इसमें आप विद्यापति के पद्यों की व्याख्या , विद्यापति का जीवन परिचय, विद्यापति की रचनाएँ, वस्तुनिष्ठ प्रश्न एवं विद्यापति से सम्बन्धित प्रश्नों की व्याख्या पाएँगे ।
विद्यापति का जीवन परिचय
विद्यापति का जन्म सन् 1425 में बिहार के दरभंगा जिले में विसपी गांव में हुआ था। ये विद्वान वंश में संबंध रखते थे। इनके पिता गणपति ठाकुर ने अपनी सुप्रसिद्ध पुस्तक 'गंगा भक्ति तरंगिनी' अपने मृत संरक्षक मिथिला के महाराज गणेश्वर की स्मृति में समर्पित की थी। ये तिरहुत के महाराज शिवसिंह के आश्रय में रहते थे। महाराज शिवसिंह के अतिरिक्त रानी लखिमा देवी भी इनकी बड़ी भक्त थीं। विद्यापति ने 'कीर्तिलता' आसैर 'कीर्तिपताका' में अपने आश्रयदाता शिवसिंह और कीर्तिसिंह की वीरता का बड़े ही ओजस्वी और प्रभावशाली ढंग से वर्णन किया है। आज से लगभग 40-50 वर्ष पहले बंगाली लोग विद्यापति को बंगला का कवि समझते थे किन्तु जब उनके जीवन की घटनाओं की जांच-पड़ताल बाबू रामकृष्ण मुखर्जी और डॉ ग्रियर्सन ने की तब से बंगाली अपने अधिकार को अव्यवस्थित पाते हैं।
विद्यापति एक महान पंडित थे। उन्होंने अपनी रचनाएँ संस्कृत, अवहट्ट और मैथिली भाषा में लिखी हैं। संस्कृत पर इनका असामान्य अधिकार था और इन्होंने अपनी अधिकतर रचनायें संस्कृत में ही लिखीं। निद्यापति संक्रमण-काल के कवि थे। एक और वे बीरगाथा काल का प्रतिनिधित्व करते हैं तो दूसरी ओर में हिन्दी में भक्ति और गंगार की परम्परा के प्रवर्तक माने जाते हैं। कीर्तिलता और कीर्तिपताका में उनका जीर कवि का रूप है। पदावली में उनका श्रृंगारी रूप है और शैव सर्वस्य मार में वे भक्तिभाव में झूमते हुए दिखाई देते हैं। इस प्रकार भाव और भाषा की दृष्टि से इनकी रचनाओं के तीनों भागों में विभाजित किया जा सकता है। भाषा के आधार पर इनकी रचनायें ये हैं-
विद्यापति की रचनाएँ
1. संस्कृत ग्रंथ (1) भूःपरिक्रमा, देवसिंह, (2) पुरुष परीक्षा शिवसिंह, (३) लिखनावली, पुरादित्य, (4) विभाग सागर, नरसिंह देव, (5) वर्षकृत्य लखिमा देवी या कोई अन्य रानी (6) गया पहलक, (7) शैव सर्वस्व सार, विश्वास देवी (8) प्रमाणभूत पुराण संग्रह, (9) गंग वाक्यावली, विश्वास देवी, (10) दान वाक्यावली, नरसिंह देव की रानी धीर मति, (11) दुर्गा भक्ति तरंगिणी, भैरव सिंह तथा धीर सिंह।
2. अवहट्ट ग्रंथ (12) कीर्तिलता (13) कीर्ति पताका ।
3. मैथिली ग्रंथ (14) पदावली।
विद्यापति प्रश्नोत्तरी
प्रश्न 1. विद्यापति का जन्म कहाँ हुआ था ?
उत्तर-विद्यापति का जन्म मिथिला में हुआ था।
प्रश्न 2. विद्यापत्ति के पिता का क्या नाम था ?
उत्तर-गौरापति ठाकुर।
प्रश्न 3. विद्यापति के गुरु कौन थे ?
उत्तर- जयदेव मिश्र विद्यापति के गुरु थे।
प्रश्न 4. विद्यापति का जन्म मिथिला के किस ग्राम में हुआ था ?
उत्तर-कुढ़पी।
प्रश्न 5. विद्यापति के आश्रयदाता कौन थे ?
उत्तर महाराज कीर्ति सिंह जी।
प्रश्न 6. विद्यापति की रचना किस भाषा में है ?
उत्तर-मैथिली भाषा में। प्रश्न 7. कीर्तिलता में किस राजा का यशोगान है ?
उत्तर-कीर्तिसिंह जी का।
प्रश्न 8. विद्यापति की रचनाओं पर किसका प्रभाव है ?
उत्तर-जयदेव का ।
प्रश्न 9. विद्यापति के आश्रयदाता का नाम लिखिए।
उत्तर-राजा कीर्ति सिंह।
प्रश्न 10. 'आरे नवयौवन अभिरामा" किस कवि की पंक्ति है ?
उत्तर-विद्यापति की।
प्रश्न 11. मैथिल कोकिल कवि कौन है ?
उत्तर-विद्यापति ।
प्रश्न 12. विद्यापति की दो रचनाओं के नाम बताइए।
उत्तर- 1. कीर्तिपताका तथा 2. कीर्तिलता ।
प्रश्न 13. विद्यापति भक्ति कवि हैं या श्रृंगारी कवि ?
उत्तर- अधिकांश विद्वान उन्हें भक्त कवि मानते हैं।
प्रश्न 14. विद्यापति के पद कैसे हैं ?
उत्तर-विद्यापति के पद गेय हैं।
प्रश्न 15. विद्यापति के पदों की विशेषता बताइये ।
उत्तर-विद्यापति के पदों में आत्माभिव्यक्ति, अनुभूति और संगीतात्मकता है।
प्रश्न 16. राजा देवीसिंह की राजधानी क्या थी ?
उत्तर-राजा देवीसिंह की राजधानी देवकुली थी।
प्रश्न 17. राजा देवीसिंह की पत्नी का क्या नाम था ?
उत्तर-हासिनी ।
प्रश्न 18. विद्यापति को विसयी ग्राम किसने दान में दिया ?
उत्तर-राजा शिवसिंह ने।
प्रश्न 19. विद्यापति का दृष्टिकोण कैसा था ?
उत्तर- समन्वयवादी ।
प्रश्न 20. राजा शिवसिंह की पत्नी का क्या नाम था ?
उत्तर-लखिमा देवी ।
प्रश्न 21. विद्यापति ने बसन्त का वर्णन किस परिप्रेक्ष्य में किया है ?
उत्तर-वृन्दावन के परिप्रेक्षय में।
विद्यापति- पद व्याख्या
चानन भेल विषम सर रे, भुषन भेल भारी।
सपनहुँ नहि हरि आयल रे, गोकुल गिरधारी।।
एकसरि ठाठि कदम-तर रे, पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी।।
जाह जाह तोहें उधब हे, तोहें मधुपुर जाहे।
चन्द्र बदनि नहि जीउति रे, बध लागत काह।।
कवि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी।
आजु आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झटकारी।। 1
सन्दर्भ- प्रस्तुत पद्य हमारी पाठ्यपुस्तक मंदाकिनी के विद्यापति की पदावली नामक पाठ से लिया गया है, इसके रचनाकार विद्यापति जी हैं।
प्रसङ्ग-
व्याख्या- हे सखी, कृष्ण के विरह में चंदन का सुगंधित लेप मुझे तीक्ष्ण बाण के समान पीड़ादायक लग रहा है और आभूषण भार- स्वरूप मालूम पड़ रहा है। जब से वे गोकुल गिरधारी यहाँ से मथुरा चले गए हैं तब से उनसे मिलना स्वप्न में भी नहीं हो पाया। अर्थात स्वप्न में भी नहीं आये। मैं अकेली कदंब वृक्ष के नीचे खड़ी मुरारी का मार्ग देखा करती हूँ। हरि के बिना मेरा ह्रदय जलकर राख हो गया और मेरी साड़ी भी मलिन पड़ गई है। हे उद्धव! तुम यहाँ क्या करने आए हो? कृपा करके तुम शीघ्र ही मथुरा को लौट जाओ। कृष्णचंद्र के बिना यह चंद्रवती जीवित नहीं रहेगी। ऐसी दशा में तुम अपना उपदेश देकर इस की हत्या की क्यों भागी बनते हो? विद्यापति कहते हैं, हे गुणवती स्त्री! तू तन- मन से तल्लीन होकर सुन, आज हरि गोकुल आएंगे, तू उनका स्वागत करने के लिए समूह बना कर सब सखियों को साथ लेकर शीघ्र उनके पथ में जा खड़ी हो।
माधव हम परिणाम निरासा ।
तुंहूँ जगतारन दीन दयामय अतए तोहर विसवासा ।
आध जनम हम नींद गमायलु जरा सिसु कत दिन भेला ।
निधुवन रमनि-रभस-रंग मातनु तोंहे भजब कोन बेला ।
कट चतुरानन मरि-मरि जाओत न तुअ आदि अवसाना ।
तोंहे जनमि पुनि तोंहे समाओत सागर लहरि समाना ।
भनहि विद्यापति सेष समन भय तुअ बिनु गति नहीं आरा ।
आदि अनादिक नाथ कहओसि अब तारन भार तोहारा ।। 2
हे माधव! जिस प्रकार तप्त बालू पर पानी की बूँद पड़ते ही विलीन हो जाती है, वैसे ही संसार में पुत्र, मित्र, पत्नी आदि की स्थिति है। तुझे भुला कर मैंने अपना मन इस क्षणभंगुर वस्तुओं में समर्पित कर दिया है। ऐसी स्थिति में अब मेरा कौन कार्य सिद्ध होगा? हे प्रभु! मैं जीवन भर आप को भुला कर माया- मोह में फँसा रहा हूँ। अतः अब इसके परिणाम से बहुत निराश हो गया हूँ। आप ही इस संसार से पार उतारने वाले हो। दीनों पर दया करने वाले हो। अतएव तुम्हारा ही विश्वास है कि तुम ही मेरा उद्धार करोगे। आधा जीवन तो मैंने सोकर ही बिता दिया। वृद्धावस्था और बालपन के भी अनेक दिन बीत गए। युवावस्था युवतियों के साथ केलि-क्रीड़ाओं में बिता दी। इस प्रेमक्रीडा में मस्त रहने के कारण मैं तेरा स्मरण करता तो किस समय करता? अर्थात विलास वासना में फंसे होने के कारण तेरे भजन पूजन का समय ही नहीं निकल पाया। कितने ही ब्रह्म अथवा चतुर वक्ता मर गए किंतु आप आदि अंत से परे हैं अर्थात ना तो मैं ब्राह्मण आदि की भाँति देव कोटि में आता हूं और ना ही मैं कोई चतुर ज्ञानी ही हूं। फिर भी आप जैसे आदि अंतहीन अपरंपार प्रभु को कैसे जान पाता? यह सारी सृष्टि तुमसे ही जन्म लेती है और फिर तुम्हें ही ऐसे विलीन हो जाती है जैसे समुद्र की लहरें समुद्र के जल से उत्पन्न होती हैं, और फिर उसी में समा जाती हैं। विद्यापति कवि कहते हैं कि- हे प्रभु! आप ही मृत्यु के भय से छुटकारा दिलाने वाले हैं। अतः आप के बिना मेरी अन्य कोई गति नहीं है। (कृष्ण विष्णु के अवतार हैं अतः शेषनाग की सैया पर शयन करने वाले प्रभु! हे माधव! आप आदि और अनादिल के नाथ कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में इस भवसागर से पार उतारने का भार आप पर ही है।)
सखि हे हमर दुखक नहि ओर
इ भर बादर माह भादर सून मंदिर मोर ।
झम्पि घन गर्जन्ति संतत भुवन भर बरसंतिया।
कंत पाहुन काम दारुण सघन खर सर हंतिया ।
कुलिस कत सत पात मुदित मयूर नाचत मतिया।
मत्त दादुर डाक डाहुक फाटी जायत छातिया ।
तिमिर दिग भरि घोर जामिनि अथिर बिजुरिक पांतिया।
विद्यापति कह कइसे गमओब हरि बिना दिन –रातिया । 3
हे सखी! हमारे दुखों का कोई अंत नहीं है अर्थात हमारा दुख एक अंतहीन गाथा है जिस की समाप्ति के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते। भादो के महीने में चारों तरफ बादल छाए हुए हैं फिर भी हमारा मंदिर (घर) सूना है। वहाँ बरसात के कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहे हैं। चारों भुवनों में अनवरत बरसात हो रही है। बादल गरज- गरज के बरस रहे हैं। ऐसे में मेरा जो प्रियतम है वह पाहुन बना हुआ है। उसकी याद ऐसे प्रतीत हो रही है जैसे कोई मुझ पर अस्त्रों से प्रहार कर रहा हो, अर्थात् कठोर कामदेव मुझे नितांत तीक्ष्ण वानों से मार रहा है। इस बरसात में मोर मदमस्त होकर नृत्य कर रहे हैं ।उनका नृत्य करना ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सैकड़ों बज्र एक साथ हमारे हृदय पर प्रहार कर रहे हो। मेंढक की आवाज से हमारा हृदय फटा जा रहा है। चारों तरफ घोर अंधकार छाया हुआ है। और कहीं- कहीं बिजली चमक रही है। विद्यापति कहते हैं कि इन विपरीत परिस्थितियों में तुम पति के बिना कैसे दिन व्यतीत करोगी? अर्थात पति के अभाव में हमारा जीवन दुखों का सागर बना हुआ है। जिसकी समाप्ति के कोई मार्ग नहीं सूझ रहे हैं।
सखि, कि पुछसि अनुभव मोय .
से हों पिरीति अनुराग बखानइत, तिल-तिले नूतन होय।
जनम-अवधि हम रूप निहारल,नयन न तिरपित भेल ।
सेहो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुति-पथ परस न भेल ।
कत मधु जामिनि रभसे गमाओल,न बुझल कइसन गेल ।
लाख-लाख जुग हिये-हिये राखल,तइयो हिय जुड़न न गेल ।
कत बिदग्ध जन रस अनुमोदइ, अनुभव काहु न पेख ।
विद्यापति कह प्राण जुड़ाएत लाखे मिल न एक ।।4
40. सेखि हे कि पुछसि अनुभव मोए।
शब्दार्थ-मोए मेरा। तिले तिल प्रेम-क्रीड़ा। मिलल मित। क्षण-प्रतिक्षण। तिरपित = तृप्त। सवनहिं कानों से। रसभं संयोगानन्द।
प्रसंग-नायिका का कथन सखी के प्रति है। वह प्रेम-भाव का वर्णन करती है।
व्याख्या- हे सखी । तू मेरे अनुभव के विषय में क्या पूछती है, अर्थात् मैं तुझे क्या अनुभव बताऊं ? यदि उस प्रेम तथा अनुराग का वर्णन किया जाय तो वह क्षण-प्रतिक्षण नवीन ही नवीन दिखाई पड़ता है। अतः उसका वर्णन करना कोई सरल नहीं है। कारण, कि वर्णन तो स्थिर वस्तु का किया जा सकता है। मैंने जीवन भर कृष्ण के रूप को टकटकी बाँगकर देखा, किन्तु मेरे नेत्र उसके दर्शन से न अघाए। उनके मधुर वचनों को सदैव कानों से सुनती रही किन्तु फिर भी ऐसा लगता था जैसे मैंने उन्हें कभी सुना ही न हो। रूप और वाणी को चिर नवीनता मुझे अतृप्त बनाये रखती थी। कितना हो बसन्त की सुहावनी मादक रातें कृष्ण के साथ प्रेम-क्रीड़ा में व्यतीत हुई, लेकिन मैं किलि-विलास को न समझ पाई। अर्थात् मिलन की उत्कण्ठा आज भी बनी हुई है। मैंने युगों तक अपने हृदय को उनके हृदय से लगाये रखा, किन्तु फिर भी मेरा हृदय शीतल नहीं हुआ अर्थात् हृदय में मिलन की प्यास वैसी ही बनी रही, जैसी कि पहले थी। अनेक रसिक व्यक्ति प्रेम-रस का पान करते है किन्तु कोई भी व्यक्ति उस प्रेम का वास्तविक अनुभव नहीं कर सका।
विद्यापति कहते हैं कि लाखों व्यक्तियों में एक भी ऐसा नहीं मिला, जिसका मन प्रेम को प्राप्त कर तृप्ति का अनुभव करता हो। कारण कि प्रेम की पूर्ण अनुभूति हो ही नहीं सकती। प्रेम सदैव चिर-नूतन रहता है, इसलिए उसका वर्णन सम्भव नहीं।
विशेष-1. इस पद में विद्यापति ने प्रेम की अनिवर्चनीयता और चिरनवीवनता का रूप प्रस्तुत किया है।
नव बृन्दावन नव नव तरूगन, नव नव विकसित फूल।
नवल वसंत नवल मलयानिल, मातल नव अलि कूल॥
विहरइ नवल किसोर
कालिंदी-पुलिन, कुंज वन शोभन, नव नव प्रेम विभोर ।
नवल –रसाल-मुकुल-मधु-मातल नव कोकिल कुल गाय ।
नवयुवती गन चित उमताई, नव रस कानन धाय ।
नव जुवराज नवल बर नागरि मीलिए नव-नव भाँति ।
नित-नित ऐसन नव-नव खेलन, विद्यापति मति माँति ।।5
लता तरुअर मण्डप जीति, निर्मल ससधर धवलिए भीति ।
पउँअ नाल अइपन भल भेल, रात पहीरन पल्लव देल ।
देखह माइ हे मन चित लाय, बसंत-बिबाहा कानन-चलि जाय ।
मधुकर रमनी मंगल गाब, दुजबर कोकिल मंत्र पढ़ाव ।
करू मकरंद हथोदक नीर, विधु बरियाती धीर समीर ।
कनअ किंसुक मुति तोरन तूल, लावा बिथरल वेलिक फूल ।
केसर कुसुम करु सिंदुर दान, जतोदुक पाओल मानिन मान ।
खेलए कौतुक नव पंचबान, विद्यापति कवि दृढ़ कए भान ।।6
अभिनव पल्लव बइसंक देल । धवल कमल फुल पुरहर भेल ।।
करु मकरंद मन्दाकिनि पानि । अरुन असोग दीप दहु आनि।।
माह हे आजि दिवस पुनमन्त । करिअ चुमाओन राय बसन्त।।
संपुन सुधानिधि दधि भल भेल । भगि-भगि भंगर हंकराय गेल।।
केसु कुसुम सिन्दुर सम भास । केतकि धुलि बिथरहु पटबास।।
भनइ विद्यापति कवि कंठहार । रस बझ सिवसिंह सिव अवतार।। 7
सरसिज बिनु सर सर बिनु सरसिज, की सरसिज बिनु सूरे।
जौबन बिनु तन, तन बिनु जौबन की जौक पिअ दूरे।।
सखि हे मोर बड दैब विरोधी ।
मदन बोदन बड पिया मोर बोलछड, अबहु देहे परबोधी ।।
चौदिस भमर भम कुसुम-कुसुम रम, नीरसि भाजरि पीबे ।
मंद पवन बह, पिक कुहु-कुहु कह, सुनि विरहिनि कइसे जीवे।।
सिनेह अछत जत, हमे भेल न टुटत, बड बोल जत सबथीर।
अइसन के बोल दुहु निज सिम तेजि कहु, उछल पयोनिधि नीरा ।।
भनइ विद्यापति अरे रे कमलमुखि, गुनगाहक पिय तोरा।
राजा सिवसिंह रुपानरायन, रहजे एको नहि भोरा।। 8
अनुखन माधव-माधव सुमिरत, सुन्दर भेलि मधाई ।
जो नित भाव सभावहिं विसरल, आपन गुन लुबधाई ।
माधव अपरूप तोहारि सिनेह, अपने विरह अपन तन जरजर ।
जिवइते भेल संदेह ।
भोरइ सहचरि कातर दिठि हेरि, छल-छल लोचन पानि ।
अनुखन राधा राधा रटइत, आधा-आधा कहु बानि ।
राधा सयें जब पुनतहिं माधव, माधव सँय जब राधा ।
दारुन प्रेम तबहुँ नहिं टूटत, बाढ़त विरहक बाधा ।
दुहु सिद दारू दहन जैसे दगधई, आकुल कीट परान ।
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि, कवि विद्यापति भान ।।9
सरस बसन्त समय भल पाओलि
दखिन पवन बहु धीरे ।
सपनहुँ रूप बचन एक भाखिए
मुख सो दूर करू चीरे ।
तोहर बदन सम चान होअथि नहिं
जइओ जतन विहि देला ।
कए बार कटि बनावल नव कए
तइयो तुलित नहिं भेला ।
लोचन तुअ कमल नहि भए सक
से जग के नहिं जाने
से फेरि जाए नुकेलाई जल मय
पंकज निज अपमाने ।
भनइ विद्यापति सुन बर यौवति
इ सब लक्ष्मी समाने ।
राजा सिवसिंह रूपनरायन
लखिमा दे पति भाने । 10
सुनु रसिया अब न बजाऊ बिपिन बंसिया ।
बार-बार चरणारविन्द गहि, सदा रहब बनि दसिया ।
की छलहुँ कि होएब से के जाने,वृथा होएत कुल-हँसिया ।
अनुभव ऐसन मदन भुजंगम , ह्रदय मोर गेल डसिया ।
नंद-नन्दन तुअ सरन न त्यागब ,बरु जग होए दुर्जसिया ।
विद्यापति कह सुनु बनितामनि,तोर मुख जीतल रसिआ ।
धन्य-धन्य तोर भाग गोआरिनी भरि भजु ह्रदय हुलसिआ ।। 11
प्रसंग नायिका (राधा) कृष्ण से कह रही है।
व्याख्या हे रसिक । सुनो, अब, वन में बाँसुरी न बजाओ। मैं सदा तुम्हारे चरण कमलों को ग्रहण करके तुम्हारी दासी बनी रहूँगी। मैं. तुमसे प्रेम करने से पहले क्या थी, तुमसे प्रेम करने के बाद क्या होऊंगी, इस बात को में नहीं मेरे प्रेम को प्रकट न करो, अन्यथा व्यर्थ में ही मेरे जानती, पर तुम कुल की हँसी होगी। मुझे तो ऐसा प्रतीत होता है कि कामदेव-रूपी सर्प ने मेरे हृदय को डस लिया है। हे कृष्ण। चाहे संसार में मेरी कितनी ही बदनामी क्यों न हो, पर मैं तुम्हारी शरण को त्याग नहीं करूंगी। विद्यापति कहते हैं कि हे रमणियों में श्रेष्ठ। सुनो, तुम्हारे मुख ने तो चन्द्रमा को जीत लिया है। हे गोपी । तेरा भाग्य
धन्य है, अतः उत्साहित होकर कृष्ण की भक्ति कर।
विशेष- 'हरि भजु हृदय हुलसिया' में आध्यात्मिक संकेत है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें