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महाभारत का युद्ध प्रारम्भ
महाभारत का आज प्रथम दिन है। दोनों ओर की १८ अक्षौहिणी सेनाएँ आमने-सामने युद्धार्थ खड़ी हैं। कौरवी सेना का प्रतिनिधित्व पितामह भीष्म कर रहे हैं। कुलगुरु कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य उनके अगल-बगल मोर्चा सँभाले हुए हैं। उनके पीछे अपार सैन्य-समूह व्यवस्थित होकर सेनानायक के आदेश की प्रतीक्षा में खड़ा है। तीनों कुलवृद्ध महाविनाश की लीला का सूत्रधार बनने के लिए सचेष्ट हैं।
          दूसरी ओर पाण्डवी सेना के महानायक धृष्टद्युम्न हैं, जिन्होंने प्रतिपक्ष के हमले की प्रतीक्षा करते हुए अपनी सेना को व्यवस्थित कर रखा है। बीच का मैदान खाली पड़ा है। महाराज युधिष्ठिर का सैन्य-सुसज्जित रथ सामने आकर रुक जाता है। रथ से उतरकर युधिष्ठिर सीधे पैदल ही पितामह भीष्म की ओर बढ़े चले आ रहे हैं। सभी अवाक् खड़े होकर उनकी तरफ देख रहे। हैं। सबके मन में आश्चर्य-भरा कुतूहल झलक रहा है कि अब क्या होने वाला है? युधिष्ठिर तीनों कुल वृद्धों का क्रमशः चरण वन्दन कर युद्ध का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। उन्होंने कहा आप लोग मेरे लिए देव-तुल्य पूज्य हैं। मैं कितना हतभाग्य हूँ कि आपके विरुद्ध हमें हथियार उठाना पड़ रहा है। हमें आशीर्वाद दें कि हम धर्मपूर्वक न्यायोचित युद्ध कर सकें। हम आपके बालक हैं। हमारी धृष्टता आप लोग क्षमा करें। आपके आशीर्वाद की हमें अत्यन्त आवश्यकता है। भीष्म ने कहा वत्स, हम लोग नियति के पुतले हैं। हम विवश हैं। जहाँ धर्म है, वहीं विजय है। तुम जैसा सत्यनिष्ठ आज त्रिलोक में नहीं है। हमारा शुभाशीर्वाद तुम्हारे साथ है। कृपाचार्य एवं द्रोणाचार्य ने भी भाव-विह्वल होकर युधिष्ठिर के सिर पर हाथ फेरा। इसके पश्चात् युधिष्ठिर अपने सैन्य-समूह में वापस आ गये।
          अर्जुन का कपिध्वज फहरता हुआ रथ भी दोनों सेनाओं के बीच आकर रुक जाता है। अर्जुन ने सारथी बने सखा श्रीकृष्ण से कहा-माधव! मुझे तनिक क्षण भर उन लोगों को निहार लेने दो, जिनके साथ अभी युद्ध करना है। कौरवी सेना के सम्मुख रथ खड़ा करके माधव ने कहा-हे सव्य सचिन् ! सामने देखो तुम्हारे कुलवृद्ध पितामह भीष्म का रथ खड़ा है। वाम भाग में कुलगुरु कृपाचार्य सैन्य सामग्री से सुसज्जित रथारूढ़ हैं। भीष्म के दाहिनी तरफ तुम्हारे गुरुदेव द्रोणाचार्य अविचल भाव से रथ पर विराजमान हैं, अर्जुन आश्चर्यपूर्वक इन भद्र-पुरुषों को देखते रहे । उनका गला सूखने लगा। शरीर पसीने से श्लथ हो उठा। अज्ञात भय से उनका तन थरथर काँपने लगा। अर्जुन ने कहा माधव ! इनसे लड़कर क्या कोई भी धनुर्धर विजय पा सकता है ? मुझे तो अकेले इन तीनों का प्रतिबली संसार में कोई नहीं दिखायी पड़ता है । समवेत तीनों का यमराज भी कुछ नहीं बिगाड़ सकते । अतिमानव-इन तीनों का वध करके मुझे कौन सा सुयश प्राप्त हो सकेगा? इनके जैसे स्वजनों को मारकर हमें राज्य प्राप्त होकर भी क्या सुख और शान्ति मिल सकेगी ? अपने
बन्धु-बान्धवों को रणभूमि में वध कर कुलघ्नी बनना क्या श्रेयस्कर होगा। दोनों ही ओर से मित्र राजाओं की सेनाएँ क्या असमय में काल-कवलित होकर हमें सुखोपभोग करने देगी? इन लोगों ने तो मेरा कुछ नहीं बिगाड़ा है। हठी दुर्योधन के चलते अन्य सभी निर्दोषों को मारने से मुझे कोई लाभ नहीं दिखाई पड़ता। अपने इष्ट मित्रों, बन्धुबान्धवों के अभाव में राज्य लेकर कौन सा सुख मुझे मिल सकेगा। मुझे तो यह सर्वथा घाटे का ही सौदा दिखाई पड़ रहा है। इस प्रकार अर्जुन ने तरह-तरह के बौद्धिक प्रश्न किये। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की बात सुनकर परम श्रेयस् गीता का उपदेश दिया। अध्यात्म ज्ञानोपदेश करते हुए कृष्ण ने कर्मयोग का उपदेश दिया। अर्जुन बुद्धि का आश्रयण करता हुआ तरह-तरह की शंकाएँ उपस्थित करता रहा श्रीकृष्ण ने योग्य अध्यापक की तरह अपने प्रिय शिष्य की सम्पूर्ण शका
का समाधान किया। ज्ञान-पिपासु और अधिक की कामना करता है। श्रीकृष्ण समझाते-समझाते थक जाते हैं। अर्जुन और अधिक सुनना चाहते हैं। श्रीकृष्ण ने समझाने का दूसरा तरीका अपनाया। उन्होंने कहा पार्थ! मेरी बात तुम्हें नहीं समझ में आ रही हैं। मैं तुम्हें दिव्य चक्षु प्रदान करता हूँ। देखो, तुम स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव करो । अर्जुन के चक्षु पटल पर दृश्य चलचित्र की तरह अंकित होने लगा जो महाभारत के बाद घटित होने वाला है।
          भीष्म का रथ भग्न हो गया। वह रथ से उतरकर दूसरे रथ पर चढ़कर युद्ध कर रहे हैं। सहसा उन्होंने युद्ध करना बन्द कर दिया। अर्जुन की वाण-वर्षा जारी है। अर्जुन के रथ पर शिखण्डी भी आरूढ़ हो गया है। वाण-विद्ध होकर शर-सय्या पर ही भीष्म लेट जाते हैं। द्रोणाचार्य भी प्रलयकारी युद्ध करते-करते युद्ध भूमि में ही युद्ध से विरत होकर मृत पड़े हैं। कर्ण का रथ लाशों के ढेर में उलझकर फैंस गया है। रथ से उतरकर वह पहिया हाथ से उठा रहा है। इतने में अर्जुन का गाण्डीव एक वाण छोड़ देता है जिससे घायल होकर वह भू-लुण्ठित हो जाता है। भीम के द्वारा दुर्योधन के सभी भाई काल-कवलित हो जाते हैं । षड्यन्त्रकारी शकुनी भी मारा जाता है। दुर्योधन का उरु भङ्ग हो जाता है। सर्वत्र लाशों का अम्बार लगा होता है। पाण्डवी सेना के भी अनेक वीरों का लहूलुहान शव युद्ध-भूमि पर विखरा है। सात्यकि द्वारा भूरिश्रवा भी आहत होकर गिर पड़ता है। इस प्रकार से अर्जुन सब कुछ अपनी आँखों के सामने अघटित घटना को देखकर दंग रह जाता है। आगे का दृश्य अर्जुन से देखा न जा सका। उसने अपने नेत्र बन्द कर लिये। हाथ जोड़कर श्रीकृष्ण से वह बोला-हे जगत के सृजक, पालक और संहारकर्ता मैं आपको बारम्बार प्रणाम करता हूँ। मैं आपका शिष्य हूँ। आप जो निर्देश करेंगे, वही मैं करूंगा। अज्ञानता के कारण मैंने मिथ्या अहंकार किया। मुझको आत्मीय समझकर क्षमा कर दें। मनुष्य अपने कर्म-बन्धन से जकड़ा हुआ है। भवितव्यता उसे अपने इंगित पर नर्तन कराती है। हम सभी नियति के वशीभूत हैं।
          अर्जुन की बात सुनकर हषीकेश मुस्कुराने लगे। हे पार्थ! हमारा-तुम्हारा सम्बन्ध जन्मान्तर का है। हमारे अनेक जन्म हो चुके हैं। बस इतना ही अन्तर है कि तुम उनको भूल गये हो और मैं सब जानता हूँ। असंग मनसा अपना निर्धारित कृत्य सम्पन्न करो। तुम्हारे दोनों हाथ में लड्डू है। मारे जाने पर स्वर्ग की प्राप्ति होगी और जीतने पर राजसुख मिलेगा। सृष्टि का यही विधान है। सृजन, पालन और संहार यह जगन्नियंता का अभियान है। इससे विमुख होना पलायन होगा। हम कर्तव्य मात्र का पालन कर रहे हैं। न कोई किसी को
मारता है और न कोई मरता है। अज्ञानता के सभी शिकार हैं। नवीन परिधान की तरह शरीरान्तरण मात्र होता है। आत्मा नित्य है। यह अजर है। गुण-कर्म का फल शरीर तक ही सीमित है। आत्मा का इससे कुछ भी लेना-देना नहीं है। जीव ईश्वर का ही अभिन्न अंग है। सम्प्रति युद्ध करना ही तुम्हारा सर्वोत्तम धर्म है।
          श्रीकृष्ण द्वारा उत्साहित अर्जुन का मोह-भङ्ग हो जाता है। वह युद्ध भूमि में देवदत्त-शंख पूर्ण रूप से फेंक देता है। शंखनाद सुनकर कौरवों का दिल दहल उठता है। पाञ्चजन्य की ध्वनि से श्रीकृष्ण ने भी वैरियों को चुनौती दे
डाली। भीम और अन्य योद्धाओं ने अपना-अपना शंखनाद करके युद्ध की घोषणा पर मुहर लगा दी। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य ने भी युद्धभूमि में अपना शंखनाद करके युद्ध प्रारम्भ कर दिया। दोनों तरफ के योद्धा अपने-अपने समान योद्धा से द्वन्द युद्ध करने लगे।
          भीष्म से अर्जुन का सामना हुआ और आचार्य द्रोण से धृष्टद्युम्न जूझने लगा। सात्यकी ने कृपाचार्य पर बाणों की झड़ी लगा दी। भीम ने दुःशासन पर गदा युद्ध कर उसे बुरी तरह घायल कर भागने पर विवश कर दिया। महाराज | युधिष्ठिर ने मद्र नरेश पर आक्रमण बोल दिया। दुर्योधन को सामने पाकर महाराज द्रुपद का खून खौल उठा। इन्होंने दुर्योधन पर जोरदार हमला किया। बचाव में उसने भी अपने युद्ध कौशल का परिचय देते हुए भीषण युद्ध किया। शकुनी पर सहदेव ने आक्रमण करके उसे तबाह करने की पूर्ण कोशिश की।
इस प्रकार दिन भर भयानक युद्ध चलता रहा। अनेक योद्धा दोनों ओर से लड़ते हुए वीर-गति को प्राप्त हो गये। पितामह भीष्म ने युद्ध में बहुत ही अनमनस्कता से भाग लिया। उन्होंने अपने हाथों पाण्डवी सेना के दस हजार सैनिकों को मौत के घाट उतारकर युद्ध विराम की घोषणा कर दी। दोनों ओर की योद्धाओं की अन्त्येष्टिक क्रियाएँ सम्पन्न की गयीं।
          आज दोनों ओर के योद्धाओं के अन्त्येष्टि में उभयत: एक दूसरे में सम्वेदनशील दिखे। महाराज युधिष्ठिर पर इसका सर्वाधिक प्रभाव दृष्टिगोचर हुआ। उन्होंने कहा कि आज सम्पूर्ण आर्यावर्त में मेरा कुल सदैव स्मरणीय रहेगा कि अपने निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर कुरुवंश ने विश्व युद्ध करके समस्त वीरों की आहुति दे दी। लोग हमारे ऊपर कलंक का टीका लगायेंगे। हमारे पूर्वजों की आत्माएँ हम पर आक्रोश कर विपत्ति की वर्षा करेंगी । हम विवश हैं। हठी दुर्योधन के सामने सभी विवश हैं। जब कालजयी भीष्म पितामह कुछ नहीं कर सकते तो हम भला उनके सामने बच्चे हैं। काल-चक्र निरन्तर गतिमान है। हम सभी काल के विकराल मुख के पथिक हैं। कुछ तो जा चुके और शेष अपने कर्मों के फल भोगते हुए जाने की तैयारी में हैं। आखिर नियति-नटी हमें अपने इंगित पर नचाने में सफल हुई। आगे हरि कृपा। हम क्या कर सकते हैं ?
          दूसरे दिन भीष्म पितामह ने शकट-व्यूह में लड़ने की योजना बनाकर पाण्डवी सेना को बहुत हानि पहुँचाई। वे महाकाल की तरह प्रलयंकर युद्ध करके मानों आज ही युद्ध समाप्त कर देना चाहते हैं। यह देखकर श्रीकृष्ण ने अपना रथ भीष्म की ओर सरपट दौड़ा दिया। अकस्मात् श्रीकृष्ण को देखकर भीष्म ने अर्जुन पर भयंकर हमला बोल दिया। अर्जुन ने उनको वाणों से प्रत्युत्तर दिया। अर्जुन की वाण-वर्षा देखकर भीष्म अत्यन्त मुदित मन से उनका निवारण कर देते । मानो वे अपने प्रपौत्र को धनुर्वेद सिखा रहे हों। आज भी पाण्डवी सेना के दस हजार सैनिकों को मारकर ही भीष्म ने युद्ध- विराम किया। सायंकाल धर्मयुद्ध का पालन करते हुए दोनों तरफ के विशिष्ट व्यक्तियों के अन्त्येष्टि में उभय पक्ष के लोग सम्मिलित हुए। सन्ध्यादिक क्रिया सम्पन्न करके अपने-अपने शिविर में जाकर सभी ने विश्राम किया। प्रातः सन्ध्यावन्दन के उपरान्त दोनों तरफ की सेनाएँ आमने-सामने आकर अपने उपयुक्त योद्धाओं के साथ युद्ध प्रारम्भ कर दिया।
          इस बीच महाबली भीम के हाथों दुर्योधन के अनेक भाइयों की मृत्यु हो गयी। युद्धभूमि में पवन-पुत्र की वीरता का प्रदर्शन देखकर दुर्योधन स्वयं उससे आ भिड़ा। उसे देखते ही भीम का आक्रोश प्रबल हो उठा। उसने अत्यन्त वेग से वाणों की वर्षा प्रारम्भ कर दुर्योधन को अप्रत्यासित रूप से भागने पर विवश कर दिया। रणभूमि से हटकर उसने नकुल पर अपना क्रोध प्रकट करते हुए वाण-बरसाना प्रारम्भ कर दिया। नकुल ने बड़े धैर्य से दुर्योधन का सामना किया। इतने में श्रीकृष्ण ने दूर से ही देखा कि नकुल युद्धभूमि में थक चुका है। उन्होंने पार्थ को इंगित किया। इतने में अकस्मात् गाण्डीव से वाणों की झड़ी लग गयी। नकुल को छोड़कर दुर्योधन ने अर्जुन से युद्ध प्रारम्भ कर दिया। थोड़ी ही देर में उसे पार्थ ने रणछोड़ बना दिया। आज हर मोर्चे पर दुर्योधन को विफलता हाथ लगी। उसने द्रोणाचार्य पर अपना क्रोध उतारते हुए कहा-आचार्य आप भी पितामह भीष्म की तरह क्या प्रतिज्ञाबद्ध होकर युद्ध कर रहे हैं। सभी पाण्डव आपके रहते हुए स्वच्छंद विचरण कर रहे हैं जबकि मेरे कई भाई काल-कवलित हो गये। इस तरह युद्ध चलेगा तो पाण्डव युद्ध की बाजी यों ही जीत जायेंगे। पाण्डवों की निरीह सेना को सूखी डण्ठल की तरह काटना मुझे स्वीकार नहीं है। मैं पाण्डवों की मृत्यु चाहता हूँ। आचार्य आज मुझे भी अर्जुनके हाथों पराजय से काफी खेद हुआ है।
          मुझे धिक्कार है। मेरे सामने मेरे अनेक भाई पिशा, भीमसेन के द्वारा अकाल मौत मारे गये। मेरा वश चलता तो मैं वृकोदर भीम को मारकर अपने भाइयों को श्रद्धाञ्जलि प्रदान करता। किन्तु उसने मुझे भी अपने क्रोधानल में पूँजने का प्रयास किया। उससे बदला लेने के लिए ही मैं अपना जीवन बचाकर (शेष) रखा हूँ। अवसर मिलने पर मैं उसे अवश्य ही यमराज का अतिथि बनाना चाहता हूँ। अर्जुन वीर होते हुए भी नृशंस नहीं है। अर्जुन ने युद्ध में दुर्जेय योद्धाओं को परास्त करके अवश्य ही मुझे अपूरणीय क्षति पहुँचाई है, तथापि मेरे अनुजों का वध कर भीम ने मेरी तड़पन को अत्यधिक उद्दीप्त कर मुझे मर्माहत किया है। इस असह्य ज्वाला की दाहकता से आचार्य मात्र आप ही मुझे निजात दे सकते हैं। मैं आपकी शरण में हूँ। मेरा आप उद्धार करें।
           दुर्योधन की व्याकुलता देखकर आचार्य ने उसे उत्साहित करते है रणनीति का गुर सिखाया। युद्ध में सह और मात चलती रहती है। योद्धा को इससे घबराना नहीं चाहिए। उचित अवसर की प्रतीक्षा करके ही निर्णायक युद्ध जीता जा सकता है। इतने में शाम हो गयी। पितामह ने युद्ध विराम का शंखनाद कर दिया।
          सभी अपने-अपने शिविर में आकर आवश्यक कार्यों का सम्पादन करने लगे । सुस्थिर होने पर दूसरे दिन की रणनीति पर परिचर्चा प्रारम्भ हुई। आज भी भीष्म ने पाण्डव-सेना के दस हजार सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। कृपाचार्य एवं गुरुपुत्र अश्वत्थामा ने भी पाण्डवी सेना का खूब संहार किया। द्रोणाचार्य ने भी अपने मोर्चे पर पाण्डवों को हानि पहुँचायी। उधर दुर्योधन ने
आज भीष्म के शिविर में जाकर अपना रोष प्रकट किया। पितामह ने भी रोषपूर्वक उत्तर दिया और बोले--पाण्डवों से वैर लेते समय तुमने कभी मुझसे परामर्श नहीं किया। सम्प्रति परिणाम देखकर अपना सन्तुलन क्यों बिगाड़ रहे हो? युद्ध में तो मरना-जीना लगा रहता है। वीरों को इसकी चिन्ता छोड़कर युद्ध करना चाहिए। पाण्डवों का कहीं अन्याय नहीं दिखाई पड़ता। वे न्यायपूर्वक अपने हक के लिए लड़ रहे हैं। यह जानकर भी अपनी प्रतिबद्धता के लिए हम तुम्हारे पक्ष में युद्ध कर रहे हैं। तुम मुझे दोष न दो। हमारे लिये ही कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा प्रभृति लोग ब्राह्मण वृत्ति का भी परित्याग कर इस महासमर में तुम्हारा साथ दे रहे हैं। अब तुम जाओ,
स्वस्थ होकर कल के युद्ध की तैयारी करो। जिस तरफ धर्म है, जिस तरफ योगेश्वर कृष्ण हैं उधर का पलड़ा भारी रहेगा ही। हम पूरी तरह से कोशिश कर रहे हैं।
          इसके पश्चात् अगले दिन भीष्म ने इस प्रकार की व्यूह रचना की जिसमें | द्वन्द्व युद्ध करते हुए किसी दूसरे की सहायता की गुंजाइश नहीं थी। द्रोणाचार्य को उत्तरी कमान सँभालने का निर्देश हुआ। पश्चिमी छोर पर कृपाचार्य अपने | अतुलित पराक्रमी भाग्नेय अश्वत्थामा की सहायता से शत्रु-सेना से लोहा ले रहे थे। पूर्वी भाग में हिमालय की तरह अडिग होकर स्वयं पितामह भीष्म महासंग्राम करते हुए सैन्य-निर्देशन कर रहे थे। मध्य भाग में अतिरिक्त सेना दुर्योधन के नियन्त्रण में समय-समय पर सबकी सहायता के लिए उपलब्ध थी।
          पाण्डवों की तरफ से आज भीमसेन और सात्यकी ने पितामह भीष्म से भयंकर युद्ध किया। द्रोणाचार्य ने अर्जुन को सम्बोधित करके कहा कि--पार्थ आज मेरी युद्ध-पिपासा तुम शान्त करो। 'जैसी आज्ञा' कहते हुए अर्जुन ने गाण्डीव से वाणों की वर्षा करते हुए द्रोणाचार्य का रथ ढक दिया। क्षण भर में ही आचार्य ने इससे उपरत होकर पार्थ को काफी परेशान करके हतप्रभ कर
दिया। श्रीकृष्ण ने कहा-धनञ्जय ! आज गुरुदेव को थकाना तुम्हारे लिए सम्भव नहीं है। अत: इस समय यहाँ रुकना ठीक नहीं। इसके साथ ही माधव ने रथ पश्चिम दिशा में मोड़ दिया। रणभूमि से खिसकते देखकर द्रोण ने कहा अर्जुन ! मैंने तो सुना था कि प्रतिपक्षी को बिना हटाये तुम युद्ध भूमि से नहीं हटते। अभी तो मेरी इच्छा तुमसे युद्ध करने की प्रबल है। मुझे सन्तुष्ट किये बिना तुम कहाँ भाग रहे हो? अर्जुन वापस आना चाहता था, किन्तु माधव ने कृपाचार्य के सम्मुख कपिध्वज को पहुँचा दिया। अप्रत्याशित रूप से अपने
सामने अर्जुन को देखकर कुलगुरु ने पहले असहज हुए बिना बाण बरसाते हुए अश्वत्थामा की ओर भेदभरी दृष्टि से देखा। थोड़ी देर में ही अश्वत्थामा ने आकर अर्जुन से भीषण संग्राम प्रारम्भ कर दिया। आज पिता-पुत्र दोनों ने ही अर्जुन को काफी परेशान किया। यहाँ भी दाल गलती न देखकर माधव ने अपने घोड़ों को सरपट भीड़ की ओर दौड़ा दिया। अर्जुन को देख शत्रु सेना में खलबली मच गयी। वीरों के रुण्ड-मुण्ड कटकर बिखरने लगे। द्रोण से सताये गये पार्थ को तबाही मचाते देखकर दुर्योधन ने भीष्म के पास जाकर पूछा-इस समय पार्थ को रोकना आवश्यक है। सेनापति से निर्दिष्ट होकर दुर्योधन ने चुनिन्दा सेना को साथ लेकर अर्जुन के सामने भयंकर अवरोध खड़ा कर दिया। अर्जुन ने अकस्मात् दुर्योधन के ऊपर धावा बोल दिया। भयंकर संग्राम प्रारम्भ हो गया।
          अर्जुन को अपने ऊपर आक्रमण करता देखकर दुर्योधन ने अत्यन्त पराक्रम का परिचय दिया। उसने अर्जुन को उत्तेजित करने के लिए कहा-पार्थ! तुम अपने को अजेय मानते हो, किन्तु मैंने आज प्रत्येक मोर्चा पर विफल होकर तुम्हें भागते देखा है। आज मैं भी तुम्हें उसी तरह रणभूमि में विवश देखकर आनन्दित होना चाहता हूँ। यह कहकर उसने बड़े वेग से अर्जुन पर बाण बरसाना प्रारम्भ कर दिया। अर्जुन ने क्षण मात्र में वाण वर्षा कर दुर्योधन को निरुत्तर कर दिया। गाण्डीव की वाण-वर्षा के आगे दुर्योधन अधिक समय तक सका। उसको विपत्ति में देखकर अश्वत्थामा ने आकर पुन: अर्जुन के साथ भयंकर युद्ध करके दुर्योधन को सुरक्षित हटने का अवसर प्रदान किया। अर्जुन और गुरुपुत्र में घोर संग्राम छिड़ गया। दोनों ही अतुलनीय योद्धा थे। उनके परस्पर वाण-वर्षा से चकित होकर आसपास के धनुर्धर क्षण भर रुक  कर अदभुत रण-कौशल को निहारने लगे। माधव ने निरपेक्ष भाव से दोनों को अदभूत रणकौशल की भूरि-भूरि प्रशंसा की। आज दोनों तरफ से काफी लोग मारे गये । शाम तक सभी थक चुके थे। बार-बार सूर्य की ओर देखना यह प्रमाणित करता था कि उभयतः युद्ध विराम की कामना की जा रही थी। पश्चिम में सूर्यास्त की वेला जानकर महात्मा भीष्म ने लड़ाई बन्द करने की घोषणा कर दी। दोनों ही सेनाएँ अपने-अपने शिविर जाकर विश्राम करने लगीं।
          आज पाण्डवों की अधिक क्षति हुई। दुर्योधन आज काफी संतुष्ट था। अपने मित्रों के साथ वह युद्ध की परिचर्चा में व्यस्त रहा। श्रीकृष्ण से युधिष्ठिर ने पूछा-माधव इस तरह युद्ध का परिणाम अपने पक्ष में कैसे सम्भव हो सकता है ? पितामह भीष्म तो मानों बर्बर सिंह की तरह हमारी सेना का सर्वनाश ही कर डालेंगे। भीम की भी काफी दुर्गति हुई। भीष्म ने आज उनका गर्व चूर्ण कर दिया। कई बार पितामह ने भीम को जीवन-दान.दिया। आज पाण्डवों की शिविर में काफी उदासी थी। इस प्रकार आज भीषण-संग्राम का आठवाँ दिन समाप्त हो गया। सभी अपने सन्ध्यादिक कार्य से निवृत्त होने चले गये। रात के १० बजे माधव ने अर्जुन को साथ लेकर भाष्म के शिविर में प्रवेश किया। पितामह विश्राम कर रहे थे। अर्जुन ने चरण-स्पर्श किया। आँखे मूंदे ही दुर्योधन समझकर पितामह ने विजयी होने का आशीर्वाद दिया। माधव ने हाथ जोड़कर प्रणाम करते हुए कहा-उसी उपाय जानने पार्थ आपकी शरण में आये हैं। कृपया इनका मनोरथ पूर्ण श्रीकृष्ण की बात सुनकर भीष्म हाथ जोड़कर अभिवादन करते खड़े हो गए ।
          परस्पर अभिवादन करके सभी आसन ग्रहण करके सुस्थिर हुए। श्रीकृष्ण ने पितामह के अद्वितीय पराक्रम की भूरि-भूरि प्रशंसा की। उन्होंने भी आज भीम के साथ हुए युद्ध में उसके पराक्रम को रेखांकित किया। थोड़ी देर तक युद्ध-विषयक चर्चा होती रही। श्रीकृष्ण ने कहा-अभी आपने अर्जुन को विजयी होने का आशीर्वाद दिया है। अब कृपाकर बताइये कि विजय कैसे मिलेगी? इस पर तुरन्त ही भीष्म ने कहा मेरे रहते विजय असम्भव है। इसी तरह युद्ध को चलना है। अभी तो आपकी प्रतिज्ञा भी मुझे भङ्ग करानी है। आपके हाथों में हथियार उठवाकर मुझे वीर गति प्राप्त करनी है। इसी शर्त पर पार्थ को विजय मिल सकेगी। इस प्रकार परिहास होता रहा। माधव ने हाथ जोड़कर पितामह भीष्म से निवेदन किया-आप जैसे पूज्य मनीषी के लिए क्या दुर्लभ है। मैं तो आपके सामने बालक ठहरा। भला आप जैसे अजेय दुर्द्धर्ष वीर योद्धा को मेरे द्वारा मारना कैसे सम्भव हो सकता है?
भीष्म का ( इच्छा-मृत्यु का) कवच
श्रीकृष्ण का विनोद सुनकर भीष्म ने कहा-माधव ! मुझे मत बताइये कि आप बालक हैं और मैं वृद्ध। आप जगत-पितामह के भी पिता हैं । सम्पूर्ण सृष्टि आपकी विलास-लीला है। आप विधि-हरिहर को भी आश्चर्यचकित करने वाले हैं। मुझे सम्मान देना आपका अनुग्रह है। आपका गौरव मुझसे छिपा नहीं है। मैं आपको निराश नहीं कर सकता। मुझे मारे बिना पार्थ को विजय आप नहीं दिला पायेंगे। मेरे इच्छा के विपरीत मुझे मारना असम्भव है।
मैं अपना एक रहस्य बताता हूँ। मेरी पितृ-भक्ति जग-जाहिर है। मेरे जीवन में भाता-पिता से बढ़कर कोई प्रत्यक्ष देवता नहीं है। मैंने मन, कर्म एवं वाणी से सर्वथा इनको संतृप्त किया है। इनका आशीर्वाद मेरे जीवन का पाथेय है। माता गंगा यद्यपि जगत-जननी हैं, किन्तु मेरे ऊपर उनकी असीम कृपा है। वे प्रत्यक्षतः पिता का राज-प्रासाद त्यागकर भी मुझे कभी न त्याग सकीं। मेरे पिता शान्तनु मुझे अत्यन्त प्यार करते थे। मेरे लिए उन्होंने माता सत्यवती को अन्त:करण से चाहते हुए भी स्वीकार नहीं किया। वापस लौटकर मन वहीं छोड़ दिया। अनमनस्क रूप में राजकाज देखते हुए अपना अशेष दुलार मुझपर न्योछावर करते। मैं उनकी आत्मा हूँ। मुझे यह रहस्य जानते देर नहीं लगी कि मेरे असीम प्यार के चलते गंगा समान पत्नी का परित्याग करने वाला राजर्षि का मन क्यों क्षुभित है? सुमन्त के साथ जाकर मैंने अपने नाना दासराज से सत्यवती माता का हाथ उनकी शर्त पर अपने पिता के लिए माँग लिया। समाचारों से अवगत होकर पिताजी अत्यन्त दुखी हुए। मेरे ऊपर उनका स्नेह दिनोंदिन प्रगाढ़ होता चला गया। विचित्रवीर्य एवं चित्रांगद नाम के दो अनुजों सहित माता सत्यवती का दायित्व मुझपर छोड़ वे स्वर्गवासी हो गये।
          राजकुमारों की शिक्षा-दीक्षा एवं राजकाज का सम्यक् निर्वहन करते हुए मैंने माता सत्यवती को भी अपनी माता का सम्मान दिया। समय धीरे-धीरे व्यतीत हो गया। देव-तर्पण के साथ ही मेरा नित्य पितृ-तर्पण एवं ऋषि-तर्पण अजि तक जारी है। एक बार पितृपक्ष में पिताजी की श्रद्ध-तिथि का पार्वण कर रहा था। मैं जैसे ही पिण्ड का पूजन करके कुश पर रखने जा रहा था कि पिता का हाथ प्रत्यक्ष मेरे सामने आ गया। मैंने तुरन्त ही उन्हें पहचान लिया। आकाशवाणी के माध्यम से पिताजी स्वयं बोले-'हे पुत्र मेरे हाथ पर
पिण्ड रख दो।' पिताजी का आदेश सुनकर मैं असमंजस में पड़ गया कि पिण्डा कुश पर रखें अथवा हाथ पर। थोड़ी देर में विचार कर मैंने मंत्रपूर्वक पिण्ड विकीर्ण कुश पर ही रख दिया। उसे देखकर मुझसे पिताजी बोले-हे वत्स ! तुम धन्य हो। तुम्हारी शास्त्र निष्ठा अटूट है। मेरे स्नेह के कारण तुमने अपना जीवन दाँव पर लगा दिया। आज शास्त्र-वचन की मर्यादा से आबद्ध होकर मेरे हाथ पर पिण्ड-दान नहीं कर रहे हो। मैं तुम्हें इच्छामृत्यु का वरदान देता हूँ। जब तक तुम चाहो इस पृथ्वी पर सुखपूर्वक विचरण करते हुए जीवनयापन करो। यह कहते हुए पिताजी श्राद्ध-ग्रहण करके अपने लोक चले गये।
          तबसे मैं इच्छामृत्यु का कवच लेकर इन अनहोनियों को देख रहा हूँ। हस्तिनापुर की प्रतिष्ठा को अपने जीवन में धूल-धूसरित होने से बचाने के लिए एक से बढ़कर एक अनर्थ का साक्षी बनता जा रहा हूँ। मैंने जीवन में पाने की अपेक्षा खोया बहुत है। भगवान परशुराम जैसे गुरु को खोना मेरे लिए अपूरणीय क्षति है। वचन-भङ्ग का प्रायश्चित मुझे न करना पड़े, इसीलिए मैंने अनेक असहनीय विपत्तियों को झेला है। मैं जानता हूँ कि कुलगुरु कृपाचार्य,द्रोणाचार्य एवं अश्वत्थामा जैसे निर्विवाद लोग भी मेरे संकोच से इस महासमर
में अपने जीवन की बाजी लगा रहे हैं। मैंने जीवन-मूल्यों से अपने हित में कभी समझौता नहीं किया। अपने जीते जी हस्तिनापुर की प्रतिष्ठा पर आँच नहीं आने दूंगा, यह मेरी प्रतिज्ञा है। दुर्योधन, शकुनी एवं कर्ण की परवाह मैं नहीं करता। राजा धृतराष्ट्र के प्रति मेरा समर्पण है। उक्त लोग धतराष्ट्र की कमजोरी है। मैं इस युद्ध को अनिच्छा से लड़ रहा हूँ। यह आप भी जानते हैं।
          श्रीकृष्ण जी महात्मा भीष्म की बात सुनकर बोले-पितामह ! यदि आपको अपने वचन की इतनी परवाह है तो अभी आपने अर्जुन को भी विजयी होने का वरदान दिया है। इसके लिए भी आपको ही कोई उपाय निकालने की मैं प्रार्थना करता हूँ। आशा है आप मुझे निराश नहीं करेंगे। भीष्म ने हँसते हुए कहा-आपका मुझ पर अमित स्नेह है, तभी मुझे इतना गौरव देते आप कभी अघाते नहीं है। इसका सरल उपाय है। युद्ध भूमि में जब तक मैं अपना हथियार नहीं डाल देता, तब तक पार्थ की विजय असम्भव है। मैंने किसी स्त्री पर अपना अस्त्र नहीं उठाने की शपथ ली है। अगर कोई स्त्री युद्धभूमि में मेरा सामना करेगी मैं अपना धनुष नहीं चला सकता। अब मुझे विश्राम करने दें। आप लोग भी कल की तैयारी करें। श्रीकृष्ण को विदा कर भीष्म पितामह लेटकर युद्ध की विभीषिका पर मंथन करने लगे। कब नींद आयी। इसका उन्हें स्वयं ज्ञान नहीं हुआ। ब्राह्म मुहूर्त में उठकर सन्ध्यादि कार्य सम्पन्न करके युद्ध भूमि की साज-शय्या में लग गये। अग्रिम युद्ध करने के लिए शिविर का परित्याग करके समरभूमि की ओर चल पडे। रात्रि में हो। महाराज दुर्योधन के गुप्तचरों ने सूचना दी कि अभी-अभी अर्जुन को साथ लेकर माधव को पितामह की शिविर में जाते देखा गया है। इस समाचार कुरु श्रेष्ठ का अन्र्तमन अत्यन्त उद्विग्न हो उठा। रात भर वह सो नहीं सका। विचारों का अन्र्तद्वन्द्व चलता रहा और उसे आत्मग्लानि भी होने लगी। मैं अपना और अपने भाइयों का दुश्मन बन गया। पितामह तो हमेशा ही पाण्डु के हितैषी थे। मैंने अनायास ही उन्हें अपना समझकर इस महासंग्राम की कमान उनके हाथों में सौंप दी। अब तो जो होगा होकर ही रहेगा। युधिष्ठिर के किसी भाई का कुछ भी अनिष्ट नहीं हुआ। मेरे अनेक भाई काल-कवलित हो चुके। इसका खुलासा तो पितामह ने पहले ही कर दिया था। मैं पाण्डवों का वध अपने हाथों नहीं करूंगा। कर्ण का मुझे पूर्ण विश्वास था। वह भी पितामह के कारण मेरी कोई मदद नहीं कर सका। इस बीच सवेरा हो गया।
श्रीकृष्ण द्वारा हथियार उठाना ।
          आज युद्ध का नवाँ दिन था। दुर्योधन प्रात: उठकर भीष्म के पास जाकर अमर्षपूर्वक बोला-पितामह आपका पाण्डवों के प्रति प्रेम जग-जाहिर है। युद्धकाल में भी उन्हें आपका परामर्श प्राप्त हो रहा है। मैं इससे अत्यन्त निराश हैं। भीष्म ने आग्नेय दृष्टि से देखते हुए दुर्योधन से कहा--मुझे क्या करना है, तुमसे निर्देश लेना पड़ेगा? मैं आज निर्णायक युद्ध करूँगा। यह कहकर भीष्म ने युद्ध-भूमि पहुँच आज की दुर्गम व्यूहरचना प्रारम्भ की। आज भूखे-बाघ की भाँति भीष्म का आभामण्डल दमक रहा था। आज कपिध्वज का सामना पड़ते ही भीष्म ने घोर गर्जना को-माधव! आज मैंने प्रण किया है कि आपसे युद्धभूमि में अस्त्र उठवाकर रहूँगा; अन्यथा आज पार्थ का वध करके अपना परमार्थ नष्ट कर लूंगा। यदि आप पार्थ को युद्ध में विजय दिलाना चाहते हैं तो आपको स्वयं मुझसे युद्ध करना होगा।
          आज भीष्म का भयानक युद्ध प्रारम्भ हुआ। अर्जुन ने एकाग्रतापूर्वक उनका सामना किया। भीष्म के आगे अर्जुन का हस्तकौशल काम नहीं आ रहा था। उनके एक-एक करके सारे वाण विफल हो रहे थे। माधव ने रथ को आग बढ़ाया। भीष्म ने उस ओर से भी अर्जुन को घेर लिया। पुन: युद्ध ने जोर पकड़ लिया। आजका घनघोर युद्ध देखकर लोगों को परशुराम के साथ युद्ध का स्मरण हो रहा था। भीष्म ने वाणों की वर्षा करके अर्जुन का रथ ही ढँक दिया। श्रीकृष्ण ने अर्जुन की तरफ कई बार संकेत करके निर्णायक युद्ध करने को प्रेरित किया। भीष्म ने आज सचमुच संहारक महाकाल का रूप धारण कर लिया। गाण्डीव की प्रत्यञ्चा भीष्म ने कई बार काट डाली । पुनः पुनः उहे धनुष पर डोरी बाँधना पड़ रहा था। गाण्डीव से आज वाण ही नहीं निकल पा रहे थे। भीष्म का यह अद्भुत रण-कौशल अर्जुन ने आज तक नहीं देखा था उन्हें युद्ध में अपनी पराजय स्पष्ट दिखाई देने लगी। भीष्म के वाणों ने अर्जुन का शरीर क्षत-विक्षत कर डाला। उनका सम्पूर्ण शरीर रक्तरंजित हो उठा।
          आज युधिष्ठिर को देवदत्त शंखनाद नहीं सुनाई पड़ रहा था। कभी-कभी पाञ्चजन्य अवश्य बज उठता था। अर्जुन को किसी विपत्ति में फँसा जानकर युधिष्ठिर ने सेनापति धृष्टद्युम्न के पास जाकर अपनी चिन्ता जताई। सेनापति ने महाराज को आश्वस्त किया-आप निश्चिंत रहें, श्रीकृष्ण के रहते हए अर्जुन का कोई बाल बाँका नहीं कर सकता। आप अपने मोर्चे पर डटे रहें। वहाँ आपको न देखकर लोगों का सन्तुलन बिगड़ सकता है। वापस आकर युधिष्ठिर युद्ध करने लगे। पुनः पाञ्चजन्य का घोष उनके कर्ण-कुहर में गूँजने लगा। धर्मराज बेचैन हो उठे। निश्चय ही आज मेरा प्रिय अर्जुन किसी भयानक विपत्ति में पड़ गया है। मैंने सभी भाइयों से युद्धभूमि में अपनी शंख बजाकर अपना कुशल देते रहने का निर्देश दिया था। अर्जुन ने एक बार भी अपना शंख नहीं फेंका। मुझे ऐसी आशंका हो रही है कि अर्जुन को कुछ हो गया। भगवान वासुदेव अकेले ही लड़ रहे हैं। मुझे धीरज बँधाने के लिए कभी-कभी अपना पाञ्चजन्य बजा देते हैं।
          व्यथित मन युधिष्ठिर सात्यकि के पास पहुँचे । भरे गले से उन्होंने कहा- हे धनुर्धर श्रेष्ठ! तुम्हारे गुरु अर्जुन आज किसी भयावह स्थिति में पड़ जाने से अपना देवदत्त बजाकर मुझे आश्वस्त नहीं कर पा रहे हैं। मेरा आदेश है कि युद्ध भूमि में अपना रण-कौशल दिखलाते हुए अर्जुन के पास पहुँचकर अपनी शंख ध्वनि कर उनका कुशल मङ्गल देकर मुझे आश्वस्त करो । सात्यकि ने विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हुए अर्जुन जहाँ युद्ध कर रहे थे उस ओर प्रस्थान किया। अगणित सैन्य समूह का भेदन करने में उसे काफी समय लग गया। इधर घण्टों की प्रतीक्षा करके धर्मराज की चिन्ता और बढ़ने लगी । उन्होंने अतुलित बलशाली अनुज भीमसेन जो कि उन्हीं की रक्षा में नियुक्त थे, के पास जाकर कातर मन से अपनी व्यथा कह सुनाई। भीम ने भी श्रीकृष्ण की रक्षा कवच के रहते हुए अर्जुन सुरक्षित है कहकर युद्ध जारी रखा। किन्तु  युधिष्ठिर का म्लान मुख देखकर अपने पुत्र घटोत्कच को बुलाकर धर्मराज की रक्षा-भार सौंप कर स्वयं अर्जुन के रण-स्थल की ओर चल पड़े। गज-सेनाओं के गजघटा को विदारित करते हुए पैदल ही गदा लेकर अर्जुन को तलाशते हुए आगे बढ़ने लगे। अथक परिश्रम के पश्चात् भीम ने दूर से ही भीष्म से जूझते हए अर्जुन को देखा। भीम ने सिंहनाद किया जिसे सुनकर धर्मराज ने राहत की साँस ली। भीम ने युद्ध करते हुए दुर्योधन के अनेक भाइयों को आज फिर यमराज का अतिथि बनाया।
          इधर अर्जुन ने भी दिव्यास्त्रों का प्रयोग करके भीष्म के प्रहार को कुछ कमजोर किया। अर्जुन को लक्ष्य करके भीष्म द्वारा प्रक्षेपित वाणों से अनिच्छित-व्रण से माधव भी बच नहीं सके। भीष्म तो आज जैसे थकने का नाम नहीं ले रहे थे। नित्य-नूतन उर्जा से भरकर अर्जुन को कहीं निकलने का अवसर नहीं दे रहे थे। श्रीकृष्ण बारम्बार अर्जुन की तरफ रहस्यमय दृष्टि से देखते और कहते पार्थ कैसे लड़ रहे हो? सँभलकर क्यों नहीं लड़ते। आज पितामह से तुम्हें लड़ना ही होगा। मध्याह्नकालीन सूर्य की तरह देदीप्यमान भीष्म ने
व्यंग्यपूर्वक मुस्कुराते हुए माधव से कहा-वासुदेव! अपने प्रिय सखा की विजय यदि सचमुच में आप चाह रहे हैं तो उठा लीजिये हथियार। मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण हो जायेगी। आपके हाथों मरकर मैं अपना लोक-परलोक दोनों ही सँवार लँगा। माधव भी अपनी कुटिल मुस्कान नहीं रोक सके। भीष्म ने अपना युद्ध और भयानक कर दिया। उनके लक्ष्य से अर्जुन का अभेद्य कवच शत-विक्षत होकर टूट गया। कवचहीन-वक्ष भीष्म के भयंकर वाणों से विंधने लगा।
पार्थ का शरीर वाणों के प्रहार से आज सुमेरु पर्वत की तरह आभासित हो रहा था। उनकी दयनीय दशा देख माधव अत्यन्त ही व्यथित हुए। गाण्डीव प्रत्यञ्चा फिर कट गयी। अर्जुन के हाथों से पुनः डोरी कसकर बाँधी नहीं जा रही थी। उन्हें मूच्र्छा आने को हुई। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ में सहारा देकर बैठा दिया। रथ रोककर स्वयं हाथ में टूटा हुआ रथ का पहिया लेकर अत्यन्त वेग से भीष्म पर प्रहार करने दौड़ पड़े। श्रीकृष्ण की जय कहते हुए भीष्म ने जोर से अपना शंख बजा दिया। शंखनाद सुनकर चारो ओर नीरवता छा गयी। हाथ जोड़कर भीष्म बोले -बस बासुदेव ! मेरी विजय हो गयी। अपने प्रहार से मेरा मस्तक छिन्न कर दीजिये। हे भक्तों के भगवान ! सचमुच आप धन्य हैं।भक्तों के लिए आप अपनी प्रतिज्ञा भी भङ्ग करते हैं। तब तक चैतन्य होकर अर्जुन ने श्रीकृष्ण को अपने बाँहों से आबद्ध करके रथ पर वापस बैठाया। सावधान होते हुए उन्होंने अर्जुन से कहा-सखे । भीम से युद्ध करना सरल नहीं है। हाथ जोड़कर पार्थ ने कहा-माधव ! अब मैं चैतन्य होकर युद्ध करूँगा। आप चिन्ता न करें। पुन: बड़े वेग से भीष्म पर हल्ला बोल दिया। दोनों ने शंख ध्वनि की। भीष्म ने भी शंखनाद कर युद्ध प्रारम्भ कर कर दिया। भीम ने भी सिंह गर्जना करके शत्रुओं को भयभीत एवं युधिष्ठिर को भय मुक्त किया।
          शेष दिन युद्ध यथावत चलता रहा। अर्जुन और भीष्म ने मौन हो रण-कौशल दिखाया। तीखे बाणों से सहज ही निवारित हुए भीष्म ने स्वयं हमला नहीं किया। धीरे-धीरे सूर्य अपने गन्तव्य तक जा पहुँचे। पश्चिम दिशा की लालिमा की ओर ध्यान करके भीष्म , ने युद्ध-विराम-विराम सूचक अपना शंखनाद किया। युद्ध रुक गया। दोनों ओर के योद्धागण अपने शिविर की ओर चल पड़े। वस्त्र बदलकर लोगों ने अपने घावों की मरहम पट्टी करके विश्राम किया। सायंकाल का विधान सम्पन्न करके सभी ने दूसरे दिन की युद्ध योजना के लिए अपने-अपने सेनानायकों से परामर्श किया। सभी विश्राम करने चले गये।
          श्रीकृष्ण जी अर्जुन को लेकर युधिष्ठिर के कक्ष में चले गए । वहाँ शिखण्डी के साथ धृष्टदुम्न पहले ही विराजमान थे। भीम, विराट, द्रुपद भी कक्ष में उपस्थित हो गये। आज का युद्ध-समाचार सभी ने कह सुनाया । श्रीकृष्ण, अर्जन शान्त बैठे रहे। युधिष्ठिर के पूछने पर माधव ने कहा- कल किसी भी तरह भीष्म से निपटना होगा। इस पर योजना तैयार होने लगी। सभी योजना पर विचार किया गया। परन्तु, एक मत से स्वीकार कोई योजना नहीं बन सकी।
अभी तक चुपचाप शिखण्डी लोगों की योजना का आकलन करता रहा। उसने कहा कि मेरा जन्म भीष्म से बदला लेने को हुआ है। मैं आप लोगों को दिखाई नहीं पड़ रहा हूँ। उसकी बात सुनकर श्रीकृष्ण हँस पड़े और कहा- भीष्म से मुक्ति पाने का समाधान मिल गया। अब आप सभी लोग अपने शयन कक्ष में विश्राम करें। सुबह युद्ध की तैयारी करके नित्य की भाँति समरभूमि में पहुँचकर संग्राम करें। सभी लोगों के चले जाने पर शिखण्डी को रोककर । श्रीकृष्ण ने कल की योजना धर्मराज से कह सुनाई। कल भइया शिखण्डी मेरे रथ पर बैठकर अर्जुन के साथ युद्धभूमि पर चलेंगे। मैं रथ-संचालन करूँगा  और इन दोनों धनुर्धरों को समवेत प्रहार करना होगा तभी भीष्म से निजात मिल सकेगी।
भीष्म का शिखण्डी से सामना
            आज महाभारत का दशवाँ दिन है। नित्य की भाँति महात्मा भीष्म ने सेना की व्यूह-रचना करके मुख्य मार्ग पर अपना मोर्चा सँभाल लिया। पाण्डव सेनापति ने भी जवाबी हमला करने के लिए अपने महारथियों को निर्देशित किया। सबने सेनापति के निर्देश का पालन करते हुए युद्ध प्रारम्भ कर दिया। आज कपिध्वज के नीचे रथ की ओर सभी लोगों की निगाह विशेष रूपेण आकर्षित थी। कारण कि आज दो महारथी एक ही रथ पर आरुढ़ होकर रणाङ्गण में जूझने जा रहे हैं। आज माधव के रथ पर अर्जुन के साथ शिखण्डी भी आरुढ़ होकर रणभूमि पर विचरण कर रहा है। इस दृश्य को देखकर सभी को कुतूहल हो रहा था। व्यूह के मुख्य भाग पर भीम और भीष्म का भयानक युद्ध चल रहा था। कल की घटना से पितामह आज खिन्न थे। अनमनस्क होकर भीम का वात कर रहे थे। माधव ने आज करीब प्रत्येक क्षेत्र में लड़ रहे सेनानायकों " हा महारथियों से दो-दो हाथ कराया। युद्ध करते हुए दोपहर बीत गया। अपने रण-कौशल का प्रदर्शन करते हुए दोनों ही महारथियों से अचानक भीष्म का सामना हो गया। एकाएक भीष्म की आँखों को जैसे विश्वास ही
नहीं हो पा रहा था। प्रत्यय होने पर भीष्म ने अपना धनुष चलाना बन्द कर दिया।
          भीष्म को लक्ष्य करके शिखण्डी एवं अर्जुन ने वाण-वर्षा प्रारम्भ कर दी। मत्त गजराज की तरह भीष्म बिना किसी प्रतिरोध के उनके वाणों को निस्पन्द झेलते रहे। अर्जुन ने सहस्रों वाण फेंकने के बाद अपनी ओर एक भी वाण न देखकर श्रीकृष्ण से कहा-माधव, यह क्या अनर्थ है? पितामह तो युद्ध से विरत हैं। यह तो धर्म नहीं है कि युद्ध न करने वाले पर इस तरह वाण-वर्षा की जाय। शिखण्डी पागल की भाँति पितामह को अपने बाणों से बींधता रहा। आज पितामह का मुख-मण्डल अपूर्व आभा से चमक रहा था। उन्होंने
स्वगत कहा-अब मुझे वाणों से पीड़ा हो रही है। मुझे पीड़ित करने वाले ये विशिख शिखण्डी के नहीं थे, वरन् ये कराल-वाण तो मेरे प्रिय अर्जुन के ही थे। दूसरों के बाण मुझे कदापि पीड़ा देने वाले नहीं हो सकते । जैसे—केकड़ी अपने बच्चों के प्रजनन से ही निज मृत्यु को प्राप्त हो जाती है, वैसे ही अर्जुन के वाण ही मेरे मर्म-स्थलों को बींध रहे थे। इसका अनुभव मुझे तब हुआ जबकि अर्जुन ने वाण बरसाना बन्द कर दिया।
          भीष्म अप्रतिम आभा विखेरते हुए श्रीकृष्ण से बोले-वासुदेव, अपने प्रिय सखा को यह निर्देश दें कि रण-भूमि में मुझे वीरोचित मरण देकर जग में सुयश ले। इस प्रकार का रणभूमि में व्यामोह उचित नहीं है। विजय किसी भी कीमत पर वीरों को अभीप्सित है। बिना किसी संकोच के अपने तीक्ष्ण वाणों से मेरा प्राणान्त कर दे। शिखण्डी के वाण मुझे कदापि नहीं धराशायी। कर सकेंगे। कहीं मत्त गजकेशरी को लाठी से वश में किया जा सकता है? भीष्म की बात पर ध्यान न देते हुए माधव ने कुटिल मुस्कान विखेरकर अर्जुन
से कहा-पार्थ, किस सोच में डूबे हो ? पितामह पर प्रचण्डं वाण-वर्षा कर विजय-बाधा अविलम्ब दूर करो। इनसे मुक्ति के लिए दूसरा उपाय नहीं है। रणाङ्गण में इस प्रकार का व्यामोह तुम्हें शोभा नहीं दे रहा है। भीष्म परम् भागवत हैं। वे सब जानते हैं। इसका दोष वे तुम्हें कदापि नहीं देंगे। तुमने मुझे वचन दिया है कि जो कुछ मैं कहूँगा उसे बिना विचारे ही स्वीकार करोगे । न्याय, अन्याय, उचित-अनुचित, पाप-पुण्य का द्वन्द्व इस समय व्यर्थ है। अनासक्त मन से युद्ध करना ही वर्तमान में सर्वोत्तम है। सभी द्वन्द्व सम्प्रति मुझे
समर्पित करके एकमात्र युद्ध करो–यही मेरा आदेश है।
          भगवान से इस प्रकार उत्साहित किये जाने पर अर्जुन ने संकोच त्यागकर पुनः भीष्म पर वाणों की झड़ी लगा दी। शिखण्डी के वाणों से अनाहत भीष्म ने अब समझ लिया कि अर्जुन द्वारा व्यवहृत विषाक्त दिव्यास्त्रों से मेरा बचना सम्भव नहीं है। उन्होंने प्राणों का मोह त्यागकर भगवान वासुदेव की मन ही मन प्रशंसा करते हुए कोटि नमन किया।
          दिन के तीसरे प्रहर में भीष्म का आभामय मुखमण्डल दर्शनीय बन गया था। कोटिशः सूर्य का प्रकाश उनके शरीर को देदीप्यमान कर रहा था। रक्त- रञ्जित तन को देखकर अस्ताचल की छटा लज्जित हो रही थी। सहसा उनके मुख से निकला-वासुदेव की जय और वे रथ से नीचे लुढ़क गये। शरीर पर असंख्य वाण इस रूप में बिंधे हुए थे कि पृथ्वी से ऊपर ही शर-सय्या लग चुकी थी। इस पर उनका विक्षत तन लेटा हुआ था। दोनों तरफ हाहाकार मच गया। युद्ध तत्काल बन्द हो गया। उभयतः प्रमुख लोग इकट्ठे हो गये। सबके बदन मलीन थे। लोगों के मुख पर अपराध-बोध झलक रहा था। सब ओर अजीब खामोशी छायी थी। भीष्म ने दर्द से कराह भर कर कहा-मेरा शिर नीचे लटक रहा है। इसे कोई सहारा दो। अपने-अपने शिविरों से रेशमी उपधान लिये लोग दौड़ पड़े। अपराधी मुद्रा में एक तरफ दुबके हुए अर्जुन को सम्बोधित कर भीष्म ने कहा-वत्स! मुझ वीरोचित तकिया तुम लगाओ। भीष्म की स्नेहिल वाणी सुनकर अर्जुन की आँखों से वारि-धारा बह निकली। न्होंने अपने तरकस से तीन बाण निकालकर पितामह के शिर को सहारा
था। उनका उन्नत भाल अब सबको देख रहा था। उन्होंने कहा आज से युद्ध बन्द कर दो। मेरी आहति से ही तुम सब यह सीख लो कि युद्ध का अन्त विनाश के अतिरिक्त कुछ नहीं है। चारो तरफ कोई भी हलचल नहीं हुई। भीष्म ने कहा अर्जुन, मुझे प्यास लगी है। पार्थ ने एक बाण मारा जिससे पाताल-गंगा प्रकट होकर स्वतः भीष्म के मुख में गिरकर उनकी पिपासा शान्त की।
          भीष्म ने कहा विधाता की गति बड़ी ही कुटिल है। होनी को कौन टाल सकता है। अभी सूर्य उत्तरायण नहीं है। अतः मैं शरीर नहीं त्यागना चाहता। इसी कुरुक्षेत्र में शरशय्या समेत मुझे कहीं सुरक्षित रख दो। तुम सभी शाम को आकर युद्ध समाचार देते रहना। मैं भी तब तक अपना प्रायश्चित करता हुआ प्राण नहीं विसर्जित करूंगा। धीरे-धीरे अँधेरा बढ़ने लगा। लोगों ने अपने- अपने शिविर के लिए प्रस्थान किया।
          सबके चले जाने के बाद कर्ण आयो । उसने हाथ जोड़कर पितामह के पैर के पास खड़ा होकर कहा-हे गंगानंदन, मेरे पितामह ! मैंने जीवनभर आपका सम्मान किया और बदले में आपसे तिरस्कार ही पाया। आपकी तरह मैंने भी परशुराम से दिव्यास्त्रों की शिक्षा पाई है। अपने सेनापतित्व में मुझे लड़ने से वंचित कर आपने क्या पाया? कर्ण की बात सुनकर भीष्म का गला भर आया। वे बोले वत्स, तुम मुझे अर्जुन के समान ही प्रिय हो। मैं तुम्हें और अर्जुन दोनों को बचाना चाहता था। अब तुम और अर्जुन में से एक ही बच पायेगा। अब किसका बस है। हम सभी नियति के खिलौने हैं। तुम भी कुन्ती के ज्येष्ठ पुत्र होकर भी किस तरह काल-चक्र में फँस गये हो। तुम्हारे ऊपर दुर्योधन को हमसे अधिक भरोसा है। मैं उससे उभय पक्ष की हितकर बात करता हूँ जो उसे स्वीकार्य नहीं है। तुम उसके उपकारों से बाध्य होकर समर्पण की भावना से काम कर रहे हो। मैं आज भी अगर युधिष्ठिर से तुम्हारा परिचय करा दें तो युद्ध विराम हो सकता है। वह अपना राज्य बिना विचार किये तुम्हें सौंप देगा और तुम उसे दुर्योधन को अविलम्ब हस्तान्तरित करके प्रत्युपकार कर सकोगे। क्या यह उचित होगा। कहो मैं तुम्हारा अभिमत जानना चाहता हूँ। कर्ण अवरुद्ध गले से बोला-पितामह मैं आपकी भावना से
अवगत हूँ। आप तो सभी के पितामह हैं। आप पर हम सभी का समान अधिकार है और आप भी उसी प्रकार सबको समान दृष्टि से देखते हैं। मैं भी देवोपम पाण्डवों का विरोधी नहीं हूँ। युधिष्ठिर को मैं भली-भाँति जानता हूँ। श्रीकृष्ण और माता कुन्ती भी मुझे इस रहस्य को बता चुके हैं। उन दोनों से मैंने. यह वचन लिया है कि कृपया इस रहस्य को धर्मराज से न बतायें। इस प्रकार की अनेक बातें होने पर पितामह ने कर्ण से संप्रेम कहा-जाओ वत्स! अपने कर्तव्य का पालन करो।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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