विद्यापति
चानन भेल विषम सर रे, भुषन भेल भारी।
सपनहुँ नहि हरि आयल रे, गोकुल गिरधारी।।
एकसरि ठाठि कदम-तर रे, पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगध भेल रे, झामर भेल सारी।।
जाह जाह तोहें उधब हे, तोहें मधुपुर जाहे।
चन्द्र बदनि नहि जीउति रे, बध लागत काह।।
कवि विद्यापति गाओल रे, सुनु गुनमति नारी।
आजु आओत हरि गोकुल रे, पथ चलु झटकारी।। 1
व्याख्या- हे सखी, कृष्ण के विरह में चंदन का सुगंधित लेप मुझे तीक्ष्ण वाण के समान पीड़ादायक लग रहा है और आभूषण भार- स्वरूप मालूम पड़ रहा है। जब से वे गोकुल गिरधारी यहाँ से मथुरा चले गए हैं तब से उनसे मिलना स्वप्न में भी नहीं हो पाया। अर्थात स्वप्न में भी नहीं आये। मैं अकेली कदंब वृक्ष के नीचे खड़ी मुरारी का मार्ग देखा करती हूँ। हरि के बिना मेरा ह्रदय जलकर राख हो गया और मेरी साड़ी भी मलिन पड़ गई है। हे उद्धव! तुम यहाँ क्या करने आए हो? कृपा करके तुम शीघ्र ही मथुरा को लौट जाओ। कृष्णचंद्र के बिना यह चंद्रवती जीवित नहीं रहेगी। ऐसी दशा में तुम अपना उपदेश देकर इस की हत्या की क्यों भागी बनते हो? विद्यापति कहते हैं, हे गुणवती स्त्री! तू तन- मन से तल्लीन होकर सुन, आज हरि गोकुल आएंगे, तू उनका स्वागत करने के लिए समूह बना कर सब सखियों को साथ लेकर शीघ्र उनके पथ में जा खड़ी हो।
माधव हम परिणाम निरासा ।
तुंहूँ जगतारन दीन दयामय अतए तोहर विसवासा ।
आध जनम हम नींद गमायलु जरा सिसु कत दिन भेला ।
निधुवन रमनि-रभस-रंग मातनु तोंहे भजब कोन बेला ।
कट चतुरानन मरि-मरि जाओत न तुअ आदि अवसाना ।
तोंहे जनमि पुनि तोंहे समाओत सागर लहरि समाना ।
भनहि विद्यापति सेष समन भय तुअ बिनु गति नहीं आरा ।
आदि अनादिक नाथ कहओसि अब तारन भार तोहारा ।। 2
हे माधव! जिस प्रकार तप्त बालू पर पानी की बूँद पड़ते ही विलीन हो जाती है, वैसे ही संसार में पुत्र, मित्र, पत्नी आदि की स्थिति है। तुझे भुला कर मैंने अपना मन इस क्षणभंगुर वस्तुओं में समर्पित कर दिया है। ऐसी स्थिति में अब मेरा कौन कार्य सिद्ध होगा? हे प्रभु! मैं जीवन भर आप को भुला कर माया- मोह में फँसा रहा हूँ। अतः अब इसके परिणाम से बहुत निराश हो गया हूँ। आप ही इस संसार से पार उतारने वाले हो। दीनों पर दया करने वाले हो। अतएव तुम्हारा ही विश्वास है कि तुम ही मेरा उद्धार करोगे। आधा जीवन तो मैंने सोकर ही बिता दिया। वृद्धावस्था और बालपन के भी अनेक दिन बीत गए। युवावस्था युवतियों के साथ केलि-क्रीड़ाओं में बिता दी। इस प्रेमक्रीडा में मस्त रहने के कारण मैं तेरा स्मरण करता तो किस समय करता? अर्थात विलास वासना में फंसे होने के कारण तेरे भजन पूजन का समय ही नहीं निकल पाया। कितने ही ब्रह्म अथवा चतुर वक्ता मर गए किंतु आप आदि अंत से परे हैं अर्थात ना तो मैं ब्राह्मण आदि की भाँति देव कोटि में आता हूं और ना ही मैं कोई चतुर ज्ञानी ही हूं। फिर भी आप जैसे आदि अंतहीन अपरंपार प्रभु को कैसे जान पाता? यह सारी सृष्टि तुमसे ही जन्म लेती है और फिर तुम्हें ही ऐसे विलीन हो जाती है जैसे समुद्र की लहरें समुद्र के जल से उत्पन्न होती हैं, और फिर उसी में समा जाती हैं। विद्यापति कवि कहते हैं कि- हे प्रभु! आप ही मृत्यु के भय से छुटकारा दिलाने वाले हैं। अतः आप के बिना मेरी अन्य कोई गति नहीं है। (कृष्ण विष्णु के अवतार हैं अतः शेषनाग की सैया पर शयन करने वाले प्रभु! हे माधव! आप आदि और अनादिल के नाथ कहलाते हैं। ऐसी स्थिति में इस भवसागर से पार उतारने का भार आप पर ही है।)
सखि हे हमर दुखक नहि ओर
इ भर बादर माह भादर सून मंदिर मोर ।
झम्पि घन गर्जन्ति संतत भुवन भर बरसंतिया।
कंत पाहुन काम दारुण सघन खर सर हंतिया ।
कुलिस कत सत पात मुदित मयूर नाचत मतिया।
मत्त दादुर डाक डाहुक फाटी जायत छातिया ।
तिमिर दिग भरि घोर जामिनि अथिर बिजुरिक पांतिया।
विद्यापति कह कइसे गमओब हरि बिना दिन –रातिया । 3
हे सखी! हमारे दुखों का कोई अंत नहीं है अर्थात हमारा दुख एक अंतहीन गाथा है जिस की समाप्ति के कोई लक्षण नहीं दिखाई देते। भादो के महीने में चारों तरफ बादल छाए हुए हैं फिर भी हमारा मंदिर (घर) सूना है। वहाँ बरसात के कोई चिन्ह नहीं दिखाई दे रहे हैं। चारों भुवनों में अनवरत बरसात हो रही है। बादल गरज- गरज के बरस रहे हैं। ऐसे में मेरा जो प्रियतम है वह पाहुन बना हुआ है। उसकी याद ऐसे प्रतीत हो रही है जैसे कोई मुझ पर अस्त्रों से प्रहार कर रहा हो, अर्थात् कठोर कामदेव मुझे नितांत तीक्ष्ण वानों से मार रहा है। इस बरसात में मोर मदमस्त होकर नृत्य कर रहे हैं ।उनका नृत्य करना ऐसा प्रतीत हो रहा है मानो सैकड़ों बज्र एक साथ हमारे हृदय पर प्रहार कर रहे हो। मेंढक की आवाज से हमारा हृदय फटा जा रहा है। चारों तरफ घोर अंधकार छाया हुआ है। और कहीं- कहीं बिजली चमक रही है। विद्यापति कहते हैं कि इन विपरीत परिस्थितियों में तुम पति के बिना कैसे दिन व्यतीत करोगी? अर्थात पति के अभाव में हमारा जीवन दुखों का सागर बना हुआ है। जिसकी समाप्ति के कोई मार्ग नहीं सूझ रहे हैं।
सखि, कि पुछसि अनुभव मोय .
से हों पिरीति अनुराग बखानइत, तिल-तिले नूतन होय।
जनम-अवधि हम रूप निहारल,नयन न तिरपित भेल ।
सेहो मधु बोल स्रवनहि सूनल, स्रुति-पथ परस न भेल ।
कत मधु जामिनि रभसे गमाओल,न बुझल कइसन गेल ।
लाख-लाख जुग हिये-हिये राखल,तइयो हिय जुड़न न गेल ।
कत बिदग्ध जन रस अनुमोदइ, अनुभव काहु न पेख ।
विद्यापति कह प्राण जुड़ाएत लाखे मिल न एक ।।4
नव बृन्दावन नव नव तरूगन, नव नव विकसित फूल।
नवल वसंत नवल मलयानिल, मातल नव अलि कूल॥
विहरइ नवल किसोर
कालिंदी-पुलिन, कुंज वन शोभन, नव नव प्रेम विभोर ।
नवल –रसाल-मुकुल-मधु-मातल नव कोकिल कुल गाय ।
नवयुवती गन चित उमताई, नव रस कानन धाय ।
नव जुवराज नवल बर नागरि मीलिए नव-नव भाँति ।
नित-नित ऐसन नव-नव खेलन, विद्यापति मति माँति ।।5
लता तरुअर मण्डप जीति, निर्मल ससधर धवलिए भीति ।
पउँअ नाल अइपन भल भेल, रात पहीरन पल्लव देल ।
देखह माइ हे मन चित लाय, बसंत-बिबाहा कानन-चलि जाय ।
मधुकर रमनी मंगल गाब, दुजबर कोकिल मंत्र पढ़ाव ।
करू मकरंद हथोदक नीर, विधु बरियाती धीर समीर ।
कनअ किंसुक मुति तोरन तूल, लावा बिथरल वेलिक फूल ।
केसर कुसुम करु सिंदुर दान, जतोदुक पाओल मानिन मान ।
खेलए कौतुक नव पंचबान, विद्यापति कवि दृढ़ कए भान ।।6
अभिनव पल्लव बइसंक देल । धवल कमल फुल पुरहर भेल ।।
करु मकरंद मन्दाकिनि पानि । अरुन असोग दीप दहु आनि।।
माह हे आजि दिवस पुनमन्त । करिअ चुमाओन राय बसन्त।।
संपुन सुधानिधि दधि भल भेल । भगि-भगि भंगर हंकराय गेल।।
केसु कुसुम सिन्दुर सम भास । केतकि धुलि बिथरहु पटबास।।
भनइ विद्यापति कवि कंठहार । रस बझ सिवसिंह सिव अवतार।। 7
सरसिज बिनु सर सर बिनु सरसिज, की सरसिज बिनु सूरे।
जौबन बिनु तन, तन बिनु जौबन की जौक पिअ दूरे।।
सखि हे मोर बड दैब विरोधी ।
मदन बोदन बड पिया मोर बोलछड, अबहु देहे परबोधी ।।
चौदिस भमर भम कुसुम-कुसुम रम, नीरसि भाजरि पीबे ।
मंद पवन बह, पिक कुहु-कुहु कह, सुनि विरहिनि कइसे जीवे।।
सिनेह अछत जत, हमे भेल न टुटत, बड बोल जत सबथीर।
अइसन के बोल दुहु निज सिम तेजि कहु, उछल पयोनिधि नीरा ।।
भनइ विद्यापति अरे रे कमलमुखि, गुनगाहक पिय तोरा।
राजा सिवसिंह रुपानरायन, रहजे एको नहि भोरा।। 8
अनुखन माधव-माधव सुमिरत, सुन्दर भेलि मधाई ।
जो नित भाव सभावहिं विसरल, आपन गुन लुबधाई ।
माधव अपरूप तोहारि सिनेह, अपने विरह अपन तन जरजर ।
जिवइते भेल संदेह ।
भोरइ सहचरि कातर दिठि हेरि, छल-छल लोचन पानि ।
अनुखन राधा राधा रटइत, आधा-आधा कहु बानि ।
राधा सयें जब पुनतहिं माधव, माधव सँय जब राधा ।
दारुन प्रेम तबहुँ नहिं टूटत, बाढ़त विरहक बाधा ।
दुहु सिद दारू दहन जैसे दगधई, आकुल कीट परान ।
ऐसन बल्लभ हेरि सुधामुखि, कवि विद्यापति भान ।।9
सरस बसन्त समय भल पाओलि
दखिन पवन बहु धीरे ।
सपनहुँ रूप बचन एक भाखिए
मुख सो दूर करू चीरे ।
तोहर बदन सम चान होअथि नहिं
जइओ जतन विहि देला ।
कए बार कटि बनावल नव कए
तइयो तुलित नहिं भेला ।
लोचन तुअ कमल नहि भए सक
से जग के नहिं जाने
से फेरि जाए नुकेलाई जल मय
पंकज निज अपमाने ।
भनइ विद्यापति सुन बर यौवति
इ सब लक्ष्मी समाने ।
राजा सिवसिंह रूपनरायन
लखिमा दे पति भाने । 10
सुनु रसिया अब न बजाऊ बिपिन बंसिया ।
बार-बार चरणारविन्द गहि, सदा रहब बनि दसिया ।
की छलहुँ कि होएब से के जाने,वृथा होएत कुल-हँसिया ।
अनुभव ऐसन मदन भुजंगम , ह्रदय मोर गेल डसिया ।
नंद-नन्दन तुअ सरन न त्यागब ,बरु जग होए दुर्जसिया ।
विद्यापति कह सुनु बनितामनि,तोर मुख जीतल रसिआ ।
धन्य-धन्य तोर भाग गोआरिनी भरि भजु ह्रदय हुलसिआ ।। 11
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें