"सुना था, आज मिसिर से किसी की
बदी है। देखने आई थी कि मिसिर का गला कटे और मेरी छाती ठंडी हो।"
“अब क्या?"
"क्या कहूँ? भागती बखत मिसिर ने
मुझे यहाँ देख लिया है। अब बड़ी दर्दुसा से मेरी जान जाएगी। तुम्हारी सरन हूँ,
रच्छा करो।"
नागर ने दो मिनट कुछ
सोचा, फिर
बोला, “तुम नारघाट चली जाओ। वहीं घाट पर मैं तुमसे
मिलूंगा।"
रमणी फिर हँसी। नागर
मुसकरा उठा।
कठोर
भूमि पर पड़े कैदी ने करवट बदली। उसके जेल-यातना-पीड़ित मुख पर मधुर मुसकान दौड़ ।
स्वप्न ने करवट ली। नागर ने देखा,
रमणी को विदा करके वह पुनः चलने लगा। सामने रास्ता एक घाटी में होकर
जाता था, जो इतना सँकरा था कि उसमें एक समय एक ही व्यक्ति के
चलने का अवकाश था। नागर ने देखा, मिसिर भी लौट रहा है और
घाटी में आगे-आगे जा रहा है। नागर की आहट पाकर भी वह पीछे न घूमा, बढ़ता ही चला गया।
“ठहरो, मिसिरजी!" नागर
ने आवाज़ दी।
"चले
आओ, नागर!"
बिना घूमे ही मिसिर ने जवाब दिया। नागर ने उसके साहस पर विस्मित होकर फिर कहा,
“मिसिरजी, तुम खाली हाथ हो और मैं हथियारबन्द
हूँ। कहीं पीछे से हमला कर दूं, तब?'
मिसिर ठठाकर हँस
पड़ा। फिर बोला, “मालूम है तुम गुंडे हो, ऐसा छोटा काम कभी कर ही नहीं
सकते।"
नागर सरल आनन्द से
आप्लावित हो उठा। फिर पूछा,
“तब मैदान से भागे क्यों थे?"
"तुम मेरी लाठी
टूटी देखकर भी जोश में आगे बढ़े आ रहे थे। तुम भूल गए थे कि निरस्त्र शत्रु पर वार
नहीं करना चाहिए।"
“लेकिन मिसिरजी, तुमने काम बहुत खराब
किया है। एक तो अपना देश फिरंगियों के हाथ बेच दिया। उस पर एक कुंवारी कन्या की
इज्जत भी उतार ली है। तुम्हें हमसे लड़ना ही पड़ेगा।"
"मैं तो अब भी
खाली हाथ हूँ, भाई!"
"इससे क्या, मैं भी खाँडा रखे देता
हूँ। मेरे पास बिछुआ और कटार हैं। इनमें से एक तुम ले लो। बस यहीं निबट जाए।"
स्वप्न में युद्ध के
घात-प्रतिधात के साथ ही उसके मुख पर भी विभिन्न रेखाएँ बन और बिगड़ रही थीं। उसने
वैसी ही दीर्घ साँस ली जैसी मिसिर के कलेजे में कटार उतार देने के बाद उसने
घटनास्थल पर ली थी। उसकी आँख खुल गई। स्वप्न ने उसे चिन्तित कर दिया था। समाज से
बहिष्कृत सुन्दर को उसने निःस्वार्थ-भाव से आश्रय दिया था। नारघाट पर किराए के एक
मकान में उसे टिकाकर आत्मनिर्भर बनाने के लिए वह उसे मिर्जापुर की पेशेवर
गानेवालियों से गाने-बजाने की शिक्षा दिलाने लगा। जब कभी वह मिर्जापुर जाता तब
उसकी सारी व्यवस्था देख-सुन दिन रहते ही उसके यहाँ से चला आता। रात उसके घर कभी न
ठहरता। उसे वह सुन्दर पुकारता था। वह उसे सुन्दर लगती थी।
4
श्रावण कृष्णा-सप्तमी
का चन्द्रमा आकाश में उदित हो रहा था। बन्दी ने ठंडी साँस खींची । बेड़ी के चुभने
से उसे कहीं पीड़ा हुई। उसने अपनी स्थिति अनुभव की और फिर वह स्थिति लानेवाली
परिस्थिति पर विचार करने लगा मिर्जापुर में ही उसे खबर मिली कि बनारस के नायब फैयाज़
अली इस बार फिर मुहर्रमी जुलूस के दुलदुल घोड़े को ठठेरी बाज़ार की ओर से निकलवाने
की कोशिश कर रहे हैं। कम्पनी का राज होने के बाद गत दो वर्ष से फ़ैयाज़
अली मुहर्रम के जुलूस
के लिए नया रास्ता निकाल रहे थे। दो बार तो नागर ने उधर से जुलूस न जाने दिया था।
इस बार उसने सुना कि फैयाज़ अली जुलूस के साथ पलटन भी भेजेंगे। नागर का रक्त उबल
पड़ा। वह मिर्जापुर से सीधे बनारस आया और सुंड़िया होते ठठेरी बाज़ार में उस समय
पहुँचा जब दुलदुल घोड़ा उसके ठीक सामने से ही जा रहा था। उसने तड़पकर खाँडे से घोड़े
पर वार किया। घोड़ा दो टूक होकर ढेर हो रहा। पलटन भी नागर पर टूट पड़ी। गोरों की
संगीनों और तिलंगों की तलवारों से नागर के खाँडे की लड़ाई थी। संगीनें झुक गईं और
खाँडा रास्ता चीरता हुआ बढ़ता चला गया।
नागर ने ब्रह्मनाल
जाकर उमरावगिरि की बावली के एक नाले में अपने को छिपाया। पर वहाँ अपने को सुरक्षित
न समझ वह एक रात राजघाट की खोह में घुसा। एक दिन कटेसर निबटने जाते समय मुखबिरों
से ख़बर पाकर गोरों और तिलंगों की सेना ने उसे फिर जा घेरा। ख़ाली हाथ केवल लोटे
से दो-चार सैनिकों की खोपड़ी तोड़ने के बाद नागर गिरफ्तार हो गया। नागर को जीवन-भर
का हिसाब-किताब जोड़ने के बाद अनुभव हुआ कि मेरा जीवन सार्थक है। उसने सन्तोष की
साँस ली।
नागर को सज़ा सुनाई
जाने के दो दिन बाद जिस रात श्रावण कृष्ण-नवमी का चन्द्रमा उदित हुआ उस समय आकाश
मेघाच्छन्न था। अस्पष्ट फीके आलोक में व्यक्ति और वस्तु की सीमा रेखा तो समझ में आ
जाती थी, पर
वह स्पष्ट
दिखाई न देती थी।
हलके-फुलके मेधों के दल इधर-उधर उड़ते फिर रहे थे आकाश के एक कोने में एक चमकदार
तारा झिलमिला रहा था। इसी समय गोसाई जयराम गिरि, भंगड़ भिक्षुक और नागर का एक चेला बिरजू
चील्ह गाँव
में इक्के पर से उतर
नारघाट जाने के लिए नाव में सवार हुए। उन्हें यह ख़बर न थी कि सुन्दर को नागर के
कालेपानी जाने की खबर मिल चुकी है। उन्हें यह भी न मालूम था कि सुन्दर इस समय भी
उस पार नारघाट की सीढ़ियों पर बैठी बूढ़ी गंगा के पानी में पैर झुलाए आकाश की ओर
एकटक देख रही है; वह सोच रही है कि सिर पर यह जो नीला आकाश है, आख़िर
वह है क्या? उसके पार भी क्या इसी प्रकार सुख-दुख और
हास्य-रुदन से भरा हुआ पृथ्वी
के ही समान कोई स्थान
है जो इस प्रकार फल-फूलों और लताओं से रंगीन हो रहा है? वहाँ भी क्या ऐसे ही
नर-नारी हैं? वहाँ भी क्या ऐसे ही तृप्तिहीन, आश्रयहीन गृह हैं? ऐसी ही लांछना है, ऐसा ही अविचार है? नागर से उसका
कितना अल्प परिचय था; फिर भी उसने ऐसा
व्यवहार किया जैसे वह उसका जन्म-जन्मान्तर का परिचित हो। वही नागर कालेपानी गया।
सुन्दर सोचने लगी, 'कालापानी कहाँ है?
दूर, बहुत दूर कोई टापू है जहाँ से लौटकर कोई
नहीं आता।' सुन्दर का हृदय भर आया, उसके
ओंठ हिले। वह गुनगुनाने लगी"अरे रामा, नागर नैया जाला
कालेपनियाँ रे हरी!
सबकर नैया जाला कासी हो बिसेसर रामा,
नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी!"
उसका स्वर क्रमशः
ऊँचा हुआ। निस्तब्धता की छाती चीर उसकी करुण ध्वनि आकाश में गूंजी। सूने पाषाण-तट, चंचल तरंगें और नौका
पर सवार नागर के साथी सुनने लगे
"घरवा में रोवै नागर माई औ बहनियाँ रामा
सेजिया पै रोवै बारी धनियाँ रे हरी!
खुटिया पै रोवै नागर ढाल तरवरिया रामा,
कोनकाँ में रोवै कड़ाबिनियाँ रे हरी!"
नाव और समीप आ चली
थी। तीनों नौकारोहियों ने सुना-
"रहिया में रोबैं तोर संगी अउर साथी रामा,
नारघाट पर रोवै कसबिनियाँ रे हरी!"
और वे फूट-फूटकर रो
उठे। मल्लाह ने और तेज़ी से डाँड चलाया,
नाव ठीक सुन्दर के सामने आ पड़ी। पर सुन्दर अपने ही विचारों में
मग्न गाती रही"
जो मैं जनत्यूँ नागर जइबा कालेपनियाँ रामा,
तोरे पसवाँ चलि अवत्यूँ बिनुरे गवनवाँ रे हरी!"
ऊपर वायु सिसक रही थी, नीचे गंगा की लहरें
कराह रही थीं और नौका पर बैठे मल्लाह-सहित तीनों यात्रियों की आँखें बरसाती नदी से
होड़ लगा रही थीं।
इसके बाद भी, बहुत दिनों तक
मिर्जापुर-निवासी नारघाट की पगली को पैसा देकर उससे यही कजली गवाते और करुणा
ख़रीदते रहे। सुननेवालों की आँखें भर आतीं, जब वह कलेजे का
सारा दर्द घोलकर गाती-
“अरे रामा,
नागर नैया जाला कालेपनियाँ रे हरी!"
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