वेगगामी झरने, नदियाँ, समुद्र इत्यादि का प्रवाह रुक जा सकता है ।
प्रद्योतित बुद्धि की नई अकिल वाले इस समय के विज्ञानियों ने अनेक ऐसे यंत्र,
औजार और कलें ईजाद की है, जिसके द्वारा वे
तीखी से तीखी धाराओं के प्रवाह को रोक दे सकते हैं या उसके प्रवाह को उलट दे सकते
हैं । किन्तु आज तक ऐसा कोई बुद्धिमान न हुआ जो जगत के
प्रवाह को रोक देता या उसे एक ओर से दूसरी ओर पलट देता । चौकसी के साथ अनुसन्धान
करते रहो तो पता लग जाता है कि अमुक नदी या झरने के प्रवाह का प्रारम्भ कहाँ से कब
से है और कब तक रहेगा ख्याल सही नहीं है- माफ कीजिए, बेअदबी
होती है ।साहब जिसे अपमान, आत्मगौरव और धर्माचरण कहते हैं वह
भी रुपये के लिए है और रुपये से सधता है । बड़े से बड़े मनस्वी, तपस्वी, संयमी, न्यायशील सब
रूपये के लिए तपस्या इत्यादि से हाथ धो बैठते हैं । मैंने बड़े-बड़े तपस्वी और
मनस्वियों को आजमाया, रूपया देख सब फिसल गए । इसी के लिए
बाप-बेटों में चल जाती है, भाई-भाई कट मरते हैं । उस रूपयों
की कमी हमको नहीं है, ज्यों-ज्यों आपका घिष्ट-पिष्ट मेरे साथ
बढ़ता जाएगा, आप जानोगे कि मैं कौन हूँ, मेरी इतिहास किस प्रकार का है ।
वृन्दावन इसकी बातें सुन अचम्भे में आया
। थोड़ी देर तक सोंचता रहा कि यह तो कोई अद्भुत पुरुष है, मेरे
मित्र ने क्या समझ इसे मेरे पास भेजा । यद्यपि वृन्दावन को अपनी लियाकत का कुछ कम
घमण्ड न था, किन्तु इस समय यह उसके रोब में आ गया और
गिड़गिड़ाता हुआ धीमी आवाज में बोला- मैं आपका नाम जानना चाहता हूँ, वर्णमाला के किन-किन अक्षरों को वह सुशोभित करता है ।
उसने कहा- मेरे कई एक नाम हैं । भिन्न-भिन्न समाज और संप्रदाय वालों ने
अपने-अपने ढंग पर अपनी पसन्द और रुचि के अनुकूल मेरा नाम धर रक्खा है, किन्तु साधारण रीति पर सब लोग मुझे सिद्धार्थक
कहकर पुकारते हैं ।
इतने में गाड़ी अपने ठिकाने पहुँच गयी, दोनों उतरे। अपने नौकरों में से एक को इसने इशारे से बुलाकर कहा-'देखो, बाबू साहब को किसी तरह की तकलीफ न होने पावे।'
वह तो कोठी के भीतर चला गया । नौकर अपनी जात की कमीनगी के मुताबिक
जैसा इन लोगों का दस्तूर होता है कि मालिक की आँख के सामनें कुछ, मालिक की आँख की ओट में हुआ कि हाहा-ठीठी टाल-बटाल। खासकर जब उनको इसका
कुछ पता नहीं लगता । बुद्धिमानों ने इस विषय में भाँति-भाँति के अनुमान किये हैं
और अकिल भिड़ाया है सही, पर ठीक ऐसा ही है यह निश्चय किसी को न हुआ । सच तो यों है कि जब तक यह प्रवाह अपने पूर्ण वेग से चला जाता है तभी तक कुशल है । जरा सा मन्द पड़ा
या एक निमेष मात्र को भी रुका कि कयामत या प्रलय का सामान जुट जाते देर नहीं लगती
। योगाभ्यासी तथा वेदान्ती मन को मार शान्ति-शान्ति पुकारते हैं । यह नहीं विचारते
कि जगत के प्रवाह में पड़े हुए को शान्ति कहाँ? जमदेश,
दारा , सिकन्दर से प्रबल प्रतापियों को कौन
कहे, राम,युधिष्ठिर सरीखे जो अंशावतार
माने गए हैं, जगत के प्रवाह में पड़ उनका भी कहीं ठिकाना न
लगा । प्रातःकालीन गगन मंडल के एक देश में नक्षत्र-समूह सदृश थोड़े समय तक जगमगाते
हुए इस प्रवाह में पड़ न मालूम कहाँ विलाय गए ।
यह प्रवाह
ऐसा प्रचंड है कि एक- दो मनुष्य की क्या, देश के देश को अपनी
एक लहर में बटोर न जाने कहाँ ले जा फेंकता है- जहाँ कई करोड़ मनुष्य बसते थे,
जहाँ के लोग मनुष्य जाति के सिरमोर थे, जो देश
सभ्यता की सीमा थी, वह इस प्रचण्ड जगत प्रवाह में पड़ ऐसा
अस्त हुआ कि उसकी पुरानी बातें किस्से-कहानियों का मजूमन और चण्डूबाजों की गप्पें
हो गई और जगत का प्रवाह जैसा का तैसा बना ही रहा । प्राचीन भारत, प्राचीन पारस, प्राचीन यूनान, प्राचीन
रोम इसके निदर्शन हैं । इस प्रवाह में पड़ा हुआ जिसे जो सवार है वह अपने
गीत गाए जाता है, अपने स्थिर निश्चय और उत्साह से जरा भी
मुँह नहीं मोड़ता ।
पुराने आर्यों ने इस प्रवाह को त्रिगुण -विभाग माना है । जहाँ जिस भू भाग में जब इस प्रवाह का वेग सीधा और मनुष्य-जाति के
अनुकूल रहा, प्रकृति के सब काम जब तक स्वभाव अनुसार होते रहे,
तब तक वहाँ सतयुग या सतोगुण का उदय रहा । वहाँ के स्थावर जंगम
सर्जित पदार्थ मात्र में सात्विक भाव का प्रकाश रहा । प्रत्येक मनुष्य यावत्
अभ्युदय और स्वर्ग सुख का अनुभव करते हुए कृतकृत्य,पूर्णकाम
और आप्तकाल रहे । किसी-अंश में कहीं पर से किसी तरह की किसी त्रुटि का नाम
न रहा ।
कृतकृत्या
प्रजा जात्या तस्मात्कृतयुगं विदुः ।
इसी को उन्नति, तरक्की, सभ्यता, उदारभाव,
स्वतंत्रता, जो चाहो सो कहो ।
भारत में न जानिए कै बार उस प्रवाह की
प्रेरणा से चक्रवत् पलटा खाते सतोगुण का उदय हो चुका है । सतोगुण में क्रम-क्रम
हानि और घटती का होना ही रजोगुण हैं , अपने प्रादुर्भाव में
प्रमाद, आलस्य, तृष्णा, स्वार्थ, परदृष्टि,हिंसा अपने
और पराये की निरख, विषय-भाव आदि बढ़ जाता है । विलायत में इन दिनों रजोगुण ही बढ़ा-चढ़ा है । बल्कि युग संध्या के क्रम पर तमोगुण की तरक्की
होती जाती है । वह प्रवाह जब तमोगुण के साथ टकराता है तब राग-द्वेष, बैर,
फूट, इर्ष्या,द्वेष,हिंसा,पैशुन्य, विषयलंपटता चित्र की क्षुद्रता और कदर्यता
बढ़ती है। कालचक्र की वक्रगति हिंदुस्तान में उसी तमोगुण को प्रवाहित कर रही है
जिसे अवनति, तनज्जुली, घटती जघन्यता, पराधीनता, बिगाड़- चाहे जिस नाम से पुकारो
तुम्हें अधिकार है। उनकी तो बात ही और है जो उसमें पगे हुए इसी को बड़ा भारी सुख मान
रहे हैं। नहीं तो नरक के प्राणी भी हमें ऐसों के पराधीन निकृष्ट जीवन से अधिक
श्रेष्ठ और सुखी हैं। यहाँ पर हमारे एक प्रिय मित्र का कहना हमें याद आता है जिनका
सिद्धांत है कि मरने के बाद रूह को फिर जन्म लेना पड़ता है। यह खयाल सच है तो
हिंदुस्तान के नागरिक समाज के बीच नरक भूमि में जन्म ले पराधीन जीवन से सहारा के
रेगिस्तान में भी स्वच्छंद जीवन अच्छा। भागवत के उस श्लोक को लिखने वाला हमें इस
समय मिलता तो कम से कम गिन के तीन गहरी चपत उसे जमाते, जिसने लिखा है कि स्वर्ग
में देवगण भी सोचते हैं और इस बात के लिए तरसते हैं कि भारत की कर्मभूमि में किसी
तरह एक बार हमारा जन्म होता तो हम अपने जन्म को सफल करते। बड़े नामी लेखक
जिन्होंने इस प्रवाह के अंतर्गत किसी बुराई के संशोधन के लिए हजारों पेज लिख डाला,
प्रसिद्ध वक्ता जिन्होंने चाहा कि हम एक छोर से दूसरे तक अपनी मेघ-गंभीर वक्तृक्ता
और बातों से उन बुराइयों को उच्छिन्न कर दें, पर उनका वह परिश्रम प्रबल-प्रवाह
सागर में एक बिंदु भी ना हुआ और उनके लेख और वक्तृक्ता का अणु मात्र भी कहीं असर न
देखा गया। हमने बहुत चाहा कि बाल-विवाह कुरीत को अपने बीच से हटा दें। कोई अंक ऐसा
नहीं जाता जिसमें दो एक मजबूत धक्के इस कुरीत के प्रबल प्रभाव को देती हूं कि एक
आदमी को भी अपने पंत की प्रकृति के नियमों में कुछ ऐसी मोहिनी सकती है कि कोई
कितना ही इस प्रवाह से बचना चाहे नहीं बच सकता है।
आदित्यस्य गतागतैरहरहः
संक्षीयते जीवितम्
व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः
कालोपि न ज्ञायते ।
दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं
त्रासश्च नोत्पद्यते,
पीत्वा मोहमयीं
प्रमाद-मदिरामुन्मत्त भूतं जगत्।।
सूर्यदेव के प्रतिदिन उदय और अस्त से आयुष्य घटती जाती है।
कार्य के बोझ से लदे हुए अपने व्यापार में व्यापृत, बार-बार जन्म लेना, बुढ़ा जाना,
अनेक प्रकार की विपत्ति और मरण देख किसको त्रास नहीं होता। मोहमयी प्रसाद मदिरा को
पीकर संपूर्ण जगत उन्मत्त हो रहा है। इस तरह महाप्रवाहपूर्ण भव-सागर के पार होने
को धैर्य एकमात्र उत्तम उपाय है। सच है- ‘धीरज धरै सो उतरै पारा’ और भी महाभारत के
वन-पर्व में इस जन्म-मरण रूपी महानदी के प्रवाह का बहुत उत्तम रूपक दर्शाय धैर्य
को नौका-रूप एकमात्र अवलंब निश्चय किया है। यथा-
कामलोभग्रहाकीर्णा पंचेन्द्रिय
जलां नदीम्।
नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्म
दुर्गाणि सन्तर ।।
भाँति-भाँति की कामना और लोभ, नक्र मक्रपूर्ण पाँच इन्द्रियों
के विषय जिस नदी का जल प्रवाह हैं उससे पार जाना चाहें तो धैर्य की नौका पर चढ़
फिर-फिर जन्म मरण के क्लेश से छूट सकता है।
4 टिप्पणियां:
लेख कई स्थान पर असम्बद्ध शैली में है तथापि मन्थन प्रशंसनीय है। भागवत् के रचयिता के प्रति अपशब्दों का प्रयोग धिक्करणीय है।
यह निबन्ध भारतेन्दु युग के प्रसिद्ध निबन्धकार श्री बालकृष्ण भट्ट जी का है। उस समय हिन्दी खड़ी बोली अपने प्रारम्भिक अवस्था में थी ।
भले यह साहब बड़े साहित्यकार हों, पर उनका यह निबंध बहुत कमज़ोर लगा। कई स्थानों पर लगा, कहना क्या चाहते हो भाई। कई शब्द संग्रहणीय हैं इस निबंध के।
इन्होने जब इस निबन्ध को लिखा तब हिन्दी गद्य लिखने का प्रचलन ही नहीं था। हिन्दी साहित्य की प्रारम्भिक अवस्था थी, खड़ी बोली का कोई स्वरूप ही नहीं था इसके बावजूद इनकी निष्ठा को कमतर नहीं आंका जा सकता । इनका महत्व समय की दृष्टि से अप्रतिम है ।
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