4. यमदग्नि और रेणुका
यमदग्नि का शैशव अत्यन्त
उत्कृष्ट रूप से व्यतीत हुआ। माता का दुलार, पिता का स्नेह एवं उत्तमोत्तम संस्कार
पाकर बालक दैवीय गुणों को अनायास आत्मसात् करता गया। वेद-वेदाङ्ग की शिक्षा समाप्त
होने पर राजस गुणों का अभ्युदय होने लगा। पिता ने यमदग्नि को धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान
करना प्रारम्भ किया। शास्त्र और शस्त्र दोनों में ही बालक निपुण हो गया। अनुपम सौंदर्य
से समन्वित सत्यवती नंदन विवाह योग्य अवस्था को प्राप्त हुए। दूसरे तपोवन में रहने
वाले गार्हस्थ-जीवन के सुखों में आनन्दित महर्षि रेणु की अनिन्द्य सुन्दरी कन्या जिसे
रेणुका नाम से जाना जाता था, वही यमदग्नि की परिणीता बनी। पाणिग्रहण के पश्चात् यमदग्नि
ने अपनी अलग तपस्थली का सृजन किया।
नए तपोवन में नव-दम्पत्ति सुखपूर्वक जीवनयापन करने
लगे। अग्निहोत्र के अनन्तर वेदाध्ययन, शास्त्रलोचन करते एवं नाना प्रकार के ऐहिक सुखों
की चर्चा होती रहती। पत्नी की आध्यात्मिक, सामाजिक उत्कंठाओं का अपने विज्ञान से जमदग्नि
शान्त करते और उसे अन्यान्य प्रश्नों के लिए उत्प्रेरित करते। दाम्पत्य में द्वैत नहीं
रह जाता। दोनों की दिनचर्या, तपश्चर्या एवं सामाजिक, मानसिक अभिरुचि एक होकर अभेद हो
जाती। यहीं वास्तविक द्वैत अद्वैत बन जाता है। यही समरसता जीव और ब्रह्म में
अद्वैत की सुन्दर पृष्ठभूमिका बन जाती है। ‘यद् लोके तद् वेदे’ के मूल में लोक से वेद
और वेद से लोक में आने का क्रम गतिमान रहता है।
शास्त्रीय परिचर्चा की परिणिति वैयक्तिक जीवन में
इस प्रकार मनोहारी रूप से उत्कीर्ण हो रही थी कि कल्पना लोक में विचरण का अवसर ही नहीं
मिल पा रहा था। जो भी मन में विचार-तरंग उठती,उसी पर सार्थक बतरस के माध्यम से हृदय
पर अमिट छाप बन जाती। इस प्रकार दिन-रात, मास-वर्ष व्यतीत होते गए।
महर्षि का सानिध्य पाकर रेणुका का परस्पर प्रेम-पीयूष-पान
की दिनचर्या में आनन्द से समय बीतता रहा। इस बीच में शस्त्राभ्यास भी चलता रहता। अनवरत
अभ्यास में लगे रहने से यमदग्नि अपने संस्कारों के कारण अद्वितीय धनुर्धर बन गए। उनका
लक्ष्य कभी विचलित नहीं होता था। रेणुका भी उनका सहयोग करती थी।
एक दिन संध्योपासना से निवृत्त यमदग्नि अस्त्राभ्यास
करने लगे। किसी निश्चित लक्ष्यवेध के अनन्तर दूसरे लक्ष्य को वेधने हेतु दूसरा बाण
धनुष पर रखकर प्रत्यंचित करते। इस तरह अनेक लक्ष्यविद्ध प्रक्रिया को देखकर महर्षि
फूले नहीं समा रहे थे। सारे बाण चुक गए, परन्तु धनुर्धर का उत्साह कम नहीं हुआ। रेणुका
को उन्होंने निर्देशित किया- प्रिये! मैं वाण से लक्ष्य भेद
करता हूँ, तुम झटिति जाकर मेरे द्वारा प्रक्षेपित बाणों को लेकर मेरे पास रखती जाओ।
मुझे बाणों का अभाव नहीं होना चाहिए। पति-पारायण रेणुका अपने प्रियतम के कार्य में
संलग्न हो गई।
यह क्रिया अनवरत जारी थी। गर्मी का महीना था। अपने
प्रचण्ड तेज से देदीप्यमान भुवन-भाष्कर की तीक्ष्ण किरणें असह्य लग रही थीं। कोमल काया
की स्वामिनी रेणुका पति की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकती थी। पसीने से नहाई होने पर
भी वह सत्वर गति से वाणों को लाती रही। आखिर वह क्लान्त होकर एक पीपल की शीतल छाया
में रुककर थोड़ा विश्राम करने लगी। अचिरकाल की प्रतीक्षा भी पतिदेव को व्यथित करने
लगी। ताड़स्वर में उन्होंने आवाज लगाई रेणुका! तुम कहाँ हो? आवाज सुनकर उसके होश उड़
गए। वह पति का स्वभाव जानती थी। वाणों के लेकर हाँफती हुई तेज गति से महर्षि के सम्मुख
उपस्थित हुई। कड़क आवाज में महर्षि ने पूछा- तुम इतनी देर से कहाँ थी? मेरे बाण चुक गए। मेरी
साधना में व्यवधान हुआ। मैं तुम्हें इसका दण्ड अवश्य दूँगा। पति की भाव-भंगिमा देख
कर वह काँपने लगी।
रेणुका की दीन-दशा देखकर मुनिवर किंचित द्रवित
हुए। अपने स्वर कुछ परिवर्तित करते हुए विलम्ब का कारण जानना चाहा। करबद्ध प्रार्थना
करते हुए रेणुका ने कहा- प्राणनाथ! काफी समय से वाण ला रही
थी, इसलिए कुछ थकान आ गई और ऊपर से निदाघ की प्रचण्ड किरणों से मेरा सिर झुलस रहा था।
तप्त-अंगार की तरह धूल भी मेरे पैरों को भूँज रही थी। अतः थोड़े समय के लिए पीपल की
शीतल-छाँव में रुककर श्रम का परिहार कर रही थी। इसी में किंचित विलम्ब हो गया। मैं
क्षमा प्रार्थी हूँ।
सहृदय सब कुछ सह सकता है किन्तु प्रिया का
करुण-क्रंदन नहीं सहन कर सकता। अद्वितीय धनुर्धर की आँखें क्रोध से अँगार बरसाने लगी।
प्रिया का निर्व्याज चेहरा वास्तविकता का आदर्श दिखाने लगा। क्रोधावेग में उन्होंने
सूर्य की ओर उन्मुख हो कर कहा- तेरी यह मजाल कि तूने मेरी प्रियतमा की अवमानना की।
मेरे रहते किसी में भी यह सामर्थ्य नहीं जो मेरी दक्ष भार्या को अवसाद दे सके। मैं
आज इसका तुम्हें अवश्य दण्ड दूँगा। मैं तुम्हारा निर्बाध गगन-विहार बंद करके ही रहूँगा।
तुमको जमीन पर ला दूँगा। अमित भाषी ब्राम्हण की ललकार सुन सूर्य घबड़ाये। वृद्ध
ब्राह्मण वेष में यमदग्नि के सामने प्रकट हुए। अभिवादन करते हुए ऋषिवर ने क्रोध को
किंचित हल्का करके उन्होंने कहा- आपका निशाना
अचूक है। किन्तु वह अचल पर ही सिद्ध हो सकता है। सूर्य तो अनवरत अस्तांचल की तरफ गतिमान
हैं। आप भला सूर्य को अपने वाणों का लक्ष्य कैसे बनायेंगे ? सस्मित स्वर में यमदग्नि
ने कहा- मैं जानता हूँ तुम स्वयं सूर्य हो। इसका उपाय सुनो-मध्याह्नकाल में सूर्य एक
क्षण के लिए ठहर जाता है। ठीक उसी समय मैं तुम्हें अपना शिकार बनाऊँगा।
सूर्यदेव हाथ जोड़कर प्रकट हो गये। विधि
के विधान में किसी को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मेरा आपसे कोई निजी वैमनस्य नहीं
है। मैं भी वधि के विधान का अंग हूँ। मेरी ऊष्म किरणों से बचने का मैं उपाय बताता हैं।
जो लोग अपने पैरों में जूता पहनेंगे और सिर पर छाता धारण करेंगे उन्हें मेरी तप्त किरणें
हानि नहीं पहुँचा सकतीं। इस प्रकार समाधान देकर ही सूर्य का प्राण-संकट टल गया। तभी
से लोक में जूता और छाता का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
उक्त महिमा-मण्डित पिता की प्यारी सन्तान
भगवान परशुराम हुए। अपने चार भाइयों में सबसे छोटे 'राम' थे। वे विश्रुत पितृ-भक्त
थे । वेदांग सहित वेदों की शिक्षा उन्हें पिता से विरासत में मिली। पितामह का संकल्प
पौत्र में फलीभूत होने लगा। त्रिकालज्ञ यमदग्नि ने उनका भविष्य जानकर ही सुरासुर वन्दित
आशुतोष भगवान शिव की आराधना हेतु 'राम' को कैलाश भेजा। अपनी कठोर
तपस्या से शिव को प्रसन्न करके उन्होंने अपराजेय “परशु' प्राप्त किया। इसीलिए उनको
सम्पूर्ण जगत परशुराम के नाम से जानता है। भगवान शिव द्वारा प्राप्त परश के प्रभाव
से आततायियों का वध करने हेतु संकल्प लेकर वे पिता के पास लौट आये।
पिता का आश्रम अब सामान्य
ऋषि का पारिवारिक आश्रम मात्र न था। अब विशाल वन-प्रान्त ही उनकी तपस्या के प्रभाव
से नन्दन-कानन बन गया। किसी को अभाव का भान नहीं होता। वन्य जीव भी सहज वैर भूलकर
प्रेमपूर्वक रहते । बर्बर सिंह भी मृग-शावकों के साथ मन बहलाव करते। वृक्ष सार्वकालिक
फल प्रदान करते । कामधेनु ने समस्त आश्रमवासियों को मनवांक्षित भोग-सामग्री प्रदान
करके सभी को भगवत-परायण बना दिया था। सभी लोग परोपकारी थे। स्वार्थवृत्ति का अत्यन्ताभाव
था। हरी-भरी, शस्यश्यामला वनभूमि सचमुच
वसुन्धरा बन गयी थी। लोग संचय और परिग्रह नहीं करते थे । त्यागपूर्ण जीवनयापन करने
वालों ने मानों सम्यक् औपनिषदिक जीवन को अन्वर्थ कर दिया। अग्निहोत्र के कारण समय पर
वर्षा होती । ईति-भीति का अकाल था। सभी स्वावलम्बी जीवन जीते थे। स्वल्प आवश्यकताओं
की आपूर्ति सहज सुलभ थी। योगपूर्वक जीवनशैली से मानो भोग-लिप्सा का निर्वासन हो गया।
इस प्रकार का जीवन-दर्शन पाकर लोग ऐहिक सुख के साथ परमार्थ की साधना कर रहे थे। सभी
आप्त काम थे।
आसपास के आश्रमों से भी ऋषिगण आते । साप्ताहिक
संगोष्ठी होती कभी-कभी पूरा सत्र भी आहूत होता, जिसमें सुदूर के ऋषि-मनीषी
आकर औपनिषदिक चर्चा करते । सामयिक चर्चा भी हुआ करती । सम्पूर्ण आश्रमवासी उससे लाभान्वित
होते । आध्यात्मिकता का सर्वत्र वातावरण व्याप्त था और शौर्य-गाथा का यशोगान होता रहता।
याज्ञिक-अनुष्ठान से लोक मङ्गल करते हुए महर्षि मानों द्वितीय प्रजापति हो गये। जन-भावनाएँ
जल्दी प्रसरित होकर राजमहल तक प्रभाव डालने लगीं । देशदेशान्तर से राजा एवं उनके राजमित्र
भी आकर कृत-मनोरथ होकर लौटते। इस प्रकार सम्पूर्ण देश में जमदग्नि से लोकप्रिय ऋषि
बनकर पूजित हुए। उनके लिए अपना और पराया निरर्थक था। वे वसुधैव कुटुम्बकम् के मानने
वाले थे। ईश्वर ने उन्हें सबका संरक्षक नियुक्त करके भेजा है। वे भेदभाव करके ईश्वरीय
विधान के विपरीत कैसे आचरण करते। वे सहज वृत्ति से रहकर समाधि सुख का अनुभव करते। उनका
जीवन आदर्श था।
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