4 से 8 तक


यमदग्नि और रेणुका
यमदग्नि का शैशव अत्यन्त उत्कृष्ट रूप से व्यतीत हुआ। माता का दुलार, पिता का स्नेह एवं उत्तमोत्तम संस्कार पाकर बालक दैवीय गुणों को अनायास आत्मसात् करता गया। वेद-वेदाङ्ग की शिक्षा समाप्त होने पर राजस गुणों का अभ्युदय होने लगा। पिता ने यमदग्नि को धनुर्वेद की शिक्षा प्रदान करना प्रारम्भ किया। शास्त्र और शस्त्र दोनों में ही बालक निपुण हो गया। अनुपम सौंदर्य से समन्वित सत्यवती नंदन विवाह योग्य अवस्था को प्राप्त हुए। दूसरे तपोवन में रहने वाले गार्हस्थ-जीवन के सुखों में आनन्दित महर्षि रेणु की अनिन्द्य सुन्दरी कन्या जिसे रेणुका नाम से जाना जाता था, वही यमदग्नि की परिणीता बनी। पाणिग्रहण के पश्चात् यमदग्नि ने अपनी अलग तपस्थली का सृजन किया।
           नए तपोवन में नव-दम्पत्ति सुखपूर्वक जीवनयापन करने लगे। अग्निहोत्र के अनन्तर वेदाध्ययन, शास्त्रलोचन करते एवं नाना प्रकार के ऐहिक सुखों की चर्चा होती रहती। पत्नी की आध्यात्मिक, सामाजिक उत्कंठाओं का अपने विज्ञान से जमदग्नि शान्त करते और उसे अन्यान्य प्रश्नों के लिए उत्प्रेरित करते। दाम्पत्य में द्वैत नहीं रह जाता। दोनों की दिनचर्या, तपश्चर्या एवं सामाजिक, मानसिक अभिरुचि एक होकर अभेद हो जाती। यहीं वास्तविक द्वैत अद्वैत बन जाता है। यही समरसता जीव और ब्रह्म में अद्वैत की सुन्दर पृष्ठभूमिका बन जाती है। ‘यद् लोके तद् वेदे’ के मूल में लोक से वेद और वेद से लोक में आने का क्रम गतिमान रहता है।
           शास्त्रीय परिचर्चा की परिणिति वैयक्तिक जीवन में इस प्रकार मनोहारी रूप से उत्कीर्ण हो रही थी कि कल्पना लोक में विचरण का अवसर ही नहीं मिल पा रहा था। जो भी मन में विचार-तरंग उठती,उसी पर सार्थक बतरस के माध्यम से हृदय पर अमिट छाप बन जाती। इस प्रकार दिन-रात, मास-वर्ष व्यतीत होते गए।
           महर्षि का सानिध्य पाकर रेणुका का परस्पर प्रेम-पीयूष-पान की दिनचर्या में आनन्द से समय बीतता रहा। इस बीच में शस्त्राभ्यास भी चलता रहता। अनवरत अभ्यास में लगे रहने से यमदग्नि अपने संस्कारों के कारण अद्वितीय धनुर्धर बन गए। उनका लक्ष्य कभी विचलित नहीं होता था। रेणुका भी उनका सहयोग करती थी।
           एक दिन संध्योपासना से निवृत्त यमदग्नि अस्त्राभ्यास करने लगे। किसी निश्चित लक्ष्यवेध के अनन्तर दूसरे लक्ष्य को वेधने हेतु दूसरा बाण धनुष पर रखकर प्रत्यंचित करते। इस तरह अनेक लक्ष्यविद्ध प्रक्रिया को देखकर महर्षि फूले नहीं समा रहे थे। सारे बाण चुक गए, परन्तु धनुर्धर का उत्साह कम नहीं हुआ। रेणुका को उन्होंने निर्देशित किया- प्रिये! मैं वाण से लक्ष्य भेद करता हूँ, तुम झटिति जाकर मेरे द्वारा प्रक्षेपित बाणों को लेकर मेरे पास रखती जाओ। मुझे बाणों का अभाव नहीं होना चाहिए। पति-पारायण रेणुका अपने प्रियतम के कार्य में संलग्न हो गई।
           यह क्रिया अनवरत जारी थी। गर्मी का महीना था। अपने प्रचण्ड तेज से देदीप्यमान भुवन-भाष्कर की तीक्ष्ण किरणें असह्य लग रही थीं। कोमल काया की स्वामिनी रेणुका पति की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकती थी। पसीने से नहाई होने पर भी वह सत्वर गति से वाणों को लाती रही। आखिर वह क्लान्त होकर एक पीपल की शीतल छाया में रुककर थोड़ा विश्राम करने लगी। अचिरकाल की प्रतीक्षा भी पतिदेव को व्यथित करने लगी। ताड़स्वर में उन्होंने आवाज लगाई रेणुका! तुम कहाँ हो? आवाज सुनकर उसके होश उड़ गए। वह पति का स्वभाव जानती थी। वाणों के लेकर हाँफती हुई तेज गति से महर्षि के सम्मुख उपस्थित हुई। कड़क आवाज में महर्षि ने पूछा- तुम इतनी देर से कहाँ थी? मेरे बाण चुक गए। मेरी साधना में व्यवधान हुआ। मैं तुम्हें इसका दण्ड अवश्य दूँगा। पति की भाव-भंगिमा देख कर वह काँपने लगी।
          रेणुका की दीन-दशा देखकर मुनिवर किंचित द्रवित हुए। अपने स्वर कुछ परिवर्तित करते हुए विलम्ब का कारण जानना चाहा। करबद्ध प्रार्थना करते हुए रेणुका ने कहा- प्राणनाथ! काफी समय से वाण ला रही थी, इसलिए कुछ थकान आ गई और ऊपर से निदाघ की प्रचण्ड किरणों से मेरा सिर झुलस रहा था। तप्त-अंगार की तरह धूल भी मेरे पैरों को भूँज रही थी। अतः थोड़े समय के लिए पीपल की शीतल-छाँव में रुककर श्रम का परिहार कर रही थी। इसी में किंचित विलम्ब हो गया। मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।
          सहृदय सब कुछ सह सकता है किन्तु प्रिया का करुण-क्रंदन नहीं सहन कर सकता। अद्वितीय धनुर्धर की आँखें क्रोध से अँगार बरसाने लगी। प्रिया का निर्व्याज चेहरा वास्तविकता का आदर्श दिखाने लगा। क्रोधावेग में उन्होंने सूर्य की ओर उन्मुख हो कर कहा- तेरी यह मजाल कि तूने मेरी प्रियतमा की अवमानना की। मेरे रहते किसी में भी यह सामर्थ्य नहीं जो मेरी दक्ष भार्या को अवसाद दे सके। मैं आज इसका तुम्हें अवश्य दण्ड दूँगा। मैं तुम्हारा निर्बाध गगन-विहार बंद करके ही रहूँगा। तुमको जमीन पर ला दूँगा। अमित भाषी ब्राम्हण की ललकार सुन सूर्य घबड़ाये। वृद्ध ब्राह्मण वेष में यमदग्नि के सामने प्रकट हुए। अभिवादन करते हुए ऋषिवर ने क्रोध को किंचित हल्का करके उन्होंने कहा-  आपका निशाना अचूक है। किन्तु वह अचल पर ही सिद्ध हो सकता है। सूर्य तो अनवरत अस्तांचल की तरफ गतिमान हैं। आप भला सूर्य को अपने वाणों का लक्ष्य कैसे बनायेंगे ? सस्मित स्वर में यमदग्नि ने कहा- मैं जानता हूँ तुम स्वयं सूर्य हो। इसका उपाय सुनो-मध्याह्नकाल में सूर्य एक क्षण के लिए ठहर जाता है। ठीक उसी समय मैं तुम्हें अपना शिकार बनाऊँगा।
          सूर्यदेव हाथ जोड़कर प्रकट हो गये। विधि के विधान में किसी को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। मेरा आपसे कोई निजी वैमनस्य नहीं है। मैं भी वधि के विधान का अंग हूँ। मेरी ऊष्म किरणों से बचने का मैं उपाय बताता हैं। जो लोग अपने पैरों में जूता पहनेंगे और सिर पर छाता धारण करेंगे उन्हें मेरी तप्त किरणें हानि नहीं पहुँचा सकतीं। इस प्रकार समाधान देकर ही सूर्य का प्राण-संकट टल गया। तभी से लोक में जूता और छाता का प्रचलन प्रारम्भ हुआ।
          उक्त महिमा-मण्डित पिता की प्यारी सन्तान भगवान परशुराम हुए। अपने चार भाइयों में सबसे छोटे 'राम' थे। वे विश्रुत पितृ-भक्त थे । वेदांग सहित वेदों की शिक्षा उन्हें पिता से विरासत में मिली। पितामह का संकल्प पौत्र में फलीभूत होने लगा। त्रिकालज्ञ यमदग्नि ने उनका भविष्य जानकर ही सुरासुर वन्दित आशुतोष भगवान शिव की आराधना हेतु 'राम' को कैलाश भेजा। अपनी कठोर तपस्या से शिव को प्रसन्न करके उन्होंने अपराजेय “परशु' प्राप्त किया। इसीलिए उनको सम्पूर्ण जगत परशुराम के नाम से जानता है। भगवान शिव द्वारा प्राप्त परश के प्रभाव से आततायियों का वध करने हेतु संकल्प लेकर वे पिता के पास लौट आये।
           पिता का आश्रम अब सामान्य ऋषि का पारिवारिक आश्रम मात्र न था। अब विशाल वन-प्रान्त ही उनकी तपस्या के प्रभाव से नन्दन-कानन बन गया। किसी को अभाव का भान नहीं होता। वन्य जीव भी सहज वैर भूलकर प्रेमपूर्वक रहते । बर्बर सिंह भी मृग-शावकों के साथ मन बहलाव करते। वृक्ष सार्वकालिक फल प्रदान करते । कामधेनु ने समस्त आश्रमवासियों को मनवांक्षित भोग-सामग्री प्रदान करके सभी को भगवत-परायण बना दिया था। सभी लोग परोपकारी थे। स्वार्थवृत्ति का अत्यन्ताभाव था। हरी-भरी, शस्यश्यामला वनभूमि सचमुच वसुन्धरा बन गयी थी। लोग संचय और परिग्रह नहीं करते थे । त्यागपूर्ण जीवनयापन करने वालों ने मानों सम्यक् औपनिषदिक जीवन को अन्वर्थ कर दिया। अग्निहोत्र के कारण समय पर वर्षा होती । ईति-भीति का अकाल था। सभी स्वावलम्बी जीवन जीते थे। स्वल्प आवश्यकताओं की आपूर्ति सहज सुलभ थी। योगपूर्वक जीवनशैली से मानो भोग-लिप्सा का निर्वासन हो गया। इस प्रकार का जीवन-दर्शन पाकर लोग ऐहिक सुख के साथ परमार्थ की साधना कर रहे थे। सभी आप्त काम थे।
          आसपास के आश्रमों से भी ऋषिगण आते । साप्ताहिक संगोष्ठी होती कभी-कभी पूरा सत्र भी आहूत होता, जिसमें सुदूर के ऋषि-मनीषी आकर औपनिषदिक चर्चा करते । सामयिक चर्चा भी हुआ करती । सम्पूर्ण आश्रमवासी उससे लाभान्वित होते । आध्यात्मिकता का सर्वत्र वातावरण व्याप्त था और शौर्य-गाथा का यशोगान होता रहता। याज्ञिक-अनुष्ठान से लोक मङ्गल करते हुए महर्षि मानों द्वितीय प्रजापति हो गये। जन-भावनाएँ जल्दी प्रसरित होकर राजमहल तक प्रभाव डालने लगीं । देशदेशान्तर से राजा एवं उनके राजमित्र भी आकर कृत-मनोरथ होकर लौटते। इस प्रकार सम्पूर्ण देश में जमदग्नि से लोकप्रिय ऋषि बनकर पूजित हुए। उनके लिए अपना और पराया निरर्थक था। वे वसुधैव कुटुम्बकम् के मानने वाले थे। ईश्वर ने उन्हें सबका संरक्षक नियुक्त करके भेजा है। वे भेदभाव करके ईश्वरीय विधान के विपरीत कैसे आचरण करते। वे सहज वृत्ति से रहकर समाधि सुख का अनुभव करते। उनका जीवन आदर्श था।

सहस्त्रबाहु और यमदग्नि
          कृतवीर्य नामक एक अत्यन्त प्रतापी राजा थे। उनका ऐश्वर्य विरोधी राजाओं को अखरता था। कृतवीर्य विष्णु के अनन्य उपासक थे। विष्णु के उपासक प्राय: दम्भ और पाखण्ड से दूर रहते हैं। उनके कोई सन्तान नहीं थी। इसे वे ईश्वर की इच्छा मानते थे, किन्तु महारानी इसे अपने जीवन की  सर्वोच्च रिक्तता समझतीं । प्राय: वे अपने राजमहल में उदास हो जाया करतीं। भक्तपारायण राजा उन्हें धीरज बँधाया करते । मानव जीवन परोपकार के लिए वरदान है। अपनी स्वार्थलिप्सा के लिए ईश्वर की अनुकम्पा का तिरस्कार नहीं करना चाहिए। प्रजा ही हमारी सन्तान है। प्रजा का हित करना हमारा कर्तव्य है। यही हमारे इष्ट को अभीप्सित है। परन्तु रानी पर इसका कोई असर नहीं होता। वह शान्त मन से ईश्वर से शिकायत करती रहती। अपने आराध्य का अपमान समझकर राजा अत्यन्त मर्माहत हो उठते । मन्त्रीगण उन्हें सान्त्वना देते । राजगुरु सन्तोष का उपदेश करते। ईश्वर सर्वशक्तिमान है। वह सबके मनोरथ पूर्ण करने में समर्थ है। आप निराश न हों, वह आपको भी कृतकार्य अवश्य करेंगे। अपनी नियति समझकर राजा भी शान्त हो जाते। अन्ततः एक दिन राजा ने राज्यभार अपने विश्वासपात्र मंत्रियों पर डालकर भगवान विष्णु की आराधना करने के लिए हिमालय की उपत्यका का मार्ग पकड़ लिया। काफी ऊँचाई पर पहुँचकर बद्रीनारायण की शरण में जाकर उन्होंने अपनी उग्र तपस्या प्रारम्भ की। एकनिष्ठ होकर अपनी तपश्चर्या से राजा ने विष्णु भगवान को प्रसन्न कर लिया। अकस्मात् विष्णु को अपने सामने उपस्थित पाकर राजा ने उनके चरणों पर अपना शिर रख दिया। भाव- विहुल भक्त को देखकर भगवान ने अभीष्ट वर माँगने का आदेश दिया। प्रभु से राजा ने वरदान के रूप में प्रभु-स्वरूप पुत्र की कामना की। एवमस्तु कहकर विष्णु स्वधाम सिधारे।
          कदाचिद् लक्ष्मी से नाराज होकर विष्णु ने उन्हें ‘घोड़ी' होने का शाप दे दिया। क्षमा याचना के परिणामस्वरूप इसी रूप में पुत्र प्राप्ति के पश्चात् पुन: लक्ष्मी रूप में दे बैकुण्ठ आ सकेंगी। इस घटना के बाद लक्ष्मी घोड़ी के रूप में बद्रीनाथ जाकर आशुतोष भगवान शिव की आराधना करने लगीं। कुछ दिन की उग्र तपस्या करने पर शंकर जी ने देवी लक्ष्मी से तप का कारण जानना चाहा। लक्ष्मी ने कहा प्रभु मुझे पुत्र प्रदान कर आप कृतार्थ करें। पहले तो शिव ने परिहास किया किन्तु लक्ष्मी की प्रसन्नता हेतु भगवान विष्णु का आवाहन किया। विष्णु के आने पर वे बोले-प्रभु! लक्ष्मी के मनोरथ पूर्ण होने का समय आ गया है। इन्हें सुनाथ कीजिये। मुस्कुराते हुए विष्णु बोले-भगवन्, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है। क्षण भर में ही लक्ष्मीपति ने ‘हयग्रीव’ के रूप में अवतार लिया। घोड़े के रूप में लक्ष्मी के सहवास से एक अनुपम बालक ने जन्म लिया। इसकी हजार भुजायें थीं। चेहरे पर अमित कान्ति विराजमान थी। बालक को देखते ही लक्ष्मी अपने स्वरूप में आ गयीं। पुनः विष्णु को स्वरूप में पाकर वे स्तुति करने लगी। प्रसन्न होकर विद्या का समालिंगन किया। निज-धाम पधारने के लिए विष्णु द्वारा समादेशित लक्ष्मी ने कहा-प्रभु, यह पुत्र मुझे अत्यन्त प्यारा है। इसी ने मुझे आपसे मिलाया है। मुझपर इसका अनन्त-उपकार है। मैं इसे अपने साथ ले चल की अनुमति चाहती हूँ। प्रभु ने कृतवीर्य राजा की तपस्या का इतिवृत्त सुनाकर इसे उन्हें प्रदान करने का आदेश दिया। प्रभु-प्रेरित कृतवीर्य वहाँ उपस्थित हो गये। उन्हें इस तेजस्वी बालक को सौंपते हुए इसका नामकरण' अर्जुन' रखा। आगे चलकर यही बालक कार्तवीर्य-सहस्रार्जुन नाम से विख्यात हुआ। साक्षात् लक्ष्मीनारायण के तेजश से उत्पन्न यह अत्यन्त पराक्रमी एवं सर्वगुण सम्पन्न हुआ। इसी बालक से हैहय वंश का सूत्रपात हुआ। यह बालक विख्यात तांत्रिक हुआ। कार्तवीर्य-तन्त्र इन्हीं के द्वारा प्रवर्तित माना जाता है। इसने भगवान शिव को प्रसन्न करके अनेक रिद्धि-सिद्धि को प्राप्त किया। इसके ऐश्वर्य से पुरन्दर भी श्रीहीन हो उठा। इसने अपना साम्राज्य विस्तार किया। इसके पाँच सौ पुत्र हुए, जो इसी के समान बलवान थे। पृथ्वी पर इसका सर्वत्र आतंक बढ़ गया। रावण जैसे दुर्जय योद्धा को इसने खेल-खेल में पकड़ लिया। इसके अत्याचार से पृथ्वी काँपने लगी। इसने सम्पूर्ण सुरासुरों को अपने पराक्रम से भयभीत कर रखा था।
          यह अत्यन्त विलासी एवं आखेटक राजा था। आखेट के समय यह अपनी विशाल सेना के साथ जंगलों का सर्वनाश करता और ऋषि-मुनिया को भी क्लेश पहुँचाता था। रास्ते में पड़ने वाले नगर, गाँव को भी तहस-नहस करके यह परम खुश होता था। शत्रु राजाओं को परास्त करके उनकी सम्पत्ति लूटना इसका व्यवसाय बन गया था। लोग स्वत: अपनी सम्पत्ति को इसे समर्पण करके संतोष की साँस लेते थे। इसके पराक्रम से देवासुर, यक्ष-गन्धर्व, किन्नरादि को अपना वशवर्ती बना लिया। लोग इससे अपनी राह बचाते। अपने जीवन की खैर मनाते। इस प्रकार वह निरंकुश शासक बन बैठा।

सहस्रबाहु और कामधेनु
किसी समय शिकार खेलने के व्याज से सहस्रबाहु ने महर्षि यमदग्नि के आश्रम को समलंकृत किया। आश्रम की व्यवस्था ने इनका मन मोह लिया। वह कुछ समय विश्राम कर आश्रम की रमणीयता का सौन्दर्य-पान करता रहा। उसको ढूँढता हुआ विशाल सैन्य समूह भी आश्रम में उपस्थित हो गया। कोलाहल सुनकर महर्षि ने स्वयं आकर राजा की आगवानी की। महर्षि ने राजा को अपने आश्रम को सनाथ करने का आमंत्रण दिया। राजा की सारी सेना भी उनके साथ हो ली। वन-सुषमा ने सबको मोह लिया। सारे आश्रमवासी प्रफुल्ल मनसा राजा एवं राज सेना का आतिथ्य सँभाल रहे थे। उन्हें मनवांक्षित सामग्रियाँ यथेष्ठ मात्रा में मिल रही थीं। सम्पूर्ण राज सेना आह्लादित हो रही थी। राजा भी आनन्दित हो उठा।।
          राजा की समुचित व्यवस्था करके महर्षि ने महाराज के सम्मुख जाकर स्वस्तिवाचन किया। प्रसन्न होकर राजा ने भी ऋषिराज की आश्रम-व्यवस्था की भूरि-भूरि प्रशंसा की। राजा ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए यमदग्नि से पूछा-मुनिवर ! आपने मेरी और मेरे सैनिकों की इस प्रकार सेवा करके मुझ पर अमित उपकार किया है। कृपया मेरे कुतूहल को शान्त करते हुए यह बतायें कि इतनी दिव्य व्यवस्था आपने कैसे सम्भव कर दिखायी ? विनम्र स्वर में मुनिवर बोले-राजन् ! मेरे पास एक कामधेनु है। इसी के प्रभाव से में मनवांक्षित सेवा करने में सफल हो सका। यह दिव्य गौ सभी आप्त-काम करने में समर्थ है।
          राजा ने अत्यन्त आश्चर्यचकित होते हुए कामधेनु का दर्शन करना चाहा। यमदग्नि ने बिना किसी संकोच के कामधेनु के कक्ष में महाराज को ले जाकर दर्शन कराया। महाराज ने सोचा कि यह गाय यदि मुझे मिल जाय तो इसके प्रभाव से बिना किसी प्रयास के हम और हमारा राज परिवार दिव्य ऐश्वर्य-भोग को प्राप्त होगा। इस स्वल्प इच्छा वाले वनवासी तपस्वी को इसका क्या प्रयोजन? राजा ने अपने मन की बात से मुनिवर को अवगत कराया। मुनि ने इसे सुनकर अत्यन्त आश्चर्य प्रकट किया। उन्होंने कहा—कामधेनु मेरी तपस्या है। यह किसी दूसरे के घर जाकर अपनी सामर्थ्य खो देगी । इसे सुन राजा ने सोचा कि मुनिवर हमें यह गाय देना नहीं चाहते इसलिए यह बहाना कर रहे हैं। उसने अपने सैनिकों को यह आदेश दिया कि यह करामाती गाय ले चलो।
          सैनिकों का आदेश पाकर सेवक ने गाय को बँटे से खोलकर अपनी राह पकड़ी। सभी लोग अवाक् इस दृश्य को देखते रहे। राजा भी अपनी राजधानी ‘माहिष्मती' को रवाना हुआ। थोड़ी देर में परशुराम जो कि आश्रम से बाहर गये थे, वापस आ गये। आने पर वे घर में कामधेनु को न देखकर पूछने लगे-माँ कामधेनु कहाँ है? सब लोग क्यों चुप हैं? क्या कोई अनहोनी। घटना घट गयी है? आखिर आप लोग कुछ बोलते क्यों नहीं हैं? इस पर माता ने सम्पूर्ण घटना संक्षेप में परशुराम से कह सुनाई।
          इसके बाद परशुराम का रौद्र रूप देखकर सभी भयभीत हो उठे। परशुराम ने भयानक गर्जना की। सुनकर सम्पूर्ण वन प्रान्त दहल उठा। उनके मुख से हठात् निकल पड़ा-दुष्ट सहस्रबाहु ! अब मैं तुम्हारा सर्वनाश करके ही शान्त हूँगा। कृतघ्न! तू इतना बड़ा नीच है कि मेरे पिता की सज्जनता को तुम उनकी कमजोरी समझता है। अगर वे चाहते तो पल भर में ही तुम्हें सेना सहित यमलोक का पथिक बना देते। उनकी मुनिवृत्ति को तुमने चुनौती दी। है। मैं यामदग्नि इस आमंत्रण को स्वीकार करता हूँ। सावधान ! अपनी रक्षा में तू तत्पर रहना। यह कहते हुए वे वायुवेग से माहिष्मती की ओर प्रस्थान कर गये।
 उनके गर्जन-तर्जन से रास्ते में लोग भयभीत हो उठे। पक्षी कलरव करने लगे। लोग अपना सुरक्षित ठिकाना तलाशने लगे। वृक्षों में कम्पन होने लगी।  हिंसक जन्तु भी डर के मारे भागने लगे। अभी सहस्रबाहु ठीक से पहुँचकर विश्राम भी नहीं कर पाया था कि सम्पूर्ण माहिष्मती में तूफान उठ खड़ा हो गया। नगर के लोग डर के मारे अपने दरवाजे बन्द करने लगे। सैनिक भाग खडे हए । अर्जुन के ५०० लड़के जो वीरता के अवतार माने जाते थे भागकर अपना जीवन बचा लिये। भार्गव की दहाड़ सुनकर अकेला सहस्रबाहु निकलकर मैदान में डट गया। उसने अपने हाथों से एक ही बार ५०० वाण प्रत्यञ्चित करके धनुष से परशुराम पर प्रहार किया। परन्तु उसे परशुराम ने देखते ही देखते अपने ‘परशु' से काट डाला और झपटकर एक ही वार में राम ने परशु के प्रहार से सहस्रबाहु का सिर धड़ से अलग कर दिया। रनिवास चीत्कार कर उठा। सर्वत्र चीख पुकार होने लगी। परशुराम ने रम्भाती हुई कामधेनु परप्रेम से हाथ फेरा। उसके बछड़े को स्नेह से उठा लिया और अपने आश्रम की राह पकड़ी। पीछे-पीछे कामधेनु वापस लौट पड़ी।
आश्रम पहुँचर परशुराम ने गाय-बछड़े को बाँध दिया। अपने पिता को प्रणाम करते हुए सम्पूर्ण इतिवृन्त सुना डाला। इस रोमाञ्चित घटना को सुनकर महर्षि यमदग्नि आश्चर्यचकित हो उठे। सहसा उनके मुख से निकल गया- अरे बेटा, तू बड़ा बलवान है। अकेले ही तुमने वह कार्य कर दिखाया जो बड़े-बड़े बलवानों के लिए दुष्कर है। परन्तु तुमने सर्वदेवमय नरदेव को मार डाला। यह महान पातक है। एक साल पर्यन्त तुम अशेष तीर्थों का सेवन करके इसका प्रायश्चित करो। इसी में तुम्हारा कल्याण है। पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके भगवान परशुराम ने सम्पूर्ण तीर्थों का विधिवत अनुष्ठानपूर्वक दर्शन-पूजन किया। समस्त तीर्थाटन में एक वर्ष व्यतीत हो गया। इस बीच 'परशुराम-चरित' जगत विख्यात हो गया। आततायी सहस्रार्जुन मारा गया इससे जामदग्न्य की कीर्ति-पताका सर्वत्र फहर उठी। यह सहस्रबाहु के पाँच सौ भगोड़ा पुत्रों को असह्यदाहक जान पड़ती। वे रात-दिन इस अपमान का बदला लेने के फेर में रहते। गुप्तचरों द्वारा यह ज्ञात होने पर कि इस समय परशुराम तीर्थ-यात्रा पर हैं, वे फूले न समाये। एक दिन सायंकाल वे सभी यमदग्नि के आश्रम पहुँचे। महर्षि अग्निहोत्र-कक्ष में दैनिक अनुष्ठान कर रहे थे। बाह्य जगत से अनभिज्ञ यमदग्नि का उन आततायियों ने शिर काट कर अपने साथ ले लिया। बेचारी रेणुका दहाड़ मारकर विलाप करने लगी। उस जंगल की नीरव रात्रि में उसे धीरज बँधाने वाला कोई नहीं था। रेणुका और जोर से अपने यशस्वी महावीर परशुराम को पुकारने लगी। हा बेटा, आज तुम होते तो मुझे इस दशा में विलाप नहीं करना पड़ता। कुत्तों की तरह दुम दबाकर वे इस सुनसान मखशाला में तुम्हारे पिता की नशंस हत्या न करते। इतना ही नहीं, वे दुष्ट तुम्हारे पिता का कटा हुआ शिर भी अपने साथ ले गये। मुझे अब मर जाना उचित मालूम होता है। इस पामर देह को रखकर अब मैं क्या करूँगी ? मुझे मरना ही होगा।
          तीर्थाटन करके लौट रहे परशुराम को दूर से माता का विलाप सुनाई। पड़ा। माता की आवाज ध्यान से सुनकर उन्होंने अनुमान लगाया कि निश्चय ही मेरी अनुपस्थिति में उन आतताइयों ने कोई बड़ा अनर्थ कर डाला। वायुवेग से आश्रम पहुँचने पर उन्हें सम्पूर्ण घटना का बोध हुआ। समाचार से अवगत होने पर परशुराम का प्रलयंकर रूप प्रकट हुआ। वे वायुवेग से माहिष्मती की ओर दौड़े। रास्ते में जो भी पड़ा उसे नष्ट करते हुए आगे बढ़ते चले गये। पेड़ों को उखाड़ फेंकते और पहाड़ों को ढहाते हुए भीषण झंझावत की तरह वे माहिष्मती पहुँचे। वहाँ जाकर आबाल वृद्ध को मौत के घाट उतारकर अपने पिता के मुण्ड को लेकर आश्रम आये। सारे ब्रह्माण्ड में खलबली मच गयी। उनके पहुँचते ही माता की गोद में जैसे मुण्ड को रखा एक विलक्षण घटना घटित हुई। रुण्ड और मुण्ड आपस में जुड़ गये और। माता रेणुका को साथ लेकर आकाश में तिरोहित हो गये। आकाशवाणी हुई कि अब इनके पृथ्वी पर रहने के दिन पूर्ण हो गये। इनकी चिन्ता छोड़कर हे भार्गव, तुम पृथ्वी से पापियों का सर्वनाश करो। तुम्हारे माता-पिता अब सप्तर्षि-मण्डल में विराजमान होंगे।
           इस अनर्थकारी घटना को निमित्त बनाकर भगवान परशुराम ने पृथ्वी पर से आततायी क्षत्रियों का २१ बार विनाश कर दिया। मात्र वे ही क्षत्रिय इनकी कोपाग्नि से बचे रहते जो धर्म-परायण एवं प्रजा-वत्सल होते। विस्तारवादी, 'आतंक के पर्याय एवं दम्भी क्षत्रियों का अहंकार चूर्ण करते हुए वे उनका सर्वनाश करके ही दम लेते। सारी पृथ्वी पर से उन्होंने अन्याय, पाप एवं अत्याचार का उच्छेद कर दिया था। उन क्षत्रियों के रूप में मानों राक्षसों ने पुनर्जन्म लेकर पृथ्वी को आतंकित कर दिया था। अत्याचार के प्रतिमूर्ति दानव राजागण मानो पृथ्वी के भार बन गये थे। भगवान परशुराम का अवतार इन्हीं के संहार एवं भक्तों के कल्याणार्थ हुआ था। सारी पृथ्वी का पाप उतारकर उन्हें संतोष हुआ। सम्पूर्ण पापियों की सम्पत्ति एवं आयुध से इनका आश्रम पट गया। विध्वंसक हथियारों का प्रयोग गलत हाथों में पड़ने का भय बना जानकर पृथ्वी ने विधवा तपस्विनी के रूप में अपने छोटे बालक को साथ ले जाकर विनयपूर्वक निवेदन किया। हे प्रभु! मैं इस अबोध बालक की अभागिनी माता हूँ। इसके पिता की छाया इसका साथ छोड़ चुकी है। मेरा मन सर्वथा दुखित रहता है। मैं कुछ दिनों तक तीर्थाटन हेतु जाना चाहती हूँ। कृपया अपने आश्रम में इसे कुछ काल तक आश्रय प्रदान करें। मैं वापस आकर इसे पुन: ले जाऊँगी। भगवान को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उस बालक को रखने की स्वीकृति प्रदान कर दी। जब कृतज्ञता ज्ञापित करते हुए वह तापसी जाने को उद्यत हुई तो प्रणिपात करते हुए निवेदन किया कि यह अत्यन्त चपल बालक है। अज्ञानतावश इससे कोई भूल हो जाय तो इसके प्राणों की मैं भीख माँगती हूँ। भगवान ने उसे अभयदान दिया। वह अपने गन्तव्य को चली गयी।

कश्यप और परशुराम
पृथ्वी के जाने पर बालक की चंचल वृत्ति को भगवान ने प्रलयंकर भाव में परिवर्तित कर दिया। उस बालक की देखभाल करते हुए परशुराम भक्तवत्सल बन गए। उस अबोध की गलतियों को बालक जानकर कभी ध्यान नहीं देते। वह अनुदिन कुछ न कुछ उत्पात करता रहता। आश्रम में रखे आयुध-भणडार को अनुदिन तोड़-फोड़कर विनष्ट करता हुआ यह बालक सचमुच ही शरारती बन गया, परन्तु भार्गव वचनबद्ध थे। अतः उसने सम्पूर्ण आयुध राशि विनष्ट कर डाली। पृथ्वी अपना उद्देश्य पूर्ण देखकर अपने उस चंचल बालक को लेने उपस्थित हो गई। उसने कृतज्ञतापूर्वक प्राणिपात करते हुए अपने तीर्थाटन के समापन की बात कही। उसने कहा भगवन्! मैं कृत-कार्य हुई। इस बालक की धृष्टता के लिए मैं पुनः पुनः क्षमा प्रार्थी हूँ। कृपया मुझे जाने की अनुमति प्रदान करें। तथास्तु कहते हुए भृगुकुल शिरोमणि ने उसे विदा किया। वही बालक लक्ष्मण था
          उस बालक के जाने पर भगवान भार्गव का मन नहीं लगता था। उन्होंने घोषणा की कि कोई भी ब्राह्मण दान लेना चाहता है तो उसकी इच्छा अवश्य पूरी की जाएगी। इसके पश्चात सत्पात्र ब्राह्मणों ने आकर इच्छित दान प्राप्त किया।  सम्पूर्ण सम्पत्ति को विपुल ब्राम्हणों में दान कर भार्गव निश्चिंत हो गए। इनकी दानशीलता सुनकर भारद्वाज के पुत्र आचार्य द्रोण भी भगवान परशुराम के पास आए। उन्हें देखकर स्नेहपूर्वक भृगुवंशमणि बोले- आचार्य! देर से पहुँचे। इस समय तो मेरे पास धनुर्वेद के अलावा तुम्हें देने के लिए कुछ भी नहीं है। द्रोणाचार्य ने कहा-नाथ, मुझे इसे ही सम्यक प्रदान करके कृतार्थ करें। इस पर भगवान भार्गव ने उन्हें अशेष धनुर्वेद का परिज्ञान करा दिया। प्रसन्न होकर द्रोण अपने आश्रम को चले। परशुराम की सम्पूर्ण सम्पत्ति लेने के बाद भी ब्राह्मणों का मन नहीं भरा। एक दिन महर्षि कश्यप जी का आगमन हुआ। चराचर सृष्टि के जनक को अपने द्वार पर आया हुआ देखकर भगवान परशुराम निहाल हो गए। आतिथ्य के पश्चात महर्षि से अनुनयपूर्वक भार्गव बोले- हे देवासुर, दनुज-मनुज के गुरु शिरोमणि! आप मुझे आदेशित करें कि मैं आपकी कौन सी इच्छा पूर्ण करूँ? इस पर शान्त भाव से कश्यप ऋषि ने कहा- हे भार्गव, सम्पूर्ण पृथ्वी को मुझे दान कर दो और स्वयं मेरी पृथ्वी से दूर जाकर निवास करो। इस पर प्रसन्न होकर उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी महर्षि कश्यप को दान करके स्वयं समुद्र से अपने निवास के लिए याचना की। समुद्र ने भगवान का आदेश सुन कर कहा प्रभु जितनी जगह आपको अपेक्षित है मेरी परिधि से ग्रहण कर लें। इस पर  भार्गव ने अपना परशु  समुद्र की ओर उछाल दिया। वह सूखकर परशु के आकार का नक्शा बन गया। वहीं केरल प्रदेश बना। आज तक वहीं वे अदृश्य रूप में किसी को कोई भी दण्ड न देते हुए निवास करते हैं। वैसे कहीं भी ऐसा स्थान नहीं है, जो परशुराम के लिए दुर्गम है। वे सर्वत्र विचरण करते हुए अन्याय के विरोध में सार्थक भूमिका निभाते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि तुम्हारी करुण- कथा सुनकर अवश्य ही तुम्हारा कल्याण करेंगे। अम्बा ने इसे सुनकर संतोष की साँस ली।
सृंजय और परशुराम
अमावस्या के पावन पर्व पर अपनी नियत समय से भगवान परशुराम ने उस आश्रम को सनाथ किया, जहाँ अम्बा अपने के नाना सृंजय के साथ निवास कर रही थी। भार्गव के अभिन्न सखा अकृतव्रण ने उनका सम्मान किया। आसन, अर्घ्य देकर श्रद्धापूर्वक उनकी आरती उतारी। सभी लोग यथोचित आसन पर विराजमान हुए। कुशल-मंगल के क्रम में एक राजकुमारी को देखकर भार्गव की दृष्टि कुतूहल प्रकट करने लगी। इस पर राजर्षि सृंजय ने भगवान को प्रणाम करके कहना शुरू किया-
           हे त्रिभुवनविख्यात भगवान भार्गव! यह मेरी दौहित्री अम्बा है। यह अत्यन्त विपदा की मारी है। प्राणोत्सर्ग का निश्चय करके यह जंगल में भटक रही थी। मैंने इसका वही परिचय प्राप्त किया। इसी क्रम में मुझे ज्ञात हुआ कि यह मेरी दौहित्री है। इसीलिए इसके प्राणों की रक्षा के लिए अपने साथ लाकर आपकी कृपा का भाजन बनाना चाहता हूँ। इसका कल्याण करके प्रभु मुझे कृत-कार्य करें। मैं आजीवन आपका ऋणी रहूँगा। अपनी करुण कथा यह स्वयं आपसे कहेगी। इसके पश्चात स्वयं अम्बा ने हाथ जोड़कर प्रभु के श्री चरणों में अपना शीश नवाया। अश्रुपात करते हुए उसने अपना कारूणिक वृत्तात्त सुनाना प्रारम्भ किया- नाथ! काशिराज की तीन कन्याओं का एक ही साथ स्वयंवर आयोजित था। मैं ज्येष्ठ राजकुमारी अम्बा हूँ। स्वयंवर-सभा में देशभर से राजा एवं राजकुमार पधारे थे। स्वयंवर की कार्यवाही प्रारम्भ हो चुकी थी। हम तीनों बहिने हाथ में जयमाल लेकर सभा में उपस्थित हुई। बन्दीजन, राजाओं की विरुदावली सहित वंश- परंपरा का परिचय दे रहे थे। कुछ ही समय बीता कि इतने में गंगापुत्र महारथी भीष्म का ओजमय स्वर उद्‌घोषित हुआ- उपस्थित राजसमूह एवं महाराज काशिराज! मैं शान्तनुपुत्र भीष्म आप सभी के सामने इन तीनों का अपहरण कर रहा हूँ। जिसमें साहस हो युद्धभूमि में मुझे परास्त कर इन्हें वापस ले सकता है। यह कहकर अविलम्ब ही हम तीनों को बलपूर्वक अपने रथ में बैठाकर वे हस्तिनापुर की ओर वायुवेग से चल पड़े। उपस्थित राजाओं का साहस नहीं हुआ कि महाप्रतापी भीष्म से हमलोगों का कोई उद्धार करा सके। असहाय हम तीनों भीष्म के साथ पथिक बन गयीं। भीष्म की सदय दृष्टि से मेरा मन कुछ कहने को व्यग्र हो उठा। मैंने अनुनयपूर्वक कहा-महाराज आप नीतिज्ञ धर्मात्मा हैं। आप मेरी बातें ध्यानपूर्वक सुनकर उचित परामर्श हैं। मैं मन ही मन मद नरेश ‘शाल्व' से प्रेम करने लगी हूँ और वह भी मुझे स्निग्ध दृष्टि से देख रहा था। आप ही बताइये कि पर-पुरुष में अनुरक्त स्त्री को भला कोई अपनी भार्या बना सकता है? मेरी बात सुनकर उन्होंने कहा कि मैं तो आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रती हूँ। अपने भाई के लिए तुम लोगों
को ले चल रहा हूँ। अगर तुम शाल्व से सचमुच प्रेम करती हो तो मैं तुम्हें सम्मानपूर्वक वहाँ भेजवा दूंगा। गंगापुत्र ने मुझे आदर के साथ मद्राधिप के पास भेज दिया। मैं जब वहाँ पहुँची तो शाल्व ने मेरा अभिनन्दन नहीं किया और मुझे स्वीकार करने से साफ मना कर दिया।
          सम्प्रति निराश्रित होकर मरने का निश्चय करके वनभूमि में विचरण कर रही थी कि कोई हिंसक जीव मुझे अपना भोज्य बना ले। यहाँ किसी हिंसक जीव ने मेरी तरफ देखा तक नहीं। मैं हैरान थी। मुझे तपोवन एवं इसका प्रभाव ज्ञात नहीं था। इसी बीच नाना जी ने मुझे आपका दर्शन सुलभ करा दिया। मैं आपकी शरण में हूँ। अब आपही मेरा उद्धार कर सकते हैं। यह
कहकर वह विलख पड़ी।
          अम्बा की बात सुनकर करुणावरुणालय भगवान भार्गव पिघल गये। उन्होंने अम्बा को आश्वस्त करते हुए कहा कि जो कहो, मैं वही करने को प्रस्तुत हुँ । शाल्व भी मेरा कहा नहीं टाल सकता और भीष्म तो मेरा शिष्य हैं। तुम कहाँ जाना चाहती हो? अम्बा ने कहा- भगवन, मुझे शाल्व निरपराध जान पड़ता है। मेरे जीवन की बर्बादी भीष्म ने की है। अतः मैं अब उसी के पास जाना चाहती हूँ। भगवान परशुराम ने भीष्म के पास चलने की तैयारी करने को कह कर रात्रिकालीन विश्राम किया।
ब्राह्म-मुहूर्त में उठकर सन्ध्यादिक क्रिया सम्पन्न करके ऋषि-मुनियों के वध अम्बा को लेकर भगवान भार्गव कुरुक्षेत्र के मैदान में डेरा डालकर भीष्म के पास सन्देश भेजवा दिया। गुरु का आगमन सुनकर अत्यन्त प्रेमपूर्वक आकर भीष्म ने आगवानी की और अपनी श्रद्धा-भक्ति से गुरु का आशीर्वाद प्राप्त किया। कुशलान्तर परशुराम ने कहा-गंगापुत्र! तुम्हारी भक्ति से मैंअत्यन्त प्रसन्न हूँ। मैं जानता हूँ कि तुमने जीवनभर ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा ली है। मैं तुम्हारा गुरु हूँ। मेरे आदेश से तुम्हें व्रतभङ्ग का दोष नहीं लगेगा। अत: मेरे आदेश से तुम अम्बा से शादी कर लो। इसे सुनकर भीष्म चौंक पडे। विनम्र होकर उन्होंने कहा—गुरुवर मुझे ऐसा आदेश न दें जिसे मैं पूरा न कर
सकें। मैंने उस समय यह नहीं कहा था कि गुरु के आदेश से मैं विवाह कर सर्केगा। भीष्म का उत्तर सुनकर परशुराम ने कहा-जानते हो मेरा आदेश न मानकर तुमने अपने मृत्यु को निमन्त्रण दिया है। अब मेरे साथ युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। गुरुदेव, मैं आपसे युद्ध नहीं कर सकता। चाहे मेरे ऊपर अपने परशु का प्रहार करके मेरे प्राण आप ले लें। मुझे तनिक भी आपत्ति नहीं है। इस पर परशुराम ने धिक्कारते हुए कहा-तुम मेरे शिष्य हो। मैंने तुम्हें अशेष धनुर्वेदीय ज्ञान दिया है। तुम्हारे मुख से यह कायरता की बात मैं नहीं सुन सकता। उठो युद्ध की तैयारी करो। भीष्म ने कहा आपका आदेश शिरोधार्य है। आप भी आरामपूर्वक विश्राम करें। पुनः कल युद्ध-भूमि में आपका दर्शन करूंगा। यह कहकर परशुराम के साथ आये अतिथियों का सम्मानपूर्वक प्रबन्ध-व्यवस्था सुनिश्चित करके भीष्म राजमहल की ओर प्रस्थान कर गये। परशुराम ने भी सन्ध्या वन्दनादि करके वह रात्रि कुरुक्षेत्र में ही व्यतीत की।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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