अनुकरण सिद्धान्त


1.अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त

प्लेटो कला और अनुकरण का घनिष्ठ सम्बन्ध मानते हैं। मूल आदर्श की विशुद्ध अनुकृति न होने के कारण कला को हेय मानते हैं, अनुकरण को गंभीर कार्य नहीं स्वीकार करते और उसमें निहित खतरों-अज्ञान भ्रान्ति, असावधानी, उससे प्राप्त उत्तेजना आदि के कारण उसे त्याज्य मानते हैं। वह अनुकरण का समर्थन उसी सीमा तक करते हैं जबकि प्रथम तो वह वस्तु जिसका अनुकरण किया जा रहा हो शुभ हो और दूसरे वह अनुकरण-सत्य के समीप हो।
           अरस्तू ने काव्य कला को विशुद्ध दार्शनिक, राजनीतिक तथा नीति की दृष्टि से न  देखकर सौन्दर्यशास्त्र की दृष्टि से देखा और इस प्रकार स्काट जेम्स के शब्दों में अरस्तू ने काव्य को दार्शनिक, राजनीतिज्ञ तथा बौद्धिक शास्त्री आदि से मुक्त किया। उसने प्रत्येक कला कृति को सौन्दर्य की वस्तु मानायही कारण है कि अनुकरण के सम्बन्ध में अरस्तू का मत प्लेटो से भिन्न है।
          अरस्तू ने प्लेटो द्वारा प्रयुक्त ‘मिमैसिस’ अनुकरण शब्द को स्वीकार किया परन्तु उसे एक नवीन अर्थ प्रदान किया। प्लेटो ने अनुकरण शब्द का प्रयोग हूबहू ज्यों का त्यों नकल करने के अर्थ में लिया था। अरस्तू ने उसका एक सीमित तथा निश्चित अर्थ ग्रहण किया है। बूचर के शब्दों में अरस्तू ने अपने युग में प्रचलित ‘कला अनुकरण है।’ इस सूत्र को तो स्वीकार किया परन्तु उसकी नवीन व्याख्या की।
          अरस्तू कला को प्रकृति की अनुकृति मानता है। कविता सामान्यतः मानवीय प्रकृति की दो सहज प्रवृत्तियों से उद्भूत हुई जान पड़ती है। इनमें से एक है—अनुकरण की प्रवत्ति। कला प्रकति का अनुकरण करती है। उनके अनुसार अनुकरण का विषय गोचर वस्तुएँ न होकर उनमें निहित प्रकृति नियम है। उसने अपने ग्रन्थ पौलिटिक्स में लिखा है-“प्रत्येक वस्तु पूर्व विकसित होने पर जो होती है उसे ही हम उसकी प्रकृति कहते हैं। प्रकृति इसी आदर्श रूप की उपलब्धि की ओर निरन्तर कार्यरत रहती है किन्त कई कारणों से वह अपने इस लक्ष्य की प्राप्ति में सफल नहीं हो पाती। कवि या कलाकार उन अवरोधक कारणों को हटाकर प्रकृति की सर्जन क्रिया का अनुकरण करता हुआ। प्रकृति के अधूरे काम को पूरा करता है। वह प्रस्तुत वस्तु को ऐसा रूप प्रदान करता है कि उससे उस वस्तु के विश्व व्यापक और आदर्श रूप का बोध हो जाए। इस प्रकार अरस्तू के अनुसार अनुकरण एक सर्जन क्रिया है।” इस सम्बन्ध में एवर क्रोम्बे का मत भी उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है कि- “अरस्तू का तर्क था कि यदि कविता प्रकृत का केवल दर्पण होती तो वह हमें उसमें कुछ अधिक नहीं दे सकती थी, जो प्रकृति देती है। परन्तु तथ्य यह है कि हम कविता का आस्वादन इसलिये करते हैं कि वह हमें वह प्रयोग करती है जो प्रकृति नहीं दे सकती।” अरस्तू ने कविता में अनुकरण का वही अर्थ ग्रहण किया है जो अर्थ आजकल हम तन्त्र या शिल्प का मानते हैं। तात्पर्य यह है कि वस्तु जगत के द्वारा कवि की कल्पना में जो वस्तु रूप प्रस्तुत होता है, कवि उसी को भाषा में प्रस्तुत करता है। यह पुनर्प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है। अनुकरण वह तन्त्र है जिसके द्वारा कवि अपनी कल्पनात्मक अनुभूति की प्रक्षेपणीय अभिव्यक्ति को अन्तिम रूप देता है। सारांश यह है कि अनुकरण का अर्थ हुबहु नकल नहीं बल्कि संवेदना, अनुभूति, कल्पना, आदर्श आदि के प्रयोग द्वारा अपूर्ण को पूर्ण बनाता है और कवि सर्जन प्रक्रिया में निरत होकर यही करता है।

अनुकरण की वस्तुएँ-
          अरस्तू के अनुसार कलाकार तीन प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक का अनुसरण कर सकता है—जैसे वे थीं या हैं अथवा जैसी वे कही या समझी जाती हैं और जैसा होनी चाहिए। स्पष्ट है कि काव्य का विषय प्रकृति के प्रतीयमान, सम्भाव्य व आदर्श रूप को मानते हैं। कवि को स्वतंत्रता है कि वह प्रकत को उस रूप में चित्रित कर वह उसकी इन्द्रियों को प्रतीत होती है अथवा जैसी वह भविष्य में प्रतीत हो सकती है या फिर उस रूप में चित्रित करे जैसी या फिर जैसी वह होनी चाहिए। इस चित्रण में निश्चय ही कवि की भावना और कल्पना का योगदान होगा—वह नकल मात्र नहीं होगा। प्रतीयमान एवं संभाव्य रूप में यदि वह भावना और कल्पना का आश्रय लेगा तो आदर्श रूप में वह अपनी रुचि इच्छा और आदर्शों के अनुरूप चित्र प्रस्तुत करेगा। इस प्रकार अरस्तू का अनुकरण सिद्धान्त भावनामय तथा कल्याणमय अनुकरण को मानकर चलता है, शुद्ध प्रतिकृति को नहीं। अपने गुरु प्लेटो से इसी कारण वह भिन्न तो है ही साथ ही आगे भी है।

कविता और इतिहास का पारस्परिक सम्बन्ध-अरस्तू का मत है कि कविता इतिहास की अपेक्षा अधिक दार्शनिक एवं उच्चतर वस्तु है। कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि इतिहासकार तो उसका वर्णन करता है जो घटित हो चुका है। और कवि उसका वर्णन करता है जो घटित हो सकता है। काव्य सामान्य की अभिव्यक्ति है और इतिहास विशेष की। उनके इस कथन में इतिहास के सत्य को पूर्ण एवं अव्यापक बताया गया है और काव्य के सत्य को अपूर्ण एवं व्यापक कहा गया है। पूर्ण वस्तु परक होता है जब कि अपूर्ण का चित्रण कल्पना अनभूति तथा विचार पर आश्रित होता है। अंत: उनके काव्य और इतिहास सम्बन्धी विवेचन से भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अनुकरण से अरस्तू का अभिप्राय भावपरक अनुकरण से था न कि यथार्थ वस्तुपरक प्रत्यंकन से ।

कार्य से अभिप्राय-त्रासदी के विवेचन में अरस्तू ने लिखा है कि वह मनुष्यों का नहीं वरन् कार्य का और जीवन का अनुसरण करती है। कार्य शब्द का प्रयोग उन्होंने मानव जीवन के चित्र के अर्थ में किया है। जो कुछ भी मानव जीवन के आन्तरिक पक्ष को व्यक्त कर सके, बुद्धि सम्मत व्यक्तित्व का उद्घाटन करे वह सभी कुछ कार्य शब्द के अन्तर्गत आयेगा। अंत: कार्य का अर्थ केवल मनुष्य के कर्म ही नहीं उसके विचार,भाव तथा चरित्र आदि भी हैं जो कर्म के लिये उत्तरदायी होते हैं। इस प्रकार अरस्तू ने कार्यशब्द को अत्यधिक व्यापकता प्रदान कर दी है। अत: यहाँ भी अनुकरण का अर्थ नकल न होकर पुन: प्रस्तुतीकरण ही उचित प्रतीत होता है। इसी संदर्भ में उन्होंने लिखा है कि काव्य में जिस मानव का चित्रण होता है, वह सामान्य मानव से अच्छा भी हो सकता है उससे कुछ भी हो सकता है और वैसा का वैसा भी हो सकता है। परन्तु उन्होंने तीसरे वर्ग की चर्चा न करके केवल सामान्य से अच्छे और बुरे की चर्चा की है। इस चर्चा से भी स्पष्ट है कि वह काव्य में प्रकृति के अन्धानुकरण के विरुद्ध थे क्योंकि सामान्य से अच्छा या बुरा मानव चित्रित करने के लिये तो कल्पना तत्त्व आवश्यक है।अतः अनुकरण से उनका अभिप्राय कलात्मक पुन: सर्जन था जिसमें कुछ चीजें बढ़ाई जा सकती हैं और कुछ अनावश्यक बातें छोड़ी भी जा सकती हैं।

आनन्द सम्बन्धी मत–अरस्तू ने एक स्थान पर लिखा है कि जिन वस्तुओं का प्रत्यक्ष दर्शन हमें दु:ख देता है उसके अनुकरण द्वारा प्रस्तुत रूप हमें आनन्द प्रदान करता है। डरावने जानवर को देखने में हमें भय एवं दुख होता है किन्तु उसका अनुकृत रूप हमें आनन्द प्रदान करता है। इसका आशय यह हुआ कि अनुकरण द्वारा वास्तविक जीवन में भय और दुख की अनुभूति प्रदान करने वाली वस्तु का इस प्रकार प्रस्तुत किया जाता है कि उससे केवल आनन्द की उत्पत्ति होती है। भय और दु:ख का निराकरण हो जाता है। यह अनुकरण निश्चय ही यथार्थ वस्तुपरक अंकन न होकर भावात्मक और कल्पनात्मक होगा। अरस्तू का यह मत भारतीय रस सिद्धान्त से काफी कुछ मिलता जुलता प्रतीत होता है।
                    अरस्तू का कथन है कि अनुकृत वस्तु से प्राप्त आनन्द कम सार्वभौम नहीं होता।यद्यपि इस कथन में अरस्तू का संकेत सहृदय के ही आनन्द से है परन्तु सहृदय को भी तभी आनन्द प्राप्त हो सकता है जब कवि के हृदय में भी आनन्द भाव की अनुभूति हो।।इसका अर्थ यह हुआ कि अनुकरण में आत्म तत्त्व का प्रकाशन अनिवार्य है,आत्माभिव्यंजन आवश्यक है, वह केवल वस्तु का यथार्थ अंकन नहीं है। यथार्थ अंकन में वास्तविक आनन्द की अनुभूति हो ही नहीं जाती।
निष्कर्ष—इस प्रकार अरस्तु के विविध कथनों की व्याख्या करने के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अनुकरण से अरस्तू का अभिप्राय भावनापूर्ण अनुकरण से था यथार्थ प्रत्येकन से नहीं। यह अनुकरण सुन्दर होगा, आनन्द प्रदान करेगा, पाठक के मन को उसकी वास्तविकता के प्रति आश्वस्त करेगा। उसमें आदर्श तत्त्व भी होगा और व्यष्टि से सम्बद्ध होते हुए भी वह सार्वभौम और समष्टिगत सत्य का प्रतिपादन भी करेगा। यही मान्यताएँ अरस्तू को प्लेटो से अलग करके उसका महत्त्व बढ़ा देती हैं। बूचर, प्रो० गिलबर्ट, मरे तथा आधुनिक टीकाकार पास भी अरस्तू का समर्थन करते हैं।

अनुकरण सिद्धान्त की शक्ति एवं सीमाएँ—यह सत्य है कि अनुकरण को नया अर्थ प्रदान कर अरस्तू ने कला का स्वतंत्र अस्तित्व स्थापित किया, सुन्दर को शिव से अधिक विस्तृत माना। कला पर प्लेटो द्वारा लगाए गये आरोपों को वृथा बतलाया और कविता को दार्शनिकता तथा नीति के चंगुल से छुटकारा दिलाया तथापि उनका अनुकरण सिद्धान्त पूरी तरह निर्दोष नहीं है।
(1) वह आत्म तत्त्व तथा कल्पना तत्त्व को स्वीकार करते हुए भी वस्तु-तत्त्व को प्रधानता देता है। वस्तु को उद्दीपक निमित्त मात्र नहीं मानता अपितु आधार रूप मानता है। वह व्यक्ति परक भाव तत्त्व से अधिक महत्त्व वस्तु तत्त्व को देता है जो निश्चय ही अनुचित है, क्योंकि भाव तत्त्व के बिना कविता कविता न रहकर प्रलाप या नीति अथवा उपदेश परक बनकर रह जाती है।
(2) दूसरे उसकी परिधि बड़ी संकुचित है। उससे कवि की अन्तश्चेतना को उतना महत्त्व नहीं दिया गया जितना कि दिया जाना चाहिए था।
(3) विश्व का गीति काव्य जो मात्रा में अब सबसे अधिक हो गया है उसकी परिधि के भीतर नहीं समा सकता।
इस प्रकार प्लेटो के अनुसार यदि अनुकरण का अर्थ मूल आदर्श का अनुकरण था
तो अरस्तु के अनुसार कल्पनात्मक पुनर्निमाण।।व कविता के विश्लेषण में अनुकरण सिद्धान्त का महत्त्व बहुत कम हो गया है। वकरण के स्थान पर कल्पना या नवोन्मेष को अधिक महत्त्व दिया जाता है फिर अनकरण का आग्रह आलोचना जगत से बिलकुल हट गया हो, यह बात नहीं है।
कविता और नाटक में प्रगतिवाद के रूप में और कथा साहित्य में यथार्थवाद अतियथार्थवाद और प्रगतिवाद के रूप में विद्यमान है।
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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