भीष्म का ( इच्छा-मृत्यु का) कवच
श्रीकृष्ण का विनोद सुनकर भीष्म ने कहा-माधव ! मुझे मत बताइये कि आप बालक हैं और मैं वृद्ध। आप जगत-पितामह के भी पिता हैं । सम्पूर्ण सृष्टि आपकी विलास-लीला है। आप विधि-हरिहर को भी आश्चर्यचकित करने वाले हैं। मुझे सम्मान देना आपका अनुग्रह है। आपका गौरव मुझसे छिपा नहीं है। मैं आपको निराश नहीं कर सकता। मुझे मारे बिना पार्थ को विजय आप नहीं दिला पायेंगे। मेरे इच्छा के विपरीत मुझे मारना असम्भव है।
मैं अपना एक रहस्य बताता हूँ। मेरी पितृ-भक्ति जग-जाहिर है। मेरे जीवन में भाता-पिता से बढ़कर कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है। मैंने मन, कर्म एवं वाणी से सर्वथा इनको संतृप्त किया है। इनका आशीर्वाद मेरे जीवन का पाथेय है। माता गंगा यद्यपि जगत-जननी हैं, किन्तु मेरे ऊपर उनकी असीम कृपा है। वे प्रत्यक्षतः पिता का राज-प्रासाद त्यागकर भी मुझे कभी न त्याग सकीं। मेरे पिता शान्तनु मुझे अत्यन्त प्यार करते थे। मेरे लिए उन्होंने माता सत्यवती को अन्त:करण से चाहते हुए भी स्वीकार नहीं किया। वापस लौटकर मन वहीं छोड़ दिया। अनमनस्क रूप में राजकाज देखते हुए अपना अशेष दुलार मुझपर न्योछावर करते। मैं उनकी आत्मा हूँ। मुझे यह रहस्य जानते देर नहीं लगी कि मेरे असीम प्यार के चलते गंगा समान पत्नी का परित्याग करने वाला राजर्षि का मन क्यों क्षुभित है? सुमन्त के साथ जाकर मैंने अपने नाना दासराज से सत्यवती माता का हाथ उनकी शर्त पर अपने पिता के लिए माँग लिया। समाचारों से अवगत होकर पिताजी अत्यन्त दुखी हुए। मेरे ऊपर उनका स्नेह दिनोंदिन प्रगाढ़ होता चला गया। विचित्रवीर्य एवं चित्रांगद नाम के दो अनुजों सहित माता सत्यवती का दायित्व मुझपर छोड़ वे स्वर्गवासी हो गये।
राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा एवं राजकाज का सम्यक् निर्वहन करते हुए मैंने माता सत्यवती को भी अपनी माता का सम्मान दिया। समय धीरे-धीरे व्यतीत हो गया। देव-तर्पण के साथ ही मेरा नित्य पितृ-तर्पण एवं ऋषि-तर्पण अजि तक जारी है। एक बार पितृपक्ष में पिताजी की श्रद्ध-तिथि का पार्वण कर रहा था। मैं जैसे ही पिण्ड का पूजन करके कुश पर रखने जा रहा था कि पिता का हाथ प्रत्यक्ष मेरे सामने आ गया। मैंने तुरन्त ही उन्हें पहचान लिया। आकाशवाणी के माध्यम से पिताजी स्वयं बोले-'हे पुत्र मेरे हाथ पर
पिण्ड रख दो।' पिताजी का आदेश सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया कि पिण्डा कुश पर रखें अथवा हाथ पर। थोड़ी देर में विचार कर मैंने मंत्रपूर्वक पिण्ड विकीर्ण कुश पर ही रख दिया। उसे देखकर मुझसे पिताजी बोले-हे वत्स ! तुम धन्य हो। तुम्हारी शास्त्र निष्ठा अटूट है। मेरे स्नेह के कारण तुमने अपना जीवन दाँव पर लगा दिया। आज शास्त्र-वचन की मर्यादा से आबद्ध होकर मेरे हाथ पर पिण्ड-दान नहीं कर रहे हो। मैं तुम्हें इच्छामृत्यु का वरदान देता हूँ। जब तक तुम चाहो इस पृथ्वी पर सुखपूर्वक विचरण करते हुए जीवनयापन करो। यह कहते हुए पिताजी श्राद्ध-ग्रहण करके अपने लोक चले गये।
तबसे मैं इच्छामृत्यु का कवच लेकर इन अनहोनियों को देख रहा हूँ। हस्तिनापुर की प्रतिष्ठा को अपने जीवन में धूल-धूसरित होने से बचाने के लिए एक से बढ़कर एक अनर्थ का साक्षी बनता जा रहा हूँ। मैंने जीवन में पाने की अपेक्षा खोया बहुत है। भगवान परशुराम जैसे गुरु को खोना मेरे लिए अपूरणीय क्षति है। वचन-भङ्ग का प्रायश्चित मुझे न करना पड़े, इसीलिए मैंने अनेक असहनीय विपत्तियों को झेला है। मैं जानता हूँ कि कुलगुरु कृपाचार्य,द्रोणाचार्य एवं अश्वत्थामा जैसे निर्विवाद लोग भी मेरे संकोच से इस महासमर
में अपने जीवन की बाजी लगा रहे हैं। मैंने जीवन-मूल्यों से अपने हित में कभी समझौता नहीं किया। अपने जीते जी हस्तिनापुर की प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने दूंगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है। दुर्योधन, शकुनी एवं कर्ण की परवाह मैं नहीं करता। राजा धृतराष्ट्र के प्रति मेरा समर्पण है। उक्त लोग धतराष्ट्र की कमजोरी है। मैं इस युद्ध को अनिच्छा से लड़ रहा हूँ। यह आप भी जानते हैं।
श्रीकृष्ण जी महात्मा भीष्म की बात सुनकर बोले-पितामह ! यदि आपको अपने वचन की इतनी परवाह है तो अभी आपने अर्जुन को भी विजयी होने का वरदान दिया है। इसके लिए भी आपको ही कोई उपाय निकालने की मैं प्रार्थना करता हूँ। आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे। भीष्म ने हँसते हुए कहा-आपका मुझ पर अमित स्नेह है, तभी मुझे इतना गौरव देते आप कभी अघाते नहीं है। इसका सरल उपाय है। युद्ध भूमि में जब तक मैं अपना हथियार नहीं डाल देता, तब तक पार्थ की विजय असम्भव है। मैंने किसी स्त्री पर अपना अस्त्र नहीं उठाने की शपथ ली है। अगर कोई स्त्री युद्धभूमि में मेरा सामना करेगी मैं अपना धनुष नहीं चला सकता। अब मुझे विश्राम करने दें। आप लोग भी कल की तैयारी करें। श्रीकृष्ण को विदा कर भीष्म पितामह लेटकर युद्ध की विभीषिका पर मंथन करने लगे। कब नींद आयी। इसका उन्हें स्वयं ज्ञान नहीं हुआ। ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सन्ध्यादि कार्य सम्पन्न करके युद्ध भूमि की साज-शय्या में लग गये। अग्रिम युद्ध करने के लिए शिविर का परित्याग करके समरभूमि की ओर चल पडे। रात्रि में हो। महाराज दुर्योधन के गुप्तचरों ने सूचना दी कि अभी-अभी अर्जुन को साथ लेकर माधव को पितामह की शिविर में जाते देखा गया है। इस समाचार कुरु श्रेष्ठ का अन्र्तमन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा। रात भर वह सो नहीं सका। विचारों का अन्र्तद्वन्द्व चलता रहा और उसे आत्मग्लानि भी होने लगी। मैं अपना और अपने भाइयों का दुश्मन बन गया। पितामह तो हमेशा ही पाण्डु के हितैषी थे। मैंने अनायास ही उन्हें अपना समझकर इस महासंग्राम की कमान उनके हाथों में सौंप दी। अब तो जो होगा होकर ही रहेगा। युधिष्ठिर के किसी भाई का कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ। मेरे अनेक भाई काल-कवलित हो चुके। इसका खुलासा तो पितामह ने पहले ही कर दिया था। मैं पाण्डवों का वध अपने हाथों नहीं करूंगा। कर्ण का मुझे पूर्ण विश्वास था। वह भी पितामह के कारण मेरी कोई मदद नहीं कर सका। इस बीच सवेरा हो गया।
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