घनानन्द

8.घनानन्द
झलकै अति सुन्दर आनन गौरछके दृग राजत काननि छ्वै।
हँसि बोलनि मैं छबि फूलन की बरषाउर ऊपर जाति है ह्वै।
लट लोल कपोल कलोल करैंकल कंठ बनी जलजावलि द्वै।
अंग अंग तरंग उठै दुति कीपरिहे मनौ रूप अबै धर च्वै।।1।।

रावरे रूप की रीति अनूप नयो नयो लागत ज्यों ज्यों निहारिये ।
त्यों इन आँखिन बानि अनोखी अघानि कहू नहिं आनि तिहारिये ॥
एक ही जीव हुत्यौं सु तौ वार् यौं सुजान सँकोच औ सोच सहारियै
रोकी रहै न, दहै घन आनन्द बावरी रीझ के हाथनि हारियै ।।2

अति सूधो सनेह को मारग है जहाँ नेकु सयानप बाँक नहीं।
तहाँ साँचे चलैं तजि आपनपौ झिझकैं कपटी जे निसाँक नहीं॥ 
घनआनंद प्यारे सुजान सुनौ यहाँ एक ते दूसरो आँक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ ललामन लेहु पै देहु छटाँक नहीं॥3

सावन आवन हेरि सखी,मनभावन आवन चोप विसेखी ।
छाए कहूँ घनआनँद जान,सम्हारि की ठौर लै भूल न लेखी ॥
बूंदैं लगैसब अंग दगै,उलटी गति आपने पापन पेखी ।
पौन सों जागत आगि सुनी ही, पै पानी सों लागत आँखिन देखी ॥4

हीन भएँ जल मीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समाने।
नीर सनेही कों लाय अलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै।
प्रीति की रीति सु क्यों समुझै जड़ मीत के पानि परें कों प्रमानै
या मन की जु दसा घनआनँद जीव की जीवनि जान ही जानै।।5

मीत सुजान अनीत करौ जिनहाहा न हूजियै मोहि अमोही।
डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।
एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।
हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।। 6

पहिले घन-आनंद सींचि सुजान कहीं बतियाँ अति प्यार पगी
अब लाय बियोग की लाय बलाय बढ़ायबिसास दगानि दगी
अँखियाँ दुखियानि कुबानि परी न कहुँ लगैकौन घरी सुलगी
मति दौरि थकीन लहै ठिकठौरअमोही के मोह मिठामठगी ।।7
पहिले अपनाय सुजान सनेह सों क्यों फिरि तेहिकै तोरियै जू.
निरधार अधार है झार मंझार दईगहि बाँह न बोरिये जू .
‘घनआनन्द’ अपने चातक कों गुन बाँधिकै मोह न छोरियै जू .
रसप्याय कै ज्याय,बढाए कै प्यास,बिसास मैं यों बिस धोरियै जू 8

एरे बीर पौन ,तेरो सबै ओर गौनबारी
तो सों और कौन मनौं ढरकौंहीं बानि दै ।
जगत के प्रान ओछे बड़े को समान
‘घनआनन्द’ निधान सुखधानि दीखयानि दै ।
जान उजियारे गुनभारे अन्त मोही प्यारे 
अब ह्वै अमोही बैठे पीठि पहिचानि दै ।
बिरह विथा की मूरि आँखिन में राखौ पुरि
धूरि तिन पायन की हा हा नैकु आनि दै ।।9

अंतर उदेग दाह,आँखिन प्रबाह-आँसू,
देखी अटपटी चाह, भीजनि दहन है ।
सोइबो न जागिबो हो, हँसिबो न रोइबो हूँ,
खोय-खोय आप ही में चेटक लहनि है ।
जान प्यारे प्राननि, बसत पै आनन्दघन,
बिरह बिषम दसा मूक लौं कहनि है ।
जीवन-मरन जीव मीच बिना बन्यौ आय,
हाय कौन बिधि रची,नेही की रहनि है ।।10

छवि को सदन मोद मंडित बदन-चंद
    तृषित चषनि लालकबधौ दिखाय हौ।
चटकीलौ भेष करें मटकीली भाँति सौही
मुरली अधर धरे, लटकत आय हौ ।
लोचन ढुराय कछु मृदु मुसिक्यायनेह
भीनी बतियानी लड़काय बतराय हौ।
बिरह जरत जिय जानिआनि प्रान प्यारे,
कृपानिधिआनंद को धन बरसाय हौ।11

वहै मुसक्यानिवहै मृदु बतरानिवहै
लड़कीली बानि आनि उर मैं अरति है।
वहै गति लैन औ बजावनि ललित बैन,
वहै हँसि दैनहियरा तें न टरति है।
वहै चतुराई सों चिताई चाहिबे की छबि,
वहै छैलताई न छिनक बिसरति है।
आनँदनिधान प्रानप्रीतम सुजानजू की,
सुधि सब भाँतिन सों बेसुधि करति है।।12

प्रीतम सुजान मेरे हित के निधान कहौ
कैसे रहै प्रान जौ अनखि अरसायहौ।
तुम तौ उदार दीन हीन आनि परयौ द्वार
सुनियै पुकार याहि कौ लौं तरसायहौ।
चातिक है रावरो अनोखो मोह आवरो
सुजान रूप-बावरोबदन दरसायहौ।
बिरह नसायदया हिय मैं बसायआय
हाय ! कब आनँद को घन बरसायहौ।। 13 ।।

आस ही अकास मधि अवधि गुनै बढ़ाय,
चोपनि चढ़ाय दीनौ कीनौ खेल सो यहौं ।
निपट कठोर ये हो ऐंचत न आप ओर,
लड़िले सुजान सों दुहेली दसा को कहै ।
अचिरजमई मोहि भई घन आँनन्द यों,
हाँथ साथ लग्यौ पै समीप न कहूँ लहै ।
बिरह समीर की झकोरनि अधीर नेह,
नीर भीज्यौं जीव तऊ गुड़ी लौं उड्यौ रहै ।।14

आँखै जौ न देखैं तो कहा हैं कछू देखति ये,
ऐसी दुखहाइनि की दसा आय देखियै ।
प्रानन के प्यारे जान रूप उजियारे बिना,
मिलन तिहारे इन्हें कौन लेखे लेखियै ।
नीर-न्यारे मीन औ चकोर चंदहीन हूँ ते,
अति ही अधीन दीन गति मति पेखियै ।
हौ जू घन आनन्द ढरारे रसभरे बारे,
    चकित बिचारे सों न चूकनि परेखियै ।।15


आसा-गुन बाँधि कै भरोसो-सिल धरि छाती,
पूरे पन सिंधु मैं न बूड़त सकायहौं ।
दुख-दव हिय जारि अंतर उदेग-आँच,
रोम-रोम त्रासनि निरंतर तचायहौं ।
लाख-लाख भाँतिन की दुसह दसानि जानि,
साहस सहारि सिर औरे लौं चलायहौं ।
ऐसें घनआँनन्द गही है टेक मन माँहि,
ऐरे निरदई तोहि दई उपजायहौं ।।16


पाती-मधि छाती-छत, लिखि न लिखाये जाहिं,
काती लै बिरह घाती, कीने जैसे हाल हैं ।
आँगुरी बहकि तहीं, पाँगुरी किलकि होति,
ताती राती दसनि के, जाल ज्वाल-माल हैं ।
जान प्यारे जौब कहूँ दीजियै सँदेसो तौब,
आँवाँ सम कीजियै, जु कान तिह काल हैं ।
नेह भीजी बातैं, रसना पै उर-आँच लागैं,
जागैं घनआँनन्द ज्यौं, पुंजनि मसाल हैं ।।17


बहुत दिनान के अवधि-आस-पास परे,
खरे अरबरनि भरे हैं उठि जान कौ।
कहि कहि आवन सँदेसो मनभावन को,
गहि गहि राखत हैं दै दै सनमान कौ।
झूठी बतियानि की पत्यानि तें उदास ह्वै कै,
अब न घिरत घनआनँद निदान कौ।
अधर लगै हैं आनि करि कै पयान प्रान,
चाहत चलन ये सँदेसौ लै सुजान कौ॥18
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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