की अलग-अलग सत्ता भी है, तभी तो शब्दार्थी कहा गया। शब्दार्थ काव्य है, केवल शब्द प्रधानता छांदस है। अर्थ की प्रधानता वाला पुराण है, कथा-कहानी है। काव्य में शब्द और अर्थ दोनों की समान स्थिति है- ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’। मंत्र में शब्दों की प्रधानता है, संत लोग अर्थ भले न माने, किन्तु ‘सबद’ (शब्द) को मानते हैं। शब्द से ही ज्ञान होता है- ‘सबदन मारि जगाई रे फकीरवा’। शब्द साधना आकाश साधना है, आकाश परमात्मा है, आकाश का गुण शब्द है, संत शब्द आकाश को प्राप्त करता है। आकाश में पहुँचा अनाहत शब्द (नाद) सुनता है। संपूर्ण सृष्टि में अनाहत शब्द की निरन्तरता है, यह अनाहत भीतर-बाहर सर्वत्र है। शब्द मसि-कागद से भिन्न है, अभिन्न है, प्रायः भिन्न है। कठिनाई से कागज पर आता है, नहीं। मूल शब्द, अनाहत शब्द कागज पर कभी नहीं आ सकता है, अतः मसि-कागज का स्पर्श भी व्यर्थ है।
           किन्तु साहित्य या काव्य का शब्द अनाहत नहीं, आहत ध्वनि है। यह आकाश में है, लोक में है, अर्थ-सम्पृक्त है, अर्थहीन है, केवल ध्वनि है। अनेक शब्द अर्थ रहित हैं- ओम्, चलचल,चिलबिल,चुलुचुलु,मुलुमुलु,हुं हुं हुं हुं फट् फट् फट् फट्। पद्महस्ते स्वाहा.........।2 इस मंत्र का बार-बार जब सर्वसिद्धिदाता है। स्वाहा,स्वधा वषट् कार भी अर्थरहित माने जाते हैं। दो शब्दों वाले प्रयोगों में कभी-कभी अर्थहीन शब्द प्रयुक्त होते हैं- लोटा-ओटा,खाना-साना, मोटा-सोटा जैसे शब्दों में दूसरे शब्द निरर्थक हैं। ध्वन्यात्मक  शब्द भी अर्थ रहित होते हैं- कलकल, छलछल, टनटन, भनभन, फड़फड़ आदि। संगीत, नृत्य आदि में प्रायः अर्थहीन ध्वनियाँ हैं। इनका प्रभाव है किन्तु अर्थ नहीं है। कभी-कभी आरोपित नामों से वस्तु को जाना जाता है। नील गाय गाय नहीं है, दरियाई घोड़ा, घोड़ा नहीं है। चमरी गाय, गाय नहीं है। शब्द और अर्थ का नित्य संबंध होता है तो एक शब्द के अनेक अर्थ शायद होते। एक वस्तु या रूप के लिए अनेक शब्द नहीं होते।
           प्रत्येक व्यक्ति नित्य देखता है। उसके भोग की वस्तुओं के लिए शब्द नहीं है। गुड़ के अनेक प्रकार हैं, किन्तु सबके लिए एक है- मीठा। मीठा, कहीं विशेषण है, कहीं संज्ञा। मीठा भी अनुभव है, अनुभव नहीं तो मीठा अर्थहीन है। सभी अपरिचित भाषाएँ मात्र ध्वनि हैं। अंग्रेजी समझने वाला अंग्रेजी का रस लेता है, न समझने वाला उसे हल्ला मात्र मानता है। हिंदी के सिने गीतों का विदेशों में भी प्रचार है। यह प्रचार शब्दार्थ का नहीं, संगीत और ध्वनि का है। तकनीकी युग में देखिए, वस्तु पहले बनती है- नाम बाद में आते हैं। एक भाषा का नाम दूसरी भाषा में आता है। उसका अनुवाद आता है। कभी वस्तु। कभी नाम। कभी दोनों साथ-साथ आते हैं। यहाँ भी नित्य सम्बन्ध का अभाव है।
           शब्द की तीन शक्तियाँ मानी गयी हैं- अभिधा, लक्षणा और व्यंजना। सीता, राधा और पार्वती आदि भी शक्तियाँ हैं। परमात्मा की शक्तियाँ। शक्तियाँ शब्दों का अर्थ प्रकट करती हैं। देव शक्तियाँ देवों के लोग कार्यों को अभिव्यक्त करती हैं। केवल पुरुष व्यर्थ होता। स्त्री को आधार बनाकर ही वह लोग संचार करता है। ऐसे ही शक्तिमान् के अभाव में शक्ति की स्थिति नहीं बनती। कालिदास की कथा है। विद्योत्तमा के उत्तर में कालिदास ने दो उँगलियां उठायी थीं। विद्योत्तमा पराजित हुई। एक नहीं, दो शक्ति और शक्तिमान। प्रकृति और पुरुष, शब्द और अर्थ , दोनों एक हैं। एक से अनेक हुआ है। इसी से किसी ने एक कहा? किसी ने दो कहा। दोनों ने ठीक कहा। विद्योत्तमा भी ठीक थी, कालिदास भी ठीक थे। अभिधा, लक्षणा और व्यंजना को कभी-कभी अपाय देख तात्पर्यावृत्ति की आवश्यकता होती है। कालिदास और विद्योत्तमा के भावों का उपस्थित पंडित दल अर्थ लगाता है। तात्पर्य समझता है। दो मौन संकेत व्यर्थ होते। आवश्यकता तात्पर्य समझानेवाले की थी। शब्द और अर्थ सम्पृक्त हुए। तात्पर्यावृत्ति हट गई, पुनः आए होंगे। विद्योत्तमा और कालिदास की उठी उँगलियों को समझाने, तात्पर्य बताने। शब्द और अर्थ सम्पृक्त होकर काव्य बने। काव्य-जगत। शिव और पार्वती की सम्पृक्ति से संसार बना। षट् मुख संसार, विलक्षण मुखवाला संसार। षडानन, गजानन।
          पुराणों में सृष्टि रचना की कहानियाँ कभी-कभी विचित्र और बेढंगी लगती हैं, अनुचित भी। एक से अनेक होने को मानना होगा तब अनुचित को उचित मानना होगा। परमात्मा एक है, उसी एक से दूसरा हुआ, दूसरा उसकी शक्ति है, संतान है। अब आगे की सृष्टि इसी शक्ति संतान से चलती है। तभी ब्रह्मा सरस्वती का सम्बन्ध होता है। यह कथा रूपक भी है। सृष्टि के प्रारम्भ का सच भी है। इस तरह की कहानियाँ अन्यत्र भी हैं।
          पत्नी से परिवार है,पत्नी गृहणी है, गृहस्वामिनी। पत्नी रूपी कील पर परिवार-संसार चक्र चल रहा है। बिन घरनी घर भूत का डेरा है। इस गृहणी के कई रूप हैं। वह श्रेष्ठतम मंत्रदात्री (सलाहकार) है। रति के समय सम्पूर्ण आनन्द देनेवाली। कालिदास के अज कहते हैं- इंदुमति मेरी गृहणी, सचिव, एकान्त की सखी,ललित कलाओं की शिष्या थी। मेरा सबकुछ पत्नी इन्दुमती के अधीन था। शब्द-अर्थ का सम्बन्ध एकता वाला है। एक है। जल और लहर में भी दो स्वरूप हैं। सूर्य और प्रकाश में भी दो की आभासिक स्थिति है,ऐसे ही शब्द-अर्थ दो होकर एक हैं। एक होकर दो हैं। केवल शब्द नहीं,केवल अर्थ नहीं, दोनों का संयोग,संपृक्ति। विरहहीन मिलन वेस्वाद है। विरह तो मिलन का ही एक स्वरूप है। यक्ष की सम्पूर्ण चेतना विरहिणी प्रिया के साथ है। तभी उसने अचेतन मेघ को दूत बनाया। अचेतन के सामने अपनी सम्पूर्ण करुणा उड़ेल दी। केवल करुण ही नहीं,सम्पूर्ण सौन्दर्य,प्रिया का सौन्दर्य। देश-काल की प्रकृति,पथ का सौन्दर्य,मेघ असामान्य सन्देशवाहक है,मित्र है, अतः प्रिया की प्रतिष्ठा के साथ संदेशवाहक मित्र के प्रतिष्ठा का पूरा ध्यान है। आनन्द लेते जाओ,पथ की प्रकृति का आनन्द। आनन्द वाले संदेशवाहक का संदेश भी आनन्ददायक होगा। मेघ स्वयं द्रवणशील है। यक्ष के निवेदन ने उसे और भी द्रवित किया। मेघ उसकी कालिका शब्द है,द्रवणशीतला अर्थ है। कालिदास का यह संदेशवाहक शब्दार्थस्वरूप है। सुनता है,सुने को कहता है। यक्ष कह रहा है,मेघ कह रहा है यक्ष के निवेदन से। मित्र ने मित्र को करुण बना दिया। मेघ ने यक्ष की करुणा-दुख को ग्रहण किया जैसे हाथी नदी से जल ग्रहण करता है। जल-राशि का वाष्प मेघ बन जाता है। शब्द से उठा अर्थ प्रबोध की शक्ति बन जाता है। बिना अर्थ वाला शब्द संतो का हो सकता है। वह सामान्य का नहीं हो सकता है। बिना शब्द वाला अर्थ निर्गुण,निराकार है। इसका बोध भोक्ता को हो सकता है, होता है,किन्तु वह दूसरे को लाभान्वित नहीं कर सकता है। सर्व-साधारण को शब्दार्थ बनाना है। शब्द-अर्थ सा सम्पृक्त होना है। तभी परिवार समाज की स्थिति है। स्त्री,पुरुष का साम्य है। पितरौ बनने की स्थिति है।
          कालिदास ने शब्दार्थ बनाया। कवि का वागर्थ महाकवि का संदेश है। संदेशवाहक और भी हैं,हनुमान ने देवी सीता को श्रीराम का संदेश दिया था, उद्धव श्रीकृष्ण का संदेश देते हैं किन्तु मेघ जैसी आद्रता नहीं है। हनुमान की सीता-राम भक्ति में नम्रता है,समर्पण है। उद्धव विवादी हैं, विवाद बढ़ाते हैं। मेघ की सरसता के अभाव में तर्क को प्रतिष्ठित करते हैं, तर्क में ताकत है। किन्तु सहजता और समर्पण का अभाव है। शब्द और अर्थ परिवार हैं। परिवार शब्दार्थ है। वागर्थ है।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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