मैथिलीशरणगुप्त
राधा
शरण एक तेरे मैं आई,
धरे रहें सब धर्म हरे !
बजा तनिक तू अपनी मुरली,
नाचें मेरे मर्म हरे !
नहीं चाहती मैं विनिमय में
उन वचनों का वर्म हरे !
तुझको—एक तुझी को—अर्पित
राधा के सब कर्म हरे !
यह वृन्दावन,
यह वंशीवट,
यह यमुना का तीर हरे !
यह तरते ताराम्बर वाला
नीला निर्मल नीर हरे !
यह शशि रंजित सितघन-व्यंजित
परिचित,
त्रिविध समीर हरे !
बस, यह तेरा अंक और यह
मेरा रंक शरीर हरे !
कैसे तुष्ट करेगी तुझको,
नहीं राधिका बुधा हरे !
पर कुछ भी हो,
नहीं कहेगी
तेरी मुग्धा मुधा हरे !
मेरे तृप्त प्रेम से तेरी
बुझ न सकेगी क्षुधा हरे !
निज पथ धरे चला जाना तू,
अलं मुझे सुधि-सुधा हरे !
सब सह लूँगी रो-रोकर मैं,
देना मुझे न बोध हरे !
इतनी ही विनती है तुझसे,
इतना ही अनुरोध हरे !
क्या
ज्ञानापमान करती हूँ,
कर न बैठना
क्रोध हरे !
भूले तेरा
ध्यान राधिका,
तो लेना तू
शोध हरे !
झुक, वह वाम कपोल चूम ले
यह दक्षिण
अवतंस हरे !
मेरा लोक आज
इस लय में
हो जावे विध्वंस
हरे !
रहा सहारा इस
अन्धी का
बस यह उन्नत
वंश हरे !
मग्न अथाह
प्रेम-सागर में
मेरा मानस-हंस
हरे !
’द्वापर’
खण्डकाव्य से’
उर्मिला का
विरह वर्णन
सखि, नील नभस्सर से उतरा, यह
हंस अहा! तरता- तरता ।
अब
तारकमौक्तिक, शेष नहीं, निकला जिनको चरता- चरता ।।
अपने हिम
बिंदु बचे तब भी, चलता उनको धरता-धरता
।
गड़ जायँ न
कंटक भूतल के, कर डाल रहा डरता
डरता ।। 1
मुझे फूल मत मारो,
मैं अबला बाला वियोगिनी, कुछ तो दया विचारो।
होकर मधु के मीत मदन, पटु, तुम कटु
गरल न गारो,
मुझे विकलता, तुम्हें विफलता, ठहरो, श्रम परिहारो।
नही भोगनी यह मैं कोई, जो तुम जाल पसारो,
बल हो तो सिन्दूर-बिन्दु यह--यह हरनेत्र निहारो !
रूप-दर्प कंदर्प, तुम्हें तो मेरे पति पर वारो,
लो, यह मेरी चरण-धूलि, उस रति के सिर पर धारो!
2
विरह संग अभिसार भी ,
भार जहाँ आभार भी |
मैं पिंजड़े में पड़ी हूँ
किन्तु खुला है द्वार भी ,
काल कठिन क्यों न हो किन्तु है
मेरे लिए उदार भी |
जहाँ विरह ने गार दिया है किया
वहाँ उपकार भी ,
सुधबुध हर ली किन्तु दिया है
कालज्ञान विचारभी |
जना दिया है उसने मुझको जनजीवन
है भार भी ,
और मरण? वह बन जाता है
कभी हिये का हार भी |
जाना मैंने इस उर में थी ज्वाला
भी जलधार भी ,
प्रिय ही नहीं यहाँ मैं भी थी, ओर एक संसार
भी |3
कहती मैं, चातकि, फिर बोल,
ये खारी आँसू की बूँदें दे सकतीं यदि मोल!
कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलों की तोल?
फिर भी फिर भी इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल।
श्रुति-पुट लेकर पूर्वस्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल,
देख, आप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल!
जाग उठे हैं मेरे सौ सौ स्वप्न स्वयं हिल-डोल,
और सन्न हो रहे, सो रहे, ये भूगोल-खगोल।
न कर वेदना-सुख से वंचित, बढ़ा हृदय-हिंदोल,
जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल! 4
ये खारी आँसू की बूँदें दे सकतीं यदि मोल!
कर सकते हैं क्या मोती भी उन बोलों की तोल?
फिर भी फिर भी इस झाड़ी के झुरमुट में रस घोल।
श्रुति-पुट लेकर पूर्वस्मृतियाँ खड़ी यहाँ पट खोल,
देख, आप ही अरुण हुये हैं उनके पांडु कपोल!
जाग उठे हैं मेरे सौ सौ स्वप्न स्वयं हिल-डोल,
और सन्न हो रहे, सो रहे, ये भूगोल-खगोल।
न कर वेदना-सुख से वंचित, बढ़ा हृदय-हिंदोल,
जो तेरे सुर में सो मेरे उर में कल-कल्लोल! 4
यशोधरा विरह वर्णन
सखि, वे मुझसे कहकर जाते,
कह, तो क्या मुझको वे ,
अपनी पथ-बाधा ही पाते?
मुझको बहुत उन्होंने माना
मैंने मुख्य
उसी को जाना
जो वे मन में
लाते।
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
स्वयं
सुसज्जित करके क्षण में,
प्रियतम को, प्राणों के पण में,
हमीं भेज देती
हैं रण में -
क्षात्र-धर्म
के नाते
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
हुआ न यह भी
भाग्य अभागा,
किसपर विफल
गर्व अब जागा?
जिसने अपनाया
था, त्यागा;
रहे स्मरण ही आते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
नयन उन्हें
हैं निष्ठुर कहते,
पर इनसे जो
आँसू बहते,
सदय हृदय वे
कैसे सहते ?
गये तरस ही खाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
जायें, सिद्धि पावें वे सुख से,
दुखी न हों इस
जन के दुख से,
उपालम्भ दूँ
मैं किस मुख से ?
आज अधिक वे
भाते!
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
गये, लौट भी वे आवेंगे,
कुछ अपूर्व-अनुपम
लावेंगे,
रोते प्राण
उन्हें पावेंगे,
पर क्या
गाते-गाते ?
सखि, वे मुझसे कहकर जाते।
अब
कठोर हो वज्रादपि, ओ कुसुमादपि सुकुमारी ।
आर्यपुत्र
दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
मेरे
लिए पिता ने सबसे धीर-वीर वर चाहा ।
आर्यपुत्र
को देख उन्होंने सभी प्रकार सराहा ।।
फिर
भी हठकर हाय! वृथा ही उन्हें
उन्होंने थाहा ।
किस
योद्धा ने बढ़कर उनका शीर्ष-सिन्धु अवगाहा ।
क्योंकर
सिद्ध करूँ अपने को मैं उन नर की नारी
आर्यपुत्र
दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
देख
कराल-काल-सा जिसको काँप उठे सब भय से,
गिरे
प्रतिद्वन्दी नन्दार्जुन, नागदत्त जिस हय से,
वह
तुरंग पालित-कुरंग सा नत हो गया विनय से,
क्यों
न गूँजती रंगभूमि फिर उनके जय-जय-जय से,
निकला
वहाँ कौन उन जैसा प्रबल पराक्रमकारी ।
आर्यपुत्र
दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
सभी
सुन्दरी बालाओं में मुझे उन्होंने माना,
सबने
मेरा भाग्य सराहा, सबने रूप बखाना,
खेद
किसी ने उन्हें न फिर भी ठीक-ठीक पहचाना,
भेद
चुने जाने का अपने मैंने भी अब जाना,
इस
दिन के उपयुक्त पात्र की उन्हें खोज थी सारी ।
आर्यपुत्र
दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
मेरे
रूप-रंग, यदि तुझको अपना गर्व रहा है,
तो
उसके झूठे गौरव का तूने भार सहा है,
तू
परिवर्तनशील उन्होंने कितनी बार कहा है-
फूला’
दिन किस अन्धकार में डूब और बहा है,
किन्तु
अन्तरात्मा भी मेरा था क्या विकृत-विकारी ।
आर्यपुत्र
दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
सिद्धिमार्ग
की बाधा नारी! फिर उसकी क्या
गति है,
पर
उनसे पूछूँ क्या, जिनको मुझसे आज विरति है,
अर्धविश्व
में व्याप्त शुभाशुभि मेंरी भी कुछ गति है,
मैं
भी नहीं अनाथ जगत में मेंरे भी प्रभु पति हैं ,
यदि
मैं पतिव्रता तो मुझको कौन भार-भय-भारी ।
आर्यपुत्र
दे चुके परीक्षा, अब है मेंरी बारी ।।
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