भीष्म और परशुराम का संग्राम
महात्मा भीष्म अपने गुरु
का आदेश शिरोधार्य कर दूसरे दिन सन्ध्यावन्दन से निवृत्त होकर कुरुक्षेत्र के
समराङ्गण में आ डटे। उन्होंने गुरु को प्रणाम करते हुए निवेदन किया कि मैं आपसे
कैसे संग्राम करूं? एक तो आप हमारे गुरु हैं। दूसरे निहत्थे हैं और बिना कवच
और वर्म के आपका शरीर युद्ध के विभीषिका को झेलने में असमर्थ है। आप पैदल और मैं
रथारूढ़ हूँ। ऐसी स्थिति में युद्ध करना धर्म-विरुद्ध है। अपने
योग्य शिष्य की नीति-परक वाणी सुनकर भगवान भार्गव अत्यन्त प्रसन्न हुए।
उन्होंने कहा कि हे गंगानन्दन! ऐसी बातें तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कौन कह सकता
है ? मैं प्रसन्न होकर तुम्हें युद्ध करने का आदेश देता हूँ। मेरे लिए सम्पूर्ण
पृथ्वी ही रथ है। दशों दिशायें ही घोड़े हैं। इन्द्रिय-निग्रह ही घोड़ों की राशि
है। यम-संयम ही मेरे कवच एवं वर्म हैं; पुनरपि तुम्हारी प्रसन्नता-हेतु
मैं तुम्हारे समान युद्ध में उपयोगी सामग्री से सुसज्जित होकर ही समर भूमि में
उपस्थित हो रहा हूँ। इतना कहकर उन्होंने मानसिक संकल्प द्वारा ही एक दिव्य
रथ, जिस पर अक्षय तूर्ण, धनुष, कवचादि सामग्री रखी थी। उनके अनन्य सखा अकृतव्रण भी घोड़ों की वल्गा सँभाल चुके थे। परशुराम की
समरभूमि में अद्भुत छटा देखकर भीष्म दंग रह गये। उन्होंने गुरु के चरणों
के पास एक दिव्यास्त्र फेंककर प्रणामपूर्वक युद्ध का आदेश माँगा और
शिष्य की मनसा जानकर परशुराम ने शिर के ऊपर से निकल जाने वाला दूसरा
दिव्यास्त्र प्रक्षेपित किया। इस प्रकार दोनों का युद्ध प्रारम्भ हो गया। दर्शक की
भूमिका में जानेमाने योद्धागण, धर्मात्मा ऋषिगण, देव, यक्ष,
गन्धर्व एवं अनेक अशरीरी पितृगण भी अपना-अपना स्थान सुरक्षित कर चुके थे।
दिनभर युद्ध चलता रहा। सरसन्धान इस रूप में हो
रहा था मानों गुरु शिष्य को युद्धाभ्यास करा रहा था। सूर्यास्त होने
को आया तो भीष्म ने कहा गुरुदेव ! सन्ध्या का समय हो गया है अब युद्ध
बन्द करने की आज्ञा दें। बाण-वर्षा बन्द हो गयी। समरभूमि से हटकर दोनों अपराजेय
योद्धा सन्ध्यावन्दन करने चले गये। शरीर के घावों का उपचारादि कर
रात्रि में दोनों ही विश्राम करके नयी उर्जा के साथ दूसरे दिन कुरुक्षेत्र में
आ डटे। युद्ध का माहौल गर्म होता जा रहा था। दोनों एक दूसरे का प्रत्युत्तर
बाणों की बौछार द्वारा देते थे। भीष्म के हस्तकौशल से मुदित होते हुए भगवान
भार्गव और कठिन बाणों का
प्रयोग करते जिसे सहज ही काटकर भीष्म अपनी
योग्यता का प्रमाण देते रहते। दिन भर अनवरत बाण-वर्षा होती रही। युद्ध
शाम को पुनः बन्द हो गया। नित्य कर्म करते हुए दोनों ने रात्रि में
विश्राम किया। इस प्रकार दोनों का भयंकर युद्ध एक पक्ष तक चलता रहा। दोनों ने अपने
दिव्यास्त्रों से एक दूसरे का शरीर छलनी कर दिया। युद्ध-विराम की भूमिका बन
ही नहीं पा रही थी। दोनों ही धर्म-युद्ध कर रहे थे। रणनीति में दोनों
ही पारंगत थे। इस प्रकार दोनों के दिवस रात्रि व्यतीत हो रहे थे मानो अभी
कल की बात है। युद्ध के सोलहवें दिन गुरु गम्भीर हो उठे। आज उन्होंने मन
से निर्णायक युद्ध करने का विचार किया। युद्ध प्रारम्भ हुआ। एक-दूसरे पर
प्रबल बाणों की बौछार होने लगी। भीष्म का काम तमाम करने की कामना से
भार्गव ने ज्यों ही बाण प्रत्यञ्चित किया कि देखा कि युद्ध भूमि में एक
वृद्धा उपस्थित होकर सफाई कर रही थी। उस पर दृष्टिपात करते ही राम ने पूछ
लिया-तू कौन है? अपने प्राणों को हथेली पर रख इस समराङ्गण में तू
क्या कर रही है? इस पर मुस्कुराते हुए वह बोली-मेरा पुत्र बहुत थक गया
है। आज मैं उसे अपने गोद में लेकर विश्राम देंगी, ताकि वह कल पुन:
युद्ध में आकर आपके बाणों का प्रत्युत्तर दे सके। इसको देखकर परशुराम समझ
गये कि यह गंगा है। अपने पुत्र का व्यामोह उसे हठात् युद्ध भूमि में
आने को बाध्य कर दिया। यह क्या बाण लगते ही भीष्म की आँखें बन्द होने लगीं।
लोग भयाक्रान्त हो गये। भीष्म अपने रथ से नीचे आकर लड़खड़ाने लगे। उसी
वृद्धा तापसी ने भीष्म को उस साफ-सुथरी भूमि पर ले जाकर अपने गोद में
लिटाकर अपने अम्लान साड़ी के पल्लू से व्यजन करने लगी। थोड़ी
ही देर में भीष्म उठ खड़े हुए और पुन: रथ में जाकर युद्ध करने लगे। भीष्म
का उत्साह आज चरम पर। था। परशुराम के बाणों का उत्तर देने में भीष्म को
जरा भी विलम्ब नहीं लगता। गुरुदेव ने कहा आज तो गंगा निपूती होने से बच
गयी।
दूसरे दिन घनघोर युद्ध शुरू हुआ। आज दोनों ही एक
दूसरे के प्राणों को लेने के लिए आतुर थे। मन में सभी की अभिलाषा थी
कि युद्धविराम हो 'जाय किन किसी में साहस कहाँ कि युद्ध समाप्त
करने का पहल कर सके। आज का युद्ध कहा नहीं जा सकता था कि पासा किसके पक्ष
में गिरेगा। दोनों ही अपराजेय युद्ध लड़ रहे थे। भार्गव ने अमोघ-बाण का सन्धान करना चाहा कि अस्तंगधित सर्य पर उनकी निगाह पड़ गयी।
उन्होंने युद्ध विराम की घोषणा करते हुए कहा-
भीष्म ! आज तुम्हारे प्राणों को सूर्य ने बचा दिया, किन्तु कल तुम्हें मारे बिना मैं चैन न लँगा। भीष्म
मारे क्रोध के कुछ बोल न सके। उनका सारथी युद्धभूमि से रथ वापस ले गया। इस प्रकार एक
दूसरे को मारने का असफल प्रयास करते हुए युद्ध का दो दिन और व्यतीत हो गया। कोई परिणाम
नहीं निकल सका।
बिना
किसी व्यवधान के युद्ध बीस दिन तक अनवरत चलता रहा। भीष्म ने अपने पितरों का आवाहन करते
हुए कहा कि मैं भगवान परशुराम को यदि युद्ध भूमि पर मौत की नींद सुला सकें तो मुझे
स्वप्न-दर्शन दें। यह कहकर वे रात में विश्राम करने चले गये।।
भीष्म को स्वप्न में उनके पास आकर एक दिव्यात्मा ने
दर्शन दिया। उसके आने पर मानों चतुर्दिक प्रकाश फैल गया। भीष्म को सम्बोधन करके बोला-हे
शान्तनु-कुमार ! पूर्व जन्म में तुम ‘प्रभास' नामक वसु थे। महर्षि वशिष्ठ के शाप से तुम मनुष्य
योनि में जन्म लिये हो। भार्गव तो स्वयं विष्णु के अवतार हैं। उन्हें कोई भी मार नहीं
सकता। तुम भी उनके द्वारा अवध्य हो। प्रात: तुम्हारे पास ‘प्रस्वाप' नामक अस्त्र आ जायेगा। इसे देखकर स्वत: तुम्हें इसका
सन्धान एवं सम्वरण आ जायेगा। तुम इसको पूर्व जन्म से ही सम्यक रूप से जानते हो। इसके
प्रयोग से तुम भार्गव के ऊपर दबाव बना सकते हो। यह कहकर वे महात्मा चले गये।
प्रात:
उठने पर वह दिव्यास्त्र उन्हें चारपाई पर रखा मिला। इसे देखकर भीष्म को सम्पूर्ण रहस्य
समझ में आ गया। नित्य कर्म से निवृत्त होकर वे समरभूमि जा पहुँचे। नित्य की भाँति परशुराम
भी युद्ध-भूमि में आ डटे। रात्रि में भार्गव को भी स्वप्न हुआ कि भीष्म को इच्छा मृत्यु
का वरदान प्राप्त है। अत: वे आप द्वारा नहीं मारे जा सकते । युद्ध-विराम करना ही श्रेयस्कर
होगा। युद्ध भयानक दौर में जा पहुँचा तो कल स्वप्न में प्राप्त ‘प्रस्वाप' का विनियोग करके भीष्म ने अपने गुरु पर सन्धान कर
दिया। इसका सम्बरण करते हुए भार्गव इधर-उधर घूमने लगे-मानों उन्हें चक्कर आने लगा हो।
देवताओं के अनुरोध पर दोनों के पितृगण आकाशमार्ग से कुरुक्षेत्र में प्रकट हुए। दोनों
ही अपने पर्वजों द्वारा युद्धविराम का अनुरोध
करने पर रुक गये। उनकी बात दोनों ने मानकर युद्ध रोक दिया। अपने पूर्वजों द्वारा प्रेरित
होकर भीष्म ने भार्गव को करबद्ध प्रणाम करके हस्तिनापुर की राह पकड़ी।
परशुराम
ने अम्बा से कहा कि मैंने तुम्हारे कल्याण के लिए अपने इतने शिष्य को खो दिया। सम्प्रति
तुम चराचर ईश भगवान शंकर की शरण जाओ। वही तुम्हें अभीष्ट वरदान देंगे। गुरु परशुराम
द्वारा निर्दिष्ट मार्ग का अनशीलन करते हुए अम्बा ने भगवान आशुतोष को प्रसन्न करके
एक दिव्य अम्लान माला प्राप्त किया; जिसे पहनकर अजेय भीष्म को परास्त किया जा सकता है।
उसे लेकर अम्बा ने पाञ्चाल नरेश द्रुपद के दरबार में आकर भीष्म-वध करने को उकसाया।
राजन ! आपका अपमान करने वाला इस जगत में भीष्म को छोड़कर दूसरा नहीं है। इस माला को
पहनकर आप दम्भी भीष्म का वध कर सम्पूर्ण विश्व में अपनी कीर्ति-पताका फहरा सकते हैं।
द्रुपद को इस लड़की पर विश्वास नहीं हुआ। वह परिहासपूर्वक इसकी बात टाल गये। महाराज
द्रुपद के यहाँ कोई यज्ञ का आयोजन चल रहा था। यज्ञशाला में कहीं यह माला टाँगकर अम्बा
ने होमाग्नि में कूदकर प्राणोत्सर्ग कर लिया। कालान्तर में उसी अम्बा ने महाराजा द्रुपद
के यहाँ जन्म लिया; जिसे आज सम्पूर्ण राज-समाज शिखण्डी के नाम से जानता
है। वह दिव्य माला पहनकर मैं हमेशा भीष्म-वध के बारे में सचेष्ट रहता हूँ। मेरे हृदय
में भीष्म का वध करने का प्रतिशोध मूर्तमान होकर करवट बदलता रहता है। वही आज अनचाहे
में तुम्हारे समक्ष स्वप्नावस्था में मेरे मुख से प्रस्फुटित हो गया। यही मेरे स्वप्न
का निहितार्थ है।
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