2. घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन।



"का गुरु! पालागी!" लोटन बहेलिये ने नागर गुरु को कबीर चौरा की ओर से आते देख हाथ जोड़कर कहा।
“मस्त रहऽ!” नागर ने आशीर्वाद देते हुए लोटन के पीछे देखा कि पीठ पर हौदा लिए एक घोड़ा और जीन-कसा एक हाथी खड़ा है। उन्हें राजा के पच्चीस-तीस सिपाहियों ने घेर रखा है। उसने लोटन से पूछा, “का हाल-चाल हौ? ई कैसन तमासा बनउले हौअ?"
लोटन नागर के समीप बढ़ आया और हँसकर धीरे से बोला, “राजमाता कऽ हुकुम हौ, अउर का? सुनलऽ कि नाही, कम्पनी बहादुर भाग गैल?"
नागर की उत्सुकता बढ़ गई। उसने लोटन का हाथ थामकर, जहाँ आजकल ज्ञानमंडल-यन्त्रालय का भवन है, वहीं बने एक चबूतरे पर बिठा दिया। नगर में चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। दो दिन से तरह-तरह की अफ़वाहें उड़ रही थीं। राजा चेतसिंह से जुरमाना वसूल करने के लिए वारेन हेस्टिंग्स स्वयं कल कलकत्ता से काशी आया था। राजा-प्रजा सभी घबराए हुए थे। राज्य की सेना अकर्मण्य होकर हाथ-पर-हाथ धरे बैठी थी और नगर-निवासी निरुत्साह थे।
          चबूतरे पर बैठकर लोटन ने धीरे-धीरे धीमे स्वर में नागर को बताया कि सबके घबराए रहने पर भी राजमाता पन्ना ने अपना दिमाग कैसे ठीक रखा। गली-गली में लड़ाई के लिए उन्होंने सब महाजनों को बुलाकर किस तरह अपने घरों में दस-दस, बीस-बीस सिपाही छिपा रखने के लिए राजी किया और किस तरह इन तैयारियों की खबर पाकर वारेन हेस्टिंग्स रातोंरात चुनार भाग गया! हाथ की उँगली से सामने इशारा करते हए उसने कहा, "अब न पता चलल, गुरु! सहेबवा वही भूसावाली कोठरी में लुकल रहल। जब हम ई खबर राजमाता के देहली त ऊ कहलिन कि बस यही मौका हौ। हाथी पर जीन कस दऽ अउर घोड़ा पर हउदा, जेम्में मालूम होय कि सहेबवा घबराय के भागल हौ। एतनै से बनारसिन के फेर जोस आय जाई। सुनऽन गुरु, लड़िकवा का चिल्लात हौ अन! अउर ओहर देखऽ लबदन सहुआ आपन बाल-बच्चा लेहले कहाँ जात हौ! एसारे के हियाँ गइली तो कहवाय देलस कि घरे नाही हौअन। तनी पूछीं कि घरे नाहीं रहल तऽ अब आय कहाँ से गयल?" लोटन चबूतरे से कूदा। नागर ने भी उसका अनुकरण किया।
          इतने में बेलगाम घोड़ी की तरह चंचल और गुलाब के फूल-सी रंगीन, छरहरी सहुआइन ने ज़ेवरों की पिटारी और भी ज़ोर से बगल में दबाते हुए बिजली की तरह चमककर कहा, “मर किनौना!" _माँग और माथे पर सिन्दूर की मोटी-सी तह जमाए और सिर पर आवश्यक वस्त्रादि से भरी कम्बल की गठरी उठाए, हथिनि-सी भारी-भरकम बड़ी सहुआइन ने मेघगर्जन किया, “बज्जर परै!"
          बड़ी सहुआइन के बीस-वर्षीय रोग-कातर पुत्र सुदीन और छोटी सहुआइन की नौ-वर्षीया पुत्री 'गौरा' ने क्षितिज के दो छोरों की तरह अपनी माताओं की प्रतिध्वनि की और ‘तमाखू के पिंडा' उनके पिता लबदन साब ‘रह तो जा, सारे'
कहते हुए उन लड़कों पर बरस पड़े जो जुलूस बनाए चिल्लाते जा रहे थे-

'घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन
जल्दी से भाग गैल-!'
सपरिवार सावजी इससे अधिक नहीं सुन सके। उन्होंने समझा कि लड़के उन पर व्यंग्य कर रहे हैं; ज़ेवर की पिटारी को हौदा और कम्बल को जीन बताकर उनकी पलियों को घोड़ी और हथिनी कह रहे हैं। सावजी ने मन-ही-मन बिना सुने ही लड़कों के नारों की अधूरी पंक्ति भी पूरी कर ली थी। उन्हें विश्वास हो गया था कि 'जल्दी से भाग गैल' के बाद 'लबदन सुदीन' ही है। वह सचमुच घर छोड़कर भाग भी रहे थे। व्यंग्य सोलह आने सही समझकर उन्हें क्रोध हो आया। वह जुलूस में सबसे पासवाले एक छोटे-से लड़के पर हाथ का डंडा चला बैठे और एक हाथ चलाने के बाद चबूतरे की टेक लेकर हॉफने लगे। लकड़ी आते देख लड़का छलका, फिर भी छोर छू जाने से छिलोर-सी लग गई। सावजी को पागल समझकर उधर लड़का हँसने लगा और इधर सावजी साँड की तरह डकराकर रो पड़े। उनके गाल पर करारा तमाचा पड़ा था। हिलते हुए दो दाँत बाहर छिटक पड़े थे। मुँह से रक्त की क्षीण धारा-सी बह रही थी। उन्होंने आँख उठाकर देखा कि नागर गुरु सामने खड़े पूछ रहे हैं, "लड़िका के काहे मरले! बोल!"। "ए सारे से पूछा कि ई भागत काहे रहल?" लोटन बहेलिये ने कहा।
          लबदन साव विकट संकट में पड़े। आज उनकी सालगिरह क्या आई कि खासी ‘गरह-दसा' आ गई। सवेरे से ही घर में जो किचकिच चली उसने साँझ होते-होते यह रंग दिखाया। उनका लड़का 'फिरंग रोग से पीड़ित था। उसके मुँह में छाले पड़ गए थे। सावजी 'फिरंग रोग' का अर्थ नहीं जानते थे, परन्तु सन्देह करते थे कि यह रोग कैसा होता है और यह भी समझते थे कि है वह बहुत ही घृणित। इसलिए सवेरे आँख खुलते ही बेटे का मलिन मुख देख उनका जी खट्टा हो गया। उन्होंने क्रोध से घूरते हुए बेटे को देखा। बेटे ने समझा कि पिता इशारे से उसका हाल पूछ रहे हैं। उसने विश्व की सारी करुणा अपनी मुख-मुद्रा में बटोरते हुए पिता की सहानुभूति प्राप्त करने के लिए रुंधे हुए गले से कहा, "बाबू, थूकत नाहीं बनत; बड़ा कष्ट हौ।"
          मन की सारी घृणा और क्रोध को पिघले सीसे-सी प्रतप्त वाणी में घोलते हुए बाप ने उत्तर दिया, “तोसे थूकत नाहीं बनत तऽ नाहीं सही। दुनिया तो तोरे मुँह पर थूकत हो।"
          बेटे ने यह जवाब सुना तो मुँह बनाकर वहाँ से हट गया। परन्तु उसकी जननी ने, जो पास ही बैठी मसाला पीस रही थी, इतनी ही बात पर महाभारत मचा दिया; ऐसे पैने-पैने वचन-बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी कि सावजी का कलेजा जर्जर हो उठा। उन्होंने जलकर कहा, “कलमुँही, भैंस! बिहाने-बिहाने काने के जड़ी चरचराए लगल।"
          बड़ी सहुआइन ने भी उसी वज़न में जवाब दिया, 'निगोड़ा, कक्कर, निरबसा,बिहाने-बिहाने लड़िका के कोसै लग गयल। जे बिहाने एकर नाँव ले ले, ओके दिन-भर अन्नकऽ दरसन न होय!"
          बात कुछ अंश तक सही थी। साव के सूमपन के कारण वास्तव में लोग सवेरे उनका नाम नहीं लेते थे। इसीलिए सहुआइन की यह बात उनके कलेजे में बरछी की तरह चुभ गई। वर्षगाँठ का झमेला न होता तो वह कुछ उत्तम-मध्यम
किए बिना कदापि न मानते। परन्तु पूजन के समय दोनों पत्नियों के साथ ग्रन्थि-बन्धन आवश्यक था। अतः बड़ी सहुआइन के मुँह फुलाने की आशंका से उनके हाथ-पैर फूल गए। उन्होंने कड़वे काढ़े-सा अपमान का प्याला पीते । हुए भी पत्नी को मनाना आरम्भ कर दिया। छोटी सहआइन ने भी आकर सपनी को समझाया, “आखिर कहलन तऽ अपने बेटवा के न, कोई पराए के तो नाही जाए दS!"
          अन्ततः बड़ी सहुआइन शान्त हुईं। घर का वातावरण पुनः साधारण हुआ। सावजी पूजा-पाठ के फेर में पड़े। नगर में दो दिन से हड़ताल रहने के कारण बेचारे नवग्रह-पूजन और हवन की सामग्री भी न मँगा पाए थे। पड़ोसियों से

माँग जाँचकर किसी तरह सामान भी जुटाया तो पंडित ने पूजा करने आने से इनकार कर दिया। कहला भेजा, “नगर की स्थिति ठीक नहीं है, राजा अपने ही महल में बन्द है, मलिच्छों की सेना सड़क पर चक्कर लगा रही है। मैं ऐसा

घनचक्कर नहीं कि चौखट के बाहर पैर रखू । यदि प्राण संकट में डालकर जाऊँ भी तो सीधा' तो डेढ़ दमड़ी का मिलेगा न!"

साव ने जो यह बात सुनी तो उनके भी छक्के छूट गए। वह स्वयं अनगढ़,अनवसर और बेहूदी वार्ता को ही खरी-खरी कहना समझते थे। उन्होंने जो पंडितजी का निखरा-निखरा सन्देश सुना तो खरा बोलने का उनका हौसला पस्त हो गया। उधर छोटी सहुआइन को पंडित के उत्तर से अपना सौभाग्य-सूर्य अस्त होता हुआ प्रतीत हुआ। वह अस्त-व्यस्त हो उठीं। साव की तम्बाखू के पिंड-जैसी काली और स्थूल काया से आग की रेखा के समान सटते हुए उन्होंने गदगद गले से कहा, “तोहई न रहबऽ तऽ धन रह के का कारी? दूसरा पंडित बोलावऽ।"

पाँच पैसे का सीधा' देने का वचन देने पर दूसरा पंडित आया। दोनों पत्नियों के साथ गाँठ बाँधकर साव ने सावधानी से मन्त्र पढ़ते, दक्षिणा के स्थान पर जल चढ़ाते, पूजा समाप्त की। हवन आरम्भ हुआ। घी की कमी से आग दहक नहीं रही थी। गौरा पंखे से आग सुलगा रही थी। सहसा चिनगारियाँ उसके हाथ और मुँह पर आ पड़ीं। सबके मुँह से सहानुभूतिसूचक ध्वनि हुई, परन्तु सावजी ने हँसते हुए छोह-भरी वाणी में कहा, "बिटिया, एक चिनगारी में तो तू धीरज छोड़ देहलू । जब सती होएके होई तब तू का करबू?"

पंडित हक्का-बक्का होकर साव का मुँह निहारने लगा। गौरा बिना कुछ समझे हँसने लगी, परन्तु उसकी माँ का जी जलने लगा। बाहरी आदमी के सामने लड़ तो सकती नहीं थी; उसने झनककर साव के दुपट्टे से अपनी चादर की गाँठ खोल दी और चमककर खड़ी हो गई। साव भी अपनी भूल समझ गए, पर तीर हाथ से छूट चुका था। वह असहाय की तरह छोटी सहुआइन का मुँह निहारने लगे। बड़ी सहुआइन ने सौत का हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, “आखिर कहलन तऽ अपनै बिटिया के न! कोई पराए के तऽ नाहीं? जाए दऽ।" और खुली गाँठ फिर से बाँध दी।

छोटी सहुआइन ने वक्र-दृष्टि से सौत को देखा, परन्तु कुछ बोली नहीं। हवन बिना और किसी दुर्घटना के समाप्त हो गया। परन्तु साव के सिर की गर्दिश अभी तक समाप्त न हुई थी। वह भोजन करने बैठे कि लोटन बहेलिये ने गली में से आवाज दी, "सावजी हो, हे लवदन साव!"

लबदन साव ने झरोखे से नीचे झाँका । देखा कि राजा चेतसिंह का अंगरक्षक लोटन बहेलिया ज़री की डोरी पड़ी और सोना जड़ी कत्तीदार पगड़ी सिर पर रखे, हरा अंगरखा पहने, कमर में गुलाबी फेंटे से तलवार फँसाए, हाथ में फरसा लिए उन्हें आवाज़ दे रहा है। उन्होंने धीरे से गौरा को बुलाकर कहा, "बिटिया, कह दे, बाबू घरे नाहीं होअन!" उसने सिर निकालकर पिता की बात दोहरा दी।

“लौटैंतऽ कह दिहे ड्योढ़ी पर आवै। राजमाता कऽ हुक्म हो।" बहेलिये ने कहा और पैर आगे बढ़ाया। राजमाता के इस सन्देश में साव को अनभ्र वज्रपात की ध्वनि सुनाई पड़ी। उन्हें आशंका हुई कि यह बुलाहट उनसे रुपया ऐंठने के लिए हुई है। वह चिन्ता में पड़ गए।

लबदन साव ने 'रामदाने कऽ लेडुआ पैसा में चार' की बानी बोलते हुए काशी की गलियों में घूम-घूमकर व्यापार आरम्भ किया था और कौड़ी-कौड़ी जोड़कर नखास पर हलवाई की दुकान खोली थी। ज्यों-ज्यों उनका उदर स्फीत होता गया त्यों-त्यों बाज़ार में उनकी दर चढ़ती गई और वह दमड़ी पर चमड़ी निछावर कर बैठे। उसी पैसे पर राजा की दृष्टि लगी देख वह बिल्कुल ही घबरा उठे। छोटी सहुआइन ने उन्हें सान्त्वना दी, संकट से बचने का रास्ता बताया और कहा, “घबडैले काम न चली। रुपया-पैसा जमीन में गड़ल हौ, ओकर कउनो चिन्तै नाहीं। दूर चारठे गहना जउन उप्पर हौ ओके ले लऽ अऊर कुछ कपड़ा-लत्ता संघ बान्ह लऽ। चल चलऽहमरे नइहर। ई आफत पटाय जाई तऽ लउट आए।" साव को बात पसन्द आ गई। वह बोरिया-बंधना बाँध अपनी ससुराल कर्ण-घंटा की ओर चले। परन्तु रास्ते में यह कांड हो गया। उन्होंने समझ लिया कि अब जान किसी प्रकार नहीं बचती। इसलिए बहेलिये की बात सुनकर उन्होंने आँसू-भरी दृष्टि से एक बार नागर की ओर देखा और फिर लाठी की तरह सीधे उन दोनों के चरणों पर गिर पड़े।

नागर को दया आ गई। परन्तु उसने कर्कश स्वर में पूछा, "बोल, बोल, लड़िका के काहे मरले?" साव ने पड़े-पड़े ही हाथ जोड़कर उत्तर दिया, “हमारा तनिकौ दोष नाही हौ, गुरु? हमरे भागै पर लड़िकवा हमार हँसी उड़ावत रहलन।" "तोहार हँसी उड़ावत रहलन?" नागर ने आश्चर्य में पड़कर पूछा। वह समझ ही नहीं पा रहा था कि वारेन हेस्टिंग्स के पलायन की बात से साव की हँसी कैसे उड़ाई गई! साव ने लज्जावश अपनी पत्नियों के सम्बन्ध में घोड़ी और हथिनि-विषयक अपनी कल्पना पर परदा डाल दिया। केवल इतना ही कहा, "तोहऊँ तऽ सुनत रहलऽ, गुरु! लड़िकवा का कहत रहलन?"

"का कहत रहलन, तोहई कहऽ," नागर बोला।

झेंप-भरी दृष्टि से इधर-उधर देखते हुए साव ने इतना ही कहा, "ले अब का कहीं! लड़िकवा यही तऽ कहत रहलन-

घोड़े पै हौदा औ हाथी पै ज़ीन

जल्दी से भाग गइलै लबदन सुदीन।"

नागर और लोटन दोनों ठठाकर हँस पड़े। नागर ने कहा, “धत्तेरी की! साहु समझऽला कि जीनकऽ तुक सुदीन के सिवा अउर कुछ होई नाहीं सकत। जा भाग हियाँ से!" नागर ने साव को ठोकर लगाई और स्वयं आगे बढ़ा। लड़कों

की भीड़ ने नारा लगाया-

"घोड़े पै हौदा औ हाथी पै जीन

जल्दी से भाग गैल वारेन हेस्टीन।"

सावजी ने मुँह बनाकर कहा, “ऐं!"

 


Share:

कोई टिप्पणी नहीं:

शास्त्री I & II सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य प्रथम एवं द्वितीय सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

आचार्य तृतीय एवं चतुर्थ सेमेस्टर -पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा प्रथम (9)- पाठ्यपुस्तक

पूर्वमध्यमा द्वितीय (10) पाठ्यपुस्तक

समर्थक और मित्र- आप भी बने

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग

संस्कृत विद्यालय संवर्धन सहयोग
संस्कृत विद्यालय एवं गरीब विद्यार्थियों के लिए संकल्पित,

हमारे बारे में

मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

यह लेखक के आधीन है, सर्वाधिकार सुरक्षित. Blogger द्वारा संचालित.