प्रतिशोध पाठ 11- अपरिहार्य महाभारत

 अपरिहार्य महाभारत

भीष्म का व्यक्तित्व महान था। वे परम भागवत और महान योद्धा थे। राजनीति, धर्मनीति के वे प्रबल पक्षधर थे। चारो वेदों एवं षट् दर्शन के ज्ञाता थे। उनका चरित पावन था। अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करके वे उर्ध्व रेतस् बन चुके थे। सर्वस्व होते हुए भीष्म महामानव थे। भगवान श्रीकृष्ण से वे तनिक भी न्यून महिमा वाले नहीं थे। श्री कृष्ण उन्हें पितामह कहकर सम्मान करते थे। भीष्म पितामह यदि समय पर निर्णय लेने की क्षमता-सम्पन्न होते तो सचमुच वे भगवान कहलाते। यहीं उनका व्यक्तित्व मार खा जाता है।
हस्तिनापुर सिंहासन की रक्षा करने का व्रत लेने का यह मतलब कदापि नहीं है कि राजा के गलत निर्णय को भी समर्थन देते रहना। अद्भुत सामर्थ्य एवं क्षमता रखने के बाद भी धृतराष्ट्र के पुत्र-मोह एवं शकुनि मामा की दुरभिसन्धि तथा दुर्योधन की हठशीलता को सहन करना उनके जैसे व्यक्तित्व के लिए उचित नहीं था। पाण्डवों के प्रति दुर्योधन का वैर भाव एवं धृतराष्ट्र की मौन सहमति से वे पूर्ण परिचित थे। एक बार भी वे धृतराष्ट्र को कड़े शब्दों में कह देते तो राजा का साहस कहाँ कि वह उनको अवहेलना करते। दुर्योधन यद्यपि महावीर था, किन्तु भीष्म के आगे उसका पुरुषार्थ बौना था। वे आसानी से उसे नियन्त्रित कर सकते थे। कर्ण के अनावश्यक उत्साह वे
कारण दुर्योधन अप्रिय कर्म कर बैठता, जिसको स्वीकार करना कहाँ का न्याय था? घृत-क्रीड़ा का आयोजन भीष्म की प्रबल इच्छा पर रोका जा सकता था। इनके शील, शौर्य एवं अन्यान्य दैवी गुणों से प्रभावित कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, विदुर इनके अन्ध भक्त थे। इन सबका सम्बल पाकर दुर्योधन सत्ता के मद में चूर्ण रहता। इसका प्रतिकार न करना वह भीष्म की दुर्बलता समझता था। भरी सभा में द्रौपदी को घसीटता हुआ दु:शासन ला रहा है। इस अप्रिय घटना को देखकर भीष्म का न बोलना सहृदय को अखरता है। भीष्म यदि चाह लेते तो महाभारत टाला जा सकता था। किन्तु, यह सच है कि भवितव्यता अटल है।
          श्रीकृष्ण, कौरव एव पाण्डवों के सम्बन्धी थे। वे हृदय से चाहते थे कि युद्ध टल जाय। युद्ध टालने के लिए ही दुर्योधन की सभा में दूत बनकर श्रीकृष्ण जाते हैं। दुर्योधन अपने सभासदों से कृष्ण का सम्मान न करने की मंत्रणा करता है। कर्ण से युधिष्ठिर का उपहास कराता है। इतना ही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने का असफल प्रयास भी करता है। भीष्म का मौन यहाँ भी आलोच्य है। श्रीकृष्ण तुरन्त घोषणा करते हैं। एक क्षण भी नहीं लगाते-‘याचना नहीं अब रण होगा, संग्राम महाभीषण होगा।' युद्ध का बिगुल बज चुका। दोनों पक्षों ने मित्रों की सेनाओं को जुटाना शुरू किया। दोनों तरफ से क्रमश: ग्यारह और सात अक्षौहिणी सेना एकत्र हो गयी।
मद्रराज शल्य सहदेव के मामा थे। महाराज युधिष्ठिर के निमंत्रण पर इस महासमर में लड़ने आ रहे थे। दुर्योधन ने रास्ते में उनकी सुविधा का विशेष प्रबन्ध करके अपनी कूटनीति का परिचय दिया। महाराज शल्य ने समझा कि युधिष्ठिर ने मेरा बड़ा ध्यान रखा। उनकी कृतज्ञता ज्ञापित करने लगे। इसके बाद दुर्योधन के सेवकों ने बताया कि हम लोग तो आपकी सेवा में दुर्योधन द्वारा नियुक्त किये गये हैं। इस पर शल्य आश्चर्यचकित रह गये। मद्र नरेश का हृदय परिवर्तित हो गया। उन्होंने कहा कि यह जानते हुए कि मैं उनके विपक्ष में लड़ने जा रहा हैं। इस पर भी मेरा इस प्रकार सम्मान करना तो दुर्योधन की सदाशयता है। यह प्रसंग चल ही रहा था कि स्वयं दर्योधन वहाँ उपस्थित  होकर शल्य का अभिवादन करके बोला-मामा! हम और पाण्डव आपके लिए बराबर है। युद्ध तो क्षत्रियों का आभूषण है। न्याय और प्रेम परस्पर जा विरोधी हैं। ऐसे ही स्थान पर व्यक्ति का परीक्षण होता है। इस पर शल्य ने भारी मन से दुर्योधन के पक्ष में युद्ध करने का निश्चय किया।


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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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