3.नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी।


3.नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी
1.
तलवारिया दाताराम नागर को जब बीस वर्ष कालेपानी-निवास की सजा सुनाई।गई तब वारंट के नागपाश से मुक्त उनके संगी-साथी और चेले-चपाटे रो पड़े। उन बहादुरों का पत्थर-जैसा कलेजा भी हिल गया और हिचकियाँ बँध गईं। हथकड़ी और डंडा-बेड़ी से कसा हुआ नागर का छरहरा बदन लौह-बन्धन की परवाह न कर लाठी की तरह सीधा तन गया। उसकी आँखों के डोरों की ललाई और भी तन गई। उसके पतले होंठों पर घृणा-भरी मसकान फैल गई और उसने न्यायाधीश की ओर आँखें तरेरकर देखा। जज से आँखें चार हुईं और नागर की आँखों की ज्वाला सहन सकने के कारण उसने आँखें नीची कर ली। वह होंठों में ही बुदबुदाया "बहादुर आदमी है!" पर नागर ने उसकी बात न सुनी। उसकी निगाह अपने मित्रों और चेलों की ओर घूम गई थी। उसने उन पर क्रोधपूर्ण दृष्टि डाली और गरजकर कहा, “नामर्दो की तरह रोते क्यों हो? बीस बरस ब्रह्मा के दिन नहीं हैं, चुटकियों में उड़ जाएंगे। जाओ, बाबाजी से कह देना कि अब हमारे घर-द्वार का भार उन्हीं पर है। और मिर्जापुरवाले बाबाजी से कहना कि सुन्दर की खोज-खबर। लेते रहेंगे। जाओ!"
          उस्ताद का आदेश पाकर भारी मन और भीगे नयन लिए नागर के चेते। अदालत के कमरे से बाहर निकले। नागर एक बार पैर के पंजों पर खड़ा हो गया; सारी नसें कड़कड़ाकर बोल उठीं। उसने अपना शरीर ज़रा दाहिने-बाएँ हिलाया और उसके भुजदंडों पर मछलियाँ तैर गईं; बेड़ी झनझनाई और वह बँधे हुए शेर की तरह झूमता बरकन्दाजों के आगे-आगे चल पड़ा।
2.
सन् 1772 की काशी अपने गंडों के लिए प्रसिद्ध थी। वारेन हेस्टिंग्स द्वारा कार राज्य की लूट के बाद जब विदेशी शासन ने वीरों को अपनी तलवारें कोष में ही रखने के लिए विवश किया, तब उनके लिए सिंह-वृत्ति ग्रहण करने के अतिरिक्त और मार्ग न रहा। राजा चेतसिंह की दुर्दशा देखकर जिस समय काशी अचेत लगी तब उनके नालायक बेटे, जो गुंडे कहलाते थे, सचेत हुए आर उन्होने मलिच्छ' के प्रति घृणा का व्रत लिया। ऐसे लोगों में दाताराम नागर गद्ध भिक्षक प्रमुख थे। अलईपुर में, जहाँ आज छतहा अस्पताल है, उसी समीप ऐतरनी-बैतरनी' तीर्थ के बगीचे में भंगड़ भिक्षुक का कुआँ था। बाग अब नहीं रह गया है पर कुआँ अब भी मौजूद है। वहीं नागर का अखाड़ा भी था। वहाँ उन्हीं जैसे लोग एकत्र होते और फिरंगियों तथा उनके सहायकों अति पहुँचाने की योजनाएँ बनाई जातीं। बनारस में शम्भूराम पंडित, बेनीराम पंडित, मौलवी अलाउद्दीन, कुबरा और मुंशी फैयाज़ अली तथा मिर्जापुर में अंग्रेजों की ओर से ठेकेदार बनकट मिसिर अंग्रेज़ों के प्रमुख सहायक थे। कुबरा तो राजा चेतसिंह के पलायन के समय ही बाबू ननकूसिंह नजीब द्वारा मारा जाचका था। बेनीराम और शम्भूराम गुंडों के भय-वश घर के बाहर बहुत कम निकलते। परन्तु मुंशी फैयाज़ अली बनारस के नायब और बनकट मिसिर मिर्जापुर में रहने के कारण अपने को ख़तरे से बाहर समझते थे। नागर के मित्रों की राय हुई कि पहले मिसिर से ही निबट लिया जाए। नागर ने अपने भाई श्यामू और बिट्ठल को मिसिर के पास भेजकर कहलाया कि अगली पूर्णिमा को ओझला
के नाले पर आपको भाँग छानने का न्योता है। मिसिर ने निमन्त्रण स्वीकार कर कहला भेजा कि भोजन-पानी का प्रबन्ध मेरी ओर से होगा।
3
जेल की काल-कोठरी में पड़ा-पड़ा नागर अपने जीवन का हिसाब-किताब जोड़ रहा था। उसे विश्वास था कि झाँसीवाले हिम्मत बहादुर राजा अनूपगिरि गोसाई के पुत्र उमरावगिरि के काशी में रहते उसके परिवार को कोई कष्ट न होने पाएगा और मिर्जापुर में गोसाईं जयरामगिरि सुन्दर को खाने-पहनने का कष्ट न होने देंगे।
सुन्दर का स्मरण होते ही उसे ओझला के नालेवाली घटना भी याद हो आई। मिसिर अकोढी बिरोही के सौ लठैतों को लेकर आया था। नागर भी अपने भाइयों, मित्रों और शिष्यों की पलटन के साथ वहाँ पहले से ही पहँच चुका था। एक ओर पचीसों सिल-बट्टे खटक रहे थे; दूसरी ओर कढ़ाइयों में पूड़ियाँ छन रही थीं। भाँग-बूटी छानने और खाना-पीना हो जाने के बाद चाँदनी रात में दोनों दलों में जमकर भिड़न्त हुई। बीच-बीच में मिसिर चिल्ला-था. “भगवती विंध्यवासिनी की जय!" साथ ही नागर की ललकार उसकी से जा टकराती, “जय भगवान हाटकेश्वर की!" दोनों ही अपने-अपने से बाहर आकर एक-दूसरे से भिड़ने का हौसला रखते थे।
__अन्त में दोनों एक-दूसरे के सामने आ भी पड़े। नागर ने खाँडा चलाया.मिसिर ने अपनी लाठी पर वार झेला । खाँडे के पानी में लाठी तिनके-सी बह गई। मिसिर पीछे हटा, पर नागर रपेटता गया। तब मिसिर घूमा और भाग चला। नागर ने उसका पीछा किया। चाँदनी रात होने के कारण मिसिर नागर की दृष्टि से ओझल न हो पाता था। सहसा दाताराम ने सोचा, 'भागते शत्रु का पीछा करना अधर्म है।' वह ठुमक गया।
शृंखलाबद्ध नागर की बेड़ियाँ खनखनाईं और अपने जीवन का यह गौरवपूर्ण अध्याय पढ़ते-पढ़ते उसकी छाती गर्वस्फीत हो उठी। काल-कोठरी के मच्छर उसका खून पीते-पीते तृप्त हो चुके थे, इसलिए उनका सामूहिक आक्रमण बन्द हो गया था। फलतः, बन्दी नागर की आँखें लग गईं। परन्तु जाग्रतावस्था के विचार निद्रा में भी स्वप्न बनकर उसके मस्तिष्क में मँडराते रहे। उसने सपना देखा- वह मिसिर का पीछा छोड़कर लौट रहा है। आधी रात का समय है। चाँदनी सोलहों कला से खिली हुई है। नाले के उस पार बबूल पर बैठा हुआ घुग्घू रह-रहकर चिल्ला उठता है। शिकार की आशा में एक ही पैर पर शरीर का भार देकर खड़े बगुले के सफ़ेद परों पर ज्योत्स्ना बिखरी पड़ रही है। स्निग्ध आलोक में पैरों के नीचे पीली मिट्टी उष्ण निःश्वास के साथ ही कठोरता छोड़कर शीतल और कोमल हो गई है। नागर ने अनुभव किया कि नीरव रात्रि की निस्तब्धता,
तीव्र ज्योत्स्ना, दूर प्रसुप्त वनस्थली और चतुर्दिक फैली पीली मिट्टी ने सारे वातावरण को जैसे पांशुमुख रुग्ण शिशु के समान करुण बना दिया है। साथ ही उसने यह भी देखा कि सामने टीले से सटकर सफ़ेद गठरी-सी कोई वस्तु पड़ी है। उसने निगाह जमाकर देखा-मालूम हुआ कि वह कोई अवगुंठनावृत्त नारी-मूर्ति है।
_नागर के शरीर के रोएँ भरभरा उठे, शरीर काँप गया और वक्षस्थल के नीचे हृत्पिंड ने एक बार अत्यन्त द्रुतगति से चलकर स्नायुमंडल को छिन्न-भिन्न-सा कर दिया। उसकी शून्य दृष्टि घूमती हुई अपने हाथ के खाँडे पर पड़ी। खॉर्ड की चमक आँख में उतर आई। उसे स्मरण हो आया कि लोहे के सामने प्रेत नहीं ठहरते। उसने खाँडा सँभाला और आगे बढ़ा। उसे पास आते देख नारी-मूर् खड़ी हुई और उसने लज्जा, संकोच, भय और दुविधा-भरी दृष्टि नागर पर बाली । नागर ने भी उसे भरी-आँख देखा और आँखों से ही उसका परिचय पूछा। नागर की पौरुष-भरी मूर्ति देखकर वह कुछ आश्वस्त-सी हुई। नागर की नोकदार, झीनी, काली, ऊपर की ओर मरोड़ी हुई मूंछे, कमर में एक ओर बिछुआ और दूसरी ओर खोंसी कटार, लम्बा, छरहरा, कमाया हुआ शरीर, पटेदार घुघराले बाल और डोरा-पड़ी रतनार आँखें देख उसका संकोच जाता रहा। अत्यन्त प्रगल्भा की तरह उसने हँसकर नागर का हाथ थाम लिया। नागर के शरीर में बिजली दौड़ गई। रक्त-स्रोत के आलोड़न से उसके शरीर की मांसपेशियाँ सनसना उठीं। उसने उसे स्नेहार्द्र प्रलुब्ध दृष्टि से देखा। उसके भी हाथ उठे और उसने ज्योत्स्ना-स्नात सुरापूर्ण पात्र के समान मदिर उस रमणीय स्त्री के कमनीय कलेवर को अपनी ओर खींचा। रमणी खिंचने का उपक्रम कर ही रही थी कि नागर चौंका और उसका हाथ छोड़ते हुए उसने हलके झटके से अपना हाथ भी छुड़ा लिया। नारी गिरते-गिरते बची। नागर को सहसा अपने पिता के वचन स्मरण हो आए थे जो उसे वीर-व्रत में दीक्षित करते समय उसके पिता ने कहे थे-'बेटा! इस व्रत का धारण करनेवाला पर-स्त्री को माता समझता है। और उसके पिता वह व्यक्ति थे जिन्होंने नागर
ब्राह्मणों के कुलदेवता भगवान हाटकेश्वर की स्थापना काशीजी में की थी। उसने तड़पकर पूछा, “तू कौन है?"
___“ऐसे ही पूछा जाता है?" नारी ने उलटे प्रश्न किया। नागर दो कदम पीछे हटा। नारी के समक्ष कभी परुष न होनेवाला उसका हृदय स्वस्थ होते ही पुनः स्निग्ध हो गया था। उसने हताश-से स्वर में कहा, “अच्छा भाई, तुम कौन हो?" नारी हँसी, उसने उत्तर दिया, “पहले एक प्रतिष्ठित ठाकुर की कुंवारी कन्या थी, अब किसी की रखैल कसबिन हूँ।"
“ऐसा कैसे हुआ?" नागर ने पूछा।
“वैसे ही जैसे यहाँ आते-आते तो तुम मर्द थे, पर यहाँ आते ही देवता बन गए।"
"तुम्हें कसबिन किसने बनाया?"
“सब मिसिर महाराज की किरपा है। साल-भर हुआ, मैं अपनी बारी में 'आम बीन रही थी जहाँ से मिसिर ने मुझे उठवा मँगाया और कसबिन से भी बदतर बनाकर रख छोड़ा है।"
“इस बखत यहाँ कैसे आई हो?"

"सुना था, आज मिसिर से किसी की बदी है। देखने आई थी कि मिसिर का गला कटे और मेरी छाती ठंडी हो।"

“अब क्या?"

"क्या कहूँ? भागती बखत मिसिर ने मुझे यहाँ देख लिया है। अब बड़ी दर्दुसा से मेरी जान जाएगी। तुम्हारी सरन हूँ, रच्छा करो।"

नागर ने दो मिनट कुछ सोचा, फिर बोला, “तुम नारघाट चली जाओ। वहीं घाट पर मैं तुमसे मिलूंगा।"

रमणी फिर हँसी। नागर मुसकरा उठा।

कठोर भूमि पर पड़े कैदी ने करवट बदली। उसके जेल-यातना-पीड़ित मुख पर मधुर मुसकान दौड़ । स्वप्न ने करवट ली। नागर ने देखा, रमणी को विदा करके वह पुनः चलने लगा। सामने रास्ता एक घाटी में होकर जाता था, जो इतना सँकरा था कि उसमें एक समय एक ही व्यक्ति के चलने का अवकाश था। नागर ने देखा, मिसिर भी लौट रहा है और घाटी में आगे-आगे जा रहा है। नागर की आहट पाकर भी वह पीछे न घूमा, बढ़ता ही चला गया।

“ठहरो, मिसिरजी!" नागर ने आवाज़ दी।

"चले आओ, नागर!" बिना घूमे ही मिसिर ने जवाब दिया। नागर ने उसके साहस पर विस्मित होकर फिर कहा, “मिसिरजी, तुम खाली हाथ हो और मैं हथियारबन्द हूँ। कहीं पीछे से हमला कर दूं, तब?'

मिसिर ठठाकर हँस पड़ा। फिर बोला, “मालूम है तुम गुंडे हो, ऐसा छोटा काम कभी कर ही नहीं सकते।"

नागर सरल आनन्द से आप्लावित हो उठा। फिर पूछा, “तब मैदान से भागे क्यों थे?"

"तुम मेरी लाठी टूटी देखकर भी जोश में आगे बढ़े आ रहे थे। तुम भूल गए थे कि निरस्त्र शत्रु पर वार नहीं करना चाहिए।"

“लेकिन मिसिरजी, तुमने काम बहुत खराब किया है। एक तो अपना देश फिरंगियों के हाथ बेच दिया। उस पर एक कुंवारी कन्या की इज्जत भी उतार ली है। तुम्हें हमसे लड़ना ही पड़ेगा।"

"मैं तो अब भी खाली हाथ हूँ, भाई!"

"इससे क्या, मैं भी खाँडा रखे देता हूँ। मेरे पास बिछुआ और कटार हैं। इनमें से एक तुम ले लो। बस यहीं निबट जाए।"

स्वप्न में युद्ध के घात-प्रतिधात के साथ ही उसके मुख पर भी विभिन्न रेखाएँ बन और बिगड़ रही थीं। उसने वैसी ही दीर्घ साँस ली जैसी मिसिर के कलेजे में कटार उतार देने के बाद उसने घटनास्थल पर ली थी। उसकी आँख खुल गई। स्वप्न ने उसे चिन्तित कर दिया था। समाज से बहिष्कृत सुन्दर को उसने निःस्वार्थ-भाव से आश्रय दिया था। नारघाट पर किराए के एक मकान में उसे टिकाकर आत्मनिर्भर बनाने के लिए वह उसे मिर्जापुर की पेशेवर गानेवालियों से गाने-बजाने की शिक्षा दिलाने लगा। जब कभी वह मिर्जापुर जाता तब उसकी सारी व्यवस्था देख-सुन दिन रहते ही उसके यहाँ से चला आता। रात उसके घर कभी न ठहरता। उसे वह सुन्दर पुकारता था। वह उसे सुन्दर लगती थी।

4

श्रावण कृष्णा-सप्तमी का चन्द्रमा आकाश में उदित हो रहा था। बन्दी ने ठंडी साँस खींची । बेड़ी के चुभने से उसे कहीं पीड़ा हुई। उसने अपनी स्थिति अनुभव की और फिर वह स्थिति लानेवाली परिस्थिति पर विचार करने लगा मिर्जापुर में ही उसे खबर मिली कि बनारस के नायब फैयाज़ अली इस बार फिर मुहर्रमी जुलूस के दुलदुल घोड़े को ठठेरी बाज़ार की ओर से निकलवाने की कोशिश कर रहे हैं। कम्पनी का राज होने के बाद गत दो वर्ष से फ़ैयाज़

अली मुहर्रम के जुलूस के लिए नया रास्ता निकाल रहे थे। दो बार तो नागर ने उधर से जुलूस न जाने दिया था। इस बार उसने सुना कि फैयाज़ अली जुलूस के साथ पलटन भी भेजेंगे। नागर का रक्त उबल पड़ा। वह मिर्जापुर से सीधे बनारस आया और सुंड़िया होते ठठेरी बाज़ार में उस समय पहुँचा जब दुलदुल घोड़ा उसके ठीक सामने से ही जा रहा था। उसने तड़पकर खाँडे से घोड़े पर वार किया। घोड़ा दो टूक होकर ढेर हो रहा। पलटन भी नागर पर टूट पड़ी। गोरों की संगीनों और तिलंगों की तलवारों से नागर के खाँडे की लड़ाई थी। संगीनें झुक गईं और खाँडा रास्ता चीरता हुआ बढ़ता चला गया।

नागर ने ब्रह्मनाल जाकर उमरावगिरि की बावली के एक नाले में अपने को छिपाया। पर वहाँ अपने को सुरक्षित न समझ वह एक रात राजघाट की खोह में घुसा। एक दिन कटेसर निबटने जाते समय मुखबिरों से ख़बर पाकर गोरों और तिलंगों की सेना ने उसे फिर जा घेरा। ख़ाली हाथ केवल लोटे से दो-चार सैनिकों की खोपड़ी तोड़ने के बाद नागर गिरफ्तार हो गया। नागर को जीवन-भर का हिसाब-किताब जोड़ने के बाद अनुभव हुआ कि मेरा जीवन सार्थक है। उसने सन्तोष की साँस ली।

नागर को सज़ा सुनाई जाने के दो दिन बाद जिस रात श्रावण कृष्ण-नवमी का चन्द्रमा उदित हुआ उस समय आकाश मेघाच्छन्न था। अस्पष्ट फीके आलोक में व्यक्ति और वस्तु की सीमा रेखा तो समझ में आ जाती थी, पर वह स्पष्ट

दिखाई न देती थी। हलके-फुलके मेधों के दल इधर-उधर उड़ते फिर रहे थे आकाश के एक कोने में एक चमकदार तारा झिलमिला रहा था। इसी समय गोसाई जयराम गिरि, भंगड़ भिक्षुक और नागर का एक चेला बिरजू चील्ह गाँव

में इक्के पर से उतर नारघाट जाने के लिए नाव में सवार हुए। उन्हें यह ख़बर न थी कि सुन्दर को नागर के कालेपानी जाने की खबर मिल चुकी है। उन्हें यह भी न मालूम था कि सुन्दर इस समय भी उस पार नारघाट की सीढ़ियों पर बैठी बूढ़ी गंगा के पानी में पैर झुलाए आकाश की ओर एकटक देख रही है; वह सोच रही है कि सिर पर यह जो नीला आकाश है, आख़िर वह है क्या? उसके पार भी क्या इसी प्रकार सुख-दुख और हास्य-रुदन से भरा हुआ पृथ्वी

के ही समान कोई स्थान है जो इस प्रकार फल-फूलों और लताओं से रंगीन हो रहा है? वहाँ भी क्या ऐसे ही नर-नारी हैं? वहाँ भी क्या ऐसे ही तृप्तिहीन, आश्रयहीन गृह हैं? ऐसी ही लांछना है, ऐसा ही अविचार है? नागर से उसका

कितना अल्प परिचय था; फिर भी उसने ऐसा व्यवहार किया जैसे वह उसका जन्म-जन्मान्तर का परिचित हो। वही नागर कालेपानी गया। सुन्दर सोचने लगी, 'कालापानी कहाँ है? दूर, बहुत दूर कोई टापू है जहाँ से लौटकर कोई नहीं आता।' सुन्दर का हृदय भर आया, उसके ओंठ हिले। वह गुनगुनाने लगी"अरे रामा, नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी!

सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा,

नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी!"

उसका स्वर क्रमशः ऊँचा हुआ। निस्तब्धता की छाती चीर उसकी करुण ध्वनि आकाश में गूंजी। सूने पाषाण-तट, चंचल तरंगें और नौका पर सवार नागर के साथी सुनने लगे

"घरवा में रोवै नागर माई औ बहनियाँ रामा

सेजिया पै रोवै बारी धनियाँ रे हरी!

खुटिया पै रोवै नागर ढाल तरवरिया रामा,

कोनकाँ में रोवै कड़ाबिनियाँ रे हरी!"

नाव और समीप आ चली थी। तीनों नौकारोहियों ने सुना-

"रहिया में रोबैं तोर संगी अउर साथी रामा,

नारघाट पर रोवै कसबिनियाँ रे हरी!"

और वे फूट-फूटकर रो उठे। मल्लाह ने और तेज़ी से डाँड चलाया, नाव ठीक सुन्दर के सामने आ पड़ी। पर सुन्दर अपने ही विचारों में मग्न गाती रही"

जो मैं जनत्यूँ नागर जइबा कालेपनियाँ रामा,

तोरे पसवाँ चलि अवत्यूँ बिनुरे गवनवाँ रे हरी!"

ऊपर वायु सिसक रही थी, नीचे गंगा की लहरें कराह रही थीं और नौका पर बैठे मल्लाह-सहित तीनों यात्रियों की आँखें बरसाती नदी से होड़ लगा रही थीं।

इसके बाद भी, बहुत दिनों तक मिर्जापुर-निवासी नारघाट की पगली को पैसा देकर उससे यही कजली गवाते और करुणा ख़रीदते रहे। सुननेवालों की आँखें भर आतीं, जब वह कलेजे का सारा दर्द घोलकर गाती-

“अरे रामा, नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी!"


Share:

कोई टिप्पणी नहीं:

शास्त्री I & II सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य प्रथम एवं द्वितीय सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य तृतीय एवं चतुर्थ सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा प्रथम (9)- पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा द्वितीय (10) पाठ्यपुस्तक

समर्थक और मित्र- आप भी बने

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग
संस्कृत विद्यालय एवं गरीब विद्यार्थियों के लिए संकल्पित,

हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

यह लेखक के आधीन है, सर्वाधिकार सुरक्षित. Blogger द्वारा संचालित.