क्षत्रियों को शिक्षा न देने की प्रतिज्ञा
इसके पश्चात् परशुराम ने भीष्म द्वारा अपनी अवज्ञा से क्षुभित होकर प्रतिज्ञा की कि आज से मैं किसी क्षत्रिय कुमार को शिक्षा नहीं दूँगा। इस घटना को बीते काफी समय बीत गया। आचार्य द्रोण का गुरुकुल मात्र 'कुरुकुल' तक सीमित हो गया। इतना बड़ा उस समय कोई आचार्य नहीं था। अधिरथ का पुत्र कर्ण विद्याध्ययन के लिए द्रोणाचार्य की शरण में गया। वे राजकुमारी को ही शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। इस अनुबन्ध को सुन कर्ण अत्यन्त निराश हो गया। भगवान परशुराम की शरण में जाकर विद्याध्ययन करने का मन बना लिया। वह ब्राह्मण वेश में परशुराम के आश्रम जा पहुँचा।
कर्ण को ब्राह्मण-वटु के रूप में परशुराम ने स्वीकार करते हुए अपन व शिष्य बना लिया। अपनी सेवा से कर्ण ने परशुराम को अत्यन्त प्रभावित किया। गुरु के पहले उठता, नित्यक्रिया से उपरत होकर वह गुरु सेवा में लग जाता और गुरु के शयन-कक्ष में चरण दबाते हुए गुरु की आज्ञा पाकर ही सोना उसकी नीयति बन गयी। गुरु के आदेश बिना वह कोई कार्य नहीं करता।
अपनी दिनचर्या से प्रभावित करके कर्ण ने बड़े ही निष्ठापूर्वक गुरु द्वारा सम्पूर्ण विद्या को अचिर काल में ही ग्रहण कर लिया। एक दिन की बात है, कर्ण को शस्त्राभ्यास कराने के कारण थके गुरुदेव कुछ क्षण विश्राम करना चाह रहे थे। कर्ण ने आदरपूर्वक अगं-वस्त्र बिछाकर उपधान के स्थान पर बैठकर गुरुदेव का शिर अपनी गोद में रख लिया। थोड़ी देर में ही भगवान को नींद आ गयी। वे गहरी नींद में सो गये। इतने में ही कर्ण की जाँघ पर एक कीड़ा आ बैठा।' अलर्क' नामक यह कीड़ा सूक्ष्म सूकर के आकार का था। कर्ण की जाँघ को बुरी तरह काटना प्रारम्भ किया। गुरुदेव की नींद भंग न हो जाय-इस भय से कर्ण ने अपनी असह्य पीडा की परवाह किये बिना स्थिर बैठा रहा। अलर्क ने जाँघ के आर-पार छेद कर दिया। इससे भयंकर रक्त बह निकला। रक्त की उष्णता एवं आर्द्रता के परिणाम से भार्गव की निद्रा भङ्ग हो गयी। रक्तस्त्राव देखकर महर्षि अत्यन्त व्याकुल हो उठे। झटके से उठकर बड़े प्रेम से बोले-अरे ! इतना घायल होकर भी तुमने मुझे नहीं बताया? धीर-वीर कर्ण ने कहा-प्रभु, अभी तो ठीक से आप सो भी नहीं सके थे, गुरुदेव को मैं कैसे कच्ची नींद उठा सकता था।
इस घटना के कुछ क्षण व्यतीत होते ही परशुराम जी की आँखें आग्नेय हो उठीं। मुखमण्डल तप्त अंगार की तरह दहकने लगा। क्रोधावेग में वे काँपने लगे। क्षण भर में ही कोमल स्वभाव के स्थान पर रौद्रता के भाव प्रकट होने लगे। कड़कती आवाज उनके मुख से निकली-कपटी, पामर तू ब्राह्मण नहीं । हो सकता। तुम्हारा कृत्य बताता है कि निश्चय ही तू क्षत्रिय वंश का कुल-कलंक है। ब्राह्मण तो शीलवान कृपालु होता है। किन्तु, साधारण-सी बात को लेकर इतना भयंकर कष्ट नहीं सह सकता। मुझे ठगने का साहस तुमने क्यों किया? मैंने तो यह उद्घोष कर रखा था कि नराधम क्षत्रियों को मैं अपना शिष्य नहीं बनाऊँगा। तू सच बोल नहीं तो अभी मेरे क्रोधानल में जलकर भस्म हो जायेगा । कर्ण भय के मारे काँप उठा।
धरती पर लगुड की तरह सोकर कर्ण ने प्रणाम किया। पुनः उठकर करबद्ध होकर संयत स्वर में बोला-प्रभु ! मेरा अपराध क्षमा हो। मैं अधिरथ सूत का पुत्र हूँ। मुझे राधेय नाम से जाना जाता है। आचार्य द्रोण से तिरस्कृत होकर मैं आपकी शरण में विद्याध्ययन करने आया हूँ। गुरु-श्रद्धा ही मेरे साथ घटी इस घटना का मूल है। मैं ईश्वर की सौगन्ध खाता हूँ कि मैंने कुछ भी आपसे नहीं छिपाया। अपना शिष्य जानकर मेरा अपराध क्षमा करें। मैं जीवन भर आपका ऋणी रहूँगा। इतना सुनकर गुरुदेव समाधिस्थ हो गये। पल भर में ने उन्हें कर्ण के जन्म से लेकर इस समय तक का ज्ञान हो उठा। सत्य से परिचित होने पर गुरु ने कहा-'तू क्षत्रिय है।' सूर्यपुत्र होने के कारण तू सत्य एवं ज्ञान से सम्पन्न है। तुमको मैंने धनुर्वेद की शिक्षा दी है। मैं चाहूँ तो तुम्हे प्रदान की ने गयी विद्या को अभी वापस ले सकता हूँ। तुमने मेरी सेवा करके विधा प्राप्त किया है। मैं इस समय तुमसे वह विद्या वापस नहीं लूंगा। परन्तु मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि मेरी दी हुई विद्या तुम्हें अन्तिम समय में काम नहीं आयेगी। इसका ने ज्ञान अपने मृत्यु-काल में तुम भूल जाओगे। यह कहकर भगकल-केतु अपने आश्रम की ओर तेज कदमों से चल पड़े। कर्ण हतप्रभ होकर वहीं खड़ा रहा। आश्रम पर आकर परशुराम कुछ संतोष का अनुभव कर रहे थे। अकिंचन की तरह कर्ण आकर साष्टाङ्ग दण्डवत लेटा रहा। उसके मुख से निकला- मुझे निर्जीव करके मेरा प्राण प्रभु आपने क्यों छोड़ दिया? मुझे आप मृत्य-दण्ड प्रदान करें। मेरा अपराध इसी कोटि का है। मेरा जीवन ही अभिशप्त है।
अब जीने की मेरी लालसा समाप्त हो गयी है। आपके द्वारा मेरा प्राणान्त हो मेरे लिए परम श्रेयष्कर है। कर्ण की वाणी सुनकर भार्गव बोले-कर्ण! मेरा शाप अमोघ है, इसे मैं चाहकर भी वापस नहीं ले सकता। परन्तु, तुम्हें में पाँच वाण दे रहा हूँ। यह अमोघ बाण है। इसके प्रयोग से देव-दानव, यक्ष-गन्धर्व एवं अशेष प्राणी अपना प्राण नहीं बचा सकते। इसे ही अपने अन्तिम समय के लिए तुम सुरक्षित रखना। कर्ण उठकर परशुराम के चरण-रज की वंदना करता हुआ इन्हें ग्रहण किया और भारी मन से अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान किया। कर्ण ने मन में सोचा कि प्रारब्ध पर किसका जोर चल सकता है।
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