3.अशोक के फूल- हजारी प्रसाद द्विवेदी
अशोक के फिर फूल आ गए हैं। इन छोटे-छोटे, लाल-लाल पुष्पों के मनोहर
स्तबकों में कैसा मोहन भाव है! बहुत सोच-समझकर कंदर्प देवता ने लाखों मनोहर
पुष्पों को छोड़कर सिर्फ़ पाँच को ही अपने तूणीर में स्थान देने योग्य समझा था। एक
यह अशोक ही है।
लेकिन पुष्पित अशोक को देखकर मेरा मन उदास हो जाता
है। इसलिए नहीं कि सुंदर वस्तुओं को हतभाग्य समझने में मुझे कोई विशेष रस मिलता
है। कुछ लोगों को मिलता है। वे बहुत दूरदर्शी होते हैं। जो भी सामने पड़ गया उसके
जीवन के अंतिम मुहूर्त तक का हिसाब वे लगा लेते हैं। मेरी दृष्टि इतनी दूर तक नहीं
जाती। फिर भी मेरा मन इस फूल को देखकर उदास हो जाता है। असली कारण तो मेरे
अंतर्यामी ही जानते होंगे, कुछ थोड़ा-सा मैं भी अनुमान कर सका हूँ। बताता हूँ।
भारतीय साहित्य में, और इसलिए जीवन में भी, इस पुष्प का प्रवेश और निर्गम दोनों ही विचित्र नाटकीय व्यापार है। ऐसा तो
कोई नहीं कह सकेगा कि कालिदास के पूर्व भारतवर्ष में इस पुष्प का कोई नाम ही नहीं
जानता था, परंतु कालिदास के काव्यों में यह जिस शोभा और
सौकुमार्य का भार लेकर प्रवेश करता है वह पहले कहाँ था! उस प्रवेश में नववधू के
गृह-प्रवेश की भाँति शोभा है, गरिमा है, पवित्रता है और सुकुमारता है। फिर एकाएक मुसलमानी सल्तनत की प्रतिष्ठा के
साथ-ही-साथ यह मनोहर पुष्प साहित्य के सिंहासन से चुपचाप उतार दिया गया। नाम तो
लोग बाद में भी लेते थे; पर उसी प्रकार जिस प्रकार
बुद्ध, विक्रमादित्य का। अशोक को जो सम्मान कालिदास से
मिला वह अपूर्व था। सुंदरियों के आसिंजनकारी नूपुरवाले चरणों के मृदु आघात से वह
फूलता था, कोमल कपोलों पर कर्णावतंस के रूप में झूलता
था और चंचल नील अलकों की अचंचल शोभा को सौ गुना बढ़ा देता था। वह महादेव के मन में
क्षोभ पैदा करता था, मर्यादा पुरुषोत्तम के चित्त में
सीता का भ्रम पैदा करता था और मनोजन्मा देवता के एक इशारे पर कंधे पर से ही फूट
उठता था। अशोक किसी कुशल अभिनेता के समान झम से रंगमंच पर आता है और दर्शकों को
अभिभूत करके खप से निकल जाता है। क्यों ऐसा हुआ? कंदर्प
देवता के अन्य बाणों की कदर तो आज भी कवियों की दुनिया में ज्यों-की-त्यों हैं।
अरविंद को किसने भुलाया, आम कहाँ छोड़ा गया और नीलोत्पल
की माया को कौन काट सका?
नवमल्लिका की अवश्य ही अब विशेष पूछ नहीं है; किंतु उसकी इससे अधिक कदर
कभी थी भी नहीं। भुलाया गया है अशोक। मेरा मन उमड़-घुमड़कर भारतीय रस-साधना के
पिछले हज़ारों वर्षों पर बरस जाना चाहता है। क्या यह मनोहर पुष्प भुलाने की चीज़
थी? सहृदयता क्या लुप्त हो गई थी? कविता क्या सो गई थी? ना, मेरा मन यह सब मानने को तैयार नहीं है। जले पर नमक तो यह है कि एक
तरंगायित पत्रवाले निफूले पेड़ को सारे उत्तर भारत में 'अशोक' कहा जाने लगा। याद भी किया तो अपमान
करके।
लेकिन मेरे मानने-न-मानने से होता क्या है? ईस्वी सन् के आरंभ के आस-पास
अशोक का शानदार पुष्प भारतीय धर्म, साहित्य और शिल्प
में अद्भुत महिमा के साथ आया था। उसी समय शताब्दियों के परिचित यक्षों और गंधर्वों
ने भारतीय धर्म-साधना को एकदम नवीन रूप में बदल दिया था। पंडितों ने शायद ठीक ही
सुझाया है कि 'गंधर्व' और 'कंदर्प' वस्तुत: एक ही शब्द के भिन्न-भिन्न
उच्चारण हैं। कंदर्प देवता ने यदि अशोक को चुना है तो यह निश्चित रूप से एक
आर्येतर सभ्यता की देन है। इन आर्येतर जातियों के उपास्य वरुण थे, कुबेर थे, वज्रपाणि यक्षपति थे। कंदर्प यद्यपि
कामदेवता का नाम हो गया है, तथापि है वह गंधर्व का ही
पर्याय। शिव से भिड़ने जाकर एक बार यह पिट चुके थे, विष्णु
से डरते थे और बुद्धदेव से भी टक्कर लेकर लौट आए थे। लेकिन कंदर्प देवता हार
माननेवाले जीव न थे। बार-बार हारने पर भी वह झुके नहीं। नए-नए अस्त्रों का प्रयोग
करते रहे। अशोक शायद अंतिम अस्त्र था। बौद्ध धर्म को इस नए अस्त्र से उन्होंने
घायल कर दिया, शैव मार्ग को अभिभूत कर दिया और
शाक्त-साधना को झुका दिया। वज्रयान इसका सबूत है, कौल-साधना
इसका प्रमाण है और कापालिक मत इसका गवाह है।
रवींद्रनाथ ने इस भारतवर्ष को 'महामानव समुद्र' कहा है। विचित्र देश है यह! असुर आए, आर्य आए, शक आए, हूण आए, नाग
आए, यक्ष आए, गंधर्व आए - न
जाने कितनी मानव जातियाँ यहाँ आईं और आज के भारतवर्ष के बनाने में अपना हाथ लगा
गईं। जिसे हमें हिंदू रीति-नीति कहते हैं, वह अनेक आर्य
और आर्येतर उपादानों का अद्भुत मिश्रण है। एक-एक पशु, एक-एक
पक्षी न जाने कितनी स्मृतियों का भार लेकर हमारे सामने उपस्थित है। अशोक की भी
अपनी स्मृति परंपरा है। आम की भी है, बकुल की है, चंपे की भी है। सब क्या हमें मालूम है? जितना
मालूम है, उसी का अर्थ क्या स्पष्ट हो सका है? न जाने किस बुरे मुहूर्त में मनोजन्मा देवता ने शिव पर बाण फेंका था? शरीर जलकर राख हो गया और 'वामन-पुराण' (षष्ठ अध्याय) की गवाही पर हमें मालूम है कि उनका रत्नमय धनुष टूटकर
खंड-खंड हो धरती पर गिर गया। जहाँ मूठ थी, वह स्थान
रुक्म-मणि से बना था, वह टूटकर धरती पर गिरा और चंपे का
फूल बन गया! हीरे का बना हुआ जो नाह-स्थान था, वह टूटकर
गिरा और मौलसिरी के मनोहर पुष्पों में बदल गया! अच्छा ही हुआ। इंद्रनील मणियों का
बना हुआ कोटि देश भी टूट गया और सुंदर पाटल पुष्पों में परिवर्तित हो गया। यह भी
बुरा नहीं हुआ। लेकिन सबसे सुंदर बात यह हुई कि चंद्रकांत-मणियों का बना हुआ मध्य
देश टूटकर चमेली बन गया और विद्रुम की बनी निम्नतर कोटि बेला बन गई, स्वर्ग को जीतनेवाला कठोर धनुष, जो धरती पर
गिरा तो कोमल फूलों में बदल गया! स्वर्गीय वस्तुएँ धरती से मिले बिना मनोहर नहीं
होतीं!
परंतु मैं दूसरी बात सोच रहा हूँ। इस कथा का रहस्य
क्या है? यह
क्या पुराणकार की सुकुमार कल्पना है या सचमुच ये फूल भारतीय संसार में गंधर्वों की
देन हैं? एक निश्चित काल के पूर्व इन फूलों की चर्चा
हमारे साहित्य में मिलती भी नहीं! सोम तो निश्चित रूप से गंधर्वों से खरीदा जाता
था। ब्राह्मण ग्रंथों में यज्ञ की विधि में यह विधान सुरक्षित रह गया है। ये फूल
भी क्या उन्हीं से मिले?
कुछ बातें तो मेरी मस्तिष्क में बिना सोचे ही
उपस्थित हो रही हैं। यक्षों और गंधर्वों के देवता -कुबेर, सोम, अप्सराएँ - यद्यपि बाद के ब्राह्मण ग्रंथों में भी स्वीकृत है, तथापि पुराने साहित्य में आप देवता के रूप में ही मिलते हैं। बौद्ध
साहित्य में तो बुद्धदेव को ये कई बार बाधा देते हुए बताए गए हैं। महाभारत में ऐसी
अनेक कथाएँ आती हैं जिनमें संतानार्थिनी स्त्रियाँ वृक्षों के अपदेवता यक्षों के
पास संतान-कामिनी होकर जाया करती थीं! यक्ष और यक्षिणी साधारणत: विलासी और
उर्वरता-जनक देवता समझ जाते थे। कुबेर तो अक्षय निधि के अधीश्वर भी हैं। 'यक्ष्मा' नामक रोग के साथ भी इन लोगों का संबंध
जोड़ा जाता है। भरहुत, बोधगया, सांची आदि में उत्कीर्ण मूर्तियों में संतानार्थिनी स्त्रियों का यक्षों
के सान्निध्य के लिए वृक्षों के पास जाना अंकित है। इन वृक्षों के पास अंकित
मूर्तियों की स्त्रियाँ प्राय: नग्न हैं, केवल कटिदेश
में एक चौड़ी मेखला पहने हैं। अशोक इन वृक्षों में सर्वाधिक रहस्यमय है। सुंदरियों
के चरण-ताड़न से उसमें दोहद का संचार होता है और परवर्ती धर्मग्रंथों से यह भी पता
चलता है कि चैत्र शुक्ल अष्टमी को व्रत करने और अशोक की आठ पत्तियों के भक्षण से
स्त्री की संतान-कामना फलवती है। अशोक कल्प में बताया गया है कि अशोक के फूल दो
प्रकार के होते हैं - सफेद और लाल। सफेद तो तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धिप्रद
समझकर व्यवहृत होता है और लाल स्मरवर्धक होता है। इन सारी बातों का रहस्य क्या है? मेरा मन प्राचीन काल के कुंझटिकाच्छन्न आकाश में दूर तक उड़ना चाहता है।
हाय, पंख कहाँ हैं?
यह मुझे प्राचीन युग की बात मालूम होती है। आर्यों
का लिखा हुआ साहित्य ही हमारे पास बचा है। उसमें सबकुछ आर्य दृष्टिकोण से ही देखा
गया है। आर्यों से अनेक जातियों का संघर्ष हुआ। कुछ ने उनकी अधीनता नहीं मानी, वे कुछ ज़्यादा गर्वीली थीं।
संघर्ष खूब हुआ। पुराणों में इसके प्रमाण हैं। यह इतनी पुरानी बात है कि सभी
संघर्षकारी शक्तियाँ बाद में देवयोनी-जात मान ली गईं। पहला संघर्ष शायद असुरों से
हुआ। यह बड़ी गर्वीली जाति थी। आर्यों का प्रभुत्व इसने कभी नहीं माना। फिर दानवों, दैत्यों और राक्षसों से संघर्ष हुआ। गंधर्वों और यक्षों से कोई संघर्ष
नहीं हुआ। वे शायद शांतिप्रिय जातियाँ थीं। भरहुत, सांची, मथुरा आदि में प्राप्त यक्षिणी मूर्तियों की गठन और बनावट देखने से यह
स्पष्ट हो जाता है कि ये जातियां पहाड़ी थीं। हिमालय का देश ही गंधर्व, यक्ष और अप्सराओं की निवास-भूमि हैं। इनका समाज संभवत: उस स्तर पर था, जिसे आजकल के पंडित 'पुनालुअन सोसाइटी' कहते हैं। शायद इससे भी अधिक आदिम! परंतु वे नाच-गान में कुशल थे। यक्ष तो
धनी भी थे। वे लोग वानरों और भालुओं की भांति कृषिपूर्व स्थिति में भी नहीं थे और
राक्षसों और असुरों की भांति व्यापार-वाणिज्यवाली स्थिति में भी नहीं।वे मणियों और
रत्नों का संधान जानते थे, पृथ्वी के नीचे गड़ी हुई
निधियों की जानकारी रखते थे और अनायास धनी हो जाते थे। संभवत: इसी कारण उनमें
विलासता की मात्रा अधिक थी। परवर्तीकाल में यह बहुत सुखी जाति मानी जाती थी। यक्ष
और गंधर्व एक ही श्रेणी के थे, परंतु आर्थिक स्थिति
दोनों की थोड़ी भिन्न थी। किस प्रकार कंदर्प देवता को अपनी गंधर्व सेना के साथ
इंद्र का मुसाहिब बनना पड़ा, वह मनोरंजक कथा है। पर
यहाँ वे सब पुरानी बातें क्यों रटी जाँय? प्रकृत यह है
कि बहुत पुराने जमाने में आर्य लोगों को अनेक जातियों से निपटना पड़ा था। जो
गर्वीली थीं, हार मानने को प्रस्तुत नहीं थीं, परवर्ती साहित्य में उनका स्मरण घृणा के साथ किया गया और जो सहज ही मित्र
बन गईं, उनके प्रति अवज्ञा और उपेक्षा का भाव नहीं रहा।
असुर, राक्षस, दानव और दैत्य
पहली श्रेणी में तथा यक्ष, गंधर्व, किन्नर, सिद्ध, विद्याधर, वानर, भालू आदि दूसरी श्रेणी में आते हैं।
परवर्ती हिंदू समाज इन सबको बड़ी अद्भुत शक्तियों का आश्रय मानता है, सब में देवता-बुद्धि का पोषण करता है।
अशोक वृक्ष की पूजा इन्हीं गंधर्वों और यक्षों की
देन है। प्राचीन साहित्य में इस वृक्ष की पूजा के उत्सवों का बड़ा सरस वर्णन मिलता
है। असल पूजा अशोक की नहीं, बल्कि उसके अधिष्ठाता कंदर्प देवता की होती थी।
इसे 'मदनोत्सव' कहते थे।
महाराज भोज के 'सरस्वती-कंठाभरण' से जान पड़ता है कि यह उत्सव त्रयोदशी के दिन होता था। 'मालविकाग्निमित्र' और 'रत्नावली' में इस उत्सव का बड़ा सरस, मनोहर वर्णन मिलता है। मैं जब अशोक के लाल स्तबकों को देखता हूँ तो मुझे
वह पुराना वातावरण प्रत्यक्ष दिखाई दे जाता है। राजघरानों में साधारणत: रानी ही
अपने सनूपुर चरणों के आघात से इस रहस्यमय वृक्ष को पुष्पित किया करती थीं। कभी-कभी
रानी अपने स्थान पर किसी अन्य सुंदरी को नियुक्त कर दिया करती थीं। कोमल हाथों में
अशोक-पल्लवों का कोमलतर गुच्छ आया, अलक्तक से रंजित
नूपुरमय चरणों के मृदु आघात से अशोक का पाद्र-देश आहत हुआ - नीचे हलकी रूनझुन और
ऊपर लाल फूलों का उल्लास! किसलयों और कुसुम-स्तबकों की मनोहर छाया के नीचे स्फटिक
के आसन पर अपने प्रिय को बैठाकर सुंदरियाँ अबीर, कुंकुम, चंदन और पुष्प-संभार से पहले कंदर्प देवता की पूजा करती थीं और बाद में
सुकुमार भंगिमा से पति के चरणों पर वसंत पुष्पों की अंजलि बिखेर देती थीं। मैं
सचमुच इस उत्सव को मादक मानता हूँ। अशोक के स्तबकों में वह मादकता आज भी है, पर पूछता कौन है। इन फूलों के साथ क्या मामूली स्मृति जुड़ी हुई है!
भारतवर्ष का सुवर्ण युग इस पुष्प के प्रत्येक दल में लहरा रहा है।
कहते हैं, दुनिया बड़ी भुलक्कड़ है। केवल उतना ही याद
रखती है जितने से उसका स्वार्थ सधता है। बाकी को फेंककर आगे बढ़ जाती है। शायद
अशोक से उसका स्वार्थ नहीं सधा। क्यों उसे वह याद रखती? सारा संसार स्वार्थ का अखाड़ा ही तो है।
अशोक का वृक्ष जितना भी मनोहर हो, जितना भी रहस्यमय हो, जितना भी अलंकारमय हो, परंतु हैं वह उस विशाल
सामंत-सभ्यता की परिष्कृत रुचि का ही प्रतीक, जो साधारण
प्रजा के परिश्रमों पर पली थीं, उसके रक्त के ससार कणों
को खाकर बड़ी हुई थी और लाखों-करोड़ों की उपेक्षा से जो समृद्ध हुई थी, वे सामंत उखड़ गए, समाज ढह गए, और मदनोत्सव की धूमधाम भी मिट गई। संतान-कामिनियों को गंधर्वों से अधिक
शक्तिशाली देवताओं का वरदान मिलने लगा - पीरों ने, भूत-भैरवों
ने, काली-दुर्गा ने यक्षों की इज़्ज़त घटा दी। दुनिया
अपने रास्ते चली गई, अशोक पीछे छूट गया।
मुझे मानव जाति की दुर्दम-निर्मम धारा के हज़ारों
वर्षों का रूप साफ दिखाई दे रहा है। मनुष्य की जीवनी शक्ति बड़ी निर्मम है, वह सभ्यता और संस्कृति के
वृथा मोहों को रौंदती चली आ रही है। न जाने कितने धर्माचारों, विश्वासों, उत्सवों और व्रतों को धोती-बहाती यह
जीवन-धारा आगे बढ़ी है। संघर्षों से मनुष्य ने नई शक्ति पाई है। हमारे सामने समाज
का आज जो रूप है, वह न जाने कितने ग्रहण और त्याग का
रूप है। देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बाद की बात है। सबकुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है। शुद्ध है केवल मनुष्य की दुर्दम जिजीविषा (जीने की
इच्छा)। वह गंगा की अबाधित-अनाहत धारा के समान सबकुछ को हजम करने के बाद भी पवित्र
है। सभ्यता और संस्कृति का मोह क्षण भर बाधा उपस्थित करता है, धर्माचार का संस्कार थोड़ी देर तक इस धारा से टक्कर लेता है, पर इस दुर्दम धारा में सबकुछ बह जाते हैं। जितना कुछ इस जीवन-शक्ति को
समर्थ बनाता है उतना उसका अंग बन जाता है, बाकी फेंक
दिया जाता है। धन्य हो महाकाल, तुमने कितनी बार
मदनदेवता का गर्व-खंडन किया है, धर्मराज के कारागर में
क्रांति मचाई है, यमराज के निर्दय तारल्य को पी लिया है, विधाता के सर्वकर्तृत्व के अभिमान को चूर्ण किया है! आज हमारे भीतर जो मोह
है, संस्कृति और कला के नाम पर जो आसक्ति है, धर्माचार और सत्यनिष्ठा के नाम पर जो जड़िमा है, उसमें का कितना भाग तुम्हारे कुंठनृत्य से ध्वस्त हो जाएगा, कौन जानता है! मनुष्य की जीवन-धारा फिर भी अपनी मस्तानी चाल से चलती
जाएगी। आज अशोक के पुष्प-स्तबकों को देखकर मेरा मन उदास हो गया है, कल न जाने किस वस्तु को देखकर किस सहृदय के हृदय में उदासी की रेखा खेल
उठेगी! जिन बातों को मैं अत्यंत मूल्यवान समझ रहा हूँ और जिनके प्रचार के लिए
चिल्ला-चिल्लाकर गला सुखा रहा हूँ, उनमें कितनी जिएँगी
और कितनी बह जाएँगी, कौन जानता है! मैं क्या शोक से
उदास हुआ हूँ। माया काटे कटती नहीं। उस युग के साहित्य और शिल्प मन को मसले दे रहे
हैं। अशोक के फूल हो नहीं, किसलय भी हृदय को कुरेद रहे
हैं। कालिदास जैसे कल्पकवि ने अशोक के पुष्प को ही नहीं, किसलयों को भी मदमत्त करनेवाला बताया था - अवश्य ही शर्त यह थी कि वह
दयिता (प्रिया) के कानों में झूम रहा हो - 'किसलय
प्रसवोपि विलासिनां मदयिता दयिता श्रवणार्पित:।' परंतु
शाखाओं में लंबित, वायु-ललित किसलयों में भी मादकता है।
मेरी नस-नस से आज करुण उल्लास की झंझा उत्थित हो रही है। मैं सचमुच उदास हूँ।
आज जिसे हम बहुमूल्य संस्कृति मान रहे हैं, वह क्या ऐसी ही बनी रहेगी? सम्राटों-सामंतों ने जिस आचार-निष्ठा को इतना मोहक और मादक रूप दिया था वह
लुप्त हो गई, धर्माचार्यों ने जिस ज्ञान और वैराग्य को
इतना महार्घ समझा था, वह लुप्त हो गया; मध्य युग के मुसलमान रईसों के अनुकरण पर जो रस-राशि उमड़ी थी, वह वाष्प की भाँति उड़ गई, क्या वह मध्य युग के
कंकाल में लिखा हुआ व्यावसायिक युग का कमल ऐसा ही बना रहेगा? महाकाल के प्रत्येक पदाघात में धरती धसकेगी। उसके कुंठनृत्य की प्रत्येक
चारिका कुछ-न-कुछ लपेटकर ले जाएगी। सब बदलेगा, सब विकृत
होगा - सब नवीन बनेगा।
भगवान बुद्ध ने मार-विजय के बाद वैरागियों की पलटन
खड़ी की थी। असल में 'मार' मदन का ही नामांतर है। कैसा मधुर और मोहक
साहित्य उन्होंने दिया। पर न जाने कब यक्षों के वज्रपाणि नामक देवता इस
वैराग्यप्रवण धर्म में घुसे और बोधिसत्वों के शिरोमणि बन गए। फिर वज्रयान का
अपूर्व धर्म मार्ग प्रचलित हुआ। त्रिरत्नों में मदन देवता ने आसन पाया। वह एक अजीब
आंधी थी। इसमें बौद्ध बह गए, शैव बह गए, शाक्त बह गए। उन दिनों 'श्री सुंदरीसाधनतत्पराणां योगश्च भोगश्च करस्थ एव' की महिमा प्रतिष्ठित हुई।
काव्य और शिल्प के मोहक अशोक ने अभिचार में सहायता दी। मैं अचरज से इस योग और भोग
की मिलन-लीला को देख रहा हूँ। ग्रह भी क्या जीवनी-शक्ति का दुर्दम अभियान था! कौन बताएगा
कि कितने विध्वंस के बाद इस अपूर्व धर्म-मत की सृष्टि हुई थी? अशोक-स्तबक का हर फूल और हर दल इस विचित्र परिणति की परंपरा ढोए आ रहा है।
कैसा झबरा-सा गुल्म है!
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