शार्ङ्गरव और शारद्वत का चरित्र-चित्रण
यह लेख शार्ङ्गरव और शारद्वत—दो प्रमुख साहित्यिक पात्रों—का तुलनात्मक चरित्र-चित्रण प्रस्तुत करता है। यहाँ उनके मनोवैज्ञानिक ध्रुव, नैतिक विकल्प, सामाजिक पृष्ठभूमि और कथात्मक भूमिकाओं का विश्लेषण दिया गया है जिससे उनके व्यवहार और निर्णयों के अर्थ स्पष्ट हों।
शार्ङ्गरव एवं शारद्वत का चरित्र-चित्रण (हिंदी)
अभिज्ञान शाकुन्तल के ये दोनों पात्र महर्षि कण्व के शिष्य हैं। ये दोनों वयस्क प्रतीत होते हैं इसीलिए महर्षि इन्हें पुकारते हुए इनके नाम के आगे मिश्र शब्द का प्रयोग करते हैं। कण्व महर्षि के ही शब्दों में- 'क्व नु ते शार्ङ्गरव शारद्वत मिश्राः ?' किन्तु इन दोनों में भी शार्ङ्गरव बड़े प्रतीत होते हैं और शारद्वत छोटे। इसीलिए शार्ङ्गरव ही शकुन्तला को पतिगृह पहुँचाने वाले दल का नेतृत्व करता है। इसी के माध्यम से महर्षि कण्व राजा दुष्यन्त के लिए अपना सन्देश प्रेषित कराते हैं।
शार्ङ्गरव तथा शारद्वत इन दोनों कण्व शिष्यों में गुरु की भक्ति कूट कूट कर भरी है। ये दोनों तपस्वी होने के साथ-साथ व्यवहाराभिज्ञ भी हैं, इसीलिए शकुन्तला को पहुँचाने जाते हुए महर्षि कण्व से कहते हैं- 'भगवन् ! ओदकान्तं स्निग्धोऽनुगम्यते इति श्रूयते। तदिदं सरस्तीरम् अत्र नः सन्दिश्य प्रतिगन्तुमर्हसि ।'
ये दोनों जब राजदरबार में पहुंचते हैं तो हाथ उठाकर प्रणाम करने वाले राजा को आशीर्वाद देते हुए कहते हैं .... 'स्वस्ति देवाय ।'
शार्ङ्गरव तथा शारद्वत इन दोनों कण्व शिष्यों के विचारों में भिन्नता है। शार्ङ्गरव एकान्त में रहने का अभ्यासी है वह नगर को आग लगे हुए भवन के समान मानता है। वह कहता है।
'महाभागः कामं नरपतिरभिन्नस्थिति रसौ,
न कश्चिद् वर्णानामपथमपकृष्टोऽपि भजते ।
तथापीदं शश्वत् परिचितविविक्तेन मनसा
जनाकीर्णं मन्ये हुतवहपरीतं गृहमिव ।।इति । '
किन्तु शारद्वत ऐसा न सोचकर कुछ दूसरे ही प्रकार से सोचता है। उसके मन में नागरिकों के प्रति अपवित्रता की भावना अधिक है। वह कहता है कि-
अभ्यक्तमिवस्तातः शुचिरशुचिमित्र प्रबुद्ध इव सुप्तम् ।
बद्धमिव स्वैरगतिः जनमिह सुखसङ्गिनमवैमि ।। ' इति ।
शार्ङ्गरव तथा शारद्वत जब राजा के दरबार में पहुँचते हैं उस समय राजा के द्वारा शकुन्तला के साथ अपने विवाह की बात नहीं स्वीकार किए जाने पर शार्ङ्गरव क्रुद्ध होता है और वार्तालाप के प्रसङ्ग में राजा को चोर कहते हुए कहता है-
'कृतावमर्शामनुमन्यमानः सुतां त्वयानाम मुनिर्विमान्यः ।
मुष्टं प्रतिग्राह्यता स्वमर्थं पात्रीकृतो दस्युरिवासि येन ॥
राजा के द्वारा शकुन्तला के साथ अपने विवाह की बात नहीं स्वीकार किए जाने पर शाङ्गरव यहाँ तक कहता है
'मूर्च्छन्त्यमी विकारा: प्रायेणैश्वर्यमत्तानाम् ॥'
किन्तु शारद्वत का स्वभाव शार्ङ्गरव की अपेक्षा अधिक शान्त है। वह शकुन्तला से कहता है कि तुम ऐसा कोई उत्तर दो कि राजा तुम पर विश्वास करें-
'शार्ङ्गरव विरम त्वमिदानीम्, शकुन्तले ! वक्तव्यमुक्तमस्माभिः ।
सोऽयमत्रभवानेवमाह दीयतामस्मै प्रत्ययप्रतिवचनम् ।'
और शार्ङ्गरव भी शारद्वत के विचारों का स्वागत करता है। राजा से तिरस्कृत शकुन्तला जब रोने लगती है तो शार्ङ्गरव कहता है कि इस प्रकार का अमर्यादित चांचल्य दुःखद ही होता है। 'इत्थमप्रतिहत चांचल्यंदहति ।' अतएव एकान्तमित्रता तो खूब अच्छी तरह से परीक्षा करने के पश्चात् ही करनी चाहिए। अज्ञात व्यक्ति के साथ किया हुआ प्रेम तो शत्रुत्व के ही रूप में परिणत होता है।
'अतः परीक्ष्य कर्तव्यम् विशेषात् सङ्गतं रहः ।
अज्ञातहृदयेष्वेवं वैरीभवति सौहृदम् ।।
अन्त में विवाद को उपराम देते हुए शार्ङ्गरव राजा से कहता है कि हम लोगों ने अपने गुरु की आज्ञा का पालन कर लिया अतएव अब तपोवन लौट रहे हैं। यह आपकी पत्नी है, इसे त्यागें अथवा स्वीकार करें यह आप पर निर्भर करता है क्योंकि पति का ही पत्नी पर सब प्रकार का अधिकार होता है।
शकुन्तला को छोड़कर जाते हुए गौतमी शार्ङ्गरव तथा शारद्वत का अनुगमन करती हुई शकुन्तला को देखकर उसकी भर्त्सना करता हुआ शार्ङ्गरव कहता है-
'आः पुरोमागिनि ! किमिदं स्वातन्त्र्यमवलम्बसे।'
अतः इस तरह शार्ङ्गरव तथा शारद्वत दोनो गुरुभक्त तथा तपस्वी हैं। इसके साथ-साथ वे भारतीय धर्म शास्त्र के पूर्ण अभिज्ञ हैं ।
निष्कर्ष
शार्ङ्गरव और शारद्वत का चरित्र-चित्रण पाठक को व्यक्तित्व के द्विविध आयामों से अवगत कराता है — जहाँ एक ओर क्रिया और रणनीति है, वहीं दूसरी ओर विचार और संवेदना। इन पात्रों का तुलनात्मक अध्ययन कथा को गहनता और बहुमुखी अर्थ देता है।
