सृंजय और परशुराम

 सृंजय और परशुराम

अमावस्या के पावन पर्व पर अपनी नियत समय से भगवान परशुराम ने उस आश्रम को सनाथ किया, जहाँ अम्बा अपने के नाना सृंजय के साथ निवास कर रही थी। भार्गव के अभिन्न सखा अकृतव्रण ने उनका सम्मान किया। आसन, अर्घ्य देकर श्रद्धापूर्वक उनकी आरती उतारी। सभी लोग यथोचित आसन पर विराजमान हुए। कुशल-मंगल के क्रम में एक राजकुमारी को देखकर भार्गव की दृष्टि कुतूहल प्रकट करने लगी। इस पर राजर्षि सृंजय ने भगवान को प्रणाम करके कहना शुरू किया-
           हे त्रिभुवनविख्यात भगवान भार्गव! यह मेरी दौहित्री अम्बा है। यह अत्यन्त विपदा की मारी है। प्राणोत्सर्ग का निश्चय करके यह जंगल में भटक रही थी। मैंने इसका वही परिचय प्राप्त किया। इसी क्रम में मुझे ज्ञात हुआ कि यह मेरी दौहित्री है। इसीलिए इसके प्राणों की रक्षा के लिए अपने साथ लाकर आपकी कृपा का भाजन बनाना चाहता हूँ। इसका कल्याण करके प्रभु मुझे कृत-कार्य करें। मैं आजीवन आपका ऋणी रहूँगा। अपनी करुण कथा यह स्वयं आपसे कहेगी। इसके पश्चात स्वयं अम्बा ने हाथ जोड़कर प्रभु के श्री चरणों में अपना शीश नवाया। अश्रुपात करते हुए उसने अपना कारूणिक वृत्तात्त सुनाना प्रारम्भ किया- नाथ! काशिराज की तीन कन्याओं का एक ही साथ स्वयंवर आयोजित था। मैं ज्येष्ठ राजकुमारी अम्बा हूँ। स्वयंवर-सभा में देशभर से राजा एवं राजकुमार पधारे थे। स्वयंवर की कार्यवाही प्रारम्भ हो चुकी थी। हम तीनों बहिने हाथ में जयमाल लेकर सभा में उपस्थित हुई। बन्दीजन, राजाओं की विरुदावली सहित वंश- परंपरा का परिचय दे रहे थे। कुछ ही समय बीता कि इतने में गंगापुत्र महारथी भीष्म का ओजमय स्वर उद्‌घोषित हुआ- उपस्थित राजसमूह एवं महाराज काशिराज! मैं शान्तनुपुत्र भीष्म आप सभी के सामने इन तीनों का अपहरण कर रहा हूँ। जिसमें साहस हो युद्धभूमि में मुझे परास्त कर इन्हें वापस ले सकता है। यह कहकर अविलम्ब ही हम तीनों को बलपूर्वक अपने रथ में बैठाकर वे हस्तिनापुर की ओर वायुवेग से चल पड़े। उपस्थित राजाओं का साहस नहीं हुआ कि महाप्रतापी भीष्म से हमलोगों का कोई उद्धार करा सके। असहाय हम तीनों भीष्म के साथ पथिक बन गयीं। भीष्म की सदय दृष्टि से मेरा मन कुछ कहने को व्यग्र हो उठा। मैंने अनुनयपूर्वक कहा-महाराज आप नीतिज्ञ धर्मात्मा हैं। आप मेरी बातें ध्यानपूर्वक सुनकर उचित परामर्श हैं। मैं मन ही मन मद नरेश ‘शाल्वसे प्रेम करने लगी हूँ और वह भी मुझे स्निग्ध दृष्टि से देख रहा था। आप ही बताइये कि पर-पुरुष में अनुरक्त स्त्री को भला कोई अपनी भार्या बना सकता हैमेरी बात सुनकर उन्होंने कहा कि मैं तो आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रती हूँ। अपने भाई के लिए तुम लोगों
को ले चल रहा हूँ। अगर तुम शाल्व से सचमुच प्रेम करती हो तो मैं तुम्हें सम्मानपूर्वक वहाँ भेजवा दूंगा। गंगापुत्र ने मुझे आदर के साथ मद्राधिप के पास भेज दिया। मैं जब वहाँ पहुँची तो शाल्व ने मेरा अभिनन्दन नहीं किया और मुझे स्वीकार करने से साफ मना कर दिया।
          सम्प्रति निराश्रित होकर मरने का निश्चय करके वनभूमि में विचरण कर रही थी कि कोई हिंसक जीव मुझे अपना भोज्य बना ले। यहाँ किसी हिंसक जीव ने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मैं हैरान थी। मुझे तपोवन एवं इसका प्रभाव ज्ञात नहीं था। इसी बीच नाना जी ने मुझे आपका दर्शन सुलभ करा दिया। मैं आपकी शरण में हूँ। अब आपही मेरा उद्धार कर सकते हैं। यह
कहकर वह विलख पड़ी।
          अम्बा की बात सुनकर करुणावरुणालय भगवान भार्गव पिघल गये। उन्होंने अम्बा को आश्वस्त करते हुए कहा कि जो कहोमैं वही करने को प्रस्तुत हुँ । शाल्व भी मेरा कहा नहीं टाल सकता और भीष्म तो मेरा शिष्य हैं। तुम कहाँ जाना चाहती होअम्बा ने कहा- भगवनमुझे शाल्व निरपराध जान पड़ता है। मेरे जीवन की बर्बादी भीष्म ने की है। अतः मैं अब उसी के पास जाना चाहती हूँ। भगवान परशुराम ने भीष्म के पास चलने की तैयारी करने को कह कर रात्रिकालीन विश्राम किया।
ब्राह्म-मुहूर्त में उठकर सन्ध्यादिक क्रिया सम्पन्न करके ऋषि-मुनियों के वध अम्बा को लेकर भगवान भार्गव कुरुक्षेत्र के मैदान में डेरा डालकर भीष्म के पास सन्देश भेजवा दिया। गुरु का आगमन सुनकर अत्यन्त प्रेमपूर्वक आकर भीष्म ने आगवानी की और अपनी श्रद्धा-भक्ति से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त किया। कुशलान्तर परशुराम ने कहा-गंगापुत्र! तुम्हारी भक्ति से मैंअत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं जानता हूँ कि तुमने जीवनभर ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा ली है। मैं तुम्हारा गुरु हूँ। मेरे आदेश से तुम्हें व्रतभङ्ग का दोष नहीं लगेगा। अत: मेरे आदेश से तुम अम्बा से शादी कर लो। इसे सुनकर भीष्म चौंक पडे। विनम्र होकर उन्होंने कहा—गुरुवर मुझे ऐसा आदेश न दें जिसे मैं पूरा न कर
सकें। मैंने उस समय यह नहीं कहा था कि गुरु के आदेश से मैं विवाह कर सर्केगा। भीष्म का उत्तर सुनकर परशुराम ने कहा-जानते हो मेरा आदेश न मानकर तुमने अपने मृत्यु को निमन्त्रण दिया है। अब मेरे साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। गुरुदेवमैं आपसे युद्ध नहीं कर सकता। चाहे मेरे ऊपर अपने परशु का प्रहार करके मेरे प्राण आप ले लें। मुझे तनिक भी आपत्ति नहीं है। इस पर परशुराम ने धिक्कारते हुए कहा-तुम मेरे शिष्य हो। मैंने तुम्हें अशेष धनुर्वेदीय ज्ञान दिया है। तुम्हारे मुख से यह कायरता की बात मैं नहीं सुन सकता। उठो युद्ध की तैयारी करो। भीष्म ने कहा आपका आदेश शिरोधार्य है। आप भी आरामपूर्वक विश्राम करें। पुनः कल युद्ध-भूमि में आपका दर्शन करूंगा। यह कहकर परशुराम के साथ आये अतिथियों का सम्मानपूर्वक प्रबन्ध-व्यवस्था सुनिश्चित करके भीष्म राजमहल की ओर प्रस्थान कर गये। परशुराम ने भी सन्ध्या वन्दनादि करके वह रात्रि कुरुक्षेत्र में ही व्यतीत की।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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