निकट की दूरी हमारे वैज्ञानिक युग की अनेक विशेषताओं में
सामान्य विशेषता बन गई है। जड़ वस्तुओं में समीपता स्थिति मात्र है, विकास के किसी सचेतन क्रम में
प्रतिफलित होने वाला आदान-प्रदान नहीं। एक शिला दूसरी पर गिर कर उसे तोड़ सकती है,
एक वृक्ष दूसरे के समीप रहकर उसे छाया दे सकता है, पर यह सब स्थितियाँ उनका पारस्परिक आदान-प्रदान नहीं कहीं जायँगी, क्योंकि वह तो चेतना का ही गुण है।
मनुष्य की निकटता की परिणीति उस साहचर्य
में होती है, जो बुद्धि को बुद्धि से मिला कर, अनुभव को अनुभव में लय कर के समष्टिगत बुद्धि को अभेद और समष्टिगत अनुभव
को समृद्धि करता है। आधुनिक युग अपने साधनों से दूरातिदूर
को निकट लाकर स्थिति मात्र उत्पन्न करने में समर्थ है, जो
अभेध बुद्धि और अनुभवों की संगति के बिना अपूर्ण होने के साथ-साथ जीवन क्रम में
बाधक भी हो सकती है।
उदाहरणार्थ पथ के सहयात्री भी एक दूसरे के
समीप होते हैं, और युद्ध भूमि पर परस्पर विरोधी सैनिक भी,
परंतु दोनों प्रकार के सामीप्य परिणामतः कितने भिन्न हैं। पहली
स्थिति में एक,दूसरे की रक्षा के लिए प्राण तक दे सकता है;
और दूसरी समीपता में एक, दूसरे के बचाव के
सारे साधन नष्ट करना चाहता है। हमारे मस्तक पर आकाश में उड़ता हुआ बादल और उमड़ता
हुआ बमवर्षक ज्ञान दोनों ही हमारे समीप कहे जाएंगे, परन्तु स्थिति एक होने पर भी
परिणाम विरुद्ध ही रहेंगे। जिनके साथ मन शंकारहित नहीं हो सकता उनकी निकटता संघर्ष
की जननी है। इसी से आज के युग में मनुष्य पास है, परंतु मनुष्य का शंकाकुल मन पास
आने वालों से दूर होता जा रहा है। स्वस्थ आदान-प्रदान के लिए मनें की निकटता पहली
आवश्यकता है।
हमारे विशाल और विविधता भरे देश की प्रतिभा ने अपनी विकास
यात्रा के प्रथम प्रहर में ही जीवन की तत्वगत एकता का ऐसा सूत्र खोज लिया था जिसकी
सीमा प्राणिमात्र तक फैल गई। हमारे विकास-पथ पर व्यष्टिगत बुद्धि, समष्टिगत बुद्धि
के इतने समीप रही है और व्यक्तिगत ह्रदय समष्टिगत ह्रदय का ऐसा अभिन्न संगी रहा है
कि अपरिचय का प्रश्न ही नहीं उठता। इसी से संपूर्ण भौगोलिक विभिन्नता और उसमें बँटा
जीवन एक ही सांस्कृतिक उच्छवास में स्पंदित और अभिन्न रह सका है।
कहीं किसी सुंदर भविष्य में, अपरिचय इस एक्य के सूक्ष्म बन्धन
को छिन्न न कर डाले, संभवतः इसी आशंका से अतीत के चिंतकों ने देश के कोने-कोने में
बिखरे जीवन को निकट लाने के साधनों की खोज की। ऐसे तीर्थ, जिनकी सीमा का स्पर्श
जीवन की चरम सफलता का पर्याय है, ऐसे पुण्यपर्व, जिनकी छाया में वर्ण, देश, भाषा
आदि की भित्तियाँ मिट जाती हैं, ऐसी यात्राएँ, जो देश के किसी खंड को अपरिचित नहीं
रहने देती, आदि सब अपरिचय को दूर रखने के उपाय ही कहे जाएँगे।
अच्छे बुने हुए वस्त्र से
जैसे ताना-बाना व्यक्त नहीं होता, वैसे ही हमारी सांस्कृतिक एकता में प्रयास
प्रत्यक्ष नहीं है। पर है वह निश्चय ही युगों की अविराम और अथक साधना का परिणाम।
राजनीतिक उत्थान-पतन शासनगत सीमाएँ और विस्तार हमारे मन को बाँधने में असमर्थ ही
रहे, अतः किसी भी कोने से आने वाले चिंतन,दर्शन, आस्था या स्वप्न की क्षीणतम चाप
भी हमारे हृदय में अपनी स्पष्ट प्रतिध्वनि जगाने में समर्थ हो सकी।
जीवन के सत्य तक पहुँचाने वाले हमारे सिद्धांतों में ऐसा एक भी
नहीं है, जिसमें असंख्य तत्वान्वेषियों के चिंतन की रेखाएँ न हों, उसे शिवता देने
वाले आदर्शों में ऐसा एक भी नहीं है, जिसमें अनेक साधकों की आस्था की सजीवता न हो,
और उसे सुन्दर बनाने वाले सपनों में एक भी ऐसा नहीं है, जिसमें युगों-युगों के
स्वप्न-द्रष्टाओं की दृष्टि का आलोक न हो।
पर नया जल तो समुद्र को भी चाहिए, नदी-नालों की तो चर्चा ही
व्यर्थ है। यदि अपनी क्रमागत एकता को सजीव और व्यापक रखने में हमारा युग कोई
महत्वपूर्ण योगदान नहीं देता, तो वह अपने महान् उत्तराधिकार के उपयुक्त नहीं कहा
जायगा।
युगों के उपरान्त
हमारा देश एक राजनीतिक इकाई बन सका है, परन्तु आज यदि हम इसे सांस्कृतिक इकाई का
पर्याय मान लें, तो यह हमारी भ्रान्ति ही होगी।
कारण स्पष्ट है।
राजनीतिक इकाई जीवन की बाह्य व्यवस्था से संबंध रखती है, अतः वह बल से भी बनाई जा
सकती है। परंतु सांस्कृतिक इकाई आत्मा की उस मुक्ता वस्था में बनती है, जिसमें
मनुष्य भेद से अभेद की ओर, अनेकता से एकता की ओर चलता है। इस मुक्तावस्था को सहज
करने के लिए बुद्धि से बुद्धि और हृदय से हृदय का तादात्म्य अनिवार्य हो जाता है।
इस संबंध में विचार करते समय अपने युग की
विशेष स्थिति की ओर भी हमारा ध्यान जाना स्वाभाविक है। हर क्रांति, हर संघर्ष और
हर उथल-पुथल अपने साथ कुछ वरदान और कुछ अभिशाप लाते हैं। वर्षा की बाढ़ अपने साथ
जो कूड़ा करकट बहा लाती है, वह उसके वेग में न ठहर पाता है, और न असुन्दर जान
पड़ता है, पर बाढ़ के उतर जाने पर जो कूड़ा-कर्कट छिछले जल या तट से चिपक कर स्थिर
हो जाता है, वह असुन्दर भी लगता है और जल की स्वच्छता नष्ट भी करता रहता है। दीर्घ
और अनवरत प्रयत्न के उपरांत ही लहरें उसे धारा के बहाव में डालकर जल को स्वच्छ कर
पाती हैं।
बहुत कुछ ऐसी ही
स्थिति हमारे युग की है। संघर्ष के दिनों में राजनीतिक स्वतंत्रता हमारी दृष्टि का
केंद्र-बिंदु थी, और समस्याएँ भी जीवन के उसी अंश से संबद्ध रहकर महत्व पाती थीं।
परन्तु स्वतंत्रता की प्राप्ति के उपरान्त संघर्ष-जनित वेग के अभाव में हमारी गति
में ऐसी शिथिलता आ गयी, जिसके कारण हमारे सांस्कृतिक स्तर का निम्न और जड़ हो जाना
स्वाभाविक था। इसके साथ ही जीवन के विविध पक्षों की समस्याएंण अपने-अपने समाधान माँगने
लगी। स्वतंत्रता, अप्राप्ति के दिनों में साध्य और उपभोग के समय साधन मात्र रह
जाती हैं, इसी से वह अपने आप में निरपेक्ष और पूर्ण नहीं कही जाएगी। जो राष्ट्र राजनीतिक
स्वतंत्रता को जीवन की सर्वांगीण विकास का लक्ष्य दे सकता है, उसके जीवन में
गतिरोध का प्रश्न नहीं उठता, और साधन को साध्य मान लेना, गति के अंत का दूसरा नाम
है।
सभ्यता और संस्कृति
पर अपना दावा सिद्ध करने के लिए किसी भी समाज के पास उसका लौकिक व्यवहार ही प्रमाण
रहता है। अन्य कसौटियाँ महत्वपूर्ण हो सकती हैं, परन्तु प्रथम नहीं।
दर्शन, साहित्य आदि
से सम्बद्ध उपलब्धियाँ तो व्यक्ति के माध्यम से आती हैं। कभी वे समष्टि की अव्यक्त
या व्यक्त प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करती है और कभी उनका विरोध। एक अत्यन्त
युद्धप्रिय जाति में ऐसा विचारक या साहित्यकार भी उत्पन्न हो सकता है, जो शांति को
जीवन का चरम लक्ष्य घोषित करें और ऐसा भी जो उस प्रवृत्ति की महत्ता और उपयोगिता
सिद्ध करें।
पर सभ्यता और संस्कृति किसी भी एक में सीमित न होकर सामाजिक
विशेषता है, जिसका मूल्यांकन समाजबद्ध व्यक्तियों के पारस्परिक व्यवहार में ही
संभव है। वह कृति न होकर जीवन की ऐसी शैली है, जिसकी मिट्टी से साहित्य, दर्शन,
ज्ञान-विज्ञान की कृतियाँ संभव होती हैं।
विगत कुछ वर्षों से
हमारे जीवन से संस्कार के बंधन टूटते जा रहे हैं और यदि यही क्रम रहा, तो आसन्न भविष्य
में हमारे लिए संस्कृति पर अपना दावा सिद्ध करना कठिन हो जाएगा। हरे पत्ते और सजीव
फूल वृन्त से एक रसमयता में बँधे रहते हैं, पर बिखरने वाली पंखुड़ियों और झड़ने
वाले पत्ते न वृन्त के रस से समय रहते हैं। न वृन्त की जीवनी-शक्ति से संतुलित।
हमारे समाज के संबंध में भी यही
सत्य होता जा रहा है। ना वह जीवन के व्यापक नियम से प्राणवंत है और न अपने देशगत
संस्कार से रसमय। उसकी यह विच्छिन्नता उसके बिखरने की पूर्व सूचना है या नहीं, यह
तो भविष्य ही बता सकेगा, पर इतना तो निर्विवाद सिद्ध है कि यह जीवन के स्वास्थ्य
का चिन्ह नहीं।
हमारे विषम आचरण प्रांत और संस्कृत आवे आधी
प्रमाणित करते हैं कि हमारा मनोज जगत ही जबरदस्त है।
यह सत्य है कि हमारी
परिस्थितियाँ कठिन है, यह भी या नहीं कि हमारी मानसिक स्थिति हमें ना किसी
परिस्थिति के निदान का अवकाश देती है और न संघर्ष के अनुरूप साधन खोजने का! हम थकते हैं परन्तु हमारी थकावट
के मूल में किसी सुनिश्चित लक्ष्य के प्रति आस्था नहीं है। हमारी क्रियाशीलता रोगी
की छटपटाहट और क्षण-क्षण करवटें बदलने की क्रिया है, जो उसकी चिंतनीय स्थिति की
अभिव्यक्ति मात्र है। हर मानव-समाज के जीवन में ऐसे संक्रांति-काल आते रहते हैं,
जब उसकी मान्यताओं का कायाकल्प होता है, मूल्यांकन के मान नये होते हैं और जन की
गति में पुरानी गहराई के साथ नई व्यापकता का संगम होता है। परन्तु ,जैसे नवीन वेगवती
तरंग की पुरानी मन्थर लहर में मिलकर अधिक विशाल हो जाना स्वाभाविक और अनायास होता
है, वैसे ही संस्कार और अधिक संस्कार, मूल्य और अधिक मूल्य का संगम सहज होता है,
सुंदर और सुंदरतर, शिव और शिवतर, आंशिक सत्य और अधिक आंशिक सत्य में कोई तात्विक
विरोध नहीं हो सकता। सुंदरतम,शिवतम और पूर्ण सत्य तक पहुंचने के लिए हमें सुंदर,
शिव और आंशिक सत्य को कुरूप अशिव और असत्य बनाने की आवश्यकता नहीं पड़ती और जिस
युग में मानव यह सिद्धांत भुला देता है उस युग के सामने सत्य, शिव, सुंदर तक
पहुंचने का मार्ग रुद्ध हो जाता है। आलोक तक पहुंचने के लिए जो अपने सब दीपक बुझा
देता है, उसे अँधेरे में भटकना ही पड़ेगा। किसी समाज को ऐसे लक्ष्यरहित कार्य से
रोकने के लिए अनेक अन्तर बाह्य संस्कारों की परीक्षा करनी पड़ती है, निर्माण में
उसकी आस्था जगानी पड़ती है, संघर्ष को सृजन-योग बनाना पड़ता है।
आधुनिक युग में
मानसिक संस्कार के लिए दर्शन, आधुनिक साहित्य ,शिक्षा आदि के जितने साधन उपलब्ध हैं, वे न
द्रुतगामी है न सुलभ। पर, साधनों की खोज में हमारी दृष्टि
यंत्र युग की विशाल कठोरता की छाया में भी जीवित रह सकने वाली मानव संवेदना की ओर
न जा सके तो आश्चर्य की बात होगी।
हमारे चारों ओर कभी
प्रदेश, कभी भाषा,
कभी जाति, कभी धर्म के नाम पर उठती हुई
प्राचीरें प्रमाणित करती हैं कि बौद्धिक दृष्टि से हमारा
लक्ष्य अभी कोहरा छन है। पर जिस दिन हमारी बुद्धि में अभेद और सामंजस्य होगा,
उस दिन हमारी सांस्कृतिक परंपरा को नई दिशा प्राप्त हो सकेगी। जीवन
की नव निर्माण में साहित्य और कला विशेष योगदान देने में समर्थ है, क्योंकि वे मानव भावना के उदगीथ हैं।
जब भाव योगी
मनुष्य, मनुष्य के निकट पहुँचने के लिए दुर्लभय पर्वतों और
दुस्तर समुद्रों को पार करने में वर्षों का समय बिताता था, उस
युग में भी मानव मात्र की एकता के वे ही वैतालिक रहे
हैं।
आज जब विज्ञान
ने वर्षों को घंटों में बदल दिया है, तब भी मनुष्य को मनुष्य
से अपरिचित क्यों रहने दे, बुद्धि को बुद्धि का आतंक क्यों
बनने दे, और हृदय को हृदय के विरोध में क्यों खड़ा होने दें?
हम विश्वभर से
परिचय की यात्रा में निकलने से पहले यदि अपने देश के हर कोने से परिचित हो लें,
तो इसे शुभ शकुन हीं मानना चाहिए। यदि घर में अपरिचय के समुद्र से
विरोध और आशंका के काले बादल उठते रहे, तो हमारे उजले संकल्प
पथ भूल जाएंगे। अतः आज दूरी को निकटता बनाने की मुहूर्त में हमें निकट की दूरी से
सावधान रहने की आवश्यकता है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें