काव्य गुण - परिभाषा, स्वरूप, संख्या

चन्द्र देव त्रिपाठी 'अतुल'
0
काव्य गुण - परिभाषा, स्वरूप, संख्या
काव्य गुण - परिभाषा, स्वरूप, संख्या

काव्य गुण - परिभाषा, स्वरूप, संख्या

जिस प्रकार अलंकार से काव्य शोभायमान होता है, उसी प्रकार गुण से काव्य में माधुर्य, प्रसाद और ओज उत्पन्न होता है।

❖ काव्य गुण — परिभाषा एवं स्वरूप ❖

आचार्य भरत ने नाट्यशास्त्र के अन्तर्गत सर्वप्रथम गुण की परिभाषा की ओर इंगित किया। इनके अनुसार गुण का कार्य है काव्य को सौन्दर्यमण्डित करना-

अलंकारैर्श्चगुणश्चैव बहुभिः समलंकृतः ।

अर्थात्, अलंकार और गुण का कार्य है, कविता को समलंकृत करना । समलंकृत शब्द का अर्थ है, समनुपातिक सौन्दर्यविधानों से कविता को अलंकृत करके उसे आकर्षण का विषय बनाना। यद्यपि यह परिभाषा बहुत स्पष्ट नहीं है, फिर भी, इसमें गुण धर्म का वैशिष्ट्य परिलक्षित हो जाता है और यह भी स्पष्ट हो जाता है गुण एवं अलंकार की रचनात्मक प्रवृत्ति एवं कोटि एक ही प्रकार की है।

आचार्य दण्डी, "अलंकार और गुण की एक जैसी परिभाषा देते हैं। वे अलंकार को परिभाषित करते हुए कहते हैं-

"काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते ।"

काव्य के शोभा विधायक धर्म का नाम अलंकार है। मूलतः गुण का कार्य है, रचना के सौन्दर्य का विधान करना किन्तु दण्डी उसे अलंकार धर्म मानते हैं। इस प्रकार उनकी यह परिभाषा न केवल स्वरूप अपितु गुण के धर्म को भी स्पष्ट करती है और आचार्य भरत की उसी परम्परा को स्पष्ट करती है जिसमें गुण तथा बलंकार को एक ही सरणि के अन्तर्गत रखा गया है।

बाद में आलंकारिकों ने गुण तथा अलंकार के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करते हुए दोनों की मूल वृत्तियों को पृथक् पृथक् रूप से विवेचित किया और उनकी स्थिति स्पष्ट की। आचार्य भामह गुण एवं अलंकार के स्वभाव को स्पष्ट करते हुए बताते हैं-

समवायवृत्या शौर्यादयः संयोगवृत्त्या तु हारादयः, गुणालंकाराणां भेदः ।

मानव में शौर्यादि धर्म की भाँति अनिवार्य धर्म के रूप में काव्य का गुण से सम्बन्ध है किन्तु अलंकार रचना का अनिवार्य तत्त्व नहीं है। अलंकार कविता का सम्बन्ध संयोग वृत्ति का अर्थात् औपचारिक है।

आचार्य वामन गुण को परिभाषित करते हुए कहते हैं- "काव्यशोभायाः कर्तारो धर्मा गुणाः"अर्थात् काव्य के शोभा विधायक धर्म का नाम अलंकार है।

कविता का कलेवर "शब्द" एवं "चैतन्य" अर्थ के मूल कारण गुण हैं। यदि कविता का विवेचन किया जाए तो शब्दार्थ के 'भौतिक तत्व' ही उसके कारण हैं। रचना की किसी विशिष्ट परिस्थिति में उत्पन्न उसकी शब्दार्थ प्रवृत्ति का सम्बन्ध गुण है और चूंकि कविता शब्दार्थ से भिन्न नहीं हो सकती अतः वह गुण शून्य भी नहीं हो सकती। इसीलिए आचार्यों ने शब्द एवं अर्थगुण की भिन्न-भिन्न रूपों में चर्चा की है। अनेक शब्द सुनकर, ललित, ओजयुक्त तथा उसके अर्थ भी सुनकर, प्रीतिकर, रुचिकर, ओजयुक्त प्रतीत होते हैं और ये धर्म भाषा के नैसर्गिक स्वभाव के रूप में हैं। इस प्रकार, आचार्य वामन के बनुसार काव्य के भौतिक धर्म रूप तत्व भाषा एवं अर्थ के नैसर्गिक विधायक तत्त्व को नाम गुण है। इसीलिए अलं-कार की तुलना में आचार्य वामन इन तत्त्वों का नित्य एवं सनातन मानते हैं। इन गुणों के बिना काव्य में सौन्दर्य की उत्पत्ति सम्भव नहीं है, जबकि अलंकार रचना के अनित्य धर्म हैं और इनके बिना भी रचना-सौन्दर्य की वृद्धि सम्भव है-

"पूर्वे गुणाः नित्याः तैविंना काव्यशोभानुपपत्ते:

उन्होंने अपने इस कथन की पुष्टि के लिए एक उद्धरण दिया है "यदि कोई कविता गुण से रहित है तो वह युवती के यौवनरहित देह के समान है- (जैसे यौवन रहित देह को अलंकार शोभित नहीं करते, उसी तरह गुण रहित काव्य लोकप्रसिद्ध अलंकारों से युक्त होने पर भी शोभित नहीं होते ।)

आगे चलकर आचार्यों ने दण्डी की गुण सम्बन्धी इस धारणा का विकास नहीं किया । मूलतः काव्यभाषा एवं अर्थविधान ने भौतिक स्वरूप से सम्बद्ध होने के कारण गुण के सम्बन्ध में अधिक गहनतापूर्वक विचार किया जा सकता था, किन्तु परवर्ती आचार्यों में भोजराज के अतिरिक्त इसकी शक्ति और सामर्थ्य पर किसी ने गम्भीरता-पूर्वक विचार नहीं किया। सामान्यतया आचार्य भामह की परिपाटी में रचना के अनिवार्य धर्म के रूप में इसे "रस" से जोड़कर देखने की चेष्टा की गयी और इस क्रम में आचार्य आनन्दवर्द्धन इसे निम्नवत् परिभाषित करते हैं- जो उस प्रधानभूत (रस) अङ्गिन् के आश्रित हैं, वे गुण हैं। इस प्रकार उनके अनुसार रचना में रसाश्रित धर्म का नाम गुण है।

इसी क्रम में आचार्य मम्मट गुण को परिभाषित करते हैं-

ये रसस्याङिगनो धर्मा शौर्यादिव आत्मनः ।
उत्कर्ष हेतवस्ते स्युश्चलस्थितयो गुणा ॥

अर्थात् काव्य के प्रधानभूत (अङ्गिन तत्त्व) तत्त्व रस के आश्रित धर्म जो आत्मा के स्वयंभूत शौर्यादि धर्मों की भाँति है अचल भाव से उसमें वर्तमान होकर उस (रस) के उत्कर्ष साधन बनते हैं, वे गुण है। इस प्रकार आचार्य मम्मट ने गुण के तीन तत्त्वों की ओर उल्लेख किया है-
(1) काव्य में रस अङ्गिन धर्म है और गुण उसके सहायक,
(2) ये सहायक धर्म सनातन हैं,
(3) उन सहायक सनातन तत्त्वों का कार्य है "रसोत्कर्ष करना"
आचार्य भोज ने कविता के मौखिक शब्द तथा अर्थ गुण की चर्चा विस्तारपूर्वक की है। गुण को परिभाषित करते हुए वे बताते हैं-

अलंकृतमपि श्रव्यं न काव्यं गुणविवर्जितम् ।
गुणयोगतयोमुख्यो गुणालंकार योगयतेः ॥

कविता अलंकृत होती हुई भी गुणयोग से समादृत होती है, वह इसीलिए कि वह (गुण) उसका अनिवार्य तथा अपरिहार्य धर्म है। गुण से विर्वार्जत काव्य का कोई अस्तित्व नहीं है। इस प्रकार "गुण" काव्य रचना का अनिवार्य तत्त्व है। यह मुख्यतः उसकी भाषिक एवं अर्थगत भौतिक प्रकृति का विधायक होने के कारण उससे अनिवार्यतः जुड़ा है और अपनी विशिष्ट परिस्थिति के कारण पाठक में रसास्वादन का वाता-वरण सृजित करता है।

आचार्य कुन्तक ने काव्य रचना की समग्र सौन्दर्य सम्पदा को गुण की संज्ञा दी है-

असमस्त मनोहारि पद विन्यासजीवितम् ।
माधुर्य सुकुमारस्य मार्गस्य प्रथमो गुणाः ।।
आभिजात्य प्रभृतयः पूर्वमार्गोदिता गुणाः ।
अन्नातिशयात्मायान्ति जनिताहाय सम्पदः ।।

❖ काव्य गुण के प्रमुख भेद ❖

आचार्य भामह के मतानुसार
  • ओज गुण — जहाँ भाषा में बल, तेज, और उत्साह हो।
  • प्रसाद गुण — जहाँ भाषा सरल, सहज और हृदयग्राही हो।
  • माधुर्य गुण — जहाँ शब्दों में कोमलता, मधुरता और लय हो।

❖ काव्य गुणों की संख्या ❖

  • आचार्य भरत ने गुणों की संख्या 10 बताई है।
  • 1.श्लेष, 2.प्रसाद, 3.समता, 4.समाधि, 5.माधुर्य, 6.ओज, 7.पदसुकुमारता, 8.अर्थशक्ति, 9.उदारता, 10.कान्ति

  • आचार्य दण्डी — भी भरत के ही अनुक्रम में इन्हीं दस गुणों की चर्चा करते हैं।
  • आचार्य वामन —ने गुणों को मुख्यतः दो भागों में विभक्त करके इनकी संख्या क्रमशः 10-10 अर्थात 10 शब्द गुण एवं 10 अर्थगुण बताई है। इन तीनों आचार्यों के गण लक्षण में थोड़ी भिन्नता अवश्य है ।
  • शब्द-गुण अर्थ-गुण
    ओज – गाढ़ बंधत्वओज – अर्थगौरव
    प्रसाद – शौथिल्यप्रसाद – अर्थव्यक्तता
    श्लेष – मृदुगताश्लेष – अनेकार्थ घटना
    समता – मार्गभेदसमता – प्रकारभेद
    समाधि – आरोह-अवरोह क्रमसमाधि – मूलार्थ की प्रतिपत्ति
    माधुर्य – पृथक पदत्वमाधुर्य – उक्ति वैचित्र्य
    सौकुमार्य – अजरठत्वसौकुमार्य – अपरुष्त्व
    उदारता – नृत्य करते हुए से पद अर्थात् पद-विच्छेदातउदारता – अग्राह्यत्व
    अर्थव्यक्ति – अर्थ प्रतिपत्ति, अविलम्बअर्थव्यक्ति – वस्तु-स्वभाव-स्फुटत्व
    कान्ति – उज्ज्वलताकान्ति – दीप्त रसत्व
  • आचार्य हेमचन्द्र — भी भरत के ही अनुक्रम में इन्हीं दस गुणों की चर्चा करते हैं।
  • आचार्य भोज — के अनुसार गुणों की संख्या 24 हैं-
  • 1.श्लेष, 2.प्रसाद, 3.समता, 4.माधुर्य, 5.सुकुमारता, 6.अर्थव्यक्ति, 7.कान्ति, 8.उदारता, 9.उदात्त, 10.ओज, 11.उज्वसित, 12.प्रेयस, 13.सुभगता, 14.समाधि, 15.सूक्ष्मता, 16.गम्भीरता, 17.विस्तार, 18.संक्षेप, 19.समतात्व, 20.भाषिकतत्त्व, 21.गति, 22.रीति, 23.उक्ति, 24.प्रौढ़ि।
  • आचार्य विश्वेश्वर — गुणों की संख्या 23 बताते हैं ।
  • 1.श्लेष, 2.प्रसाद, 3.समता, 4.माधुर्य, 5.सुकुमारता, 6.अर्थशक्ति, 7.उदारता, 8.ओज, 9.कान्ति, 10.उदात्तता, 11.प्रेयस, 12.समाधि, 13.औषधि, 14.सौम्य, 15.गाम्भीर्य, 16.विस्तार,17.संक्षेप, 18.शब्द संस्कार,19.भाविक, 20.सम्मति, 21.गति, 22.उक्ति, 23.रीति ।
  • आचार्य भामह — के अनुसार गुणों की संख्या 03 है। 1.ओज,2.प्रसाद,3.माधुर्य, और इसी में उन्होंने समस्त 10 गुणों का समाहार कर दिया है-काव्य में सर्वमान्य गुण तीन ही हैं जो भामह ने बताया तथा इन्ही तीन गुणों में दसों गुणों का समाहार कर दिया
आचार्य भामह ने दसों गुणों को क्रमशः इस रूप में समाहार किया-
(1) ओज-श्लेष, उदारता, प्रसाद, समाधि
(2) प्रसाद-कान्ति, सुकुमारता, समता
(2) माधुर्य-इसका अपना स्वतन्त्र रूप सर्वथा सभी गुणों से पृथक् है ।
सामान्य रूप से उन्होंने गुणों को शब्दगुण, अर्थगुण एवं उभय गुण इन तीन श्रेणियों में रखा है।

जब काव्य में स्वाभाविक सौन्दर्य, माधुर्य, प्रसाद, ओज, और सहजता के कारण आकर्षण उत्पन्न होता है, तो उसे काव्य गुण कहा जाता है।
अर्थात — जो काव्य को मनोहर और ग्राह्य बनाते हैं, वे गुण कहलाते हैं।

काव्य गुणों से ही कविता में रस, सौन्दर्य और प्रभाव उत्पन्न होता है। इनसे भाषा हृदयग्राही बनती है और पाठक को आनंद की अनुभूति कराती है। अतः कहा गया है —

"गुणैरलंक्रियते काव्यं, दोषैरपतति क्षणात्।"
अर्थात — गुण काव्य को उठाते हैं, दोष उसे गिरा देते हैं।

ओज, प्रसाद, माधुर्य गुणों का स्वरुप विश्लेषण

1) ओज गुण :
“चलो फिर से दीया जलाएँ।” — चित्त के विस्तार की हेतुभूत दीप्ति ओज कहलाती है। आनन्दवर्द्धन के पूर्व ओज गुण के सम्बन्ध में यह मान्यता थी कि इसका सम्बन्ध भाषा की सामासिकता से है और यह प्रसाद गुण के ठीक विपरीत है। लेकिन आनन्दवर्द्धन ने इसका सम्बन्ध रौद्र, वीर, भयानक, वीभत्स आदि रसों के सहायक धर्म के रूप में प्रतिपादित किया। यह ओज सामान्यतः वीर रस में रहता है, लेकिन वीभत्स और रौद्र रसों में क्रम से इस गुण की अधिकता होती है। समास बहुलता, द्वित्व, रेफ एवं 'ट' वर्ग वर्षों का प्रयोग इस गुण की विशेषता है क्योंकि इससे वीर, भयानक एवं वीभत्स रसों में आवेश उत्पन्न करने की क्षमता बढ़ती है। यथा- मुण्ड कटत कहुँ रुण्ड नटत कहुँ सुण्ड पटत घन। गिद्ध लसत कहुँ सिद्ध हसत सुख वृद्धि रसत मन ॥ - भूषण

2) प्रसाद गुण :
“सादगी में ही सच्चा सौन्दर्य बसता है।” — सूखे ईंधन में अग्नि के समान अथवा स्वच्छ धुले हुए वस्त्र में जल के समान जो रचना पाठक के चित्त में सहसा व्याप्त हो जाती है वह प्रसाद गुण युक्त कहलाती है। यह गुण सभी रसों में रह सकता है। अग्नि और जल की भाँति प्रसाद गुण को कहने का अभिप्राय ही यह है कि जब वीर, रौद्र आदि उग्र रसों में यह गुण होता है तब शुष्क ईंधन में अग्नि के समान और जब श्रृंगार, करुण आदि कोमल रसों में होता है तब स्वच्छ वस्त्र में जल के समान चित्त में व्याप्त हो जाता है। जैसे- सखि वे मुझसे कहकर जाते तो कह! क्या वे मुझको अपनी पथ बाधा ही पाते? गुण को उपचार से (गौणीवृत्ति) शरीर (शब्दार्थ) का धर्म माना जा सकता है उसी प्रकार जैसे शौर्यादि अन्तरंग धर्म होने पर भी लौकिक व्यवहार में बहिरंग (शरीर) के धर्म कह दिये। जाते हैं।

3) माधुर्य गुण :
“कोयल की कूज सी मधुर वाणी।” — भामह के अनुसार, "श्रव्यं नातिसमस्तार्थ काव्यं मधुरमिष्यते" जिसमें अधिक समस्त पद न हो इस प्रकार का कानों को प्रिय लगने वाला श्रव्य काव्य मधुर कहलाता है। मम्मट इस लक्षण को उचित नहीं समझते क्योंकि उनके अनुसार इसमें श्रव्यत्व को माधुर्य गुण का लक्षण माना गया है। वे इस पर आपत्ति करते हुए कहते हैं कि श्रव्यत्व तो प्रसाद और ओज में भी होता है।" श्रव्यत्वं पुनरोजः प्रसादयोरपिः" अतः यह लक्षण अतिव्याप्ति दोष से ग्रस्त है। मम्मट के अनुसार, चित्त के द्रवीभाव का कारण और श्रृंगार में रहने वाला जो आह्ह्लादस्वरूपत्व है वह माधुर्य नामक गुण कहलाता है। श्रृंगारादि रस आ‌ह्लादजनक नहीं आहलादस्वरूप होते हैं। विश्वनाथ के अनुसार, "वह भावमय आह्‌लाद जिससे चित्त द्रवित हो उठे माधुर्य है।" वस्तुतः चित्त का द्रुति रूप आह्लाद जिसमें अन्तःकरण द्रवित हो जाय माधुर्य कहलाता है। मम्मट के अनुसार, यह गुण संयोग श्रृंगार, करुण, विप्रलम्भ श्रृंगार एवं शान्त रसों में क्रम से बढ़ा हुआ रहता है। इस गुण के व्यंजक वर्ण हैं, ट, ठ, ड और ढ को छोड़कर शेष क से म तक के वर्ण। इस गुण में समास का अभाव या लघु समास होता है। यथा- कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि, कहत लखन सन रामु हृदय गुनि। प्रस्तुत संदर्भ में वर्णगत और रसगत माधुर्यगुण है।

गुण को चित्तवृत्ति का पर्याय माना गया है। विभिन्न रसों की चर्वणा में सामाजिक के चित्त की तीन दशाएँ होती हैं- दुति, दीप्ति और व्याप्ति। चित्त के आर्द्र या द्रवित होने को दुति, उज्ज्वलता एवं विस्तार को दीप्ति तथा व्यापकता या विकास को व्याप्ति कहते हैं जो क्रमशः माधुर्य, ओज एवं प्रसाद में अधिकता से विद्यमान रहता है। माधुर्य गुण ओज गुण प्रसाद गुण

संबंधित लेख


© 2025 • Paramhans Pathshala • सर्वाधिकार सुरक्षित

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें (0)