देवनागरी लिपि की विशेषताएँ

देवनागरी अपने विशिष्ट गुणों के कारण भारत के अधिकांश भागों में प्रचलित है। इस लिपि की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  1. देवनागरी लिपि में प्रत्येक वर्ण एक निश्चित ध्वनि संकेतित करता है, इसमें 11 स्वर तथा 35 व्यंजन ध्वनियां हैं।
  2. देवनागरी अक्षरों के नाम ध्वनि के अनुकूल है। इसमें मूकवर्ण की व्यवस्था नहीं है। इसमें जितना लिखा जाता है उतना ही पढ़ा जाता है।
  3. यह लिपि लेखन में कम जगह घेरती है क्योंकि क्र, प्र, क्ल, क्त, क्ष, त्र, म्न आदि लिखने की समुचित व्यवस्था है।
  4. देवनागरी लिपि का वर्णमाला क्रम वैज्ञानिक है। सबसे पहले स्वर (ह्रस्व, दीर्घ क्रम से), बाद में व्यंजन और वे उच्चारण स्थान तथा प्रयत्न के अनुसार कंठ्य, तालव्य, मूर्धन्य आदि और उसके अन्तर्गत पहले दो अघोष, फिर दो सघोष और पांचवे वर्ण अनुनासिक, दूसरे और चौथे महाप्राण, पहले और तीसरे वर्ण अल्पप्राण।
  5. देवनागरी लिपि में वर्षों के नाम उच्चारण के अनुसार है तथा लेखन तथा मुद्रण के अक्षरों में एकरूपता है।
  6. इस लिपि का प्रयोग विभिन्न भाषाओं में होता है। संस्कृत, हिन्दी, नेपाली, मराठी की यह एकमात्र लिपि है। पंजाबी तथा गुजराती के लिए भी यह प्रयुक्त होती है।

देवनागरी लिपि के दोष

  1. देवनागरी की वर्तनी में विविधता आ गयी है जिससे एक ही शब्द कई तरह से लिखा जा सकता है। उदा० गर्म-गरम, सर्दी-सरदी।
  2. देवनागरी को तीव्रगति से लिखने में कठिनाई होती है क्योंकि इसे लिखते समय लेखनी को बार-बार आगे-पीछे, ऊपर-नीचे उठाना पड़ता है। जैसे ऊ की मात्राएँ
  3. देवनागरी में मुद्रण कार्य तीव्र गति से नहीं हो पाता क्योंकि इस एक वर्ण में चिन्ह जोड़ने पड़ते है जबकि रोमन लिपि में चिन्ह आगे लगते चले जाते हैं।
  4. इस लिपि में लिखे गये वर्णों को पढ़ने में कभी-कभी भ्रमपूर्ण स्थितियाँ पैदा हो जाती है। उदा०- ख को र व भी लिखा जाता है।
  5. देवनागरी में संयुक्त व्यंजनों को लिखने की कई पद्धतियाँ प्रचलित है। कम उदा०- क्त = क्त, ट्ट = दृ।

देवनागरी लिपि में सुधार-

देवनागरी लिपि में सुधार के कई प्रयास किये गये, सर्वप्रथम लोकमान्य तिलक ने 1904 में कुछ टाइपों को मिलाकर लिपि सुधार का कार्य किया।

सावरकर बन्धुओं ने अ की बारहखड़ी तैयार की।

डॉ० श्यामसुन्दरदास ने सुझाव दिया कि ङ, ञ के स्थान पर अनुस्वार का प्रयोग किया जाए।

सन् 1935 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में लिपि सुधार समिति बनायी गयी। गांधी जी इस सम्मेलन के सभापति थे।

लिपि सुधार समिति के संयोजक काका कालेलकर थे 1945 में काशी की नागरी प्रचारिणी सभा ने अपने सुझाव प्रस्तुत किये।

1947 में उत्तर प्रदेश सरकार ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति गठित की जिसने अब तक गठित समितियों के सुझावों का अध्ययन किया तथा अपनी सिफारिशें प्रस्तुत की। इस समिति की प्रमुख सिफारिशें इस प्रकार है--

  1. अ की बारह खड़ी भ्रमपूर्ण है।
  2. अल्पप्राण व्यंजन के नीचे ऽ चिन्ह लगाकर महाप्राण बनाना उचित नहीं है।
  3. किसी व्यंजन के नीचे दूसरा व्यंजन न रखा जाय।
  4. मात्राओं को व्यंजन से हटाकर रखा जाए।
  5. अनुस्वार और पंचमाक्षर (ड्, ञ, ण, न्, म्) के बदले का प्रयोग किया जाय।
  6. संयुक्त व्यंजनों में पहले व्यंजन की पाई हटा दी जाय और शेष व्यंजन हलन्त करके लिखे जाए।
  7. शिरोरेखा का प्रयोग जारी रहना चाहिये।
  8. मराठी ळ को वर्णमाला में स्थान दिया जाय।
  9. इस पर विचार करने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने 1953 में अनेक राज्यों के सरकारी प्रतिनिधियों की एक बैठक बुलायी। इस बैठक में कुछ परिवर्तनों के साथ नरेन्द्र देव कमेटी की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया गया।

देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता एवं उत्कृष्टता –

देवनागरी अपने विशिष्ट गुणों के कारण भारत के अधिकांश भागों में प्रचलित है। इस लिपि की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-

  1. देवनागरी लिपि में उत्कृष्टता संबंधी वे सभी गुण हैं जो किसी भी उत्कृष्ट लिपि में आवश्यक होते हैं जैसे ध्वनि तथा वर्ण में सामंजस्य किसी भी भाषा की ध्वनियों तथा उन्हें प्रकट करने वाले लिप चिन्हों या वर्णों में जितना अधिक सामंजस्य होगा वह लिपि उतनी ही अधिक उत्कृष्ट मानी जाएगी देवनागरी में यह विशेषता पूर्ण रूप से मिलती है इसमें उच्चारण के अनुसार ही वर्ण निश्चित किए गए हैं अतः जो बोला जाता है वही लिखा जाता है और जो लिखा जाता है वही बोला भी जाता है एक धोनी के लिए एक ही संकेत एक ध्वनि के लिए अनेक संगीत तथा एक ही संकेत से अनेक ध्वनियों की अभिव्यक्ति भी इस लिपि का बहुत बड़ा दोष है रोमन तथा अरबी आदि लिपियों में यही दोष है रोमन लिपि में एक ही का धोनी के लिए अनेक संकेत है समग्र ध्वनियों की अभिव्यक्ति- उत्कृष्ट लिपि में यह गुण होता है कि वह किसी भाषा की समग्र ध्वनियों को लिपि संकेतों द्वारा अभिव्यक्त कर सकती है देवनागरी में यह गुण भी सर्वाधिक है रोमन आदि लिपियों में तथा आदि ध्वनियों को नहीं लिखा जा सकता है । असंदिग्धता उत्कृष्ट लिपि में एक ध्वनि संकेत में दूसरी ध्वनि का संदेह नहीं होना चाहिए अन्य लिपियों की अपेक्षा देवनागरी इस कसौटी पर भी खरी उतरती है रोमन में यूको ऊपर है या और इस प्रकार की भ्रांतियां प्रायः होती हैं पूर्ण विराम उपायुक्त गुणों के कारण देवनागरी लिपि वस्तुतः एक उत्कृष्ट लिपि है कुछ विद्वानों के अनुसार देवनागरी लिपि में री क्ष त्र ज्ञ आज कुछ अब अनावश्यक हो गए हैं ई की मात्रा वैज्ञानिक है क्योंकि वह लगती पहले है किंतु चरित बाद में होती है कुछ ध्वनियों जैसे और लोग आदि के लिए 22 लिपि चिन्ह है अतः आवश्यकता के अनुसार सुधार कर देवनागरी लिपि को और भी अधिक वैज्ञानिक या उत्कृष्ट बनाया जाना चाहिए लिपि-चिह्नों की पर्याप्तता: विश्व की अधिकांश लिपियों में चिह्न पर्याप्त नहीं हैं। अंग्रेजी में ध्वनियां 40 से ऊपर हैं, किन्तु केवल26 लिपि-चिह्नों से काम चलाना पड़ता है। उर्दू में भी ख, घ, छ, झ, ठ, ढ, ड, थ, ध, फ, भ आदि के लिए लिपि चिह नहीं हैं, और'हे' से मिलाकर इनका काम चलाते हैं। इस दृष्टि से नागरी पर्याप्त सम्पन्न हैं। नागरी का प्रयोग जिन-जिन भाषाओं के लिए हो रहा है, प्रयुक्त वर्णमाला उतने वैज्ञानिक रूप में विभाजित या वर्गीकत नहीं है, जितने वैज्ञानिक रूप में नागरी लिपि। उर्दू या रोमन लिपि भी इस कमी का अपवाद नहीं है। इसमें भी स्वर और व्यंजन (अलिफ़, बे, डी. ई, एफ आदि) या व्यंजन के वैज्ञानिक वर्ग (लाम, मीम, सी, डी आदि) मिले-जुले रूप में रखे गए हैं। नागरी लिपि में इस प्रकार की कमियां नहीं हैं। स्वर अलग है और व्यंजन अलग! स्वरों में भी (1) वर्णमाला का वर्गीकरणः विश्व के किसी भी कोने में बहुत ही कम है।
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