1.राजकुमार शिखण्डी
भरद्वाज-शिष्य द्रुपद
पांचाल नरेश था। वह अत्यन्त बलशाली, धनुर्धर एवं महत्वाकांक्षी राजा था । आचार्य
द्रोण उसके सतीर्थ रहे । चिर प्रतीक्षा के पश्चात उसके एक सन्तान हुई । जन्म से
कन्या सन्तति के बारे में ज्योतिषियों ने भविष्यवाणी की थी-‘यह आगे चलकर यशस्वी
योद्धा होगा । इसी आधार पर उसका लड़के के रूप में पालन-पोषण हुआ । एक आकर्षक घटना
के चलते इस कृत्रिम बालक को पुरुषत्व की प्राप्ति हुई । आगे चलकर ‘शिखण्डी’ नाम से
विख्यात यह अप्रतिम योद्धा बना ।
द्रुपद का साम्राज्य
सम्पन्न था । वह अच्छा प्रशासक, न्यायप्रिय एवं प्रजापालक राजा था । अत्याचार एवं
अवांक्षित कर्म उसके राज्य की सीमा में नहीं होते थे । प्रजा का ममत्व उसे सहज
प्राप्त था । राजा का सहज ठाट-बाट सभी को आकर्षित करता था । शस्त्र एवं शास्त्र
दोनों में वह पारंगत था । इस स्वाभिमानी राजा से अनेक लोगों की प्रतिद्वन्दिता थी
।
राजा का उन्नत सौध । उसमें एक
सुसज्जित-कक्ष, जिसमें राजकुमार शिखण्डी सोया है । उसकी प्रेयसी बगल में लेटी अपने
जीवन-खुशहाली की चादर बीन रही है । अभी ठीक से सो भी न सकी थी कि उसके कान में एक
गम्भीर घोष सुनाई पड़ा-‘इस आततायी का वध कोई नहीं कर सकता।धर्म-धुरन्धर बनने का
ढ़ोंग करता है । यह दुुरधर्ष बड़ा पापी है । इस गुरुद्रोही को मारकर ही मुझे चैन
मिलेगा । भगवान भार्गव केवल उसके गुरु ही नहीं, मेरे भी पथ-प्रदर्शक हैं । मैं
उन्हें अपना गुरु मानता हूँ । मेरे जीवन का मात्र यहीं उद्देश्य है कि पापी भीष्म
की इच्छा-मृत्यु के कवच के बावजूद उसका सर्वनाश कर सकूँ ।’ ये शब्द शिखण्डी की
पत्नी की कानों में अक्षरशः गूँज रहे हैं । वह सोच रही है कि अभी और कुछ सुनने को
मिलेगा, किन्तु आगे खामोशी छाई रही। पत्नी ने शिखण्डी को झकझोर कर जगाया । वह उठ
बैठा । जगाने का कारण पूछा । अक्षरशः दुहराते हुए पत्नी ने सुप्तावस्था में उसके
कथन का रहस्य जानना चाहा । पहले तो राजकुमार नें टालने की कोशिश की , परन्तु
प्रियतमा की जिद ने रहस्योद्घाटन करने को उसे मजबूर कर दिया । एक लम्बी निःश्वास
के साथ शिखण्डी ने बताना शुरू किया –
यह पूर्व जन्म की बात है मैं काशिराज की
तनया थी । मेंरी दो और बहनें थीं । हमारा क्रमशः अम्बा, अम्बिका और अम्बालिका नाम
था । विवाह योग्य होने पर हम लोंगों का एक ही साथ स्वयंवर आयोजित किया गया । देश
भर के राजा और राजकुमार वहाँ उपस्थित हुए । उसी समय शान्तनु-सुत भीष्म वहाँ आये ।
उनके आते ही राजाओं में खलबली मच गयी । उनके अद्वितीय पराक्रम से सभी परिचित थे ।
आते ही भीष्म गर्जना हुयी- ‘उपस्थित राजगण ¡मैं अपने समक्ष इन राजकुमारियों का
अपहरण कर रहा हूँ। जिसके बाहुबल में ताकत हो, हमें रोके ।’ यह कहकर उन्होंने हम
तीनों को बलपूर्वक अपने रथ में बैठा लिया। उसका सारथी वायु-वेग से हम लोगों को ले
उड़ा । सभी लोग अवाक् रह गये । किसी की हिम्मत उनके पीछे पड़ने की नहीं हुई ।
रास्ते में ही सुस्थिर होने पर मैंने साहसपूर्वक भीष्म से कहा- राजन्¡ आप विश्रुत
महात्मा हैं । मैने मन ही मन मद्र नरेश शाल्व को अपना पति वरण किया है । वे भी
मुझे चाहते हैं । पर पुरुष में अनुराग रखने वाली स्त्री को अपनी भार्या स्वीकार
करना कहाँ तक उचित है थोड़ी देर के बाद भीष्म ने कहा- मैंने तो आजीवन ब्रह्मचारी
रहने का संकल्प किया है । अपने भाई के लिए तुम लोगों को ले जा रहा हूँ । तुम अगर
शाल्व को चाहती हो तो सम्मानपूर्वक जा सकती हो । व्यवस्था कर दी जाएगी ।
हस्तिनापुर पहुँचकर मुझे भीष्म ने सम्मानपूर्वक महाराज शाल्व के पास भेज दिया ।
मुझे देखकर महाराज शाल्व
प्रसन्न नहीं हुए । उन्होंने उदासीन होकर मुझसे कहा- भरी सभा में मुझे अपमानित
करते हुए भीष्म ने तुम्हारा अपहरण किया है । अब तुम उनके पास ही जाकर रहो । मैंने
राजा शाल्व से बड़ी ही मनुहार की, किन्तु उनका मन नहीं पसीजा । मैंने आत्मोत्सर्ग
का निश्चय कर अकेले ही राज-प्रासाद का परित्याग कर जंगल की राह पकड़ ली । मैंने
सोंचा कि वृहदारण्य भयानक जानवरों से व्याप्त होगा । वहाँ मुझे कोई भी क्षुधित
हिंसक जीव अपना आहार बना लेगा । कम से कम मुझे वही स्वीकार कर लेगा । इस आशय से
मैं निर्जन प्रान्त में अटन कर रही थी ।
मेरे सम्मुख एक स्नेहमूर्ति
महात्मा प्रकट हुए । उन्होंने बड़े प्यार से मेरा परिचय प्राप्त करके असमय में
तपोवन आने का कारण पूछा । अब मुझे ज्ञात हुआ कि यह तपोवन है । इसीलिए मुझ अभागिनी
पर किसी हिंसक जीव ने भी अब तक कृपा की ।
निम्नलिखित गद्यांश का विसदीकरण(भाव-पल्लवन) कीजिए-
‘इस आततायी का वध कोई नहीं कर सकता।धर्म-धुरन्धर बनने का ढ़ोंग करता है । यह दुरधर्ष बड़ा पापी है । इस गुरुद्रोही को मारकर ही मुझे चैन मिलेगा । भगवान भार्गव केवल उसके गुरु ही नहीं, मेरे भी पथ-प्रदर्शक हैं । मैं उन्हें अपना गुरु मानता हूँ । मेरे जीवन का मात्र यहीं उद्देश्य है कि पापी भीष्म की इच्छा-मृत्यु के कवच के बावजूद उसका सर्वनाश कर सकूँ ।
सन्दर्भ- प्रस्तुत गद्यांश हमारी पाठ्यपुस्तक 'प्रतिशोध' के 'राजकुमार शिखण्डी' से लिया गया है। प्रतिशोध के लेखक 'डॉ रमेश चन्द्र पाण्डेय' जी हैं।
प्रसङ्ग-
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