सेनापति का चयन
कौरवों की सेना के प्रमुख भीष्मपितामह बने। उनकी दो शर्ते थीं। पहली मैं पाण्डवों का वध नहीं करूंगा। दूसरी शर्त थी--मेरे सेनापतित्व में दम्भ कर्ण नहीं लड़ेगा। मजबूरी में दोनों ही शर्ते दुर्योधन को माननी पड़ीं। १८ दिन युद्ध चला। इसमें कौरवों की तरफ से अकेले ही भीष्म ने १० दिन तक सेना का संचालन किया।
उधर पाण्डवों की तरफ प्रधान सेनापति बनाने पर गहन मन्त्रणा हुई। सात नामों का चयन किया गया। इन्ही में किसी को सेनापति का महान दायित्व सौंपा जायेगा। इनके नाम हैं-मत्स्य नरेश विराट, पाञ्चाल नरेश द्रुपद, शिखण्डी ,धृष्टद्युम्न, सात्यकी, भीमसेन, अर्जुन तथा सुभद्रा-तनय अभिमन्यु। सब पर सम्यक् विचार किया गया। अन्त में द्रोणाचार्य के जन्मजात वैरी धृष्टद्युम्न के सर्वसम्मति से सेनापति बनाया गया। सम्पूर्ण महाभारत में पाण्डवों के सेनापति का धृष्टद्युम्न ने ही निर्वहन किया, जबकि कौरवों में क्रमश: भीष्म पितामह द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य, अश्वत्थामा ने सेनापतित्व के दायित्व का निर्वहन किया।
भीष्म के नेतृत्व में कर्ण नहीं लड़ सका इसका उसे बड़ा क्षोभ था । युद्धकाल में कर्ण अपने शिविर में उदास रहता। युद्ध समाचार के लिए। उत्साहित रहता; किन्तु वह युद्ध-भूमि में जा नहीं सकता। वह कुण्ठित हो उठा। एक दिन वह अपने शिविर से उठकर टहलता हुआ महारानी द्रौपदी के शिविर की ओर अनायास ही चला गया। द्रौपदी के कक्ष में नीरवता छायी थी। अकेली द्रौपदी वहाँ बैठी थी। उसके कक्ष में अलौकिक आभा फैल रही थी। मानो हजारों मणियाँ चमक रही हों। कर्ण ने अपने मन में सोचा कि इस
अदभुत रमणी के बारे में मैंने द्यूत-सभा में जो अनुचित विचार व्यक्त किया था, उसके लिए मैं अपने आपको कभी क्षमा नहीं कर सकता। आजीवन इसका मुझे पश्चात्ताप रहेगा। इस समय सम्पूर्ण पृथ्वी पर द्रोपदी के समान महारानी रुक्मिणी को छोड़कर अन्य कोई महिमा-मण्डित नारी नहीं है। उसने भावावेश में मन ही मन द्रौपदी को प्रणाम करके अपने गन्तव्य को प्रस्थान किया।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें