कश्यप और परशुराम

 कश्यप और परशुराम

पृथ्वी के जाने पर बालक की चंचल वृत्ति को भगवान ने प्रलयंकर भाव में परिवर्तित कर दिया। उस बालक की देखभाल करते हुए परशुराम भक्तवत्सल बन गए। उस अबोध की गलतियों को बालक जानकर कभी ध्यान नहीं देते। वह अनुदिन कुछ न कुछ उत्पात करता रहता। आश्रम में रखे आयुध-भणडार को अनुदिन तोड़-फोड़कर विनष्ट करता हुआ यह बालक सचमुच ही शरारती बन गया, परन्तु भार्गव वचनबद्ध थे। अतः उसने सम्पूर्ण आयुध राशि विनष्ट कर डाली। पृथ्वी अपना उद्देश्य पूर्ण देखकर अपने उस चंचल बालक को लेने उपस्थित हो गई। उसने कृतज्ञतापूर्वक प्राणिपात करते हुए अपने तीर्थाटन के समापन की बात कही। उसने कहा भगवन्! मैं कृत-कार्य हुई। इस बालक की धृष्टता के लिए मैं पुनः पुनः क्षमा प्रार्थी हूँ। कृपया मुझे जाने की अनुमति प्रदान करें। तथास्तु कहते हुए भृगुकुल शिरोमणि ने उसे विदा किया। वही बालक लक्ष्मण था
          उस बालक के जाने पर भगवान भार्गव का मन नहीं लगता था। उन्होंने घोषणा की कि कोई भी ब्राह्मण दान लेना चाहता है तो उसकी इच्छा अवश्य पूरी की जाएगी। इसके पश्चात सत्पात्र ब्राह्मणों ने आकर इच्छित दान प्राप्त किया।  सम्पूर्ण सम्पत्ति को विपुल ब्राम्हणों में दान कर भार्गव निश्चिंत हो गए। इनकी दानशीलता सुनकर भारद्वाज के पुत्र आचार्य द्रोण भी भगवान परशुराम के पास आए। उन्हें देखकर स्नेहपूर्वक भृगुवंशमणि बोले- आचार्य! देर से पहुँचे। इस समय तो मेरे पास धनुर्वेद के अलावा तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। द्रोणाचार्य ने कहा-नाथ, मुझे इसे ही सम्यक प्रदान करके कृतार्थ करें। इस पर भगवान भार्गव ने उन्हें अशेष धनुर्वेद का परिज्ञान करा दिया। प्रसन्न होकर द्रोण अपने आश्रम को चले। परशुराम की सम्पूर्ण सम्पत्ति लेने के बाद भी ब्राह्मणों का मन नहीं भरा। एक दिन महर्षि कश्यप जी का आगमन हुआ। चराचर सृष्टि के जनक को अपने द्वार पर आया हुआ देखकर भगवान परशुराम निहाल हो गए। आतिथ्य के पश्चात महर्षि से अनुनयपूर्वक भार्गव बोले- हे देवासुर, दनुज-मनुज के गुरु शिरोमणि! आप मुझे आदेशित करें कि मैं आपकी कौन सी इच्छा पूर्ण करूँइस पर शान्त भाव से कश्यप ऋषि ने कहा- हे भार्गव, सम्पूर्ण पृथ्वी को मुझे दान कर दो और स्वयं मेरी पृथ्वी से दूर जाकर निवास करो। इस पर प्रसन्न होकर उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान करके स्वयं समुद्र से अपने निवास के लिए याचना की। समुद्र ने भगवान का आदेश सुन कर कहा प्रभु जितनी जगह आपको अपेक्षित है मेरी परिधि से ग्रहण कर लें। इस पर  भार्गव ने अपना परशु  समुद्र की ओर उछाल दिया। वह सूखकर परशु के आकार का नक्शा बन गया। वहीं केरल प्रदेश बना। आज तक वहीं वे अदृश्य रूप में किसी को कोई भी दण्ड न देते हुए निवास करते हैं। वैसे कहीं भी ऐसा स्थान नहीं है, जो परशुराम के लिए दुर्गम है। वे सर्वत्र विचरण करते हुए अन्याय के विरोध में सार्थक भूमिका निभाते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारी करुण- कथा सुनकर अवश्य ही तुम्हारा कल्याण करेंगे। अम्बा ने इसे सुनकर संतोष की साँस ली।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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