शकुन्तला का चरित्र-चित्रण (हिन्दी)
(1)कण्वपोषितापुत्री शकुन्तला-
महर्षि विश्वामित्र के उग्रतप को देखकर इन्द्र के मन में शङ्का हो गयी कि कहीं ये राजर्षि इन्द्र पद प्राप्त न करना चाहते हो । अतएव महर्षियों के तपश्चर्या में विघ्न करने वाली अप्सरा मेनका को इन्द्र ने विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए भेजा जैसा कि अनसूया ने दुष्यन्त को बतलाते हुए कहा- 'पुराकिल तस्य राजर्षेरुग्रेतपसि वर्तमानस्य कथमपि जातशङ्कैः देवैः मेनका नाम अप्सराः नियमविघ्नकारिणी प्रेषिता ।' पुनः वसन्तर्तु के मनोज्ञकाल में राजर्षि बिश्वामित्र मेनका के उन्मादक रूप जाल में फंस गए और उसी का परिणाम था कि मेनका के गर्भ से विश्वामित्र की पुत्री शकुन्तला उत्पन्न हुई। महर्षि कण्व तो बाल ब्रह्मचारी थे। उन्होंने मेनका के द्वारा परित्यक्त शकुन्तला का मात् रपालन-पोषण किया था, अत एव वे उसके पिता हुए। अनसूया ने दुष्यन्त को बताया भी था-"उज्झितायाः शरीरसंबर्द्धनादिभिः पुनस्तातकण्वोऽपि एतस्याः पिता ।'
(2)सौन्दर्यसीमा शकुन्तला-
अभिज्ञानशाकुन्तल की नायिका शकुन्तला अनुपमेय सुन्दरी है, वह किसी भी अन्तः पुर की सुन्दरी से अधिक सुन्दरी थी । राजा दुष्यन्त शकुन्तला के सौन्दर्य राशि की प्रशंसा करने से नहीं अघाते । अनसूया तथा प्रियम्बदा के समक्ष वे कहते हैं-
 
'मानुषीभ्यः कथं नु स्यादस्य रूपस्य संभवः ।  
  'सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यं, मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्मलक्ष्मी तनोति ।
  न प्रभातरलं ज्योतिरुदेति वसुधातलात् ।'
   इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी, किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ।'
दुष्यन्त की दृष्टि में जिसने शकुन्तला को अपनी आँखों नहीं देखा उसके नेत्र प्राप्त करने का फल ही नहीं प्राप्त हुआ। उन्होंने विदुषक से कहा-'सखे । माघव्य ! अनाप्तचक्षुः फलोऽसि' दुष्यन्त विदूषक से उसके लावण्यातिरेक का वर्णन करते हुए कहते हैं-
  
'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमलूनं कररुहैरनाविद्धं रत्नं मधु नवमनास्वादितरसम् ।
 अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघं न जाने भोक्तारं कमिह समुपस्थास्यति भुवि ।।'
(3)प्रकृति सम्बद्ध शकुन्तला-
शकुन्तला का पालन-पोषण तपोवन में हुआ था अतएव उसका प्रकृति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया था। वह तपोवन के वृक्षों लताओं, मृगों तथा पक्षियों को ही अपना बान्धव मानने लगी थी। अतएव वह बड़े स्नेह के साथ तपोवन के बाल पादपों का सेवन करती है। ग्रीष्म ऋतु में फूल देने बाले आश्रम वृक्षों को सींच लेने के पश्चात्, जिन वृक्षों के फूल देने का समय समाप्त हो गया है, उन वृक्षों को सींचना फलाभिसन्धिरहित कर्म के समान अत्यधिक पुण्यमय समझती है। उसकी सखियाँ उससे कहती है- 'सखि शकुन्तले ! उदकं लम्भिता एते ग्रीष्मकालकुसुमदायिनः आश्रमवृक्षाः । इदानीमतिक्रान्त कुसुमसमयानपि वृक्षान् सिचामः, तेनानभिसन्धिगुरुको धर्मो भविष्यति ।' शकुन्तला स्नेहधिक्य के कारण नवमल्लिका का नाम बनतोषिणी रखती है। अनसूया ने शकुन्तला से कहा भी- 'त्वया कृतनामधेया बनतोषिणीति नवमल्लिका' । शकुन्तला तो माधवी लता को सींचना तब ही भूल सकती है यदि वह अपने को भी भूल जाय । 'वह माधवी लता को इसलिए बहुत सींचती है कि वह उसे अपनी बहन मानती है। शकुन्तला के ही शब्दों में यतो भगिनी मे भवति ततः किमिति नः सिश्चामि ।'
प्रकृति प्रिया शकुन्तला भी जब अपने पतिगृह जाने लगती है तो मृगपोतक उसका मार्ग इसलिए रोकने लगते हैं कि शकुन्तला ने उसके मुख के घाव को ठीक करके उसको अपना पुत्र बना लिया था। कण्व कहते हैं-
    
'यस्य त्वया व्रणविरोपणमिङ्गुदीनां, तैलं न्यषिञ्चत मुखे कुशसूचिविद्धे । 
'उद्गीर्णदर्भकवला मृगी परित्यक्तनर्तना च मयूरी।
 श्यामाकमुष्टि परिवर्द्धितको जहाति, सोऽयं न पुत्रकृतकः पदवीं मृगस्ते ।।'
अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्ति अश्रु इव लताः ।।'
(4)सौशील्य गुणसम्पन्न शकुन्तला-
 शकुन्तला में सुशीलता कूट-कूटकर भरी हुई है, उसमें औद्धत्य कहीं देखने को भी नहीं मिलता है। वह राजा को देखकर उस पर मोहित होकर काम वेदना को सहती हुई अस्वस्थ हो जाती है किन्तु अपने मनोभावों को कहीं शीघ्रता से अभिव्यक्त नहीं होने देती है। उसकी बढ़ती हुई बेदनातिरेक को देखकर अनसूया और प्रियम्बदा समझ लेती हैं कि इसने जब से राजा दुष्यन्त को देखा है, तब से ही इसकी यह हालत है, अतएव इसको काम ज्वर की व्याधि है और राजा से मिलना ही इसकी औषधि है।
  राजा दुष्यन्त एकान्त में जब शकुन्तला का आँचल पकड़ लेता है तो वह सहसा कह पड़ती है- 'पौरव । रक्ष रक्ष विनयम् ।' राजा के सर्वथा अपने मनोनुकूल होने पर भी लज्जातिरेक के कारण वह अपनी सखियों से कहती है- 'हला । अलं वाम् अन्तःपुरविरहपर्युत्सुकेन राजर्षिणा उपरुद्धेन ।'   (5)पतिव्रता शकुन्तला-  अभिज्ञान शाकुन्तल की नायिका शकुन्तला एक पतिव्रता भारतीय नारी है। वह राजा दुष्यन्त को जब से अपना पति मानकर प्रेम करने लग जाती है, तब से उसके मन में कभी वैरस्य नहीं आता। गान्धर्व विधि से दुष्यन्त के द्वारा परिणीत होकर तो वह एकमात्र दुष्यन्त की ही हो जाती है। उसके लिए उसके पति दुष्यन्त ही हो जाते हैं। दुष्यन्त के तपोवन से चले जाने पर तो वह संज्ञाशून्य सी हो जाती है। दुष्यन्त की ही याद में खोयी हुई शकुन्तला को यह भी पता नहीं चलता है कि कौन आ रहा है और कौन जा रहा है। महर्षि दुर्वासा आते हैं और उसे शाप देकर लौट जाते हैं किन्तु वह इस बात को बिल्कुल नहीं जान पाती है, क्योंकि वह तो रात-दिन दुष्यन्त की ही याद में खोयी रहती है।
 दुर्वासा के शाप से ग्रस्त दुष्यन्त शकुन्तला को जब नहीं पहचानते हैं तो वह कुछ देर के लिए दुष्यन्त पर क्रोध तो अवश्य करती है किन्तु वह बाद में अपने भाग्य को ही धिक्कारने लगती है। मारीचाश्रम में भी जब वह राजा दुष्यन्त से मिलती है तो उसके मन में दुष्यन्त के प्रति अपार प्रेम प्रतीत होता है, वह राजा के प्रति किसी भी प्रकार का क्रोध नहीं अविष्कृत करती हैं।  (6)पूज्यजनों का समादरकर्त्री शकुन्तला-  शकुन्तला अपने पूज्यजनों का कभी भी अपमान नहीं करना चाहती है। वह अपने को गुरुजन परतन्त्र मानती है, अतएव वह स्वतन्त्र रूप से किसी भी कार्य को नहीं करना चाहती है। न चाहकर भी गुरुजन पारतन्त्र्य के कारण उसे दुष्यन्त से अलग होना पड़ता है। वह कहती है- 'नैतं जनं पर्याहरिष्यम् यद्यात्मनः प्राभविष्यम्।' तृतीय अंक में राजा के यह कहने पर कि मैं तुम्हारी कौन सी सेवा करूँ-
  
  
'कि शीकरैः क्लमविदिभिरार्द्रवातं संचालयामि नलिनीदलतालवृन्तम् । शकुन्तला कहती है कि-  'न माननीयेषु जनेषु आत्मानमपराधयिष्यामि ।' गौतमी शाङ्गरव तथा शारद्वत राजा के द्वारा प्रत्याख्यात होने पर भी उसे वहींछोड़कर जाने लगते हैं तो वह भी उन लोगों के पीछे चलने लगती है। किन्तु शार्ङ्गरव के द्वारा यह कहे जाने पर कि 'आः पुरोभागिनि ! किमिदं स्वतन्त्र्यमब लम्बसे ?' वह मारे डर के काँपने लग जाती है और वह आगे नहीं बढ़ती । वह जानती है कि अब आगे बढ़ना अपने पूज्य पुरुषों का अपमान करना होगा ।
इस तरह शकुन्तला भारतीय नारी का वह आदर्श है जिसके भीतर अपने प्रति-बिम्ब को देखकर कोई भी नारी भारतीय नारियों में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान कायम कर सकती है। कण्वस्य पोषितापुत्री शकुन्तला-  अभिज्ञान शाकुन्तलस्य नायिका शकुन्तला वस्तुतो राजर्षेः एव पुत्र्यासीत्। कदाचिदुग्रतपा राजर्षिः विश्वामित्र उग्रं तपश्चचार। तेन भयाक्रान्तो देवराज इन्द्रो नियमविघ्नकारिणीं मेनका नाम दिव्याङ्गना तस्य सविधे प्रेषयामास। वसन्तर्तौं समागते तस्या उन्मादकं रूपं विलोक्य राजर्षिविश्वामित्रः तस्या रूपपाशे निबद्धो बभूव। तस्य फलरूपेण विश्वामित्रात्मा शकुन्तला येनकायां जन्म लेभे। तथा चाहानसूया राजानं दुष्यन्तमभिज्ञानशाकुन्तलस्य प्रथमाङ्के 'अस्ति कोऽपि कौशिक इति गोत्रनामधेयो महाप्रभावो राजर्षिः।' तं सख्याः प्रभवमवगच्छ। 'पुरा किल तस्य राजर्षेरुग्रे तपसि वर्तमानस्य कथमपि जातशङ्क: देवैः मेनका नाम अप्सरा: नियमविघ्नकारिणी प्रेषिता। इति।'
 
बालब्रह्मचारी महर्षिः कण्वस्तु मेनकया परित्यक्तायाः शकुन्तलाया: शरीरादि सम्वर्द्धनादेव पितासीदिति प्राहानसूया राजानं दुष्यन्तम्। तथाहि- 'उज्झितायाः पुनः शरीरसंवर्द्धनादिभिः पुनस्तातकण्वोऽपि सस्याः पितेति।'
 
शकुन्तला रूपवतीनाम् सर्वथा प्रत्यादेशस्वरूपा वर्त्तते। तस्य अनिन्द्यं सौन्दर्य समवलोक्य सहसैवावलोक्य राजा दुष्यन्तः प्राह-
 
'शुद्धान्तदुर्लभमिदं वपुराश्रमवासिनो यदि जनस्यः। 
वल्कलवस्त्रधारिण्यास्तस्याः सामन्यसुन्दरीभ्यो रूपलावण्यमधिकमाकर्षकं वर्तते इति प्राह राजा दुष्यन्तः। सः वक्ति-वल्कलवस्त्रधारिणी तामवलोक्य-
 
'सरसिजमनुविद्धं शैवलेनापि रम्यम्, मलिनमपि हिमांशोर्लक्ष्मलक्ष्मी तनोति। 
येन जीवने शकुन्तला नावलोकिता तस्य नेत्रे विफले एवास्तः इति प्रतिप्रतिपादयन् राजा दुष्यन्तः प्राह– 'सखे! माधव्य! अनाप्तचक्षुःफलोऽसि' शकुन्तलायाः लावण्यराशेर्वर्णनं कुर्वता राज्ञा संतोषो नानुभूयते। स वक्ति-विदूषकस्य समक्षम्
 
'अनाघ्रातं पुष्पं किसलयमळूनं कररुहै; 
शकुन्तलायाः पालनं तपोबनेऽभवत्। एतस्यैव फलमास्ते यत् सा तपोवनस्य वृक्षान्, लताः, हरिणान्, पक्षिणश्च स्वबान्धवरूपेण मनुते। प्रकृतेरुपादानैस्सह तस्या अभेदसम्बन्धो वर्त्तते। 
 
अतएव सा मनसा स्नेहेन सखीभ्यां साकम् आम्रवृक्षाणां सेचनम् करोति। स्नेहातिरेकादेव हेतोः शकुन्तलया नवमल्लिकाया नाम वनतोषिणी कृता। तथा चाहानसूया शकुन्तलाम्- 'त्वया कृतनामधेया वनतोषिणीति नवमल्लिका।' इति। शकुन्तला माधवीलतायाः सेचनम् तु तदा विस्मरिष्यति या सा आत्मानमपि नहि संस्मरेत्। यतः सा माधवीलताम् स्वभगिनीं मनुते आतस्याम् सोदरस्नेहात् सा तामतिमात्रम् सिञ्चति। तथा चाह शकुन्तला- 'यतो भगिनी मे भवति ततः किमिति न सिञ्चामि?' इति।
 
प्रकृतिप्रिया शकुन्तला यदा स्वपतिगृहाय प्रस्थानं करोति तदा कृतपुत्रः मृगपोतकः तस्याः पन्थानमवरुणद्धि। तथा चाह महर्षिः कण्वः
 
'यस्य त्वया व्रणविरोपणमिङगुदीनाम् 
शकुन्तलायाः विरहपर्युत्सुकाः तपोवनस्य पादपाः पशवः पक्षिणश्च विषण्णा भवन्ति। तथा चाह प्रियम्वदा शकुन्तला-
 
'उद्गीर्ण दर्भकवला परित्यक्तनर्तना च मयूरी। 
पतिगृहं प्रयान्ती शकुन्तलामधिकृत्य महर्षिः कण्वः तपोवनस्य वृक्षानुद्दिश्य महर्षिः कण्वः प्राह-
 
'पातुं न प्रथमं व्यवस्यति जलं युष्मास्वपीतेषु या, 
अखिलेऽस्मिन्नभिज्ञानशाकुन्तले शकुन्तमितभाषित्वम् तु तस्याः प्रधानो गुणआभाति। प्रायेण तस्याः अधिका अभिव्यक्तयः लाया: व्याहारव्यवहारयोः क्वापि औद्धत्यं नावलोक्यते, सर्वदा सा संयताऽयाति। मितभाषित्वम् तु तस्याः प्रधानो गुणआभाति। प्रायेण तस्याः अधिका अभिवक्तयः सहयोगिनामेव मुखेन भवन्ति इत्यवलोक्यते। यत्र क्वापि तस्या मनोगताभिप्रायानुकूलम् प्रियम्बदा-नसूया-गौतमी-कश्यपादित्यादिकाः वदन्ति, तत्र सा मौनमेवाकलयति, स्वयमेव किमपि नहि वदामीति तस्याः शीलस्य सीमा।
 
शकुन्तला सर्वत्रात्मच्छन्द्वाचरणं वारयति सा सर्वदा सर्वत्र च गुरुजनानां पारतन्त्र्यमनुभवति। प्रथमाङ्के गुरुजनत्मनः प्राभविष्यम्। 'यदा परस्पर कामासक्ती शकुन्तला-दुष्यन्ती रहसि विहाय संख्यौ पारतन्त्र्यमनुभूयैवं विप्रयुक्ता भवति।' तथा च सा---'नैतं जनं पर्याहरिष्यम् यद्यात्मनः प्राभविष्यम्। यदा परस्परं कामासक्तौ शकुन्तला-दुष्यन्तौ रहसि विहाय सख्यौ निर्गच्छतः तदा दुष्यन्तेन-
 
'कि शीकरैः क्लमविमर्दिभिरार्द्रवातम्, 
इति चाटुक्त्यानुनीयमाना मा वक्ति 'न माननीयेषु जनेषु आत्मानमपराधयिष्यामि।' इति। दुर्वाससः शापग्रस्तेन दुष्यन्तेन प्रत्याख्यातामपि शकुन्तलाम् विहाय यदा गौतमी शार्ङ्गरव शारद्वतमिश्राः स्वाश्रमाय प्रस्थानम् कुर्वन्ति तदा शकुन्तला तेषामनुगमनम् करोति। तां तथा कुर्वन्ती प्रेक्ष्य----'आः पुरोभागिनि! किमिदं स्वातन्त्र्यमवलम्बते?' इति कुद्धः शार्ङ्गरवो यदा वक्ति तदा सा वेपते, किमप्यनुक्त्वा तत्रैव स्थिता भवति। सा जानाति यत् पुनः तेषामनुगमनम् गुरुजनानामवमाननायैव भविष्यतीति। सप्तमाङ्केऽपि दुष्यन्तेन सङ्गता सा कश्यपादित्योः समक्षम् दुष्यन्तेन सार्क नहि जिगमिपाति इति तस्याः महती गुरुजनेषु श्रद्धा दृश्यते।
 
शकुन्तला सर्वथा विनयाचरणं तृतीयांके सहसा दुष्यन्तो तस्याः चैलाञ्चलं गृह्णाति तदा सा वक्ति- 'पौरव! रक्षरक्ष विनयम्।' इति। विनयाचरणादेव सा कदापि सख्योरुपरि क्रुद्धा नहि भवति। प्रियम्वदानसूयाभ्याम् तस्याः मनोनुकूले सम्पादितेऽपि राजनि सा लज्जाविनयवारिता सती वक्ति- 'हला! अलं वाम् अन्तःपुरविरहपर्युत्सुकेन राजर्षिणा उपरुद्धेन।' इति।
 
भारतीय पतिव्रतानां नारीणाम् आदर्शभूता शकुन्तला सम्पूर्णे शाकुन्तले पातिव्रत्यपरायणा प्रतीयते। पतिव्रतानामेकः पतिरेव परादेवता भवति लोके। पत्युरेवानुरञ्जनम्, तस्य मनोनुकूलाचरणञ्च पतिव्रतानामेकम् कर्म।
 अङ्के निधाय चरणावुत पद्मताम्रौ संवाहयामि करभोरु यथा सुखं ते ॥'शकुन्तलायाः चरित्रचित्रणम् (संस्कृत)
  
दूरीकृताः खलु गुणैरुद्यानलता वनलताभिः॥।'
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम् ॥'
रनाविद्धं रत्नं मधुनवमनास्वादितरसम्।
अखण्डं पुण्यानां फलमिव च तद्रूपमनघं;
न जाने भोक्तारं कमिहसमुपस्थास्यति भुवि।'
तैलं न्यषिञ्चत मुखे' कुशसूचविद्धे।
श्यामाकमुष्टिपरिवद्धितको जहाति
सोऽयं न पुत्रकृतकः पदवीं मृगस्ते ॥'
अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्ति अश्रु इव लताः ॥'
नादत्ते प्रियमण्डनापि भवतां स्नेहेन या पल्लवान्।
आदौ वः कुसुमप्रवृत्तिसमये यस्याः भवत्युत्सवः,
सेयं याति शकुन्तला पतिगृहे सर्वैरनुज्ञायताम् ॥'
संचालयामि नलिनीदलतालवृन्तम्।
अङ्के निधाय चरणावृत पदलताम्रौ
संवाहयामिकभोरु यथा सुखं ते।।'
