सहस्त्रबाहु और यमदग्नि
कृतवीर्य नामक एक अत्यन्त प्रतापी राजा थे। उनका ऐश्वर्य विरोधी राजाओं को अखरता था। कृतवीर्य विष्णु के अनन्य उपासक थे। विष्णु के उपासक प्राय: दम्भ और पाखण्ड से दूर रहते हैं। उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसे वे ईश्वर की इच्छा मानते थे, किन्तु महारानी इसे अपने जीवन की सर्वोच्च रिक्तता समझतीं । प्राय: वे अपने राजमहल में उदास हो जाया करतीं। भक्तपारायण राजा उन्हें धीरज बँधाया करते । मानव जीवन परोपकार के लिए वरदान है। अपनी स्वार्थलिप्सा के लिए ईश्वर की अनुकम्पा का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। प्रजा ही हमारी सन्तान है। प्रजा का हित करना हमारा कर्तव्य है। यही हमारे इष्ट को अभीप्सित है। परन्तु रानी पर इसका कोई असर नहीं होता। वह शान्त मन से ईश्वर से शिकायत करती रहती। अपने आराध्य का अपमान समझकर राजा अत्यन्त मर्माहत हो उठते । मन्त्रीगण उन्हें सान्त्वना देते । राजगुरु सन्तोष का उपदेश करते। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह सबके मनोरथ पूर्ण करने में समर्थ है। आप निराश न हों, वह आपको भी कृतकार्य अवश्य करेंगे। अपनी नियति समझकर राजा भी शान्त हो जाते। अन्ततः एक दिन राजा ने राज्यभार अपने विश्वासपात्र मंत्रियों पर डालकर भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए हिमालय की उपत्यका का मार्ग पकड़ लिया। काफी ऊँचाई पर पहुँचकर बद्रीनारायण की शरण में जाकर उन्होंने अपनी उग्र तपस्या प्रारम्भ की। एकनिष्ठ होकर अपनी तपश्चर्या से राजा ने विष्णु भगवान को प्रसन्न कर लिया। अकस्मात् विष्णु को अपने सामने उपस्थित पाकर राजा ने उनके चरणों पर अपना शिर रख दिया। भाव- विहुल भक्त को देखकर भगवान ने अभीष्ट वर माँगने का आदेश दिया। प्रभु से राजा ने वरदान के रूप में प्रभु-स्वरूप पुत्र की कामना की। एवमस्तु कहकर विष्णु स्वधाम सिधारे।
कदाचिद् लक्ष्मी से नाराज होकर विष्णु ने उन्हें ‘घोड़ी' होने का शाप दे दिया। क्षमा याचना के परिणामस्वरूप इसी रूप में पुत्र प्राप्ति के पश्चात् पुन: लक्ष्मी रूप में दे बैकुण्ठ आ सकेंगी। इस घटना के बाद लक्ष्मी घोड़ी के रूप में बद्रीनाथ जाकर आशुतोष भगवान शिव की आराधना करने लगीं। कुछ दिन की उग्र तपस्या करने पर शंकर जी ने देवी लक्ष्मी से तप का कारण जानना चाहा। लक्ष्मी ने कहा प्रभु मुझे पुत्र प्रदान कर आप कृतार्थ करें। पहले तो शिव ने परिहास किया किन्तु लक्ष्मी की प्रसन्नता हेतु भगवान विष्णु का आवाहन किया। विष्णु के आने पर वे बोले-प्रभु! लक्ष्मी के मनोरथ पूर्ण होने का समय आ गया है। इन्हें सुनाथ कीजिये। मुस्कुराते हुए विष्णु बोले-भगवन्, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। क्षण भर में ही लक्ष्मीपति ने ‘हयग्रीव’ के रूप में अवतार लिया। घोड़े के रूप में लक्ष्मी के सहवास से एक अनुपम बालक ने जन्म लिया। इसकी हजार भुजायें थीं। चेहरे पर अमित कान्ति विराजमान थी। बालक को देखते ही लक्ष्मी अपने स्वरूप में आ गयीं। पुनः विष्णु को स्वरूप में पाकर वे स्तुति करने लगी। प्रसन्न होकर विद्या का समालिंगन किया। निज-धाम पधारने के लिए विष्णु द्वारा समादेशित लक्ष्मी ने कहा-प्रभु, यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्यारा है। इसी ने मुझे आपसे मिलाया है। मुझपर इसका अनन्त-उपकार है। मैं इसे अपने साथ ले चल की अनुमति चाहती हूँ। प्रभु ने कृतवीर्य राजा की तपस्या का इतिवृत्त सुनाकर इसे उन्हें प्रदान करने का आदेश दिया। प्रभु-प्रेरित कृतवीर्य वहाँ उपस्थित हो गये। उन्हें इस तेजस्वी बालक को सौंपते हुए इसका नामकरण' अर्जुन' रखा। आगे चलकर यही बालक कार्तवीर्य-सहस्रार्जुन नाम से विख्यात हुआ। साक्षात् लक्ष्मीनारायण के तेजश से उत्पन्न यह अत्यन्त पराक्रमी एवं सर्वगुण सम्पन्न हुआ। इसी बालक से हैहय वंश का सूत्रपात हुआ। यह बालक विख्यात तांत्रिक हुआ। कार्तवीर्य-तन्त्र इन्हीं के द्वारा प्रवर्तित माना जाता है। इसने भगवान शिव को प्रसन्न करके अनेक रिद्धि-सिद्धि को प्राप्त किया। इसके ऐश्वर्य से पुरन्दर भी श्रीहीन हो उठा। इसने अपना साम्राज्य विस्तार किया। इसके पाँच सौ पुत्र हुए, जो इसी के समान बलवान थे। पृथ्वी पर इसका सर्वत्र आतंक बढ़ गया। रावण जैसे दुर्जय योद्धा को इसने खेल-खेल में पकड़ लिया। इसके अत्याचार से पृथ्वी काँपने लगी। इसने सम्पूर्ण सुरासुरों को अपने पराक्रम से भयभीत कर रखा था।
यह अत्यन्त विलासी एवं आखेटक राजा था। आखेट के समय यह अपनी विशाल सेना के साथ जंगलों का सर्वनाश करता और ऋषि-मुनिया को भी क्लेश पहुँचाता था। रास्ते में पड़ने वाले नगर, गाँव को भी तहस-नहस करके यह परम खुश होता था। शत्रु राजाओं को परास्त करके उनकी सम्पत्ति लूटना इसका व्यवसाय बन गया था। लोग स्वत: अपनी सम्पत्ति को इसे समर्पण करके संतोष की साँस लेते थे। इसके पराक्रम से देवासुर, यक्ष-गन्धर्व, किन्नरादि को अपना वशवर्ती बना लिया। लोग इससे अपनी राह बचाते। अपने जीवन की खैर मनाते। इस प्रकार वह निरंकुश शासक बन बैठा।
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