अलंकार सिद्धान्त


अलंकार सिद्धान्त


भामह शब्द और अर्थ दोनों के सहित भाव को काव्य मानते हुए शब्द और अर्थ की  वक्रता को काव्यसौंदर्य का मूल मानते है । शब्द और अर्थ को विभामय करने वाली वक्रोक्ति ही उसके अनुसार अलंकार है । तत्पश्चात दण्डी काव्य के समस्त शोभाकारक धर्मों को अलंकार की संज्ञा देते हुए कहते है कि- ‘काव्यशोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते’
आचार्य रुद्रट के अनुसार कथन के प्रकार विशेष अलंकार हैं-अभिधानप्रकार विशेषा एव चालंकाराः
 आचार्य वामन ने अलंकार को व्यापक तथा सीमित दो रूपों में प्रयुक्त किया व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार मानते हुए कहा- “सौंदर्यमलंकारः”
लेकिन इसी के साथ वे अलंकार को काव्य का अनित्य धर्म और गुण को नित्य धर्म मानते हुए कहते हैं- काव्य शोभायाः कर्तारौ धर्माः गुणाः । तदतिशयहेतवस्त्वलंकाराः”
काव्य का शोभाकारक धर्म गुण है और उसकी अतिशयता का हेतु अलंकार है इस परिभाषा से अलंकारों की तुलना में गुण की महत्ता बढ़ गयी । आनन्दवर्धन ने अलंकारों के महत्व में गुणात्मक अन्तर करते हुए बताया कि-
“तत् (रस) प्रकाशिनो वाच्यविशेषा एव रूपकादयोलंकाराः”
“अंगाश्रितास्त्वलंकाराः मन्तव्याः कटकादिवत्”
इन्होंनें काव्य में “ध्वनि” को आत्मरूप स्थान देते हुए अलंकार को उसके प्रकाशन में तुरूप स्वीकार किया और इसके साथ ही कहा कि जिस प्रकार कटकादि आभूषण शरीर की शोभा का वर्धन करते है लेकिन उनका शरीर से अवयव की भाँति समवाय सम्बन्ध नहीं होता, बल्कि संयोग सम्बन्ध होता है उसी प्रकार अलंकारों का भी

अलंकार सिद्धान्त से तात्पर्य काव्य-सौन्दर्य निरूपक वह सिद्धान्त है जिसमें अलंकार की व्यापक परिकल्पना करते हुए समस्त काव्य-सौन्दर्य के मूल में उसे प्रतिष्ठित किया जाता है और काव्य के अन्य शोभाधायक तत्त्वों यथा रीति, गुण, रस, ध्वनि आदि को उसके अंगभूत रूप में प्रस्तुत किया जाता है।
भरतमुनि के "नाट्यशास्त्र" में रस का चिन्तन प्रधान है तथा अव्यकाव्य परम्परा के प्रथम प्रामाणिक आचार्य भामह के ग्रन्थ "काव्यालंकार" में अलंकार का। भामह ने मुख्य रूप से काव्य, काव्यालंकारों, गुण, दोष एवं शब्द शुद्धि जैसे विषयों का विवेचन किया है और रस का प्रायः विवेचन नहीं किया जिसे लक्ष्य कर कतिपय साहित्य चिन्तकों ने कहा कि भामह की काव्यचर्चा भरत के रस-प्राधान्य के विरोध में अग्रसर हुई। लेकिन ऐसा कहना भामह के प्रति अन्याय होगा क्योंकि उन्होंने काव्य में रस तत्त्व का कहीं निषेध नहीं किया है बल्कि महाकाव्य में रस का स्पष्ट निर्देश किया है। भामह का मुख्य उद्देश्य था श्रव्य-काव्य जो मूलतः शब्दार्थ का काव्य होता है उसमें शब्द और अर्थ के सौन्दर्य-परक सम्बन्ध की खोज करना।
भामह ने अपने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही सत्कवित्व की गरिमा प्रतिष्ठित की और इतना ही नहीं,अपने समय में प्रचलित काव्य सम्बन्धी विविध मतों का उद्धरण देते हुए यह प्रतिपादित किया कि वस्तुतः काव्य क्या है? उनके शब्दों में-
रूपकादिरलंकारस्तस्यान्यैर्बहुधोदितः।
न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिताननम्॥
रूपकादिमलंकारं बाह्यमाचक्षते परे।
सुपा तिंग च व्युत्पत्तिं वाचां वाञ्छन्त्यलड्.कृतिम्॥
तदेतदाहुः सौशब्द्यं नार्थव्युत्पत्तिरीदृशी।
शब्दाभिधेयालंकारभेदादिष्टं द्वयं तु नः॥
शब्दार्थों सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद्विधा।
संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंशं इति त्रिधा॥
यहाँ पर भामह अपने समय में प्रचलित काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी विविध अवधारणाओं का परिचय देते हुए कहते हैं कि कुछ आलंकारिक अर्थ को महत्व देते हुए यह उत्कट रूप में मानते हैं कि रूपकादि अलंकार ही काव्य के शोभाधायक धर्म हैं, जिस प्रकार रमणी का मुख
सन्दर होने पर भी अलंकारविहीन होने से कान्तियुक्त नहीं होता उसी प्रकार रूपकादि अलंकार से विहीन काव्य सुन्दर नहीं होता। इसके विपरीत दूसरा मत उन आलंकारिकों का है जो रूपकादि अलंकारों को काव्य के लिये बाह्य मानते हुए कहते हैं कि वस्तुत: व्याकरणिक
शदि (सबन्त और तिङ्न्त) और शब्द निर्माण सौष्ठव (सौशब्द्य) पर ही काव्य का सौन्दर्य निर्भर करता है। इनके अनुसार, सर्वप्रथम हमें सुशब्द एवं उनका संयोजन आकर्षित करता है और उसके पश्चात उसका अर्थ। अतः सौशब्द्य का महत्व अपेक्षाकृत अधिक है। भामह ने
कि व्याकरण शुद्धि एवं सोशब्द्य के साथ अर्थ व्युत्पत्ति अर्थात अर्थ संस्कार भी होना अनिवार्य है क्योंकि काव्य तो "शब्दार्थों सहितौ" होता है जिसकी गद्य और पद्य दो विधाएँ हैं। भामह ने यद्यपि अलंकार को सिद्धान्त के रूप में यत्नपूर्वक व्यवस्थित ढंग से प्रस्तुत
करने का कोई प्रयल नहीं किया तथापि यह निर्विवाद है कि उनके विषय विवेचन से काव्य सिद्धान्त को एक व्यवस्थित और शास्त्रीय रूप उपलब्ध हुआ। वाणी की अलंकृति कहाँ है इसका रहस्योद्घाटन करते हुए भामह कहते हैं-
न नितान्तादिमात्रेण जायते चारुता गिराम्।
वक्राभिधेयशब्दोक्तिरिष्टा वाचामलकृतिः॥
वाणी की अलंकृति शब्द और अर्थ दोनों की वक्रता में है। भामह जितना वक्र अभिधेय के लिये कृत संकल्प हैं उतना ही शब्दोक्ति के लिये भी। इसीलिये इन्होंने नेयार्थ, क्लिष्ट, अन्यार्थ, अवाचक,गूढशब्दाभिधान, श्रुति दुष्ट आदि जैसे दोषों का भी उल्लेख किया है जिनके
प्रयोग से वाणी की चारुता हत होती है। भामह कवि की तुलना मालाकार से करते हुए कहते हैं जिस प्रकार मालाकार अनेक साधारण, असाधारण फूलों, पत्तियों आदि को लेकर माला पिरोने बैठता है, लेकिन उसकी माला तभी सुन्दर बनती है जब वह उन फूलों, पत्तियों का समुचित विन्यास कौशलपूर्वक करे। उसी प्रकार कवि का काव्य भी तभी वक्रतापूर्ण बनता है जब वह विदग्धतापूर्वक शब्दों का चयन एवं वाक्य में उनका विन्यास करता है। भामह अलंकार की व्यापक परिकल्पना करते हुए उसे मात्र शब्दालंकार एवं अर्थालंकार तक सीमित नहीं मानते वरन् काव्य-सौन्दर्य के पूरे स्वरूप को "अलंकार" शब्द में समाहित करते हैं और उसे कुछ विशिष्ट अलंकारों के रूप में प्रस्तुत भी करते हैं । वक्रार्थ विधायक शब्दोक्ति को अलंकार मानते हुए वे वक्रोक्ति को समस्त अलंकारों के बीज रूप में प्रतिष्ठित
करते हैं। वक्रोक्ति के बिना कोई अलंकार है ही नहीं क्योंकि अर्थ को विभामय करने वाली समस्त विधाएँ वक्रोक्ति ही हैं और कवियों को उसके लिये यत्न करना चाहिए।
वक्रोक्ति का स्वरूप
भामह ने वक्रोक्ति शब्द को कहीं व्याख्या नहीं की। अत: उनके ग्रन्थ में यत्र-तत्र बिखरे सूत्रों को पकड़कर वक्रोक्ति का स्वरूप जानना होगा। उन्होंने वक्रोक्ति से विरुक्त नीरस उक्ति को वार्ता कहा और प्रत्यक्षतः तो नहीं लेकिन प्रकारान्तर से स्वभावोक्ति को अलंकार नहीं
माना। उन्होंने अतिशयोक्ति सहित अन्य काव्यालंकारों का उल्लेख करने के पश्चात् कहा- "सै/ सर्वेव वक्रोक्तिः "
यह सब वक्रोक्ति ही है। इसर लक्षित होता है कि वास्तव में अतिशयोक्ति में ही वक्रोक्ति निहित है। अतिशयोक्ति को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं- "निमित्ततो वचो यत्तु लोका तेक्रान्त गोचरम्"-काव्यालंकार ११.८१
दण्डी इसकी व्याख्या करते हुए कहते हैं कि अलंकारों की वक्रता का मूल अतिशय वस्तुतः इस "लोकातिक्रान्ति गोचरता" में ही होता है। इससे. यह अभिव्यंजित होता है कि लोकोत्तीर्ण या विशिष्ट अभिव्यक्ति "वक्रता" को लक्षित करती है। भामह की यह निश्चित
मान्यता है कि वक्रोक्ति के बिना काव्य में अलंकार संभव नहीं हो सकता। उन्होंने सूक्ष्म, हेतु लेश जैसे अलंकारों को इसीलिये अस्वीकार किया है कि उनमें वक्रोक्ति का समावेश नहीं। वक्रोक्ति में एक प्रकार का "अतिशय" होता है इसे अनेक आचार्यों ने स्वीकार किया है
जैसे-दण्डी, कुन्तक आदि। आनन्दवर्द्धन के अनुसार भी प्रत्येक अलंकार में "अतिशय" का समावेश हो सकता है और कवि प्रतिभायुक्त अतिशयोक्ति में अत्यन्त चारुता होती है, अन्य केवल अलंकार मात्र होते हैं। आचार्य वामन प्रथम आचार्य हैं जिन्होंने "वक्रोक्ति" का प्रयोग सीमित अर्थ में किया और इसे एक अर्थालंकार माना। वे सादृश्य पर आधारित लक्षणा को वक्रोक्ति अलंकार कहते हैं लेकिन यह धारणा परवर्ती आचार्यों द्वारा मान्य नहीं हुई क्योंकि गौणी लक्षणा और वक्रोक्ति में किसी प्रकार का सम्बन्ध स्थापित नहीं हो सकता।
आचार्य रुद्रट ने वक्रोक्ति को शब्दालंकार मानकर काकु वक्रोक्ति और श्लेष वक्रोक्ति इसके दो भेद किये जिसे प्रायः अधिकांश परवर्ती आचार्यों द्वारा मान्यता मिली। सारांशतः "वक्रोक्ति" को अलंकार के मूल में स्वीकार कर भामह ने अलंकार को जो व्यापकता एवं
महनीयता प्रदान की वह कालान्तर में सीमित हो गयी। इस संदर्भ में आचार्य कुन्तक को चर्चा अनिवार्य है क्योंकि इन्होंने पुनः एक बार भामह की "वक्रोक्ति" को व्यापकता प्रदान की और सर्वप्रथम "वक्रोक्ति" का अर्थ भी स्पष्ट किया। कुन्तक ने "वक्रोक्ति" को काव्य का जीवित सिद्ध करते हुए वक्रोक्ति सिद्धान्त की उद्भावना की और वक्रता के सम्पादन में कवि प्रतिभा के महत्व को विशेष रूप से रेखांकित
किया। उल्लेखनीय है कि भामह एवं कुन्तक की वक्रोक्ति परिकल्पना में अन्तर है जो वक्रोक्ति सिद्धान्त के प्रतिपादन क्रम में स्पष्ट किया जायेगा। कुन्तक के समकालीन भोजराज ने वक्रोक्ति का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए "वक्र-वचन" को काव्य कहा और समस्त वाड्मय को तीन भागों में विभक्त किया-रसोक्ति, वक्रोक्ति और स्वभावोक्ति। कालान्तर में मम्मट, विश्वनाथ, रुय्यक, विद्यानाथ एवं अप्पय दीक्षित प्रभृति आचार्यों ने वक्रोक्ति को एक अलंकार विशेष ही माना, हाँ, प्रथम दो ने शब्दालंकार तो शेष तीन ने अर्थालंकार । इस प्रकार वक्रोक्ति की व्यापक परिकल्पना अलंकार विशेष में सीमित हो गयी जो अलंकार के महत्व के क्षीण होने का संकेत देती है।
                    अलंकार को सिद्धान्त रूप में व्यवस्थित करने का श्रेय भामह के परवर्ती आचार्यों को है जिनमें दण्डी, उद्भट का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। वैसे इन आचार्यों की श्रेणी में आचार्य रुद्रट का भी नाम लिया जाता है, लेकिन जिस अर्थ में भामह,दण्डी और उद्भट ने अलंकार की परिकल्पना की उस अर्थ में रुद्रट ने नहीं। यद्यपि इन्होंने अलंकारों के वर्गीकरण तथा अलंकारों की संख्या के विकास आदि में उल्लेखनीय योगदान दिया। वस्तुत: अलंकार सिद्धान्त के प्रणेता रूप में उन्हीं आचार्यों के नाम परिगणित किये जा
सक हैं, जिन्होंने अलंकार को काव्य-सौन्दर्य के केन्द्र में रख कर अन्य सौन्दर्याधायक तत्वों की इ अगभूत रूप में प्रस्तुति की है।
भामह ने काव्य को अनेक रूपों में विभाजित किया जैसे भाषा के आधार पर, विषय के आधार पर और कहा कि ये सब काव्य के रूप महत्वपूर्ण तब होते हैं जब ये वक्र स्वभाव से युक्त हों।
                    भामह ने वामन द्वारा प्रतिपादित "रीति" तत्व का उल्लेख तो कहीं नहीं किया, लेकिन वैदी एवं गौडीय दो प्रकार की काव्य रचना का उल्लेख अवश्य किया है और यह स्पष्ट रूप से प्रतिपादित किया है कि केवल वैदर्भी नाम से ही कोई काव्य न तो उत्तम हो जाता है न गौडीय नाम से हीन। इससे यह ज्ञात होता है कि उनके काल में वैदर्भी को श्रेष्ठ और गौडीय को हीन मानने की प्रवृत्ति प्रचलित थी। इसे भेड़चाल चलने वाली गतानुगतिक प्रवृत्ति कह कर भामह ने इसकी निन्दा की और कहा कि यदि गौडीय काव्य में अलंकारवत्ता है, अग्राम्यता है और समुचित, सम्पूर्ण अर्थ को वहन करने की क्षमता है, सरलता है तो वह वैदर्भी की तरह ही श्रेष्ठ है।
           भामह ने वामन की भाँति गुण का सम्बन्ध रीति से नहीं स्थापित किया बल्कि गुण का सम्बन्ध काव्य के स्वरूप से जोड़ा। भरत के दस रूढ़ गुणों की उपेक्षा करते हुए उन्होंने केवल तीन गुणों की चर्चा की है और "गुण" और "अलंकार" के परस्पर भेद को कोई महत्व नहीं दिया। जहाँ तक "ध्वनि" का प्रश्न है भामह ने स्पष्ट रूप से "ध्वनि" का कहीं उल्लेख नहीं किया है लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि उन्हें व्यंग्यार्थ का ज्ञान नहीं था। उनके द्वारा प्रस्तुत पर्यायोक्ति, अप्रस्तुत प्रशंसा, याजस्तुति, समासोक्ति आदि अनेक ऐसे अलंकार हैं जो व्यंग्याश्रित हैं। अभिनवगुप्त ने अपने ग्रन्थ "लोचन" में कहा है कि भामह तथा उद्भट ने मुख्य के अतिरिक्त अमुख्य वृत्ति को स्वीकार कर ध्वनि की दिशा का उन्मीलन तो कर ही दिया क्योंकि जब "गंगायां घोषः" इस स्थल में भामह को स्वीकार हो चुका कि "गंगा" का अमुख्य अर्थ "तीर" है तब उन्होंने प्रयोजन रूप शीतलता-पावनता तक, जो ध्वनि का अपना पक्ष है प्राय: स्पर्श तो कर ही लिया था।
                    भामह के पश्चात् "काव्यादर्श" के रचयिता दण्डी का नाम उल्लेखनीय है जो अलंकार सिद्धान्त और रीति सिद्धांत के मध्य बिन्दु पर खड़े हैं। यद्यपि सर्वप्रथम दण्डी ने ही गुण का सम्बन्ध मार्ग (रीति) से जोड़ने की पहल की और इस प्रकार गुण तथा अलंकार में पार्थक्य दृष्टि का बीज वपन किया तथापि इन्हें अलंकार सिद्धान्त के आचार्य रूप में परिगणित करना अधिक तर्क सम्मत है।
इन्होंने स्पष्टत: कहा- "काव्य शोभाकरान् धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते" काव्य के शोभाकारक धर्म अलंकार हैं। उनकी इस धारणा के आधार पर कहा जा सकता है कि अनुप्रास, उपमा आदि अलंकार हैं ही; गुण, रस, ध्वनि आदि अन्य काव्य तत्व भी अलंकार ही हैं।
दण्डी ने प्रबन्ध-काव्य को "भाविक अलंकार" नाम दिया। महाकाव्यादि के वैशिष्ट्य एवं कथात्मक तत्वों तथा इसके अभिप्राय को भी इन्होंने अलंकार के रूप में स्वीकार किया। इतना ही नहीं, नाट्य से सम्बद्ध विषय यथा-पंच सन्धि एवं चौंसठ सन्ध्यंगों को भी भाविक
अलंकार के अन्तर्गत समाविष्ट कर लिया।  रस तथा भाव को स्पष्ट रूप से उन्होंने प्रेयस, रसवत् एवं ऊर्जस्वि अलंकार के अन्तर्गत
समाहित किया। रसवत् अलंकार के अन्तर्गत इन्होंने आठों रसों तथा आठों स्थायी भावों का निर्देश किया है। ये माधुर्य गुण के अन्तर्गत भी रस का समावेश मानते हैं। गुण को यद्यपि दण्डी ने अलंकार नहीं कहा, लेकिन उनके एक कथन से ऐसा प्रतीत होता है कि उपमा आदि अर्थालंकारों की तुलना में अनुप्रास आदि शब्दालंकारों तथा माधुर्य आदि दस गुणों को "साधारण अलंकार" कहना उन्हें अभीष्ट है। वैसे एक स्थल पर उन्होंने अलंकार और गुण दोनों को एक साथ स्पष्टत: अपने-अपने नामों से भी अभिहित किया है। -काव्यादर्श ३.१८६
भामह के प्राचीनतम मतानुयायी आचार्य उद्भट हैं जिनके तीन ग्रन्थों में केवल "अलंकार-संग्रह" उपलब्ध है और वह भी अत्यन्त संक्षिप्त। उद्भट ने अलंकार-निरूपण भामह की ही भाँति किया, लेकिन उनकी मौलिकता अलंकारों के भेद-निरूपण में है। इस काल में अलंकारों के सूक्ष्म भेदों की मीमांसा की गयी और तद्नुसार उनका वर्गीकरण किया गया किन्तु मौलिक सिद्धान्त अक्षुण्ण बने रहे। .
उद्भट की प्रेयस्, रसवत् आदि अलंकारों के सम्बन्ध में अपनी दृष्टि है। "ध्वन्यालोक" में उपलब्ध भाव, भावाभास, रस, रसाभास का बीज उद्भट के विवेचन में मिलता है। उद्भट के अनुसार, भाव चार प्रकार से और रस पाँच प्रकार से काव्य में आविर्भूत होते हैं। भरतमुनि ने केवल आठ प्रकार के रस की कल्पना नाट्य में की थी, उद्भट ने इसकी संख्या नौ कर दी-शान्त को भी रस माना। प्रेयस्वत अलंकार का लक्षण देते हुए वे कहते हैं जिस काव्य में अनुभाव आदि से रति आदि भावों का सूचन होता है वह काव्य प्रेयस्वत काव्य है।
परवर्ती आचार्यों ने भामह को छोड़कर उद्भट को ही अलंकार सिद्धान्त का प्रामाणिक आचार्य माना है। काव्य-सिद्धान्त के विभिन्न मत-मतान्तरों में उद्भट के विचारों का आदर है। आनन्दवर्द्धन, अभिनवगुप्त तथा रुय्यक के कथनानुसार उपमा भेद तथा श्लेष से सम्बन्धी
कुछ परवर्ती चिन्तन एवं तत्सम्बन्धी वाद-विवाद उद्भट के ही समय से आरम्भ हुए थे। परवर्ती आचार्यों की श्रृंखला में मम्मट और रुय्यक दोनों की काव्य-मीमांसा के लिये उद्भट ने मार्ग दर्शक का काम किया। भामह की परम्परा को प्रचलित रखने तथा उनके कथन की
व्यवस्थित रूप में व्याख्या करने का श्रेय उद्भट को प्राप्त है। भामह की भाँति उद्भट ने भी "गण" और "अलंकार" के परस्पर भेद को कोई महत्व नहीं दिया। उभट ने "मार्ग" या "रीति" का उल्लेख तो नहीं किया है लेकिन तीन वृत्तियों का उल्लेख किया जो अनुप्रास
अलंकार पर आश्रित हैं। यह कहना कठिन है कि उद्भट की तीन वृत्तियों, वामन की तीन रीतियों अथवा आनन्दवर्द्धन के तीन गुणों का कार्यक्षेत्र समान है। वस्तत: जिस समय दाम, दंडी के कथन के आधार पर रीति-सिद्धान्त को व्यवस्थित करने के पयल में व्यस्त थे उसी समय उदट ने अलंकार-सिद्धान्त का प्रतिष्ठापन किया। अलंकार सिद्धान्त के आचार्य रूप में रुद्रट का भी नाम परिगणित किया जाना कछ
विद्वानों ने स्वीकार किया है लेकिन रुद्रट द्वारा "अलंकार" की जिस रूप में परिकल्पना की गयी उससे यह ज्ञात होता है कि इन्होंने इसका क्षेत्र अपेक्षाकृत सीमित कर दिया अत: इन्हें भामह, दण्डी, उद्भट की श्रेणी में तो नहीं रखा जा सकता लेकिन अलंकार के विवेचन की
दृष्टि से इनका मौलिक योगदान है।
                    अन्य आलंकारिक आचार्यों की तरह रुद्रट ने रीति और उसके गुणों को विशेष महत्व नहीं दिया। यद्यपि इन्होंने चार प्रकार की रीतियों का उल्लेख किया है, लेकिन उनका तत्सम्बन्धी विवेचन रीति सिद्धान्त से प्रभावित नहीं। इनके अनुसार, रीति सर्वथा शब्द-विन्यास के निश्चित नियमों अथवा समास पर आश्रित होती है अत: इसे शब्द की "समासवृत्ति" कहते अलंकारों का सविस्तार विवेचन करने में रुद्रट के ग्रन्थ की विशेषता है। उन्होंने उद्भट के अलंकारों की सीमित संख्या में लगभग तीस अलंकार बढ़ाए। इसके अतिरिक्त शब्द तथा अर्थ के महत्व के अनुसार अलंकारों का विभाजन दो वर्गों में किया जिसका संकेत पूर्ववर्ती आचार्य भामह, दण्डी एवं उद्भट ने तो किया था पर उस भेद को प्रत्यक्षत: निर्दिष्ट नहीं किया था। इसके अतिरिक्ति सामान्य अथवा विशिष्ट लक्षणों के आधार पर प्रत्येक अलंकार को एक निश्चित जाति के अंतर्गत निर्धारित करने के लिये उन्होंने पहली बार एक विशिष्ट सिद्धान्त प्रस्तुत किया। मम्मट जैसे परवर्ती आचार्यों ने रुद्रट के अलंकार विषयक विश्लेषण को अप्रत्यक्ष रूप से स्वीकार किया है।
                    रुद्रट ने अपने ग्रन्थ में रस का भी विवेचन किया है। अलंकार ग्रन्थों में रस का विवेचन करने वाला रुद्रट ही प्रथम ग्रन्थकार है। शान्त और प्रेयान मिलाकर ये दस रस मानते हैं। इन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि शब्दार्थ रस युक्त होना चाहिये। दण्डी, उद्भट ने जहाँ रसवत् काव्य को भी अलंकृत काव्य माना वहाँ रुद्रट ने रस को अलंकार से अलग करके काव्य का गुण माना।
अलंकारवादी आचार्यों की श्रृंखला में आगे चलकर प्रतिहारेन्दुराज, जयदेव, भोजराज, अप्पय दीक्षित प्रभृति आचार्यों के नाम लिये जाते हैं, लेकिन जैसा कि उपर्युक्त विवेचन से ज्ञात होता है रुद्रट के काल से ही अलंकार को अपेक्षाकृत सीमित संदर्भ में देखा जाने लगा,
अतः अलंकार को सिद्धान्त रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय तो भामह, दण्डी, उद्भट को दिया जाना चाहिये और परवर्ती अलंकारवादी आचार्यों को अलंकार सम्प्रदाय के अन्तर्गत परिगणित करना चाहिए।यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना समीचीन जान पड़ता है कि सिद्धान्त एवं सम्प्रदाय में अन्तर है जिसे प्रायः एक समझ लिया जाता है। सिद्धान्त का संबंध है उन मूलभूत स्थापनाओं से जो काव्य-सौन्दर्य के निरूपण के संदर्भ में किये जाते हैं। सिद्धान्त को सम्प्रदाय का रूप तब - मिलता है जब उसके मतानुयायी हों एवं जो उन सिद्धान्तों का अनुसरण एवं उपबृंहण करते हों। प्रायः ऐतिहासिक क्रम में देखा जाता है कि काव्य-सौन्दर्य सम्बन्धी स्थापनाओं का खंडन-मंडन होता रहा है और नयी स्थापनाएँ की जाती रही हैं, लेकिन इस क्रम में आचार्यों का एक वर्ग वह भी होता है जो पुरानी मान्यताओं से सहमति रखते हुए, कतिपय बदलाव के

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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