7. बिहारी
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति
होय॥1
शब्दार्थ- भव-बाधा-सांसारिक बाधाएँ। नागरि-चतुर। सोइ-वही।
झाँई-झलक,परछाई,ध्यान। हरित दुति- हरिताभा,प्रसन्न,प्रभाशून्य।
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद
हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘मंदाकिनी’ के ‘बिहारी के पद’ नामक पाठ से लिया गया है। इसके
रचयिता गागर में सागर भरने वाले रीतिसिद्ध कवि ‘बिहारी’ जी हैं ।
प्रसंग- प्रस्तुत
दोहे में कविवर बिहारी ने अपनी रचना को निर्विघ्न समाप्त करने के लिए राधा जी की
स्तुति की है ।
व्याख्या- इस
दोहे के तीन अर्थ बताये जाते हैं ।
1. बिहारी
कहते हैं कि जिस चतुर राधा के सुन्दर तन की झलक पड़ने मात्र से श्याम वर्ण वाले
श्रीकृष्ण हरिताभा से युक्त हो जाते हैं, वहीं राधा मेरे सांसारिक दुखों का हरण
करें (राधा गौरांग है और गौरांग की आभा पड़ने से श्याम वर्ण में हरापन आ जाता है)
2. कवि
कहता है कि जिस चतुर राधा के रूप-लावण्य के दर्शन मात्र हो जाने से श्रीकृष्ण
प्रसन्न हो जाते हैं उसी राधा से हमारा अनुरोध है कि वे मुझे सांसारिक आपदाओं से
मुक्ति प्रदान करें । इस दोहे में राधा और कृष्ण के प्रेम की गूढ़ता प्रदर्शित की
गयी है।
3. बिहारी
जी कहते हैं कि जिस चतुर राधा का ध्यान धरने मात्र से भक्तजनों के दुख दारिद्रय्
श्याम वर्ण के समस्त कल्मष दूर हो जाते हैं,प्रभाशून्य हो जाते हैं। उसी राधा से
मेरी विनती है कि वे मुझे सांसारिक कठिनाइयों से मुक्ति दिलावें ।
विशेष/काव्यसौंदर्य- यह
दोहा मंगलाचरण है, इसमें वस्तुनिर्देशात्मक मंगलाचरण किया गया है।
बिहारी ने राधा की स्तुति की है क्योंकि वे
राधावल्लभ संप्रदाय से आते हैं।
अलंकार-
श्लेष,काव्यलिंग तथा हेतु अलंकार।
प्रस्तुक पद में भाषा की समाहार शक्ति का सुन्दर
प्रयोग किया गया है।
7. बिहारी
मेरी भव बाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तनु की झाँई परे, स्याम हरित दुति होय॥1
मोहन मूरति श्याम की, अति अद्भुत गति जोय ।
बसति सु चित अंतर तऊ प्रतिबिम्बित गति होय ।।2
तजि तीरथ हरि राधिका, तन द्युति करि अनुराग ।
जिहिं ब्रजकेलि निंकुंज मग पग-पग होत प्रयाग ।।3
नित प्रति एकतहीं रहत, बैस बरन मन एक ।
चहियत जुगलकिसोर लखि, लोचन-जुगल अनेक ।।4
या अनुरागी चित्त की, गति समुझै नहिं कोइ।
ज्यों-ज्यों बूड़ै स्याम रंग, त्यों-त्यों उज्जलु होइ॥5
कब को टेरत दीन ह्वै, होत न स्याम सहाय।
तुम हूँ लागी जगत गुरु, जगनायक जग बाय।।6
करौं कुबत जग कुटिलता, तजौं न दीन दयाल ।
दुखी होहुगे सरल हिय बसत त्रिभंगीलाल ।।7
जप माला छापा तिलक, सरै न एको काम ।
मन काँचै नाचै वृथा, साँचै राचैं राम ।।8
समै समै सुन्दर सबै रूप कुरूप न कोय।
मन की रूचि जेती जितै, तित तेती रूचि होय ।9
अजौं तरौना ही रह्यौं, श्रुति सेवक इक रंग ।
नाक बाँस बेसरि रह्यौं, तजि मुकुतन के संग ।।10
जो चाहैं चटक न घटै मैलो होय न मित्त ।
रज राजस न छुवाइयै, नेह चीकनो चित्त ।।11
को छूट्यौ इहि जाल परि कत कुरंग अकुलात ।
ज्यौं ज्यौं सुरझि भज्यौं चहत त्यौं त्यौं उरझत जात ।।12
गुनी-गुनी सबके कहें, निगुनी गुनी न होत ।
सून्यौं कहूँ तरू अर्क तें अर्क-समान उद्योत ।13
बढ़ति-बढ़ति सम्पति सलिल, मन सरोज बढ़ि जाय ।
घटत-घटत सू न फिरै घटै बरू समूल कुम्हिलाय ।।14
न ए बिससिये लखि नए, दुर्जन दुसह सुभाय ।
आँटै परि प्रानन हरत, काँटै लौं लगि पाय ।।15
स्वारथ सुकृत न श्रम वृथा देखि विहंग विचारि ।
बाजि पराये पानि परि, तूँ पच्छीन न मारि ।।16
तन भूषन अंजन दृगनि, पगनि महावरि रंग ।
नहिं सोभा कौं राजियत कहिबे ही कौं अंग ।।17
लिखन बैठि जाकी सबिह, गहि-गहि गरह गुरूर ।
भए न केते जगत के , चतुर चितेरे कूर ।।18
सकत न तुव ताते बचन मो रस को रस खोय ।
खिन-खिन औंटे खीर लौं खरौं सवादिल होय ।।19
कहति नटति रीझति मिलति खिलति लजि जात।
भरे भौन में होत है, नैनन ही सों बात॥20
तंत्री नाद कवित्त रस, सरस राग रति रंग ।
अनबूड़े बूड़े तिरे, जे बूड़े सब अंग ।।21
जरे दुहन के दृग झमकि रूके न झीने चीर ।
हलकी फौंज हरौंल ज्यौं परत गोल पर भीर ।।22
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥23
बतरस लालच लाल की, मुरली धरी लुकाय।
सौंह करै, भौंहन हँसै, देन कहै नटि जाय॥24
गिरै कंपि कछु-कछु रहै, कर पसीझि लपटाय ।
लीने मुठ्ठी गुलाल भरि, छुटत झूठि ह्वै जाय ।।25
भाल लाल बेंदी ललन, आखत रहे बिराजि ।
इंदुकला कुंज में बसी, मनौ राहु भय भाजि ।।26
चमचमात चंचल नयन बिच घूँघट पट झीन ।
मानहुँ सुर-सरिता विमल जल उछरत जुग मीन ।।27
बामा भामा कामिनी, कहि बोले प्रानेस ।
प्यारी कहत लजात नहिं, पावस चलत विदेस ।।28
अनियारे दीरघ दृगनि किती न तरुनि समान ।
वह चितवनी औरै कछू, जिंहि बस होत सुजान ।।29
मकराकृत गोपाल के सोहत कुंडल कान ।
धर् यौ मनो हिय धर समर ड्यौढ़ी लसत निसान ।। 30
लसत सेत सारी ढक्यौ, तरल तरौना कान ।
पर् यौ मनौ सुरसर-सलिल रवि प्रतिबिम्ब विहान ।।31
सटपटाति सी ससिमुखी, मुख घूँघट पट ढाँकि ।
पावक-झर सी झमकि कै गई झरोखा झाँकि ।।32
कागद पर लिखत न बनत, कहत सँदेस लजात ।
कहिहे सब तेरे हिए, मेरे हिय की बात ।। 33
पटु पाँखै भखु काँकरे सपर परेई संग ।
सुखी परेवा जगत में, एकै तुही बिहंग ।।34
जब-जब वै सुधि कीजियै, तब तब सब सुधि जाहिं ।
आँखिन आँखि लगी रहैं, आँखौ लागति नाहिं ।।35
सोवत सपनें श्यामघन, हिलि मिलि हरत वियोग ।
तबहीं टरि कितहूँ गई, नींदौं नींदन जोग ।।36
आवत जात न जानियत, तेजहिं तजि सियरान ।
घरहँ जवाई लौं घट्यौं खरो पूस दिन-मान ।।37
छकि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गंध ।
ठौर-ठौर झूमत झँपत भौंर-झौंर मधु-अंध ।।38
अरुन सरोरुह कर चरन दृग खंजन मुख चंद ।
समय आय सुंदरि सरद काहि न करति अनंद ।।39
नाहिंन ये पावक प्रबल, लूऐं चलति चहुँ पास।
मानों बिरह बसंत के, ग्रीषम लेत उसांस॥40
कहलाने एकत बसत, अहि मयूर मृग बाघ ।
जगत तपोवन सो कियौ दीरघ दाघ निदाघ ।।41
कुटिल अलक छुटि परत मुख, बढ़ि गौ इतो उदोत ।
बंक बकारी देत ज्यौं दाम रुपैया होत ।। 42
कहत सबै, बेंदी दिये, ऑंक हस गुनो होत।
तिय लिलार बेंदी दिये, अगनित होत उदोत॥43
भाल लाल बेंदी छए छुटे बार छवि देत ।
गह्यौं राहु खति आहु कर मनु ससि सूर समेत ।।44
हरि-छबि-जल जब तें परे तब ते छनि बिछुरैन
भरत ढरत बूड़त तिरत रहट घरी लौं नैन ।।45
इन दुखिया अँखियान कौं, सुख सिरजोई नाहिं।
देखत बनै न देखते, बिन देखे अकुलाहिं॥46
को जाने ह्वैंहै कहाँ, ब्रज उपजी अति आगि ।
मन लागै नैननि लगें, चलै न मग लगि लागि ।।47
कौड़ा आँसू बूँद कसि, साँकर बरुनी सजल ।
कीने बदन निमूँद दृग मलंग डारे रहत ।।48
आड़ै दै आले बसन जाड़ेहूँ की राति ।
साहस ककै सनेह बस सखी सबै ढिग जाति ।।49
कंचन-तन धन बरन बर रह्यौ रंग मिलि रंग ।
जानी जाति सुबास ही केसरि लाई अंग ।।50
पत्रा ही तिथी पाइये, वा घर के चहुँ पास।
नित प्रति पून्यौ ही रहे, आनन-ओप उजास॥51
अधर धरत हरि के परत, ओंठ, दीठ, पट जोति।
हरित बाँस की बाँसुरी, इंद्र धनुष दुति होति॥52
हुकुम पाय जयसिंह को हरि राधिका प्रसाद ।
करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद ।।53
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