सन्तकाव्य-तत्व एवं विशेषताएँ


निर्गुण भक्ति शाखा (सन्तकाव्य)

इसे दो उपशाखाओं में विभक्त किया गया है-
(क) ज्ञानाश्रयी भक्ति शाखा,
(ख) प्रेमाश्रयी भक्ति शाखा।
                                            
(क) ज्ञानाश्रयी भक्ति शाखा-  निर्गणभक्ति शाखा की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख सन्तों में कबीर का नाम सर्वोपरि है। यद्यपि कबीर से पहले सन्त नामदेव का नाम आता है किन्तु हिन्दी में इनकी रचनाएँ बहुत कम हैं। यही कारण है कि उत्तर भारत की सन्त-काव्य-परम्परा पर उनका कम प्रभाव पड़ा, फिर भी हिन्दी के प्रायः सभी सन्तों में नामदेव का श्रद्धापूर्वक स्मरण किया जाता है ।भक्तिकाल के आरम्भ में कबीर भक्ति-आन्दोलन के एक शक्तिशाला प्रवर्तक के रूप में हमारे सामने आते हैं। स्वामी रामानन्द वस्तुतः भक्तिकालीन हिन्दा साहित्य के प्रेरणास्रोत और पथ-प्रदर्शक थे। कबीर इनके बारह शिष्यों में से एक थे।
                    ईसा की सातवीं-आठवीं शताब्दी तक बौद्ध धर्म में अनेक प्रकार की बुराइयाँ पैदा हो गयी थीं, फलतः वज्रयानी तंत्रवादी स्वरूप का प्रचलन हुआ, इन सिद्धों की संख्या चौरासी मानी गयी है। इन सिद्धों ने ब्राह्मणों के पाखण्ड, बाह्याडम्बर और अन्धविश्वास का तीव्र विरोध किया। वज्रयानियों ने अपनी साधना के बल पर धार्मिक एवं सामाजिक क्रान्ति उत्पन्न कर दी। सरहपा, कण्हपा, लुईपा आदि प्रमुख वज्रयानी सिद्ध थे। इसी परम्परा का कुछ विकसित रूप नाथ-साहित्य में मिलता है जिसके प्रमुख गोरखनाथ थे। सिद्धों और नाथों का व्यापक और पुष्ट रूप ज्ञानाश्रयी शाखा के सन्तों में मिलता है।
                    सन्त कवियों पर भिन्न-भिन्न धार्मिक एवं दार्शनिक चिन्तनों का प्रभाव अवश्य पड़ा। किन्तु इन कवियों ने सभी प्रभावों को आत्मसात् करके अपने नवीन विचारों और उपासना-पद्धति को जनवादी स्वरूप प्रदान किया है। यही कारण है कि उसे सामान्य जनता ने स्वीकार किया। सन्तों ने मानव की सामाजिक परिस्थिति और महत्त्व को समझते हए एक ऐसी उपासना-पद्धति का प्रवर्तन किया जिसे गृहस्थ रहते हुए भी अपनाया जा सकता था। सन्तों की योग-साधना चमत्कार प्रदर्शन के लिए नहीं थी, अपितु शुद्ध रूप से वैयक्तिक साधना थी। योग-साधना द्वारा शरीर को शुद्ध तथा मन को स्थिर करना और मानव- कल्याण हेतु शक्ति अर्जित करना उनका उद्देश्य था।

संत काव्यधारा के दार्शनिक-सांस्कतिक आधार अनेक हैं, जिनमें से प्रमुखरूपेण उल्लेखनीय हैं- उपनिषद्, शंकराचार्य का अद्वैतदर्शन, नाथपंथ, इस्लाम धर्म तथा सूफीदर्शन। संतों के चिंतन, जीवन दर्शन और काव्यधारा पर उपनिषदों का व्यापक प्रभाव है। उपनिषदों में प्रतिपादित ब्रह्म,जीव
और माया संबंधी विचारधारा के साथ ही बह्म के स्वरूप-वर्णन से संबद्ध उपमानों और अप्रस्तुत योजनाओं को संतकवियों द्वारा प्रायः उसी रूप में ग्रहण कर लिया गया है। उपनिषदों के अनन्तर संतकाव्यधारा और संतदर्शन का मख्य आधार है-शंकर का अद्वैतदर्शन। संतों की विवर्त भावना
प्रतिबिंब-भावना, प्रणव-भावना, साधनापक्ष और भक्तिपद्धति पर आचार्य शंकर की विचारधारा का व्यापक प्रभाव है। आचार्य शंकर और निर्गुण संत कवि, दोनों इस विषय में एकमत है कि जीव विशुद्ध ब्रह्मतत्व है और जो भिन्नता की उपलब्धि होती है, वह माया अथवा अविद्याजनित उपाधि है। संतों ने आत्मा की सर्वरूपता, सर्वात्मभावना एवं सर्वशक्तिमत्ता प्रतिपादित की है। ये भावनाएं भी शंकर के सिद्धांत के अनुकूल हैं। संतपरंपरा में आत्मा की अखंडता, एकरसता, अद्वैतरूपता एवं अकथनीयता का प्रतिपादन भी शंकर-सिद्धांत के अनुरूप है। संतकाव्य और संतदर्शन पर नाथपंथ का भी प्रचुर प्रभाव है। नाथपंथी कवियों एवं विचारकों के शून्यवाद, उनके द्वारा गुरु की प्रतिष्ठा और सृष्टिक्रम आत्मा, जीव आदि के विषय में उनकी मान्यताओं से संत कवि अनेकशः प्रभावित रहे हैं। संतसाधना में योगप्रक्रिया की जो प्रधानता है, उसका मल स्रोत नाथपंथी साधनापद्धति ही है। तंत्र साधना का भी संतमत पर प्रभाव रहा है। यद्यपि कबीरदास ने स्पष्टतया कहा है :"तंत्र न जानू, मंत्र न जानूं सुंदर काया" तथापि कबीर के अनंतर उनकी परंपरा में अवतरित और विकसित संप्रदायों में तंत्र-साधना का स्वरूप प्रमुख रहा। मलूक-पंथ और निरंजनी संप्रदाय में इस प्रभाव को सहज ही लक्षित किया जा सकता है।
                                 इस्लाम के संपर्क और प्रभाव के कारण संतों की विचारधारा एकेश्वरवाद से प्रभावित हुई। इस्लाम की देन निषेधात्मक अधिक रही, विधेयात्मक कम । मूर्तिपूजा तथा अवतारवाद के बहिष्कार का मूलाधार इस्लाम धर्म में ही है। इस्लम ने सामाजिक असमानता को दूर करने की भी चेष्टा की।
सत्य यह है कि एकेश्वरवाद उस समय की सबसे बड़ी आवश्यकता थी। अत: कबीर प्रभृति संत कवियों ने हिंदू-मुसलमान दोनों को एकेश्वरवाद का संदेश सुनाया, जिसके परिणामस्वरूप जनता को बहुदेवोपासना के अभिशाप से छुटकारा मिला। इस संदर्भ में दार्शनिक व सांस्कृतिक धरातल पर सूफी मत से प्राप्त प्रेरणा भी उल्लेखनीय है। संतकाव्य में दांपत्य प्रतीकों की उपलब्धि सूफीदर्शन के प्रभाव का ही परिणाम है। सूफीमत ने संतों की विचारधारा को ही नहीं, अभिव्यंजनाशैली को भी प्रभावित किया। इस संप्रदाय के साधनात्मक एवं भावनात्मक आदर्श संतकवियों को निरंतर प्रभावित करते रहे। सूफीमत ने देशव्यापी धार्मिक कटुता को समाप्त करके प्रेम, सहिष्णुता, औदार्य एवं मधुरता की भावना का प्रसार किया। यह कार्य ज्ञानमार्गी संतों के साहचर्य व सहयोग से ही संभव हुआ। उस युग में ज्ञानमार्गी संतकवियों ने धार्मिक सांस्कृतिक क्षेत्र की रूढ़ियों की उपेक्षा एवं आलोचना की है। उन्होंने निगम, आगम, पुराण आदि को महत्त्वहीन प्रमाणित किया। किंतु बौद्धों का दु:खवाद एवं शून्यवाद, वज्रयानियों की तांत्रिक साधना, सिद्धों की गूढोक्तियों के रूप में उलटबांसियां, नाथ संप्रदाय की योगसाधना तथा काव्यसाधना किसी-न-किसी रूप में संतकाव्य में समाहित हईं। संत कवियों ने वैदिक साहित्य, वैदिक परंपराओं एवं बाह्याचारों की जो आलोचना आद्योपांत की है, वह सब बौद्ध धर्म का ही प्रभाव है। यह भी उल्लेखनीय है कि मध्ययुग में निर्गणभक्ति के मुख्य संस्थापक स्वामी रामानंद ने साधना एवं भक्ति के द्वार शूद्रों तथा निम्न वर्गों के लिए भी खोल दिये। भक्ति में प्रेमतत्त्व का समावेश कर उन्होंने उसे और भी सुसाध्य एवं स्पृहणीय स्वरूप प्रदान किया।
                    निर्गुणभक्ति का मूल तत्त्व है-निर्गुण-सगुण से परे अनादि अनंत. अनाम, अज्ञात ब्रह्म का जप। संतों ने नाम-जप को साधना का आधार माना है। 'नाम' समस्त संशयों और बंधनों को विच्छिन्न कर देता है। 'नाम' ही भक्ति और मुक्ति का दाता है। निर्गुणभक्ति का द्वितीय मूल तत्त्व है- मानसिक भाक्ति। संतमत के अनुसार भक्ति आडंबरविहीन होती है। इसीलिए सतकाव्य में वैष्णवों की नवधा भाक्त (पादसेवन, अर्चन, वंदना आदि) का कर्मकांड-सम्मत तथा परंपरा-समर्थित रूप नहीं मिलता। साधनामार्ग को व्यावहारिक सरल स्वरूप प्रदान करने में ही संतमत की सार्थकता है । इस भक्तिपद्धति का तृतीय मूल तत्त्व है-प्रेम के माध्यम से कर्मकांड की अनपेक्षित दुरूहताओं को दूर करना। प्रेममयी भक्ति का अनुभव व्यक्त करते हुए कबीर ने लिखा है :

हरि रस पीया जानिए, जे कबहूं न जाय खुमार।
मैमंता घूमत फिरै, नाहीं तन की सार ।
निर्गुणभक्ति का चतुर्थ एवं सबसे महत्त्वपूर्ण तत्त्व है मानव को एक ऐसे विश्वव्यापी धर्म के सूत्रों में निबद्ध करना, जहां जाति, वर्ग और वर्ण संबंधी भेद न हों। साधना का यह द्वार सबके लिए उन्मुक्त था। इस क्षेत्र में हिंदू-मुसलमान का भेद भी विलुप्त हो गया और भक्ति के क्षेत्र में सब समान प्रमाणित हुए। निर्गुणभक्ति का पंचम तत्त्व है सहज साधना। संतों की भक्तिपद्धति आनंद और शांति से संयुक्त शुद्ध अंत:करण की वह स्वाभाविक शक्ति है, जहां कृत्रिमता स्वत: विलीन हो जाती है। सहज साधना का यह मार्ग सर्वथा अभिनव और क्रांतिकारी था तथा इसने धार्मिक जीवन की दुरूहताओं को सदैव के लिए हटा दिया।

संतसंप्रदाय विश्वसंप्रदाय है और उसका धर्म विश्वधर्म है। इस विश्वधर्म का मूलाधार है-हृदय की पवित्रता। पवित्रता-सम्मत स्वाभाविक और सात्त्विक आचरण ने ही यहां धर्म का बृहत् रूप ग्रहण किया। समस्त वासनाओं, इच्छाओं एवं द्वेषों से रहित हृदय की नि:सीम सीमाओं में विशाल
धर्म का प्रवेश और समावेश संभव है। यह सब सद्गुरु की कृपा से ही संभव है। वह भक्ति और मुक्ति का दाता तथा ज्ञानचक्षुओं का उद्घाटक है। संतसंप्रदाय ने गुरु को ब्रह्म से भी महान माना है। स्वयं कबीर ने कहा है :

गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागू पांय।
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो बताय॥
ज्ञानाश्रयी शाखा की प्रमुख विशेषताएँ-इन सन्त कवियों के साहित्य में निम्नांकित विशेषताएँ देखी जा सकती हैं-

(i) नाम की महत्ता, (ii) एकेश्वरवाद की भावना, (iii) योग-साधना के साथ-ही-साथ प्रेमानुभूति पर विशेष बल, (iv) गुरु की महत्ता, (v) जाति-पाँति एवं बाह्याचार का विरोध,(vi) सामाजिक अन्याय का विरोध, (vii) रहस्यात्मकता, (viii) स्वानुभूति पर विशेष बल।

ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रमुख कवि एवं उनकी रचनाएँ-

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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