4. सूली ऊपर सेज पिया की

सूली ऊपर सेज पिया की
"डुगडुग, डुगडुग, डुगडुग!"
इधर चाँदनी चौक के पूर्वी द्वार पर डौंडीवाला डुग्गी पर चोट देकर चिल्लाया- "खलक खुदा का, मुलुक बादशाह का, हुक्म कम्पनी बहादुर का...ऽ...ऽ...ऽ...! भंगड़ भिक्षुक को पता बताए के जो पकड़वाय देगा तिसको पाँच सौ कलदार इनाम दिया जाएगा और जो जानके विसका पता छिपावेगा सो तकसीर भरैया...ऽ...ऽ...ऽ...ऽ!"
“डुगडुग, डुगडुग, डुगडुग!" और उधर उसी समय उत्तरी द्वार से झाँझ की झनकार के साथ आवाज़ आई-"ढब...ढब...ढबाढब...ढब... ढबाढब...ढब!" और उमंग से चंग बजाता हुआ स्वयं भंगड़ भिक्षक बाज़ार में घुसा। अपनी
सुरीली, दर्द-भरी और ऊँची आवाज़ में वह लाको गा रहा था-
“मत पास पहुंच हरि के, बिधि के बुध के निगंठ के पूछो।
विष-रस पीने का मजा कंठ से नीलकंठ के पूछो।"
बीन के तारों जैसी उसके गले की मीठी झनकार से आकृष्ट होकर लोग अपने घरों और दुकानों से बाहर निकल आए। डुग्गीवाले ने भी वह स्वर सुना उसे पहचाना और अपनी गाढ़े की दोहर के तले डुग्गी छिपाकर वह वहाँ से चलता बना।
भिक्षुक का रंगीला रूप और दुस्साहस देखकर काशी के नागरिक एक साथ ही मुग्ध और विस्मित हो गए। उसने सदा की तरह आज भी गेरुए रंग के लुंगी कमर से बाँध रखी थी और शीत ऋतु होते हुए भी उसके शरीर पर गेरुए रंग के ज़री के दुपट्टे के सिवा और कोई वस्त्र न था। स्नेह-सिक्त भ्रमर-कृष्ण कुंचित केश उसके कंधों पर लहरा रहे थे और इसके साथ ही कानों के ठीक नीचे कटा चौड़ा पट्ठा उसके मूंछ-दाढ़ी-मुड़े गोरे मुख-मंडल पर ऐसा जान पड़ता था जैसे सहस्र पूँछों और दो हाथोंवाले सर्प ने किसी कनक-गोलक के दोनों ओर अपना पंजा जमाकर, उससे चिपक अपनी सारी पूँछे लटका दी हों। उसके सस्मित ओष्ठाधर पान के रस से रंगे थे और नशे से डगमग उसकी बड़ी-बड़ी मद-भरी आँखों में सुरमे की गहरी बाढ़ थी। दोनों कानों में एक एक रुद्राक्ष की बाली और गले में स्फटिक का कंठा झूल रहा था। चौड़े ललाट पर भस्म का त्रिपंड दमक रहा था। और त्रिपुंड के बीच में एक सिन्दूरी टीका था। कन्धे के नीचे चौड़े फल का भीषण कठार लटक रहा था। उसके पीछे सैकड़ों आदमियों की भीड़ थी।
गन्धियों ने दौड़कर उसको इत्र मला, मालियों ने गजरे पहनाए और सेठ-साहूकारों ने रुपए-पैसे की भेंट दी। वह काशीवासियों की वीरवृत्ति का प्रतीक था। दाताराम नागर और भंगड़ भिक्षुक की जोड़ी नगर में राम-लक्ष्मण की जोड़ी
कहलाती थी। छह महीने पहले दाताराम कालेपानी गया और उसी दिन से भिक्षुक भी नगर से अन्तर्धान हो गया था। आज भिक्षुक के फिर प्रकट होने की बात जो जहाँ सुनता, वह वहीं से उसे देखने के लिए दौड़ पड़ता। शिवाला घाट पर अंग्रेजों की करें भिक्षुक के पौरुष की साक्षी थीं और उसी सिलसिले में आज उसकी गिरफ्तारी के लिए डौंडी पीटी जा रही थी।
घंटे-सवा घंटे तक गाते-बजाते हुए समूचा चौक घूम लेने के बाद, बाज़ार के मध्य में स्थित शिव मन्दिर के ऊँचे चबूतरे पर भिक्षुक चढ़ गया और उसने ऊँची आवाज़ में कहा, "पंचो, आप सब लोग डौंडी सुन चुके हो। पाँच सौ कलदार कम रकम नहीं है। जिसे इनाम का हौसला हो सामने आए।"
भिक्षुक की बात सुनकर उपस्थित लोगों में से कुछ हँस पड़े, कुछ मौन रह गए और शेष सभीत नेत्रों से कचहरी की ओर देखने लगे। चाँदनी चौक के-जिसे आजकल गुदड़ी बाज़ार कहते हैं-दक्षिणी दरवाजे के ठीक ऊपर उन दिनों कचहरी थी। न जनता में से उसकी ओर कोई बढ़ा और न कचहरी से ही किसी ने झोंका। यह देख भिक्षुक के अधरों पर उस भुवन-मोहन मुसकान की रेखा खिंच गई जो यदि पुरुष के मुँह लगती है तो उसे देवता बना देती है और जब नारी के अधर पर खेलती है तो नारी कुलटा कहलाने लगती है। समवेत जनसमूह पर उसी मुसकान की मोहिनी डालते हुए उसने कहा, "अच्छा, अब चलता हूँ। कोतवाली जाकर तनिक कोतवाल का भी हौसला देख लूँ।"
2

पौष की सन्ध्या सिहरने लगी थी। दालमंडी में अमीरजान तवायफ़ की दिव्य हवेली के दूसरे खंडवाले कमरे में तबला ठनकने लगा था। दीवारों पर टैंगे शीशे में दीपाचारों में मोमबत्तियों के गुल खिल चुके थे। खिड़कियों के छज्जों में फूलों के गजरे लटकाए जा चुके थे। ठेका, सारंगी और मजीरे की सहायता से अमीरजान पीलू पर 'रियाज़' कर रही थी-"पपीहा रे, पी की बोली बोल!"

            अमीरजान 'स्थायी' समाप्त कर 'अन्तरा' पर ही रही थी कि उसे गली में हलचल की आहट लगी। उसने देखा कि सामने की खिड़कियों में वेश्याओं का समूह बाहर गला निकाले गली में उत्सुकतावश कुछ देख रहा है। अमीरजान भी उठकर खिड़की पर आई। उसने देखा कि बूढ़े, अपाहिजों और भिखारियों को रुपए-पैसे लुटाता मस्त मन्थर गति से गली में भंगड़ भिक्षुक चला जा रहा है। उसके पीछे-पीछे आदमियों की बड़ी भीड़ है। नगर की प्रसिद्ध सुन्दरी वारांगनाएँ अपने-अपने झरोखों पर डटी हैं, परन्तु भिक्षुक की दृष्टि चतुर्दिक् चक्कर लगाने में ही व्यस्त है, उसे ऊपर देखने का अवसर नहीं मिल रहा है। सौन्दर्य का यह अपमान उसे सहन नहीं हुआ। वह स्वयं भी नगर की प्रसिद्ध वेश्या थी। उसके रूप की तूती बोलती थी। सुर ने उसे असुर की शक्ति दे रखी थी और तान ने उसे शैतान बना रखा था। इन्हीं दोनों के बल वह हृदयों पर आधिपत्य जमाती थी और उनके सारे रस का शोषण कर अन्त में उन्हें बरबाद कर देती थी।

            औरों की तरह उसने भी भिक्षुक को देखा, औरों की तरह वह भी उसके रूप पर मुग्ध हुई, किन्तु यह देखकर वह औरों से कहीं अधिक दुखी हुई कि अशर्फियों के मोलवाली उसकी मुसकान का मोती भिक्षुक की नयन-झोली में गिरकर सड़क की धूल में लोट रहा है। तब औरों से बढ़कर उसने एक काम किया, अर्थात् पश्मीने का शरबती शाल अपने शरीर से उतार उसने भिक्षुक के ऊपर डाल दिया। भिक्षुक ने शाल नीचे खींचते हुए चौंककर सिर ऊपर उठाया। अमीरजान से उसकी आँखें चार हुईं। विजय गर्व से भरी छुरी की धार-जैसी तीखी मुसकान अमीरजान के अधर पर खेल गई, किन्तु वह देर तक बनी रह सकी। भिक्षुक ने निशाना साधकर अपने हाथ की रुपयों-पैसों से भरी थैली ऊपर उछाली और वह पूरे ज़ोर से अमीरजान की नाक के सिरे पर तड़ाक जा बैठी। उसकी नाक से रक्त टपकने लगा मानो किसी लक्ष्मण ने पुनः किसी शूर्पणखा का नासिका-छेदन किया हो। भिक्षुक ठठाकर हँस पड़ा।

            ठीक उसी समय बगल की मस्जिद से एक कदर्य, कुरूप और बूढ़ी भिखारिन बाहर निकली। वह सैकड़ों पैबन्द-लगा पाजामा पहने थी। उसका कुरता तार-तार हो रहा था और चादर के नाम पर उसके पास एक चीथड़ा-मात्र था। उसने भी वेश्या-भिक्षुक-कांड देखा। उसके झुर्रियों से भरे पोपले मुँह से एक विचित्र ध्वनि निकली, जिसे हँसी भी कह सकते हैं और खाँसी भी। हाथ की लठिया पर सारे शरीर का भार देकर वह तन गई और अपनी गन्दी अँगुलियों से भिक्षुक का चिबुक छूते हुई बोली, "वारी जाऊँ बेटा, शाबाश!" लोगों को आशंका हुई कि क्रुद्ध भिक्षुक कहीं बूढ़ी को ढकेल दे, परन्तु भिक्षुक ने दृष्टि और वाणी दोनों ही में कौतुक भरकर कहा, "माई, तू कहाँ? अच्छा, ही गई तो कुछ लेती जा।" और उसने शीत से थरथर करती बूढ़ी की जर्जर काया पर अमीरजान की शाल डाल दी। बूढ़ी बदले में दुआ तक दे पाई थी कि भिक्षुक आगे बढ़ा .....और कोतवाली गई। भिक्षुक के पीछे चलनेवालों की संख्या अब तक हज़ार के ऊपर पहुँच चुकी थी। सभी उत्सुक थे कि देखें, कोतवाली चलकर कैसे निपटती है! भिक्षुक के बल और जीवट, शस्त्र-कौशल और शास्त्र-ज्ञान, कुश्ती की निपुणता और संगीत की साधना आदि का हाल बनारस का बच्चा-बच्चा जानता था। साथ ही नए अंग्रेज़ी राज्य के क़ायदे-कानूनों की हृदयहीन पाबन्दी का स्वाद भी काशी की जनता को अल्प समय में ही मिल चुका था। उस जनता का विश्वास पूरा था कि आज अद्भुत विराट और 'अवसि देखिए देखन जोगू'- जैसी कोई बात होकर ही रहेगी। स्वभाव से ही तमाशबीन काशी के नागरिकों की उत्कंठा जाग गई थी। परन्तु जब कोतवाली सामने गई तो कोरे तमाशबीन कतराने लगे, कायर छितराने लगे।

            वर्तमान चौक थाने के सामने जहाँ आज सवारियाँ खड़ी होती हैं, एक कुआँ था और कुएँ के चतुर्दिक् मैदान। तत्कालीन काशी में गोल-गप्पे, कचालू की एकमात्र दुकान नित्य शाम उसी कुएँ पर लगती। थाने के दक्षिण ठीक सामने सड़क की पटरी पर कोतवाली थी। भिक्षुक ने कुएँ की ऊँची जगत पर खड़े हो कोतवाली की ओर मुँह उठाकर आवाज लगाई, "हुजूर कोतवाल साहब! भिक्षुक ड्योढ़ी पर आया है। क्या हुकुम होता है?"

कोतवाल साहब मिनके तक नहीं और जो दो-एक बरकन्दाज़ कोतवाली के फाटक पर थे, वे भी भीतर चले गए। भिक्षुक ने भैरव विषाण के वज्रनाद के समान भयंकर अट्टहास किया। एकत्र जनसमूह का कौतूहल शान्त हो गया था। लोगों ने मान लिया कि सरकार भिक्षुक से पराजित हो गई। उन्हें अचरज न हुआ। वे जानते थे कि सदा से ही सरकार भिक्षुकों से हार मानती चली आई है और भविष्य में हार मानती जाएगी। भिक्षुक पर उनकी श्रद्धा और बढ़ गई। भिश्वक भी धीरे-धीरे दो-चार घनिष्ठ साथियों के साथ कूचा अजायबसिंह (वर्तमान कचौड़ी गली) पार करता हुआ अपने पंचगंगा घाटवाले अड्डे की ओर चला। 

3

 भिक्षुक का तन थकावट से चूर और मन चिन्ता से जर्जर हो रहा था। वह गंगा-तट की एक मढ़ी पर जा बैठा। उसके साथी सब्ज़बाग की सैर का डौल लगाने लगे। कल दोपहर से वह बराबर चल रहा था। सोने की बात ही क्या, उसे बैठने तक का अवसर मिला था। वह पूरब की ओर मुँह करके लेट रहा।

            शिशिर की सन्ध्या थी। पौष पूर्णिमा का हिमश्वेत चन्द्र नैशविहार के लिए निकल पड़ा था। उधर पानी से उठता हुआ कुहासा क्रमशः दिगन्तव्यापी होने का प्रयत्न कर रहा था। प्रतीत होता था कि आकाश-गंगा के तट पर बैठी चन्द्रमुखी ने पार्थिव गंगा के ऊपर अपना सघन केश-जाल लटका दिया है। इस पार से उस पार की कोई वस्तु दिखाई पड़ती थी, परन्तु भिक्षु उसी ओर देखना चाहता था।

            वह देखना चाहता था कि उस काली चादर के पीछे छिपे एक कच्चे दोमंजिले धवलगृह को, और वह देखना चाहता था उस धवलगृह में आलोक-शिक्षा-सी स्थित धवल सौन्दर्य की स्वामिनी मंगला गौरी को। मंगला गौरी ने कल उसे बाल-बाल बचा लिया था। उसने उसे देखते ही पहचान लिया था, परन्तु भिक्षु ने उसे तब पहचाना जब उसने अपनी आम की फाँक-जैसी आँखों से अश्रुरस उलीचते हुए गद्गद कंठ से पूछा था, "क्या गौरी की तपस्या अब भी पूरी नहीं हुई?" और तब वह उसे पहचानकर पुनः दूसरी रात आने का वचन दे बैठा। तभी से उसके मन में एक ही प्रश्न चक्कर काट रहा था कि क्या त्यागी हुई वस्तु पुनः ग्रहण की जा सकती है?

            मंगला गौरी उसकी पत्नी थी। परन्तु उसने उसका मुख जीवन में दो बार ही देखा था-एक, विवाह की रात और दूसरे, तेरह वर्ष बाद पिछली रात भिक्षुक ने अलवर के एक ऐसे चारण-कुल में जन्म लिया था जिसकी जीविका का साधन कड़खा-पाठ होकर असि-संचालन था। उसे जन्म से ही व्यायाम और शस्त्र-संचालन की शिक्षा मिली थी। तेरह वर्ष की आयु में उसका विवाह जैसलमेर में हुआ श्वसुर राजस्थान के प्रसिद्ध चारण थे। कितने ही राजाओं ने 'लाखपसाव और 'कोड़पसाव' से उनका सम्मान किया था। उत्तर वयस में उन्होंने नाथ-द्वार जाकर कंठी बंधवा ली थी। उसके बाद ही कन्या के रूप में उनके घर में प्रथम सन्तान ने जन्म लिया। कन्या पिता की आँखों की पुतली हो गई। अनजाने ही पुत्री पर भी पिता का रंग चढ़ने लगा। पिता पूजा करते और पुत्री गोविन्दलाल की प्रतिमा के समक्ष नाचती हुई तोतली बोली से गाती, "मैं तो गिरघर आगे नाचूँगी!"

 

भिक्षुक को विवाह की रात की वह घटना याद आई जब सप्तपदी समाप्त होने पर ससुराल की स्त्रियों ने उसको कविता और दोहा सुनाने के लिए कहा और वह मौन रह गया। कारण, तब तक उसे अपना नाम चन्द्रचूड़ को चनरचूर बताने का अभ्यास था। उसके चुप रह जाने पर महिलाओं का मर्म स्वर उसके कानों में धनुषटकार की भाँति गूँज उठा, "मूर्ख है।" चतुर चतुरानन की चातुरी वहाँ भी चल गई। नैश-जागरण से नींद में माती, भागवत के सैकड़ों श्लोक कंठस्थ रखनेवाली मंगला के भी मुख से प्रतिध्वनि की तरह निकल पड़ा, "मूर्ख है।"

            वह अनपढ़ था, परन्तु अज्ञानी नहीं। और मूर्ख यदि बलवान हुआ तो फिर उसके स्वाभिमान की सीमा नहीं रह जाती। वह उठ खड़ा हुआ और महिला-मंडल को ढकेलता बाहर निकल आया। रात के अँधेरे में अपने को छिपाता वह जंगल में भागा और मरुभूमि में महीनों का मार्ग पार कर वह काशी पहुँचा। यहाँ उसने विद्या पढ़ी, विद्वान भी हुआ, पर फिर घर लौटकर नहीं गया।

भिक्षुक की विचारधारा में बाधा पड़ी। उसके एक साथी ने आकर कहा, "गुरु, तैयार हो गई।"

"बड़ा जाड़ा है, आज तो पंचरत्नी छानूँगा," भिक्षुक ने कहा। "अच्छा, तो अभी तैयार हुई जाती है," साथी ने कहा।

            नागबच्छ और धतूरे के बीज के साथ सिल पर संखिया की दो लकीर खींच भिक्षुक के हिस्से की भाँग पुनः पीसी गई। गोला तैयार होने पर उसके पेटे में थोड़ी अफीम रख दी गई और चुल्लू-भर जल के सहारे भिक्षुक ने वह गोला अपने उदर में उतार लिया। आकाश को अपनी तान से गुँजाते हुए वह उठ खड़ा हुआ। गंगा की लहरां ने प्रतिध्वनि की।

"विष-रस पीने का मजा कंठ से नीलकंठ के पूछो !"

 4

 दस बजे रात गंगा में ग्यारह डुबकियाँ लगाकर जब भिक्षुक बाहर निकला तो उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि शीत के प्रहार से उसका नशा उखड़ गया है। उसके संगी-साथी विदा हो गए थे। उसने बदन पोंछते हुए घाट के किनारे स्थित अपनी मढ़ीनुमा खोह में प्रवेश किया। दीवट में मृत्प्रदीप जल रहा था और भूमि पर बाघम्बर पड़ा था। उसी पर बैठे गाँजे का दम लगाते हुए विचार करने लगा। अभी तक वह इस प्रश्न की मीमांसा कर पाया था कि जिसका त्याग कर दिया उसका पुनर्ग्रहण उचित है या नहीं? विधि और निषेध दोनों पहलू उसके सामने आते थे-'त्यागी हुई वस्तु उच्छिष्ट है, मानो उसे ग्रहण नहीं करते। नारी साधना-पथ का अन्तराय है, मैं साधक हूँ।'

            पुनः दूसरे ही क्षण वह सोचता-'गौरी मेरी सहधर्मिणी है। वह जैसी सुन्दरी है वैसी बुद्धिमति भी। उससे मुझे कर्तव्य-पालन में सहायता ही मिलेगी। उसका मैंने पाणिग्रहण किया है। उसका भरण-पोषण करना मेरा कर्तव्य है। मैं उसे वचन दे आया हूँ, वह मेरी प्रतीक्षा करती होगी।' प्रश्न के इस सामाजिक पहलू ने निर्णय कर दिया। वह अभिभूत-सा धीरे-धीरे खोह के बाहर निकला। एक नाव खोली। उस पर बैठ उसने उसे धारा में छोड़ दिया और स्वयं भी विचारधारा में बह चला। उसके हाथ यन्त्रवत नाव खे रहे थे। वह सोच रहा था कि यदि वह होती तो सिपाही मुझे अवश्य पकड़ लेते। मैं खाली हाथ थका-माँदा और पैदल था; वे हथियारबन्द, घोड़े पर सवार थे। जाने कैसे पहचान लिया दुष्टों ने! अलीनगर से कटेसर तक दौड़ा मारा। पर उन्हें पता भी चल गया होगा कि आज किसी से पाला पड़ा है। सब तो पीछे रह गए, परन्तु वह ससुरा हवलदार, उसने अन्त तक पीछा छोड़ा।

            नाव किनारे लग गई। भिक्षुक उस पर से उतरा। रेती में खूँटा गाड़कर उसने नाव उसी में बाँध दी और स्वयं गाँव की ओर चला। फीकी चाँदनी में शृगाल चन्द्रमा की ओर मुँह उठा-उठाकर चीत्कार कर रहे थे। गाँव में पहुँचते ही कुत्ते उसके पीछे-पीछे भौंकते चले। मंगला गौरी के ओसारे के सामने पहुँच भिक्षुक ने देखा कि ओसारे में काठ की चौकी पर बैठा वही हवलदार मूँछों पर हाथ फेरता हुआ बड़े स्वर में रामायण की चौपाइयाँ उड़ा रहा है-

"हे खगमृग हे मधुकर श्रेनी।

कहुँ देखी सीता मृगनैनी

तुम आनन्द करहुँ मृग जाये।

ये कंचन-मृग हेरन आए "

 भिक्षुक सामने नाँद के पीछे, जहाँ वह पिछली शाम छिपा था, आकर खड़ा हो गया। कल शाम वह यहीं बैल बांधने के खूंटे से ठोकर खाकर तृपातुर गिर पड़ा था। गौरी वहीं खड़ी नाँद में बैलों के लिए सानी दे रही थी। उसके गिरते ही वह पास आई थी। उसे देखते ही वह चौंकी थी और बगुल से आती घोड़ी की टाप की आवाज़ सुनकर नाँद की और अँगुली उठाकर उसने भरे गले से कहा था, "वहाँ, नाँद के पीछे!" और वह कठिनाई से नाँद के पीछे छिप पाया था कि घोड़े पर चढ़ा यही हवलदार आया। उसने पूछा था, "गौरी, इधर से कोई आदमी अभी भागा है?" और गौरी ने क्षण-भर का भी विलम्ब किए बिना उत्तर दिया था, "नहीं तो, मैं आज दरवाज़े पर दो घंटे से हूँ।" इस पर हवलदार ने कहा था, "अच्छा, थोड़ा पानी पिला।"

             यह बात याद आते ही भिक्षुक ने देखा कि सामने का दरवाज़ा खुला और गौरी अपने हाथ में दूध-भरा कटोरा लिए निकली। उसने हवलदार से कुछ कहा हवलदार ने मुसकराकर कटोरा उसके हाथ से ले अपने मुँह लगाया। भिक्षुक की पीठ पर जैसे कोड़ा पड़ा। वह वहाँ से सरपट भागता हुआ गंगा-तट पर आया, नाव खोलकर उस पर बैठ गया और उसे खेते हुए मन-ही-मन अपने को धिक्कारने लगा, 'ओह, मैं पढ़-लिखकर भी मूर्ख ही रहा! मैं अपनी कामुकता को कर्तव्य का चोला पहना रहा था। रूप के क्षणिक आकर्षण में मैं अपनी आजन्म साधना नष्ट करने जा रहा था। मैंने एक बार भी यह सोचा कि जैसलमेर की यह गौरेड़ी यहाँ कैसे चली आई और फिर यहाँ वह एक पुरुष के साथ रहती है, उससे मुसकराकर बात करती है, उसे कटोरा भर-भर दूध पिलाती है!' -

भिक्षुक के हाथों में डाँडा और विचार में उधेड़-बुन चल रही थी। तरी की पुष्ट वायु की तरावट से जब उसका मस्तिष्क कुछ ठंडा हुआ तो विचारों की धारा भी दूसरी ओर घूमी। आत्मनिन्दा के भाव ने विपरीत दिशा में ज़ोर बाँधा। भाव-सबलता के कारण उसके ओंठ हिल उठे और मन के विचार बड़बड़ाहट के रूप में निकल पड़े-बिना समझे-बूझे निर्णय यही कहलाता है। केवल अनुमान के आधार पर मैं 'यत्परोनास्ति' चिन्ता में पड़ा हूँ। हो सकता है, हवलदार उसका कोई निकट सम्बन्धी हो। उससे मिलकर पूछ लेने में ही क्या बुराई थी? पर बात यह है कि सब साध्य-साधना करने पर भी मेरा मन साधारण जन की ही तरह अब भी ईर्ष्या-द्वेषग्रस्त है। विवाह की रात

की तरह ही अब भी मेरे षड्रिपु जाग रहे हैं, अन्यथा मेरे नाम से डौंडी पिट रही है, यह सुनकर मुझे नगर में निकल पड़ने और दिन-भर घूमते रहने की क्या जरूरत थी? मेरे साथ बड़ी भीड़ थी, इसी से मेरे सामने आने की किसी ने हिम्मत की। नहीं तो पकड़े जाने पर जो कुछ होगा वह मुझसे छिपा नहीं है। नागर कालापानी गया, मैं फाँसी जाऊँगा। अपनी जलन के कारण मैं गौरी के प्रति दूसरी बार अन्याय करने जा रहा था।

 और आधी गंगा पार कर लेने पर भी उसने अपनी नाव पुनः कटेसरवाले पुल की ओर घुमा दी। नाव घूमते ही उसने चकित होकर देखा कि उससे थोड़ी ही दूर पर राजकोट की ओर से बीस-पचीस नावों पर सवार गोरे सैनिक उसी की नाव की ओर बढ़े रहे हैं। उसने जल्दी से नाव घुमाई और सैनिकों को अपनी ओर बन्दूक छतियाते देखा। गोलियाँ छूटने के पहले ही वह पानी में कूद पड़ा। यथासम्भव अधिकाधिक डुबकी लगाता हुआ वह किनारे पर पहुँचा और हँकवे में फँसाए सिंह के समान तीर की तरह वह अपनी गुफा में घुस गया। तैनिक भी नावों से उत्तर खोह के दरवाज़े पर खड़े हो गए।

 5

 सैकड़ों कंठों से उठी उल्लास-ध्वनि गंगा की लहरों पर लुढ़कती, रेती पर दौड़ती और चने के खेतों पर से उड़ती जब यदुनाथ हवलदार के दोमंजिले मकान में घुसकर भूमि पर सोई मंगला गौरी के कर्ण-पुटों से टकराई तो उसकी आँखें खुल गईं। उत्सने ध्वनि का अनुसरण करते हुए पश्चिमी दीवार में बने हुए गवाक्ष से बाहर झाँका। घनश्याम तरुराज के अन्तराल से उसने देखा कि श्यामल शस्य-क्षेत्रों और बालू-भरी भूमि के बाद गंगा पर क्रमशः ऊपर उठती धूम्रराशि माधवराव के धरहरे के कंगूरे पर विराट अजगर-सी कुंडली बाँध रही है।

 

आज गौरी ने रात आँखों में काटी थी। नित्य भूमि पर शयन का नियम रखते हुए भी उसने आज शय्या बिछाई थी और उस पर सूचिकार्य-खचित आस्तरण भी डाल रखा था। पर जिसे उस शय्या पर शयन करना था, वह आया ही नहीं। सारी रात प्रतीक्षा करने के बाद जब भोर में दक्खिनी वायु चली तो उसकी पलकें झप गईं। और अब उठने पर देख रही है कि उसके नयन और मन में ही नहीं, गंगा-पार भी आग लगी है। सहसा किसी ने दरवाज़ा खटखटाया; गौरी के किवाड़ खोलते ही एक पड़ोसी की चंचल और हँसोड़ पुत्री गेंदा तूफ़ान की तरह कोठरी में घुसी और गौरी के गले में हाथ डाल फूलों के हार-सी झूलती हुई उसने कहा,

 "जीजी, कब से तुम्हें बुला रही हूँ। चिल्लाते-चिल्लाते गला बैठ गया। तुम क्या कर रही थीं?"

 "सवेरे-सवेरे मुझसे तेरा कौन-सा काम अटक रहा था, गेंदा?" गौरी ने उसे अपना गला छुड़ाते और मुसकराते हुए कहा। तेरह वर्ष की अल्हड़ छोकरी गेंदा को गौरी से कोई काम था। वह केवल उसे यह समाचार देने आई थी कि उस पार नगर में आग लगी है। सो उसने कहा, "काम तो कुछ नहीं था, जीजी! उस पार आग लगी है। गाँव-भर देखने गया है। मैं भी किनारे तक गई थी।

          "अच्छा!" गौरी ने विस्मय का अभिनय करते हुए कहा। "अच्छा क्या? सोचा था, तुम्हें भी साथ लेती चलूँ। खिड़की के नीचे खड़ी होकर कितना चिल्लाई! रोज़ तो तुम चार बजे भोर से ही उठकर क्या-क्या गाया करती थीं। आज तुम्हारी आहट ही नहीं मिली। हाँ, वह गीत तो गाओ जीजी-'म्हांने चाकर राखो जी, गिरधारी लाला' " यह कहकर गेंदा खिलखिलाकर हँसी। फिर तत्काल संयत होकर बोली, "अच्छा जीजी, ये सब गीत तुमने सीखे कहाँ?"

अल्हड़ गेंदा प्रश्न पर प्रश्न करती जा रही थी, बिना यह ख़याल किए कि उसके प्रश्न गौरी के हृदय पर हथौड़े की चोट कर रहे हैं। फिर भी गौरी ने कहा, "इसमें बताने की क्या बात है? मेरे बाप श्री गोविन्दलाल के उपासक थे ! उन्हीं से यह सब सीखा है। उनके गोलोकधाम जाने पर जब दामादों ने मेरी सब सम्पत्ति छीन ली तो मैं अपने मामा के पास चली आई। मामा ने जब काशीराज की सेना में नौकरी की तो मैं भी यहाँ चली आई।"

 "अच्छा, एक गीत गाओ, जीजी! मुझे बड़ा अच्छा लगता है," गेंदा ने कहा।

 "इस समय चित्त ठिकाने नहीं है गेंदा, फिर कभी गाऊँगी।" "नहीं, मेरी अच्छी जीजी! दो-ही-एक कड़ी सुना दो," गेंदा ने बच्चों की तरह मचलते हुए कहा। अन्त में गौरी को गेंदा के हठ के सामने झुकना पड़ा। उसने शून्य शय्या की ओर देख गुनगुनाना आरम्भ किया-

"एरी मैं तो दरद-दिवाणी

मेरो दरद जाने कोय।

सूली ऊपर सेज पिया की

केहि विधि मिलना होय!"

 

"किससे केहि विधि मिलना होय, जीजी? उससे तो नहीं जो परसों साँझ को नाँद के पीछे छिपा था?" फिर खिलखिलाकर गेंदा ने पूछा।

 " मर कलमुही।" गौरी ने कहा और साथ ही सुना कि उसके मामा नीचे खड़े पुकार रहे हैं- "गौरी, गौरी! अभी तक नीचे नहीं उतरी, बात क्या है?"

 सीढ़ी पर मामा के चढ़ने की आहट मिली। वह कहीं कोठरी में जाएँ, इसलिए गेंदा के साथ वह स्वयं बाहर निकल आई और सामना होते ही पूछ बैठी, "क्या है, मामा?"

 "अपना अभाग है, बिटिया ! कम्बख़्त आज कुत्ते की मौत मारा गया। कहीं परसों ही गिरफ़्तार हो गया होता तो पाँच सौ कलदार मेरे हाथ लगता " यदुनाथ हवलदार ने कहा। सुनते ही गौरी को जैसे काठ मार गया और उसके चेहरे पर हवाई उड़ने लगी। उसने कठोर संयम से काम लिया और उसके मुँह से आह तक निकली। गेंदा ने यदुनाथ से पूछा, "कौन कुत्ते की मौत मारा गया, काका?"

 "अरे वही, नागर गुंडे का साथी भंगड़ भिक्षुक! लेकिन बिटिया, वह रहा बड़ा बहादुर जिस गोरे ने उसकी खोह में घुसने के लिए भीतर सिर डाला उसका सिर भीतर ही रह गया। पाँच-सात गोरों के कटते ही सेना ने लकड़ियों से खोह को तोप कर उसमें आग लगा दी। देख , कितनी लपटें उड़ रही हैं!"

गौरी और गेंदा दोनों पश्चिम की ओर अग्नि-तांडव देखने लगीं। गौरी ने देखा कि अशरीरी आत्मा की लोल लोलिहान अँगुलियों के समान लपलपाती लपटें आकाश छूने के लिए उचक रही हैं। उनके ऊपर उड़ती हुई धुएँ की रेखा ने सूली का आकार धारण कर रखा है और उसी सूली की नोक पर बैठा हुआ भिक्षुक क्रमशः ऊपर उठता जा रहा है। उसने कुछ सोचा और गेंदा से कहा, "तू नीचे चल, मैं अभी दरवाज़ा बन्द करके आई।"

 गेंदा नीचे उतर गई। गौरी फिर कोठरी में घुसी। उसने भीतर से द्वार बन्द कर दिया। कोने में रखा निष्प्रभ दीप अव भी मन्द मन्द जल रहा था। उसने दीपक उठाया और उसकी लौ शय्या पर बिछे बिछौने से लगा दी। क्षण-भर में ही शय्या जलने लगी। वही दीपक अपने आँचल के तले रख, उसने बारह वर्ष बाद शय्या पर पैर रखा। आँचल को भी आग पकड़ चुकी थी। पल-भर में ही गेंदा और यदुनाथ को भी ज्ञात हो गया कि गौरी की कोठरी में आग लगी है। गेंदा दौड़कर सीढ़ी चढ़ी और दरवाज़ा पीटते हुए चिल्लाई, "जीजी,

 जीजी, यह क्या?"

 भीतर से चंडी के अट्टहास की तरह गौरी का शब्द सुनाई पड़ा-"गेंदा, सूली ऊपर सेज पिया की, एहि विधि मिलना होय!" और फिर काठ-कबाड़ तथा जलते मांस की दुर्गन्ध बाहर निकलने लगी

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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