3. ऋचीक और गाधि-

 3. ऋचीक और गाधि

सूर्यवंश में महाराज गाधि के नाम से विख्यात परम प्रतापी राजा हुए। प्रजावत्सल महाराज अत्यंत लोकप्रिय भूपति थे। उनके राज्य में सभी खुशहाल थे। परन्तु महारानी अपत्यहीनता के कारण दुःखी रहती थीं। कालान्तर में उन्हें एक सुरूपवती कन्या हुई। रानी को जीने का सहारा मिल गया। संपूर्ण राज्य में उत्सव मनाया गया। सौगात बाँटी गयी। दीन-दुखियों एवं अतिथियों को मुँह माँगी संपत्ति का वितरण हुआ। याचक अयाचक बन गये। ब्राह्मणों ने मंगल पाठ एवं दुरित निवारक अनुष्ठान करके राज-संकट से राजा को निश्चिन्त किया। पारितोषिक स्वरूप राजा ने प्रचुर दक्षिणा प्रदान कर पुरोहितों को आप्तकाम किया। मंत्रिपरिषद ने प्रजाजनों के लिए जनहित कार्यक्रम करके राजकुमारी के जन्मोत्सव को यादगार बनाया। मित्र राजाओं ने महाराज गाधि को  बहुमूल्य उपहार देकर कृत्य-कृत्य हुए । राजाओं द्वारा उत्तम उपहार पाकर महाराज गाधि भी अपनी ओर से मित्र राजाओं को अपनी पुत्री की दीर्घायुष की कामना एवं यादगार के लिए अत्यंत मनोहर उपहार देकर आनन्दित हुए। नृपति प्रसन्न मनसा अपनी-अपनी राजधानी आए। महाराज ने ज्योतिषियों को बुलाकर कन्या के सन्दर्भ में भविष्यवाणी की जिज्ञासा की भविष्यवाणी की जिज्ञासा की। ज्योतिर्विदों ने कन्या की मंगल-भविष्यवाणी की ।
                    राजा की खुशी का ठिकाना नहीं था। राजपुरोहित ने कन्या का नाम सत्यवती रखा। धीरे-धीरे आयु बढ़ने के साथ ही सत्यवती के लावण्य की चर्चा चतुर्दिक होने लगी। वह जितनी सुन्दर थी, उतनी ही उत्कृष्ट शीलवती भी। राजा-दम्पत्ति अपना सम्पूर्ण स्नेह उस पर न्योछावर करते थे। इस प्रकार वह कब तरुणी हुई, इसका भान महाराज गाधि को नहीं हो सका।
           इसी सन्दर्भ में भृगुकुलावतंश महर्षि ऋचीक ने महाराज गाधि के राजमहल को पवित्र किया। राजपरिवार का सहज सम्मान पाकर महर्षि अत्यन्त प्रभावित हुए। विदा होते समय ऋचीक ने निःसंकोच सत्यवती को अपनी भार्या बनाने का महाराज गाधि से प्रस्ताव कर दिया। अन्दर से क्षुब्ध होते हुए भी गाधि ने महर्षि ऋचीक की इच्छा को स्पष्ट अस्वीकार नहीं किया, क्योंकि वे महर्षि की तपस्या की शक्ति को जानते थे। उन्होंने कहा-गाधि कुल की कन्या की प्राप्ति इतनी सरल नहीं। मेरे कुल में देव-द्विज का समादर तो वंश परम्परा है अतः आपका दर्शन और स्वागत सम्मान करके मैंने पुण्यार्जन अवश्य किया। अपनी एकमात्र प्राणाधिक-प्रिय कन्या को मैं अभी से तपस्या करने कैसे भेज सकता हूँ? क्षत्रियों के अन्तिम अवस्था में तपोवन विहित है। अपने उत्तराधिकारी को राजभार सौंपकर निज पति के साथ शान्त मनसा ही यह आरण्यक जीवनयापन कर सकेगी। अभावजन्य तपोवन में इसे मैं किस निष्ठुर मन से भेज दूँ। बे प्रभो मुझ अकिंचन पर दया करके यह प्रस्ताव आप वापस ले लें। मैं आजीवन आपका आभारी रहूँगा। इस पर महर्षि का उग्र तेवर देखकर महाराजा गाधि ने भयभीत होकर महर्षि ऋचीक से एक प्रस्ताव किया। मुझे जब तक अपनी कन्या की सुख-शान्ति का  विश्वास नहीं होगा, मैं आपसे अपनी कन्या का विवाह कदापि न करूँगा।
सत्यवती का विवाह मैं उसी शर्त पर आपसे करूँगा जब मुझे एक सहस्त्र मटमैले रंग के सैन्धव आपूर्ति करें, जिसका एक कर्ण सफेद हो। इसमें तनिक भी अन्तर नहीं होना चाहिए। राजा की बात सुनकर महर्षि त्वरित गति से महल से निकल गए, उन्होंने सीधे समुद्र के पास जाकर आवाहन किया। वरुण देव ने समुद्र से बाहर आकर ब्रह्मर्षि को प्रणाम करते हुए कहा- मैं आपके कृत-मनोरथ हेतु प्रस्तुत हूँ। कृपया आप आदेश दें। ऋचीक ने कहा कि मुझे एक ही रंग के एक हजार ऐसे अश्वों की आवश्यकता है जिसमें एक कर्ण सफेद होने के साथ संपूर्ण शरीर मटमैले रंग का हो। ‘तथास्तु’ कहते हुए वरुण देव ने निर्देश दिया-‘ पास में सरोवर से जहाँ आपको अपेक्षा होगी, ये अश्व आपके इंगित पर पूरी संख्या में मिल जाएंगे।’ दूसरे दिन ही महर्षि राजमहल में घोड़ों सहित उपस्थित हुए।
 एक से बढ़कर एक अश्व अपनी सहज वृत्तियों से सबका मन मोह रहे थे। सब के शरीर से मांसल सौंदर्य फूट रहा था। घोड़ों की टापों से उठी धूल राज-प्रसाद को मानो ढक रही थी। संपूर्ण नगरवासी इस दृश्य से आश्चर्यचकित हो रहे थे। उनके कुतूहल का समाधान नहीं मिल रहा था। आखिर इतनी मात्रा में इस प्रकार अश्वों को देखकर आश्चर्य स्वाभाविक है। आगे-आगे तरुण तपस्वी और उनमें अनुगामी हजारों अश्व महल के प्राङ्गण में कैसे आ रहे हैं? जन समुदाय भी दर्शक मुद्रा में पीछे-पीछे राजमहल में अप्रत्याशित दृश्य से रनिवास भी चकित हो उठा।
 राजा के आश्चर्य का ठिकाना न रहा। परन्तु वचनभंग के भय से राजा ने अपने प्राणाधिक प्रिय कन्या का हाथ ऋचीक ऋषि को समर्पित कर दिया। बिना किसी अलंकरण के ऋषि-दम्पति अपने आश्रम पर पधारे। आश्रम पर आते ही पत्नी का सम्पूर्ण सुख- सुविधा का सम्पूर्ण दायित्व महर्षि ने स्वयं सँभाला। सुशीला भार्या परम सन्तोषपूर्वक पति के साथ जीवन-यापन करने लगी।
          इधर सत्यवती के जाने पर राजा अत्यन्त उदास रहने लगे। रानी का और भी बुरा हाल था। मन्त्रियों के बहुत समझाने पर भी जब उनका मन शान्त नहीं हुआ तो उन्होंने सेनापति के सहारे अपने परम विश्वस्थ मंत्री का राज-काज का भार सौंपकर स्वयं तीर्थाटन करने हेतु प्रस्थान किया। सविधि तीर्थों का भ्रमण करते हुए ऋषियों के पावन तपोवन को भी राजा ने निकट से देखा। क्रमशः ऋषियों- महर्षियों के आश्रम में जाकर वहाँ उनकी दिनचर्या को देखते। तपोवन में निवास करने वाले अन्तेवासियों के व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित होते। राजा-रानी की अनवरत दिनचर्या इसी में व्यतीत होती। उन्हें दिन-माह-वर्ष का ध्यान ही नहीं रह गया। कितने वर्ष बीत गए यह जानने की आवश्यकता ही नहीं जान पड़ी। शास्त्रचर्चा अन्तेवासियों का वेदाध्ययन, उनका सूक्ष्म जीवन-दर्शन प्रभृति में राज दम्पत्ति का मन इतना रम गया कि वे स्वयं भूल गए कि हम लोग राज परिवार से संबंधित हैं। अनेक राजा-महाराजा भी अपने गुरुओं के आश्रम में आकर अपना सर्वस्व अर्पित कर चले जाते। इस प्रकार राजा की दिनचर्या व्यतीत होने लगी। सम्प्रति ज्ञान-वैराग्य के वातावरण ने राजा-रानी को तपस्वी बना दिया।
          एक दिन जंगल में सुदूर स्थित एक दिव्य आश्रम ने राजा को अपनी ओर आकर्षित किया। अनायास ही सुन्दर वन की सीमा में रानी के साथ राजा ने प्रवेश किया। अभिलाषित फल-फूल से सुसज्जित आश्रम अपनी समृद्धि पर इतरा रहा था। पक्षियों के कूजन एवं हिंसक जिवों का निखैर-व्यवहार राजा के कुतूहल को बढ़ा रहा था। रानी भी अपने सुखद आश्चर्य में निमग्न थी। राजा ने मन ही मन आश्रम के कुलपति को प्रणाम किया। जीवन की अबूझ पहेली को सहज ही समझना यहाँ की विशेषता है। इतने में रानी चौंक पड़ी। अरे! यह तो मेरी सत्यवती है। यह आश्रम मेरे जमाता का है। हम लोग अनायास ही राजमद में चूर थे। इतनी शांति राजप्रासाद में कदापि संभव नहीं थी। मेरी सत्यवती धन्य है। महर्षि की प्रभुता के समक्ष राजवैभव तुच्छ है। जीवन की सार्थकता आज ही मुझे मिल सकी है। मैं सचमुच धन्य हो उठी हूँ। यह कहते हुए रानी बिना एक क्षण गवाँये अपनी लाडली की ओर बढ़ चली। माता को अप्रत्याशित रूप से देखकर सत्यवती पहले तो अचम्भित रह गयी, परन्तु कुछ ही देर में पिता को देखकर वह सँभलकर माता के गले लिपट गई। मूकभाव से एक दूसरे के हृदगत् भावों का आदान-प्रदान हो रहा था। प्रेमाश्रु अबाध गति  से बह रहे थे। कुछ समय बाद वह पिता का सानिध्य पाकर संतृप्त हो गई।
          अर्घ्य, आसन प्रदान कर वह कुशल क्षेम पूछने लगी। राज्य-समाचार की चर्चा के सन्दर्भ में ज्ञात हुआ कि मेरे विछोह में माता-पिता राजकाज छोड़कर तीर्थाटन कर रहे हैं। वह छत्राणी की तरह अपने भाव प्रकट करते हुए कहने लगी- प्रत्येक कन्या अपने प्रारब्ध के अनुसार अपने भर्ता की अर्धांगिनी बनकर अपने पिता का घर त्यागती है। मैं भी अपने पति के साथ आकर परम सन्तुष्ट हूँ। मेरे बिना आप लोग राज्य का त्याग कर अपने राजधर्म का निर्वाह नहीं कर रहे हैं। राजा का दायित्व प्रजा-पालन में है। प्रजा-पालन कोई सामान्य कार्य नहीं है। वह तपस्वी की जीवन जीकर प्रजा को प्रफुल्लित रखता है। राज्य का वह स्वामी नहीं बल्कि प्रतिभू है। अपने जीवन का बलिदान करके भी वह प्रजा-हित रक्षक होता है। इस तरह जीवन से पलायन उचित नहीं। पुनः अपने को सचेष्ट करते हुए उसने कहा- आप लोग कुछ प्रसाद ग्रहण करें, बाकी बातें फिर होंगी। उसने राजोचित सामग्री से माता-पिता का आतिथ्य किया। इससे दोनों ही अपने आश्चर्य को नहीं रोक सके। माता ने बड़े ही स्नेह से पूछा- बेटी सब तुम्हें कैसे सुलभ हुआ? सत्यवती ने कहा मेरे पति असाधारण तपस्वी हैं। यह सब उनकी कृपा से सम्भव हुआ। आतिथ्य ग्रहण के पश्चात माता ने कहा- पुत्रि! इतने दिन गुजर जाने पर भी अभी तुम मात्रृ-सुख से वंचित क्यों हो? सत्यवती ने लज्जा का अभिनय करते हुए कहा कि स्वामी का अगाध प्रेम पाकर मैं इतना संतृप्त हूँ कि अभी तक सन्तति की तरफ मेरा मन प्रवृत्त ही न हो सका। इसमें और कोई रहस्य नहीं है। थोड़ी देर में एकान्त पाकर रानी ने कहा- बेटी, तुम्हारे भर्ता इतने बड़े तपस्वी है तो अपने लिए एवं मेरे लिए एक-एक मेधावी पुत्र की याचना करो कि वे हमें संतुष्ट करें, तभी मेरा मन राज-प्रसाद में लग सकेगा। सत्यवती ने सहज रूप से इसे स्वीकार कर लिया। इतने में ऋचीक ने आकर आश्रम के अतिथियों को देखा। यथोचित अभिवादन के पश्चात समाचारों का आदान-प्रदान हुआ। सायंकालीन संध्या-वन्दन के पश्चात भोजन करके लोग अपने शयनकक्ष में विश्राम करने लगे। इसी क्रम में सत्यवती ने अपनी माता द्वारा कही बात से पति को अवगत कराया। इसे ऋचीक ने स्वीकारने का आश्वासन दिया।
          दूसरे दिन प्रातः संध्यादि से निवृत्त होकर महर्षि ने दिव्य गुणों से अभिमण्डित अलग-अलग दो चरु पकाया। दोनों का पूर्ण- परिपाक होने पर ऋचीक ने सत्यवती को समझाया कि तुम लोग स्नान करके नंगी होकर तुम अश्वत्थ का एवं तुम्हारी माँ उदम्बर का आलिंगन करके अपना-अपना निर्दिष्ट चरु खा लेना। अब मुझे कहीं जाना है, अतः मैं निकल रहा हूँ। निर्देश देकर मुनि गंतव्य को चले गए। माता के मन में सन्देह हुआ कि ऋषिवर ने अपने पुत्र की उत्तमता के लिए निश्चय ही अलग चरु पकाया होगा। एक ही प्रकार की चरु से दोनों उत्तम कोटि के लड़के हो जाते। संशयग्रस्त माता ने पुत्री को समझाया कि हम दोनों आपस में आलिंगन वाले वृक्षों को एवं चरु को बदल लें तो कैसा रहेगा? आखिर मेरा भी लड़का तुम्हारा सहोदर ही होगा। पुनः तुम अपने अभिलाषित पुत्र की कामना से दूसरा पुत्र प्राप्त कर सकती हो। अनिच्छापूर्वक ही सत्यवती ने माता की बात मान ली। संपूर्ण क्रिया संपन्न होने पर रात्रि में सत्यवती ने अपने पति से इतिवृत्त यथावत कह सुनाया। यह सुनकर मुनिवर अत्यन्त क्षुभित हुए। उन्होंने कहा कि मैंने संपूर्ण क्षत्रयोचित गुणों से सम्पन्न तुम्हारे भाई की कामना से तुम्हारे माता के लिए अलग वृक्ष एवं चरु की व्यवस्था की थी, और तुम्हारे पुत्र के लिए समग्र ब्राह्मण वृत्ति से समलंकृत अलग निर्देश किया था। सम्प्रति तुम्हारा भाई राजा होते हुए भी ऋषि वृत्ति का होगा और तुम्हारा पुत्र नृशंस हत्यारा एवं क्रूर कर्मा होगा। यह सुनकर सत्यवती विलाप करने लगी। वह रोकर पति से मिन्नत करने लगी। मुझ हत्यारे की माँ होने से बचायें, भले ही हमारा पौत्र क्रूरतम कृत्य वाला हो। इस पर ऋचीक ने शान्त मन से कहा कि मेरे लिए पुत्र और पौत्र में अन्तर नहीं। अतः तुम्हारा पुत्र क्षत्रियोचित गुणों से युक्त होकर भी निपट हत्यारा नहीं होगा।
          समयावधि पूर्ण होने पर सत्यवती ने यमदग्नि और उसकी माता ने विश्वरथ को जन्म दिया। आगे चलकर वही विश्वामित्र नाम से उत्कृष्ट राजा होने के साथ ही महर्षि वशिष्ठ के साथ प्रतिद्वंद्विता करके महर्षि और कालान्तर में वह ब्रह्मर्षि पद को प्राप्त हुए। विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र का साक्षात्कार किया। ब्राह्मी सृष्टि के समानान्तर उन्होंने अलग से सृजन करके अपर-ब्रह्मपद प्राप्त किया। यह देखकर देवगण घबड़ा गए। देवेंद्र ने मेनका के माध्यम से महर्षि का तप भंग कराकर उनके प्रभाव को निस्तेज किया। सत्यवती के लड़के यमदग्नि हुए जो कि विश्वामित्र के भाग्नेय थे।
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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