अभिज्ञान शाकुन्तलम का नामकरण


'अभिज्ञानशाकुन्तलम्' नामकरण का कारण
अभिज्ञानशाकुन्तल का नायक राजा दुष्यन्त कण्व ऋषि के आश्रम को प्राप्त करता है और
समयानुसार कण्व की धर्मसुता शकुन्तला का गान्धर्वविधि से पाणिग्रहण कर अपनी राजधानी
लौटते समय शकुन्तला को अभिज्ञान (पहचान) स्वरूप अपनी अँगूठी प्रदान करता है, जिस पर
‘दुष्यन्त' नाम खुदा हुआ है। शकुन्तला के पूछने पर कि पुनः आपका दर्शन कब होगा, राजा
कहता है कि इस अँगूठी पर खुदे हुए अक्षरों की एक-एक करके गणना करना (दु-ष्य-न्त)।
जब तुम अन्तिम अक्षर पर पहुँचोगी तो इसी बीच हमारे अन्तःपुर के सेवक तुम्हें हमारे
अन्तःकरण में पहुँचा देंगे। दैववश शकुन्तला आश्रम में दुष्यन्त के विरह में व्याकुल हो अपनी
सुध-बुध खोई हुई पड़ी होती है तभी उत्तम तपस्वी किन्तु क्रोधी दुर्वासा आश्रम में प्रवेश करते
हैं, किन्तु शकुन्तला दुष्यन्त के चिन्तन में निमग्न अपने द्वार पर उपस्थित अतिथि को न जान
सकी, आतिथ्यसत्कार तो दूर रहा। दुर्वासा ऋषि अपना अतिथिसत्कार न पाकर शाप दे देते
हैं कि ओह ! अतिथि का तिरस्कार करने वाली! अनन्य भाव से जिसका तू चिन्तन कर रही
है, वही तुझे भूल जाएगा। इसके बाद प्रियम्वदा के अनुनय-विनय करने पर ऋषि कहते हैं कि
अभिज्ञान (पहचान) का आभूषण अँगूठी दिखलाने से मेरा शाप समाप्त हो जाएगा। शकुन्तला
के दैव को अनुकूल करने के लिए सोमतीर्थ गये हुए कण्व ऋषि जब पुनः अपने आश्रम में
वापस आते हैं तब उन्हें शकुन्तला व दुष्यन्त के विवाह का समाचार प्राप्त होता है। फिर वे
शकुन्तला को राजा के पास भेज देते हैं, किन्तु दुर्वासा के शाप के कारण राजा उसे नहीं ।

Scan @ 27 Jul 2019 10:59 AM
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शकन्तला
पहचानता है। फिर शकुन्तला राजा के नाम की अँगूठी दिखलाना चाहती है, किन्त त
तो दैवातू शचीतीर्थ का वन्दन करते समय जल में गिर चुकी थी। निराश हो जब
अपने दैव को धिक्कारती हुई रुदन करने लगती है तभी उसकी माँ मेनका ने अदृश्य होकर
तेजोमयी मूर्ति बनकर उसे उठा ले गई और उसे हेमकूट पर्वत पर स्थित मारीच आ
पहुँचा दिया। इसी आश्रम में शकुन्तला एक पुत्र को जन्म देती है, जो सर्वदमन और भरत के
नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसके बाद राजपुरुषों को राजा के नाम की अँगूठी एक धीवर के पास
से प्राप्त हुई। उस अँगूठी के साथ धीवर को भी उपस्थित किया जाता है। राजा जब अंगठी
देखता है तब उसे शकुन्तला के साथ गान्धर्वविवाह का वृत्तान्त स्मरण हो जाता है। तब वह
धीवर को पुरस्कृत करवाता है तथा स्वयं शकुन्तला के विरह में दुःखी रहने लगता है। इस
प्रकार इस नाटक के पञ्चम अंक में अँगूठी देखकर राजा को शकुन्तला की याद आती है।
अतएव प्रकृत नाटक को ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्' कहते हैं। इसमें दो अंश हैं—एक अभिज्ञान
दूसरा शकुन्तला । अभिज्ञान का अर्थ है पहचानने का साधन-अभिज्ञायतेऽनेनेति अभिज्ञानम्।
व्युत्पत्ति कई प्रकार से की जाती है-(१) अभिज्ञानम्=अभिज्ञानभूतं तत् शाकुन्तलम् इति
अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् शकुन्तलाविषयक वह नाटक जो अभिज्ञानस्वरूप हो। (२) अभिज्ञानेन
स्मृतं शाकुन्तलं=शकुन्तलाविषयकं वृत्तान्तं यस्मिन् तत् अभिज्ञानशाकुन्तलम्-अर्थात् शकुन्तला-
विषयक विवाह का वृत्तान्त, जिसमें निशानी के रूप में स्मृत हो आया हो।
(३) अभिज्ञानम्=परिचयस्वरूपं शाकुन्तलम्=शकुन्तलासम्बन्धिचुरितं यत्र=यस्मिन् नाटके
तत् अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् जिस नाटक में शकुन्तला का विवाह आदि वृत्तान्त अभिज्ञान
प्रधान हो। (५) अभिज्ञानं च शकुन्तला च अभिज्ञानशाकुन्तले ते अधिकृत्य कृतं नाटमिति
अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् शकुन्तला के विषय में निशानी या परिचय जिस नाटक में निबद्ध
हो, उसे अभिज्ञानशाकुन्तल कहते हैं। (६) अभिज्ञानेन स्मृता स्मृतिपथमानीता शकुन्तला
अभिज्ञानशकुन्तला तामधिकृत्य कृतं नाटकमिति अभिज्ञानशाकुन्तलम् । अर्थात् जिस नाटक में
अभिज्ञान से स्मृत ‘शाकुन्तलम्' नाम मिलता है। ऐसी स्थिति में इसकी व्याख्या इस प्रकार
होगी–‘अभिज्ञायते अनेन इति अभिज्ञानम्, अभिज्ञानेन स्मृता=स्मृतिपथमानीता शकुन्तला
यस्मिनु (नाटके) तत् अभिज्ञानशाकुन्तलम् । शाकपार्थिवादि समास होने से ‘शाकपार्थिवादीनां
सिद्धये उत्तरपदलोपस्योपसंख्यानम्' वार्तिक द्वारा स्मृति का लोप हो जाता है। नाटक का
विशेषण होने के कारण दोनों में अभेद मानकर नपुसंकलिंग में ह्रस्व हो जाने से ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम् ।
होगा। विशेष प्रचलित नाम ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्' ही है।।
| अभिज्ञान (पहचान) शब्द का प्रयोग आदिकाव्य वाल्मीकीय रामायण में भी प्राप्त होता है।
संभवतः महाकवि के द्वारा ‘अभिज्ञान' शब्द यहीं से ग्रहण किया गया हो। सुन्दरकाण्ड में
हनुमान जी सीता जी से कहते हैं कि मेरे द्वारा आपका दर्शन कर लिया गया है। इसके
प्रमाणस्वरूप आप हमें कोई अपनी निशानी दे दें, ताकि श्रीरामचन्द्र जी को भी ज्ञात हो
जाय-“अभिज्ञानं प्रयच्छ त्वं जानीयाद् राघवो यतः ।।३८/१०।। सीता जी ने पहचान बताते हुए
कहा-“इदं श्रेष्ठमभिज्ञानं ब्रूयास्त्वं तु मम प्रियम् ।।३८/१२ ।।




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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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