प्रतिशोध पाठ 06-सहस्रबाहु और कामधेनु

 सहस्रबाहु और कामधेनु

किसी समय शिकार खेलने के व्याज से सहस्रबाहु ने महर्षि यमदग्नि के आश्रम को समलंकृत किया। आश्रम की व्यवस्था ने इनका मन मोह लिया। वह कुछ समय विश्राम कर आश्रम की रमणीयता का सौन्दर्य-पान करता रहा। उसको ढूँढता हुआ विशाल सैन्य समूह भी आश्रम में उपस्थित हो गया। कोलाहल सुनकर महर्षि ने स्वयं आकर राजा की आगवानी की। महर्षि ने राजा को अपने आश्रम को सनाथ करने का आमंत्रण दिया। राजा की सारी सेना भी उनके साथ हो ली। वन-सुषमा ने सबको मोह लिया। सारे आश्रमवासी प्रफुल्ल मनसा राजा एवं राज सेना का आतिथ्य सँभाल रहे थे। उन्हें मनवांक्षित सामग्रियाँ यथेष्ठ मात्रा में मिल रही थीं। सम्पूर्ण राज सेना आह्लादित हो रही थी। राजा भी आनन्दित हो उठा।।
          राजा की समुचित व्यवस्था करके महर्षि ने महाराज के सम्मुख जाकर स्वस्तिवाचन किया। प्रसन्न होकर राजा ने भी ऋषिराज की आश्रम-व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजा ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए यमदग्नि से पूछा-मुनिवर ! आपने मेरी और मेरे सैनिकों की इस प्रकार सेवा करके मुझ पर अमित उपकार किया है। कृपया मेरे कुतूहल को शान्त करते हुए यह बतायें कि इतनी दिव्य व्यवस्था आपने कैसे सम्भव कर दिखायी विनम्र स्वर में मुनिवर बोले-राजन् ! मेरे पास एक कामधेनु है। इसी के प्रभाव से में मनवांक्षित सेवा करने में सफल हो सका। यह दिव्य गौ सभी आप्त-काम करने में समर्थ है।
          राजा ने अत्यन्त आश्चर्यचकित होते हुए कामधेनु का दर्शन करना चाहा। यमदग्नि ने बिना किसी संकोच के कामधेनु के कक्ष में महाराज को ले जाकर दर्शन कराया। महाराज ने सोचा कि यह गाय यदि मुझे मिल जाय तो इसके प्रभाव से बिना किसी प्रयास के हम और हमारा राज परिवार दिव्य ऐश्वर्य-भोग को प्राप्त होगा। इस स्वल्प इच्छा वाले वनवासी तपस्वी को इसका क्या प्रयोजनराजा ने अपने मन की बात से मुनिवर को अवगत कराया। मुनि ने इसे सुनकर अत्यन्त आश्चर्य प्रकट किया। उन्होंने कहा—कामधेनु मेरी तपस्या है। यह किसी दूसरे के घर जाकर अपनी सामर्थ्य खो देगी । इसे सुन राजा ने सोचा कि मुनिवर हमें यह गाय देना नहीं चाहते इसलिए यह बहाना कर रहे हैं। उसने अपने सैनिकों को यह आदेश दिया कि यह करामाती गाय ले चलो।
          सैनिकों का आदेश पाकर सेवक ने गाय को बँटे से खोलकर अपनी राह पकड़ी। सभी लोग अवाक् इस दृश्य को देखते रहे। राजा भी अपनी राजधानी ‘माहिष्मतीको रवाना हुआ। थोड़ी देर में परशुराम जो कि आश्रम से बाहर गये थेवापस आ गये। आने पर वे घर में कामधेनु को न देखकर पूछने लगे-माँ कामधेनु कहाँ हैसब लोग क्यों चुप हैंक्या कोई अनहोनी। घटना घट गयी हैआखिर आप लोग कुछ बोलते क्यों नहीं हैंइस पर माता ने सम्पूर्ण घटना संक्षेप में परशुराम से कह सुनाई।
          इसके बाद परशुराम का रौद्र रूप देखकर सभी भयभीत हो उठे। परशुराम ने भयानक गर्जना की। सुनकर सम्पूर्ण वन प्रान्त दहल उठा। उनके मुख से हठात् निकल पड़ा-दुष्ट सहस्रबाहु ! अब मैं तुम्हारा सर्वनाश करके ही शान्त हूँगा। कृतघ्न! तू इतना बड़ा नीच है कि मेरे पिता की सज्जनता को तुम उनकी कमजोरी समझता है। अगर वे चाहते तो पल भर में ही तुम्हें सेना सहित यमलोक का पथिक बना देते। उनकी मुनिवृत्ति को तुमने चुनौती दी। है। मैं यामदग्नि इस आमंत्रण को स्वीकार करता हूँ। सावधान ! अपनी रक्षा में तू तत्पर रहना। यह कहते हुए वे वायुवेग से माहिष्मती की ओर प्रस्थान कर गये।
 उनके गर्जन-तर्जन से रास्ते में लोग भयभीत हो उठे। पक्षी कलरव करने लगे। लोग अपना सुरक्षित ठिकाना तलाशने लगे। वृक्षों में कम्पन होने लगी।  हिंसक जन्तु भी डर के मारे भागने लगे। अभी सहस्रबाहु ठीक से पहुँचकर विश्राम भी नहीं कर पाया था कि सम्पूर्ण माहिष्मती में तूफान उठ खड़ा हो गया। नगर के लोग डर के मारे अपने दरवाजे बन्द करने लगे। सैनिक भाग खडे हए । अर्जुन के ५०० लड़के जो वीरता के अवतार माने जाते थे भागकर अपना जीवन बचा लिये। भार्गव की दहाड़ सुनकर अकेला सहस्रबाहु निकलकर मैदान में डट गया। उसने अपने हाथों से एक ही बार ५०० वाण प्रत्यञ्चित करके धनुष से परशुराम पर प्रहार किया। परन्तु उसे परशुराम ने देखते ही देखते अपने ‘परशुसे काट डाला और झपटकर एक ही वार में राम ने परशु के प्रहार से सहस्रबाहु का सिर धड़ से अलग कर दिया। रनिवास चीत्कार कर उठा। सर्वत्र चीख पुकार होने लगी। परशुराम ने रम्भाती हुई कामधेनु परप्रेम से हाथ फेरा। उसके बछड़े को स्नेह से उठा लिया और अपने आश्रम की राह पकड़ी। पीछे-पीछे कामधेनु वापस लौट पड़ी।
आश्रम पहुँचर परशुराम ने गाय-बछड़े को बाँध दिया। अपने पिता को प्रणाम करते हुए सम्पूर्ण इतिवृन्त सुना डाला। इस रोमाञ्चित घटना को सुनकर महर्षि यमदग्नि आश्चर्यचकित हो उठे। सहसा उनके मुख से निकल गया- अरे बेटातू बड़ा बलवान है। अकेले ही तुमने वह कार्य कर दिखाया जो बड़े-बड़े बलवानों के लिए दुष्कर है। परन्तु तुमने सर्वदेवमय नरदेव को मार डाला। यह महान पातक है। एक साल पर्यन्त तुम अशेष तीर्थों का सेवन करके इसका प्रायश्चित करो। इसी में तुम्हारा कल्याण है। पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके भगवान परशुराम ने सम्पूर्ण तीर्थों का विधिवत अनुष्ठानपूर्वक दर्शन-पूजन किया। समस्त तीर्थाटन में एक वर्ष व्यतीत हो गया। इस बीच 'परशुराम-चरितजगत विख्यात हो गया। आततायी सहस्रार्जुन मारा गया इससे जामदग्न्य की कीर्ति-पताका सर्वत्र फहर उठी। यह सहस्रबाहु के पाँच सौ भगोड़ा पुत्रों को असह्यदाहक जान पड़ती। वे रात-दिन इस अपमान का बदला लेने के फेर में रहते। गुप्तचरों द्वारा यह ज्ञात होने पर कि इस समय परशुराम तीर्थ-यात्रा पर हैं, वे फूले न समाये। एक दिन सायंकाल वे सभी यमदग्नि के आश्रम पहुँचे। महर्षि अग्निहोत्र-कक्ष में दैनिक अनुष्ठान कर रहे थे। बाह्य जगत से अनभिज्ञ यमदग्नि का उन आततायियों ने शिर काट कर अपने साथ ले लिया। बेचारी रेणुका दहाड़ मारकर विलाप करने लगी। उस जंगल की नीरव रात्रि में उसे धीरज बँधाने वाला कोई नहीं था। रेणुका और जोर से अपने यशस्वी महावीर परशुराम को पुकारने लगी। हा बेटाआज तुम होते तो मुझे इस दशा में विलाप नहीं करना पड़ता। कुत्तों की तरह दुम दबाकर वे इस सुनसान मखशाला में तुम्हारे पिता की नशंस हत्या न करते। इतना ही नहींवे दुष्ट तुम्हारे पिता का कटा हुआ शिर भी अपने साथ ले गये। मुझे अब मर जाना उचित मालूम होता है। इस पामर देह को रखकर अब मैं क्या करूँगी मुझे मरना ही होगा।
          तीर्थाटन करके लौट रहे परशुराम को दूर से माता का विलाप सुनाई। पड़ा। माता की आवाज ध्यान से सुनकर उन्होंने अनुमान लगाया कि निश्चय ही मेरी अनुपस्थिति में उन आतताइयों ने कोई बड़ा अनर्थ कर डाला। वायुवेग से आश्रम पहुँचने पर उन्हें सम्पूर्ण घटना का बोध हुआ। समाचार से अवगत होने पर परशुराम का प्रलयंकर रूप प्रकट हुआ। वे वायुवेग से माहिष्मती की ओर दौड़े। रास्ते में जो भी पड़ा उसे नष्ट करते हुए आगे बढ़ते चले गये। पेड़ों को उखाड़ फेंकते और पहाड़ों को ढहाते हुए भीषण झंझावत की तरह वे माहिष्मती पहुँचे। वहाँ जाकर आबाल वृद्ध को मौत के घाट उतारकर अपने पिता के मुण्ड को लेकर आश्रम आये। सारे ब्रह्माण्ड में खलबली मच गयी। उनके पहुँचते ही माता की गोद में जैसे मुण्ड को रखा एक विलक्षण घटना घटित हुई। रुण्ड और मुण्ड आपस में जुड़ गये और। माता रेणुका को साथ लेकर आकाश में तिरोहित हो गये। आकाशवाणी हुई कि अब इनके पृथ्वी पर रहने के दिन पूर्ण हो गये। इनकी चिन्ता छोड़कर हे भार्गवतुम पृथ्वी से पापियों का सर्वनाश करो। तुम्हारे माता-पिता अब सप्तर्षि-मण्डल में विराजमान होंगे।
           इस अनर्थकारी घटना को निमित्त बनाकर भगवान परशुराम ने पृथ्वी पर से आततायी क्षत्रियों का २१ बार विनाश कर दिया। मात्र वे ही क्षत्रिय इनकी कोपाग्नि से बचे रहते जो धर्म-परायण एवं प्रजा-वत्सल होते। विस्तारवादी, 'आतंक के पर्याय एवं दम्भी क्षत्रियों का अहंकार चूर्ण करते हुए वे उनका सर्वनाश करके ही दम लेते। सारी पृथ्वी पर से उन्होंने अन्यायपाप एवं अत्याचार का उच्छेद कर दिया था। उन क्षत्रियों के रूप में मानों राक्षसों ने पुनर्जन्म लेकर पृथ्वी को आतंकित कर दिया था। अत्याचार के प्रतिमूर्ति दानव राजागण मानो पृथ्वी के भार बन गये थे। भगवान परशुराम का अवतार इन्हीं के संहार एवं भक्तों के कल्याणार्थ हुआ था। सारी पृथ्वी का पाप उतारकर उन्हें संतोष हुआ। सम्पूर्ण पापियों की सम्पत्ति एवं आयुध से इनका आश्रम पट गया। विध्वंसक हथियारों का प्रयोग गलत हाथों में पड़ने का भय बना जानकर पृथ्वी ने विधवा तपस्विनी के रूप में अपने छोटे बालक को साथ ले जाकर विनयपूर्वक निवेदन किया। हे प्रभु! मैं इस अबोध बालक की अभागिनी माता हूँ। इसके पिता की छाया इसका साथ छोड़ चुकी है। मेरा मन सर्वथा दुखित रहता है। मैं कुछ दिनों तक तीर्थाटन हेतु जाना चाहती हूँ। कृपया अपने आश्रम में इसे कुछ काल तक आश्रय प्रदान करें। मैं वापस आकर इसे पुन: ले जाऊँगी। भगवान को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस बालक को रखने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जब कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वह तापसी जाने को उद्यत हुई तो प्रणिपात करते हुए निवेदन किया कि यह अत्यन्त चपल बालक है। अज्ञानतावश इससे कोई भूल हो जाय तो इसके प्राणों की मैं भीख माँगती हूँ। भगवान ने उसे अभयदान दिया। वह अपने गन्तव्य को चली गयी।


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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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