9 से 12


भीष्म और परशुराम का संग्राम
महात्मा भीष्म अपने गुरु का आदेश शिरोधार्य कर दूसरे दिन सन्ध्यावन्दन से निवृत्त होकर कुरुक्षेत्र के समराङ्गण में आ डटे। उन्होंने गुरु को प्रणाम करते हुए निवेदन किया कि मैं आपसे कैसे संग्राम करूं? एक तो आप हमारे गुरु हैं। दूसरे निहत्थे हैं और बिना कवच और वर्म के आपका शरीर युद्ध के विभीषिका को झेलने में असमर्थ है। आप पैदल और मैं रथारूढ़ हूँ। ऐसी स्थिति में युद्ध करना धर्म-विरुद्ध है। अपने योग्य शिष्य की नीति-परक वाणी सुनकर भगवान भार्गव अत्यन्त प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा कि हे गंगानन्दन! ऐसी बातें तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन कह सकता है ? मैं प्रसन्न होकर तुम्हें युद्ध करने का आदेश देता हूँ। मेरे लिए सम्पूर्ण पृथ्वी ही रथ है। दशों दिशायें ही घोड़े हैं। इन्द्रिय-निग्रह ही घोड़ों की राशि है। यम-संयम ही मेरे कवच एवं वर्म हैं; पुनरपि तुम्हारी प्रसन्नता-हेतु मैं तुम्हारे समान युद्ध में उपयोगी सामग्री से सुसज्जित होकर ही समर भूमि में उपस्थित हो रहा हूँ। इतना कहकर उन्होंने मानसिक संकल्प द्वारा ही एक दिव्य रथ, जिस पर अक्षय तूर्ण, धनुष, कवचादि सामग्री रखी थी। उनके अनन्य सखा अकृतव्रण भी घोड़ों की वल्गा सँभाल चुके थे। परशुराम की समरभूमि में अद्भुत छटा देखकर भीष्म दंग रह गये। उन्होंने गुरु के चरणों के पास एक दिव्यास्त्र फेंककर प्रणामपूर्वक युद्ध का आदेश माँगा और शिष्य की मनसा जानकर परशुराम ने शिर के ऊपर से निकल जाने वाला दूसरा दिव्यास्त्र प्रक्षेपित किया। इस प्रकार दोनों का युद्ध प्रारम्भ हो गया। दर्शक की भूमिका में जानेमाने योद्धागण, धर्मात्मा ऋषिगण, देव, यक्ष, गन्धर्व एवं अनेक अशरीरी पितृगण भी अपना-अपना स्थान सुरक्षित कर चुके थे।
        दिनभर युद्ध चलता रहा। सरसन्धान इस रूप में हो रहा था मानों गुरु शिष्य को युद्धाभ्यास करा रहा था। सूर्यास्त होने को आया तो भीष्म ने कहा गुरुदेव ! सन्ध्या का समय हो गया है अब युद्ध बन्द करने की आज्ञा दें। बाण-वर्षा बन्द हो गयी। समरभूमि से हटकर दोनों अपराजेय योद्धा सन्ध्यावन्दन करने चले गये। शरीर के घावों का उपचारादि कर रात्रि में दोनों ही विश्राम करके नयी उर्जा के साथ दूसरे दिन कुरुक्षेत्र में आ डटे। युद्ध का माहौल गर्म होता जा रहा था। दोनों एक दूसरे का प्रत्युत्तर बाणों की बौछार द्वारा देते थे। भीष्म के हस्तकौशल से मुदित होते हुए भगवान भार्गव और कठिन बाणों का
प्रयोग करते जिसे सहज ही काटकर भीष्म अपनी योग्यता का प्रमाण देतरहते। दिन भर अनवरत बाण-वर्षा होती रही। युद्ध शाम को पुनः बन्द हो गया। नित्य कर्म करते हुए दोनों ने रात्रि में विश्राम किया। इस प्रकार दोनों का भयंकर युद्ध एक पक्ष तक चलता रहा। दोनों ने अपने दिव्यास्त्रों से एक दूसरे का शरीर छलनी कर दिया। युद्ध-विराम की भूमिका बन ही नहीं पा रही थी। दोनों ही धर्म-युद्ध कर रहे थे। रणनीति में दोनों ही पारंगत थे। इस प्रकार दोनों के दिवस रात्रि व्यतीत हो रहे थे मानो अभी कल की बात है। युद्ध के सोलहवें दिन गुरु गम्भीर हो उठे। आज उन्होंने मन से निर्णायक युद्ध करने का विचार किया। युद्ध प्रारम्भ हुआ। एक-दूसरे पर प्रबल बाणों की बौछार होने लगी। भीष्म का काम तमाम करने की कामना से भार्गव ने ज्यों ही बाण प्रत्यञ्चित किया कि देखा कि युद्ध भूमि में एक वृद्धा उपस्थित होकर सफाई कर रही थी। उस पर दृष्टिपात करते ही राम ने पूछ लिया-तू कौन है? अपने प्राणों को हथेली पर रख इस समराङ्गण में तू क्या कर रही है? इस पर मुस्कुराते हुए वह बोली-मेरा पुत्र बहुत थक गया है। आज मैं उसे अपने गोद में लेकर विश्राम देंगी, ताकि वह कल पुन: युद्ध में आकर आपके बाणों का प्रत्युत्तर दे सके। इसको देखकर परशुराम समझ गये कि यह गंगा है। अपने पुत्र का व्यामोह उसे हठात् युद्ध भूमि में आने को बाध्य कर दिया। यह क्या बाण लगते ही भीष्म की आँखें बन्द होने लगीं। लोग भयाक्रान्त हो गये। भीष्म अपने रथ से नीचे आकर लड़खड़ाने लगे। उसी वृद्धा तापसी ने भीष्म को उस साफ-सुथरी भूमि पर ले जाकर अपने गोद में लिटाकर अपने अम्लान साड़ी के पल्लू से व्यजन करने लगी। थोड़ी ही देर में भीष्म उठ खड़े हुए और पुन: रथ में जाकर युद्ध करने लगे। भीष्म का उत्साह आज चरम पर। था। परशुराम के बाणों का उत्तर देने में भीष्म को जरा भी विलम्ब नहीं लगता। गुरुदेव ने कहा आज तो गंगा निपूती होने से बच गयी।
     दूसरे दिन घनघोर युद्ध शुरू हुआ। आज दोनों ही एक दूसरे के प्राणों को लेने के लिए आतुर थे। मन में सभी की अभिलाषा थी कि युद्धविराम हो 'जाय किन किसी में साहस कहाँ कि युद्ध समाप्त करने का पहल कर सके। आज का युद्ध कहा नहीं जा सकता था कि पासा किसके पक्ष में गिरेगा। दोनों ही अपराजेय युद्ध लड़ रहे थे। भार्गव ने अमो-बाण का सन्धान करना चाहा कि अस्तंगधित सर्य पर उनकी निगाह पड़ गयी। उन्होंने युद्ध विराम की  घोषणा करते हुए कहा- भीष्म ! आज तुम्हारे प्राणों को सूर्य ने बचा दिया, किन्तु कल तुम्हें मारे बिना मैं चैन न लँगा। भीष्म मारे क्रोध के कुछ बोल न सके। उनका सारथी युद्धभूमि से रथ वापस ले गया। इस प्रकार एक दूसरे को मारने का असफल प्रयास करते हुए युद्ध का दो दिन और व्यतीत हो गया। कोई परिणाम नहीं निकल सका।
          बिना किसी व्यवधान के युद्ध बीस दिन तक अनवरत चलता रहा। भीष्म ने अपने पितरों का आवाहन करते हुए कहा कि मैं भगवान परशुराम को यदि युद्ध भूमि पर मौत की नींद सुला सकें तो मुझे स्वप्न-दर्शन दें। यह कहकर वे रात में विश्राम करने चले गये।।
           भीष्म को स्वप्न में उनके पास आकर एक दिव्यात्मा ने दर्शन दिया। उसके आने पर मानों चतुर्दिक प्रकाश फैल गया। भीष्म को सम्बोधन करके बोला-हे शान्तनु-कुमार ! पूर्व जन्म में तुम ‘प्रभास' नामक वसु थे। महर्षि वशिष्ठ के शाप से तुम मनुष्य योनि में जन्म लिये हो। भार्गव तो स्वयं विष्णु के अवतार हैं। उन्हें कोई भी मार नहीं सकता। तुम भी उनके द्वारा अवध्य हो। प्रात: तुम्हारे पास ‘प्रस्वाप' नामक अस्त्र आ जायेगा। इसे देखकर स्वत: तुम्हें इसका सन्धान एवं सम्वरण आ जायेगा। तुम इसको पूर्व जन्म से ही सम्यक रूप से जानते हो। इसके प्रयोग से तुम भार्गव के ऊपर दबाव बना सकते हो। यह कहकर वे महात्मा चले गये।
          प्रात: उठने पर वह दिव्यास्त्र उन्हें चारपाई पर रखा मिला। इसे देखकर भीष्म को सम्पूर्ण रहस्य समझ में आ गया। नित्य कर्म से निवृत्त होकर वे समरभूमि जा पहुँचे। नित्य की भाँति परशुराम भी युद्ध-भूमि में आ डटे। रात्रि में भार्गव को भी स्वप्न हुआ कि भीष्म को इच्छा मृत्यु का वरदान प्राप्त है। अत: वे आप द्वारा नहीं मारे जा सकते । युद्ध-विराम करना ही श्रेयस्कर होगा। युद्ध भयानक दौर में जा पहुँचा तो कल स्वप्न में प्राप्त ‘प्रस्वाप' का विनियोग करके भीष्म ने अपने गुरु पर सन्धान कर दिया। इसका सम्बरण करते हुए भार्गव इधर-उधर घूमने लगे-मानों उन्हें चक्कर आने लगा हो। देवताओं के अनुरोध पर दोनों के पितृगण आकाशमार्ग से कुरुक्षेत्र में प्रकट हुए। दोनों ही  अपने पर्वजों द्वारा युद्धविराम का अनुरोध करने पर रुक गये। उनकी बात दोनों ने मानकर युद्ध रोक दिया। अपने पूर्वजों द्वारा प्रेरित होकर भीष्म ने भार्गव को करबद्ध प्रणाम करके हस्तिनापुर की राह पकड़ी।
          परशुराम ने अम्बा से कहा कि मैंने तुम्हारे कल्याण के लिए अपने इतने शिष्य को खो दिया। सम्प्रति तुम चराचर ईश भगवान शंकर की शरण जाओ। वही तुम्हें अभीष्ट वरदान देंगे। गुरु परशुराम द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनशीलन करते हुए अम्बा ने भगवान आशुतोष को प्रसन्न करके एक दिव्य अम्लान माला प्राप्त किया; जिसे पहनकर अजेय भीष्म को परास्त किया जा सकता है। उसे लेकर अम्बा ने पाञ्चाल नरेश द्रुपद के दरबार में आकर भीष्म-वध करने को उकसाया। राजन ! आपका अपमान करने वाला इस जगत में भीष्म को छोड़कर दूसरा नहीं है। इस माला को पहनकर आप दम्भी भीष्म का वध कर सम्पूर्ण विश्व में अपनी कीर्ति-पताका फहरा सकते हैं। द्रुपद को इस लड़की पर विश्वास नहीं हुआ। वह परिहासपूर्वक इसकी बात टाल गये। महाराज द्रुपद के यहाँ कोई यज्ञ का आयोजन चल रहा था। यज्ञशाला में कहीं यह माला टाँगकर अम्बा ने होमाग्नि में कूदकर प्राणोत्सर्ग कर लिया। कालान्तर में उसी अम्बा ने महाराजा द्रुपद के यहाँ जन्म लिया; जिसे आज सम्पूर्ण राज-समाज शिखण्डी के नाम से जानता है। वह दिव्य माला पहनकर मैं हमेशा भीष्म-वध के बारे में सचेष्ट रहता हूँ। मेरे हृदय में भीष्म का वध करने का प्रतिशोध मूर्तमान होकर करवट बदलता रहता है। वही आज अनचाहे में तुम्हारे समक्ष स्वप्नावस्था में मेरे मुख से प्रस्फुटित हो गया। यही मेरे स्वप्न का निहितार्थ है।

क्षत्रियों को शिक्षा न देने की प्रतिज्ञा
          इसके पश्चात् परशुराम ने भीष्म द्वारा अपनी अवज्ञा से क्षुभित होकर प्रतिज्ञा की कि आज से मैं किसी क्षत्रिय कुमार को शिक्षा नहीं दूँगा। इस घटना को बीते काफी समय बीत गया। आचार्य द्रोण का गुरुकुल मात्र 'कुरुकुल' तक सीमित हो गया। इतना बड़ा उस समय कोई आचार्य नहीं था। अधिरथ का पुत्र कर्ण विद्याध्ययन के लिए द्रोणाचार्य की शरण में गया। वे राजकुमारी को ही शिक्षा प्रदान कर सकते हैं। इस अनुबन्ध को सुन कर्ण अत्यन्त निराश हो गया। भगवान परशुराम की शरण में जाकर विद्याध्ययन करने का मन बना लिया। वह ब्राह्मण वेश में परशुराम के आश्रम जा पहुँचा।
          कर्ण को ब्राह्मण-वटु के रूप में परशुराम ने स्वीकार करते हुए अपन व शिष्य बना लिया। अपनी सेवा से कर्ण ने परशुराम को अत्यन्त प्रभावित किया। गुरु के पहले उठता, नित्यक्रिया से उपरत होकर वह गुरु सेवा में लग जाता और गुरु के शयन-कक्ष में चरण दबाते हुए गुरु की आज्ञा पाकर ही सोना उसकी नीयति बन गयी। गुरु के आदेश बिना वह कोई कार्य नहीं करता।
          अपनी दिनचर्या से प्रभावित करके कर्ण ने बड़े ही निष्ठापूर्वक गुरु द्वारा सम्पूर्ण विद्या को अचिर काल में ही ग्रहण कर लिया। एक दिन की बात है, कर्ण को शस्त्राभ्यास कराने के कारण थके गुरुदेव कुछ क्षण विश्राम करना चाह रहे थे। कर्ण ने आदरपूर्वक अगं-वस्त्र बिछाकर उपधान के स्थान पर बैठकर गुरुदेव का शिर अपनी गोद में रख लिया। थोड़ी देर में ही भगवान को नींद आ गयी। वे गहरी नींद में सो गये। इतने में ही कर्ण की जाँघ पर एक कीड़ा आ बैठा।' अलर्क' नामक यह कीड़ा सूक्ष्म सूकर के आकार का था। कर्ण की जाँघ को बुरी तरह काटना प्रारम्भ किया। गुरुदेव की नींद भंग न हो जाय-इस भय से कर्ण ने अपनी असह्य पीडा की परवाह किये बिना स्थिर बैठा रहा। अलर्क ने जाँघ के आर-पार छेद कर दिया। इससे भयंकर रक्त बह निकला। रक्त की उष्णता एवं आर्द्रता के परिणाम से भार्गव की निद्रा भङ्ग हो गयी। रक्तस्त्राव देखकर महर्षि अत्यन्त व्याकुल हो उठे। झटके से उठकर बड़े प्रेम से बोले-अरे ! इतना घायल होकर भी तुमने मुझे नहीं बताया? धीर-वीर कर्ण ने कहा-प्रभु, अभी तो ठीक से आप सो भी नहीं सके थे, गुरुदेव को मैं कैसे कच्ची नींद उठा सकता था।
इस घटना के कुछ क्षण व्यतीत होते ही परशुराम जी की आँखें आग्नेय हो उठीं। मुखमण्डल तप्त अंगार की तरह दहकने लगा। क्रोधावेग में वे काँपने  लगे। क्षण भर में ही कोमल स्वभाव के स्थान पर रौद्रता के भाव प्रकट होने लगे। कड़कती आवाज उनके मुख से निकली-कपटी, पामर तू ब्राह्मण नहीं । हो सकता। तुम्हारा कृत्य बताता है कि निश्चय ही तू क्षत्रिय वंश का कुल-कलंक है। ब्राह्मण तो शीलवान कृपालु होता है। किन्तु, साधारण-सी बात को लेकर इतना भयंकर कष्ट नहीं सह सकता। मुझे ठगने का साहस तुमने क्यों  किया? मैंने तो यह उद्घोष कर रखा था कि नराधम क्षत्रियों को मैं अपना  शिष्य नहीं बनाऊँगा। तू सच बोल नहीं तो अभी मेरे क्रोधानल में जलकर भस्म हो जायेगा । कर्ण भय के मारे काँप उठा।
          धरती पर लगुड की तरह सोकर कर्ण ने प्रणाम किया। पुनः उठकर करबद्ध होकर संयत स्वर में बोला-प्रभु ! मेरा अपराध क्षमा हो। मैं अधिरथ सूत का पुत्र हूँ। मुझे राधेय नाम से जाना जाता है। आचार्य द्रोण से तिरस्कृत होकर मैं आपकी शरण में विद्याध्ययन करने आया हूँ। गुरु-श्रद्धा ही मेरे साथ घटी इस घटना का मूल है। मैं ईश्वर की सौगन्ध खाता हूँ कि मैंने कुछ भी आपसे नहीं छिपाया। अपना शिष्य जानकर मेरा अपराध क्षमा करें। मैं जीवन भर आपका ऋणी रहूँगा। इतना सुनकर गुरुदेव समाधिस्थ हो गये। पल भर में ने उन्हें कर्ण के जन्म से लेकर इस समय तक का ज्ञान हो उठा। सत्य से परिचित होने पर गुरु ने कहा-'तू क्षत्रिय है।' सूर्यपुत्र होने के कारण तू सत्य एवं ज्ञान से सम्पन्न है। तुमको मैंने धनुर्वेद की शिक्षा दी है। मैं चाहूँ तो तुम्हे प्रदान की ने गयी विद्या को अभी वापस ले सकता हूँ। तुमने मेरी सेवा करके विधा प्राप्त किया है। मैं इस समय तुमसे वह विद्या वापस नहीं लूंगा। परन्तु मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि मेरी दी हुई विद्या तुम्हें अन्तिम समय में काम नहीं आयेगी। इसका ने ज्ञान अपने मृत्यु-काल में तुम भूल जाओगे। यह कहकर भगकल-केतु अपने आश्रम की ओर तेज कदमों से चल पड़े। कर्ण हतप्रभ होकर वहीं खड़ा रहा। आश्रम पर आकर परशुराम कुछ संतोष का अनुभव कर रहे थे। अकिंचन की तरह कर्ण आकर साष्टाङ्ग दण्डवत लेटा रहा। उसके मुख से निकला-  मुझे निर्जीव करके मेरा प्राण प्रभु आपने क्यों छोड़ दिया? मुझे आप मृत्य-दण्ड प्रदान करें। मेरा अपराध इसी कोटि का है। मेरा जीवन ही अभिशप्त है।
          अब जीने की मेरी लालसा समाप्त हो गयी है। आपके द्वारा मेरा प्राणान्त हो मेरे लिए परम श्रेयष्कर है। कर्ण की वाणी सुनकर भार्गव बोले-कर्ण! मेरा शाप अमोघ है, इसे मैं चाहकर भी वापस नहीं ले सकता। परन्तु, तुम्हें में पाँच वाण दे रहा हूँ। यह अमोघ बाण है। इसके प्रयोग से देव-दानव, यक्ष-गन्धर्व एवं अशेष प्राणी अपना प्राण नहीं बचा सकते। इसे ही अपने अन्तिम समय के लिए तुम सुरक्षित रखना। कर्ण उठकर परशुराम के चरण-रज की वंदना करता हुआ इन्हें ग्रहण किया और भारी मन से अपने गन्तव्य की ओर प्रस्थान किया। कर्ण ने मन में सोचा कि प्रारब्ध पर किसका जोर चल सकता है।
अपरिहार्य महाभारत
भीष्म का व्यक्तित्व महान था। वे परम भागवत और महान योद्धा थे। राजनीति, धर्मनीति के वे प्रबल पक्षधर थे। चारो वेदों एवं षट् दर्शन के ज्ञाता थे। उनका चरित पावन था। अखण्ड ब्रह्मचर्य का पालन करके वे उर्ध्व रेतस् बन चुके थे। सर्वस्व होते हुए भीष्म महामानव थे। भगवान श्रीकृष्ण से वे तनिक भी न्यून महिमा वाले नहीं थे। श्री कृष्ण उन्हें पितामह कहकर सम्मान करते थे। भीष्म पितामह यदि समय पर निर्णय लेने की क्षमता-सम्पन्न होते तो सचमुच वे भगवान कहलाते। यहीं उनका व्यक्तित्व मार खा जाता है।
हस्तिनापुर सिंहासन की रक्षा करने का व्रत लेने का यह मतलब कदापि नहीं है कि राजा के गलत निर्णय को भी समर्थन देते रहना। अद्भुत सामर्थ्य एवं क्षमता रखने के बाद भी धृतराष्ट्र के पुत्र-मोह एवं शकुनि मामा की दुरभिसन्धि तथा दुर्योधन की हठशीलता को सहन करना उनके जैसे व्यक्तित्व के लिए उचित नहीं था। पाण्डवों के प्रति दुर्योधन का वैर भाव एवं धृतराष्ट्र की मौन सहमति से वे पूर्ण परिचित थे। एक बार भी वे धृतराष्ट्र को कड़े शब्दों में कह देते तो राजा का साहस कहाँ कि वह उनको अवहेलना करते। दुर्योधन यद्यपि महावीर था, किन्तु भीष्म के आगे उसका पुरुषार्थ बौना था। वे आसानी से उसे नियन्त्रित कर सकते थे। कर्ण के अनावश्यक उत्साह वे
कारण दुर्योधन अप्रिय कर्म कर बैठता, जिसको स्वीकार करना कहाँ का न्याय था? घृत-क्रीड़ा का आयोजन भीष्म की प्रबल इच्छा पर रोका जा सकता था। इनके शील, शौर्य एवं अन्यान्य दैवी गुणों से प्रभावित कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, विदुर इनके अन्ध भक्त थे। इन सबका सम्बल पाकर दुर्योधन सत्ता के मद में चूर्ण रहता। इसका प्रतिकार न करना वह भीष्म की दुर्बलता समझता था। भरी सभा में द्रौपदी को घसीटता हुआ दु:शासन ला रहा है। इस अप्रिय घटना को देखकर भीष्म का न बोलना सहृदय को अखरता है। भीष्म यदि चाह लेते तो महाभारत टाला जा सकता था। किन्तु, यह सच है कि भवितव्यता अटल है।
          श्रीकृष्ण, कौरव एव पाण्डवों के सम्बन्धी थे। वे हृदय से चाहते थे कि युद्ध टल जाय। युद्ध टालने के लिए ही दुर्योधन की सभा में दूत बनकर श्रीकृष्ण जाते हैं। दुर्योधन अपने सभासदों से कृष्ण का सम्मान न करने की मंत्रणा करता है। कर्ण से युधिष्ठिर का उपहास कराता है। इतना ही नहीं, भगवान श्रीकृष्ण को बन्दी बनाने का असफल प्रयास भी करता है। भीष्म का मौन यहाँ भी आलोच्य है। श्रीकृष्ण तुरन्त घोषणा करते हैं। एक क्षण भी नहीं लगाते-‘याचना नहीं अब रण होगा, संग्राम महाभीषण होगा।' युद्ध का बिगुल बज चुका। दोनों पक्षों ने मित्रों की सेनाओं को जुटाना शुरू किया। दोनों तरफ से क्रमश: ग्यारह और सात अक्षौहिणी सेना एकत्र हो गयी।
मद्रराज शल्य सहदेव के मामा थे। महाराज युधिष्ठिर के निमंत्रण पर इस महासमर में लड़ने आ रहे थे। दुर्योधन ने रास्ते में उनकी सुविधा का विशेष प्रबन्ध करके अपनी कूटनीति का परिचय दिया। महाराज शल्य ने समझा कि युधिष्ठिर ने मेरा बड़ा ध्यान रखा। उनकी कृतज्ञता ज्ञापित करने लगे। इसके बाद दुर्योधन के सेवकों ने बताया कि हम लोग तो आपकी सेवा में दुर्योधन द्वारा नियुक्त किये गये हैं। इस पर शल्य आश्चर्यचकित रह गये। मद्र नरेश का हृदय परिवर्तित हो गया। उन्होंने कहा कि यह जानते हुए कि मैं उनके विपक्ष में लड़ने जा रहा हैं। इस पर भी मेरा इस प्रकार सम्मान करना तो दुर्योधन की सदाशयता है। यह प्रसंग चल ही रहा था कि स्वयं दर्योधन वहाँ उपस्थित  होकर शल्य का अभिवादन करके बोला-मामा! हम और पाण्डव आपके लिए बराबर है। युद्ध तो क्षत्रियों का आभूषण है। न्याय और प्रेम परस्पर जा विरोधी हैं। ऐसे ही स्थान पर व्यक्ति का परीक्षण होता है। इस पर शल्य ने भारी मन से दुर्योधन के पक्ष में युद्ध करने का निश्चय किया।
सेनापति का चयन
कौरवों की सेना के प्रमुख भीष्मपितामह बने। उनकी दो शर्ते थीं। पहली मैं पाण्डवों का वध नहीं करूंगा। दूसरी शर्त थी--मेरे सेनापतित्व में दम्भ कर्ण नहीं लड़ेगा। मजबूरी में दोनों ही शर्ते दुर्योधन को माननी पड़ीं। १८ दिन युद्ध चला। इसमें कौरवों की तरफ से अकेले ही भीष्म ने १० दिन तक सेना का संचालन किया।
          उधर पाण्डवों की तरफ प्रधान सेनापति बनाने पर गहन मन्त्रणा हुई। सात नामों का चयन किया गया। इन्ही में किसी को सेनापति का महान दायित्व सौंपा जायेगा। इनके नाम हैं-मत्स्य नरेश विराट, पाञ्चाल नरेश द्रुपद, शिखण्डी ,धृष्टद्युम्न, सात्यकी, भीमसेन, अर्जुन तथा सुभद्रा-तनय अभिमन्यु। सब पर सम्यक् विचार किया गया। अन्त में द्रोणाचार्य के जन्मजात वैरी धृष्टद्युम्न के सर्वसम्मति से सेनापति बनाया गया। सम्पूर्ण महाभारत में पाण्डवों के सेनापति का धृष्टद्युम्न ने ही निर्वहन किया, जबकि कौरवों में क्रमश: भीष्म पितामह द्रोणाचार्य, कर्ण, शल्य, अश्वत्थामा ने सेनापतित्व के दायित्व का निर्वहन किया।
          भीष्म के नेतृत्व में कर्ण नहीं लड़ सका इसका उसे बड़ा क्षोभ था । युद्धकाल में कर्ण अपने शिविर में उदास रहता। युद्ध समाचार के लिए। उत्साहित रहता; किन्तु वह युद्ध-भूमि में जा नहीं सकता। वह कुण्ठित हो उठा। एक दिन वह अपने शिविर से उठकर टहलता हुआ महारानी द्रौपदी के शिविर की ओर अनायास ही चला गया। द्रौपदी के कक्ष में नीरवता छायी थी। अकेली द्रौपदी वहाँ बैठी थी। उसके कक्ष में अलौकिक आभा फैल रही थी। मानो हजारों मणियाँ चमक रही हों। कर्ण ने अपने मन में सोचा कि इस
अदभुत रमणी के बारे में मैंने द्यूत-सभा में जो अनुचित विचार व्यक्त किया था, उसके लिए मैं अपने आपको कभी क्षमा नहीं कर सकता। आजीवन इसका मुझे पश्चात्ताप रहेगा। इस समय सम्पूर्ण पृथ्वी पर द्रोपदी के समान महारानी रुक्मिणी को छोड़कर अन्य कोई महिमा-मण्डित नारी नहीं है। उसने भावावेश में मन ही मन द्रौपदी को प्रणाम करके अपने गन्तव्य को प्रस्थान किया।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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