5. आए, आए, आए


आए, आए, आए

उस दिन ज्ञानवापी की आलमगीरी मस्जिद के मुअज़्ज़न ने भिनसहरी रात नमाज़ियों को जगाने के लिए मीनार पर चढ़कर अज़ान नहीं दी, गंगा-स्नान करके नवस्थापित विश्वनाथ मन्दिर में जानेवाले दर्शनार्थियों ने 'हर हर महादेव शम्भो' की ध्वनि
से नीचे गली नहीं गँजाई, पहरेदार ने भी 'जागते रहो, चार बजा है' चिल्लाकर मुहल्ले का फाटक खुलवाने के लिए अन्तिम रौंद नहीं लगाया, परन्तु मस्जिद के सामने वाले दोमंजिले मकान के बरामदे में टँगा हुआ तोता प्रतिदिन के अभ्यासवश ठीक समय पर बोल उठा, “राधेश्याम, राधेश्याम!"
पिंजरे के ठीक नीचे पड़ी तीन पैर की चारपाई पर बिछी जीर्ण कन्था पर लेटे वृद्ध और अन्धप्राय चित्रकार रामदयाल की ऊँघती आँखें कीर-कूजन से खुल गईं। उसने मुँह के आगे हाथ लगाकर जमुहाई ली और फिर चुटकी बजाते हुए स्वयं भी बोल उठा, “राधेश्याम, राधेश्याम!"
उसे फिर जमुहाई आई। मुँह बाए और उस पर हथेली लगाए ही उसने अस्पष्ट शब्दों में कहा, “आज भी अमीरन न आई तो...:" और जमुहाई का क्रम अटूट-सा हो गया।
टिकियावाली बुढ़िया अमीरन का गत तीन दिन से पता न था, इसीलिए उसके ग्राहक घबरा उठे। जाड़ा हो, गरमी हो, बरसात हो, टिकियावाली अमीरन बिना नागा अपने गिने-चुने ग्राहकों के लिए छोटी-सी टोकरी में टिकिया और अम्बरी
तम्बाकू लेकर नगर की प्रदक्षिणा करने सूर्य के साथ ही निकल पड़ती। उसकी ताज़ी कुरकुराती टिकियों और खुशबूदार नशीली तम्बाकू के चाहक हाथ में चिलम और टिकिया धराने के लिए चिलम में रखा अंगारा फूंक से जिलाते हुए टिकियावाली
की प्रतीक्षा में अपने घरों से निकल आए रहते।
टिकियावाली भी सुँघनी रंग का चूड़ीदार पाजामा और हरे रंग का कुरता पहने, सिर पर गेरुए रंग की चादर डाले, एक हाथ से लठिया टेकते और दूसरे हाथ से कमर के सहारे टोकरी सँभाले अपनी जर्जर जूतियाँ चटकाती आती। आतुर ग्राहक के सामने पहुँच हाँफते हुए लाठी पर टेक देकर खड़ी हो जाती, चबूतरे या सीढ़ी पर टोकरी रख देती और कानों में पड़ी चाँदी की छोटी-छोटी आध दर्जन बालियों में प्रभाती पवन के कारण उलझे श्वेत केशों को चाँदी के ही छल्लों से गूँथी कम्पित और शीर्ण अंगुलियों से सँवारती हुई क्षण-भर दम लेती। फिर सिल पर कूँचकर मँह में जमाया ज़र्दपान जीभ से गाल की ओर हटा देती। खखारकर गला साफ करने का प्रयत्न करती और हँसकर चुटकी बजाते हुए, फूटे परन्तु सधे गले से गा उठती-
"पिया आवन की भई बेरिया
दरवजवाँ लागि रहूँ।"
तत्पश्चात कौड़ी-दो कौड़ी की टिकिया बेच आगे बढ़ जाती। उसकी इन मुद्राओं पर उसके ग्राहक मुसकरा देते। कभी-कभी कोई उसी-जैसा बुड्ढ़ा ग्राहक यह भी कह बैठता, “बीबी, अब तो तुम्हारी वह उमर नहीं रही, नहीं तो लोगों को कुछ और ही शक हो जाता।" डाँटने का अभिनय करती हुई अमीरन जवाब देती, “मियाँ बुड्ढे हुए, लेकिन अकल न आई। सच तो यह है कि जिनकी शक के लायक उमर नहीं रही उन्हीं पर सबसे ज्यादा शक करना चाहिए।" इस पर कोई और बोल उठता, “यह कानून बनाओगी तो तुम भी शक से रिहाई न पा सकोगी।" वह उसे भी चमकाती हुई कहती, “हमारी फिक्र न करो। हम औरतों को शक का रास्ता बचाकर चलने का अभ्यास होता है।" और इस जवाब के बाद सिवा झेंपकर हँसने के बात आगे बढ़ाने का रास्ता न रह जाता। उसके चले जाने के बाद वहाँ एकत्र लोगों में निर्मूछिए कहते, “बेहया है," अधेड़ कहते, “बेलौस है,” बुड्ढ़े कहते, “जोगिन है" और स्वयं अमीरन पूछने पर कहती, “मैं क्या थी, यह भूले जुगों बीत गए। अभी आगे चलकर क्या हो जाऊँगी, यह अल्लाह ही जानता है। अलबत्ता मैं इतना ही जानती हूँ कि मैं इस बखत चाहू।" इस पर भी यदि कोई कहता कि “अच्छा यही बताओ कि तुम इस वक्त क्या हो,” तो उसके मुखमंडल पर विचित्र गम्भीरता छा जाती। वह धीरे-धीरे कहती, "मैं घर-घर अलख जगानेवाली भैरवी हूँ।"
2.
बरामदे से संलग्न कोठरी में चित्रकार की पत्नी कृष्णप्रिया भी जाग चुकी थी और बिछौने पर लेटे-ही-लेटे गुनगुना रही थी-“जागिए ब्रजराज कुँवर पंछी सब बोले।”
सवेरा हो चुका था। रामदयाल को भ्रम हुआ कि कोई उसका दरवाजा खटखटा रहा है। उसने अपनी पत्नी को पुकारा, "अजी सुनती हो, उठो दरवाजा खोलो। शायद अमीरन आ गई।"
 तुम तो जैसे रात-भर अमीरन का ही सपना देखते रहे हो," कहते कहते कृष्णप्रिया उठी और बरामदे में आकर गली के नीचे झाँका। किसी को न देख उसने कहा, "क्या अमीरन को अपनी जान भारी पड़ी है कि वह इस खन-खराबी में घर से बाहर निकले?"
“वही तो," बूढ़े चित्रकार ने कहा, “परन्तु क्या करूँ? अमल बुरी चीज है। देखो, कोने-अन्तरे में अगर थोड़ी-बहुत तम्बाकू पड़ी हो तो मुझे दे दो।
जो कुछ था सब समाप्त हो गया, अब तुम्हीं खोजो,” उसने कहा और फिर भुनभुनाने लगी, “दंगे का दिन है, अड़ोसी-पड़ोसी भी भाग गए हैं, नहीं तो उन्हीं से सवेरे-सवेरे भीख माँगती।"
असहाय रामदयाल ने पत्नी के वचन सुने और यह जानते हुए भी कि अभीप्सित वस्तु मिलनेवाली नहीं, उसने एक कोने में हाथ बढ़ा टटोलना आरम्भ किया। वह जो कुछ खोज रहा था वह तो हाथ न लगा, परन्तु उसका हाथ अपनी ही बनाई हुई एक तसवीर पर पड़ गया। चित्र पर हाथ पड़ते ही उसकी हथेली एक बार पुनः वैसे ही जलने लगी जैसे सत्ताईस वर्ष पूर्व यही चित्र चुराने के अभियोग में अग्नि-परीक्षा के अवसर पर जलते हुए लौह गोलक से वह जली थी। उसने तत्काल चित्र पर से हाथ खींच लिया, परन्तु बुझी आग धधक चुकी थी। उसने स्मृति के धुएँ में स्पष्ट देखा-
जमुना का किनारा है और किनारे काली मिट्टी के एक टीले पर फूँस से छाई हुई एक झोंपड़ी। झोंपड़ी की चूना-पुती भीत पर कोयले के छोटे-से टुकड़े से बारह-तेरह वर्ष का एक बालक एक बालिका का चित्र बनाने के प्रयत्न में तल्लीन है। लड़का गत बारह घंटे से भूखा है, परन्तु चित्र-रचना के आगे उसे क्षुधा भी भूल गई है। उसकी पीठ पर तीखी धूप पड़ रही है, परन्तु उसे इसकी चिन्ता नहीं। उसी समय उसी की तरह धुन की पक्की सात-आठ वर्ष की एक लड़की एक हाथ में मट्ठे से भरा लोटा और दूसरे में पत्ते में लपेटा नमक, मिर्च और मोटी-मोटी दो रोटियाँ लिए, बालू में झुलसते पैरों की ओर से सर्वथा लापरवाह जल्दी-जल्दी वहाँ आई। लड़के के पीछे खड़ी होकर आदेश के स्वर में उसने कहा, "हंस, पहले इसे खा ले, चित्र पीछे लिखना!"
लड़का चौंक पड़ा। लड़की को देखकर बोला, “काका देख लेंगे तो बिना पीटे न छोड़ेंगे।"" किंकिनी खिलखिलाकर हँसी। उसने कहा, "काका तो खा-पीकर चौपाल में पडे नागलीला बाँच रहे हैं। मैं देखकर तब आई हैं। विरथा परिश्रम काहे करते  हो? तुमसे मेरी तसवीर न बन सकेगी।" और उसने लोटा तथा पत्ते सहित रोटी उसके सामने रख दी। पुनः तत्काल ही प्रश्न किया, “तुम काका से इतना डरते क्यों हो?"
बप्पा कह गए हैं कि गरीबों को अमीरों से डरना चाहिए" हंस ने कहा।
किंकिनी फिर हंसी । उसने पूछा, “इसी से तुम मेरे घर कभी नहीं आते?" “हाँ” सिर झुकाए हंस ने कहा और सहसा अपनी चमकीली आँखें किंकिनी के चेहरे पर जमाकर बोला, "मैं तुम्हारी तसवीर जरूर बनाऊँगा।” “अच्छा, पहले खा लो!" किंकिनी बोली। हंस खाने लगा। किंकिनी ने वार्ता आगे बढ़ाई।
"अच्छा. जब मेरा ब्याह हो जाएगा और मैं अपने घर जाऊँगी तब तुम वहाँ आना। आओगे न?"
हंस ने कहा, "हूँ!"
किकिनी कहती गई, “तुम्हारे बप्पा के मर जाने के बाद यहाँ तो अब तुम्हारा कोई और रहा नहीं। वहाँ तुम्हें बड़े सुख से रखूगी। ऐसे ही नदी-किनारे कोठेदार घर होगा। सामने अमराई होगी। पीछे फूलों का बगीचा होगा। वहाँ मैं दौड़-दौड़कर
तितली पकडूंगी। तुम बैठकर मेरी तसवीर बनाना। अच्छा, बप्पा ने तुम्हें मेरे यहाँ आने से मना क्यों कर दिया?"
किंकिनी की प्रत्येक बात पर हंस हूँ', "हूँ' करता जाता था। इस प्रश्न  पर भी उसे यही करना पड़ा। कारण, उसे ज्ञात न था कि उसके कथावाचक पिता ने यह जानकर कि मैं स्वयं पुत्र का नाम परमहंस रख देने के सिवा उसे और कुछ न दे जा सकूँगा, वंश-गौरव के बल पर नम्बरदार से उसकी बेटी माँगी थी और धनमत्त नम्बरदार ने अपमानपूर्वक प्रस्ताव ठुकरा दिया था। उसके घर से लौटकर आत्मग्लानि में गले पिता भगवती ने स्वप्न में भी नम्बरदार की देहली न लाँघने का आदेश पुत्र को दे दिया।
हंस का भोजन समाप्त हो गया। वह नदी पर जाकर पानी पीने और लोटा माँजने के लिए उठ खड़ा हुआ, किन्तु किंकिनी ने पहले ही लोटा उठा लिया और वह नदी की ओर दौड़ चली। उसने बालू से रगड़कर लोटा माँजा, पानी भरा और लौटने के लिए घमी किपास ही खड़ा एकमात्र नाव पर से एक लम्बा-चौड़ा बलवान व्यक्ति किनारे कूदा। उसने एक हाथ से किंकिनी का मुँह बन्द कर दिया और दूसरा हाथ उसकी कमर में डाल उसे उठाकर वह नाव में चला गया।
किंकिनी के हाथ से छूटा लोटा लुढ़ककर पानी में जा गिरा। पाँच सात मिनट बाद नाव खुल गई।
हंस टीले पर खड़ा किंकिनी हरण देखता रहा। सहसा उसे अपने पीछे कुछ लोगों के आने की आहट लगी। उसने सुना कि नम्बरदार अपने पियादे से कह रहा है "रामदयाल, पैर पर ऐसी लाठी मारना कि सदा के लिए लँगडा हो जाए। बालक समझकर तरह मत दे जाना।" रामदयाल की क्रूरता से परिचित हंस जल्दी से पार्श्ववर्ती पलाशवन में भागा । भागते-भागते कई कोस निकल गया। थककर एक स्थान पर गिर पड़ा। घंटे भर पड़े रहने के बाद एक पथिक ने उसे उठाकर उससे उसका नाम पूछा। नशे में चूर आदमी की तरह हंस ने कहा "ऐं, मेरा नाम रामदयाल है।"
इसके बाद उस गाँव में किंकिनी का शब्द फिर कभी न सुनाई पड़ा। हंस तो सदा के लिए उड़ ही गया।
2.
"कोने में आँख फाड़-फाड़कर क्या देख रहे हो?" चित्रकार की पत्नी ने पूछा।
"कुछ नहीं," अपनी भावना में खोए हुए चित्रकार ने उत्तर दिया, परन्तु उसने अपनी आँखें कोने की ओर से नहीं हटाईं। उसकी स्मृतियाँ उसके मानस-चक्षु के सामने विचित्र-विचित्र चित्र प्रस्तुत कर रही थीं और जन्मजात चित्रकार उन चित्रों की ये खूबियाँ बारीकी से निहार रहा था-
नवाब अस्करी मिर्जा का दरबार नित्य की तरह गुलों-बुलबुलों से महक-चहक रहा। अस्करी मिर्जा एक मसनद पर टेक दिए अधलेटे-से थे। उनके गोरे-गोरे हाथ-पाँवों में कलापूर्ण ढंग से मेंहदी सजाई हुई थी। छल्लेदार जुल्फें मसनद पर बिखरी पड़
थीं। सामने अफीम की पीनक में झूमते-बैठते ख्वाजा फसीह एक शेर का मतला माँजते जा रहे थे। उन्हीं के पार्श्व में मिरजई पहने और सिर पर भारी पगड़ी बाँध 'दिव्य' कवि डटे थे। उन्होंने हाथ बाँधकर कहा-"खुदाबन्द! श्रीमती नई बेगम साहिबा के रूप की परसंसा में मैंने एक सवैया रची है, मरज़ी होय तो अरज़ करू।
“अभी नहीं। यह मुसव्विर रामदयाल हैं। इन्हें मैंने दिल्ली से बुलाया है, मिर्जा ने कहा, और चित्रकार से पछा. "सफर में तकलीफ तो नहीं हुई।
यथोचित उत्तर-प्रत्युत्तर के बाद नवाब ने कहा, "मैंने अपनी नई बेगम की तसवीर बनाने के लिए आपको बुलाया है। आपने भी शायद उनका नाम सुना है। बनारस में क्या, दूर-दर तक उनके नाचने-गाने की धूम थी।" नवाब समाप्त भी न कर पाए थे कि एक मुसाहिब ले उड़े; बोले, "तलवार की धार पर वह नाचे, बताशे पर फिरकी की तरह वह घूमे, सिर पर पानी-भरी थाली रख धमा-चौकड़ी मचाए और क्या मजाल कि एक बूंद भी छलके!"
"अच्छा, बकिए मत," नवाब ने मुसाहिब को डाँटा और खड़े होकर मुसव्विर ने कहा, "आप मेरे साथ आइए।" मुसव्विर और नवाब साथ-साथ ज़नाने महल में जा रहे थे और नवाब कह रहे थे, "बेगम को आपकी कलम बहुत पसन्द
है। उन्हीं की ज़िद थी कि तसवीर बनवाऊँगी तो उस्ताद रामदयाल से ही।"
एक बाहरी आदमी के साथ नवाब को महल के भीतर आते देख बाँदियाँ आश्चर्यचकित हो गईं। नवाब ने एक दासी से कहा, "बेगम से कह दो कि उस्ताद रामदयाल आए हैं । गुनियों से क्या परदा!" बेगम ने सुना तो दौड़ी आईं, परन्तु चित्रकार को देखकर स्तब्ध हो गईं। उनके मुँह से निकला, "हंस!"
चित्रकार की भी वही दशा थी, उसके मुँह से भी निकल पड़ा, “किंकिनी!"
दोनों एक-दूसरे की ओर एकटक देखते रहे। नवाब ने पूछा, “क्या आप लोग एक-दूसरे को पहले से पहचानते हैं?" रामदयाल चुप रहा।
"हाँ भी, नहीं भी," बेगम ने प्रकृतिस्थ होकर कहा, "हाँ यों कि हम दोनों हीं इसलिए कि मैं यह नहीं जान पाई थी कि
आप ही उस्ताद रामदयाल हैं।"
"हंस-किंकिनी क्या?"
“एक रागिनी का नाम है," हँसकर बेगम ने कहा, “उसी से तो हम दोनों ने एक ही बार मुलाक़ात रहने पर एक-दूसरे को इतनी जल्दी पहचान लिया। मैंने हंस-किंकिनी रागिनी गाई थी। इन्होंने मजाक में कहा था कि हंस के पैर में किंकिनी बाँध दी जाएगी तो वह निश्चय शिकारी के तीर का शिकार बन जाएगी।"
"ओह!" नवाब ने कहा था।
“ओह!' चित्रकार के मुँह से निकला। उसकी पत्नी ज़ोर से उसका कन्धा हिला रही थी।
ओह! मस्जिद के दक्षिणवाला हनुमानजी का मन्दिर मुसलमान तोड़ रहे हैं। इसके बाद वे हम लोगों पर टूट पड़ेंगे। मैं पहले ही कहती थी कि घर छोड़कर कहीं हट चलो!"
इतना हल्ला क्यों करती हो?" चित्रकार ने झल्लाकर कहा, “आज सत्ताईस वर्ष से मैं बाहर नहीं निकला। अब आज बाहर निकलकर दुनिया को क्या मुँह दिखाऊँगा?"
4.
गोरों और तिलंगों को लेकर सैंडल साहब आ गए। अब जान बच जाएगी, शान्ति की साँस लेकर चित्रकार ने पत्नी से कहा।
चित्रकार की पत्नी ने जिसे 'जैंडल साहब' समझा वह वास्तव में बर्ड थे। जिला मजिस्ट्रेट मिस्टर बर्ड ने आते ही दंगाइयों को फुर्र से उड़ा दिया। इतने में उसकी निगाह ऊपर बरामदे में खड़े वृद्ध दम्पती की ओर गई। उसने समझा कि ये असहायता के कारण नहीं भाग सके हैं। उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँचा देना उसने अपना कर्तव्य समझा। बरामदे के नीचे आकर उसने रामदयाल को कुछ दिन के लिए किसी सुरक्षित स्थान में चले जाने के लिए समझाना आरम्भ किया, परन्तु रामदयाल के पास एक ही जवाब था-“साहब, सत्ताईस बरस में मैं एक बार भी घर से बाहर नहीं निकला। इस उम्र में मेरी प्रतिज्ञा भंग न कराइए।"
लाचार होकर बर्ड चला गया। चित्रकार की पत्नी अपने पति पर पुनः हँसने लगी, “क्यों नहीं चले गए? साहब इतना समझा रहा था। बेमौत मरने से क्या लाभ?"
"बेमौत कोई नहीं मरता," चित्रकार ने झल्लाकर उत्तर दिया, “बेमौत मरना होता तो मैं मिर्जा अस्करी के ही हाथों कभी का मर चुका होता; सत्ताईस बरस से चोरी के कलंक का बोझ न ढोता।"
"परन्तु तुमने तो तसवीर नहीं चुराई थी।"
"बहुत दिन तक मैं भी यही समझता था कि मैंने तसवीर नहीं चुराई, परन्तु इधर विचार करने पर यही प्रतीत होता है कि जो कुछ मैंने किया वह मेरी अधमता ही थी।"
"मुझे तो तुमने कभी कुछ बताया नहीं।"
"कोई यज्ञ तो किया नहीं था जो तुमसे कहता! वह सब सोचने से भी दुख होता है।"
"फिर भी?"
चुप रहो।"
रामदयाल ने पत्नी को चुप करा दिया, परन्तु स्वयं उसका मन चुप न रह सका। वह उससे बार-बार चुपके-चुपके कहने लगा, 'कह क्यों नहीं देते कि...'
'तम्बाकू में अफ़ीम की पुट देनेवाली यह टिकियावाली अमीरन तेरी बाल्यसंगिनी किंकिनी है। यही किसी समय काशी की प्रसिद्ध वेश्या अमीरजान थी। अपने रूप और गुण के बल पर वह नवाब अस्करी मिर्जा की बेगम भी होगई थी। परन्तु पूस का एक अँधेरी रात में, जबकि बिजली चमक रही थी और मूसलाधार पानी बरस रहा था, वह झाड़ मारकर नवाब के महल से निकाल दी गई थी। उसका अपराध यही था कि उसने बचपन के एक साथी को पहचान लिया था। उसकी कला पर मुग्ध हो गई थी और पति की वस्तु होते हुए भी उसका बनाया चित्र अपना समझकर तुझे ही पुरस्कार में दे दिया था; तूने उसे स्वीकार कर किकिनी का दूसरी बार सर्वनाश किया। क्योंकि नवाब ने यह सूचना पाकर भरी महफ़िल में कहा था, "बेगम बनने पर भी बाजारी बू नहीं गई।" और उन्होंने ऋषीश्वर भट्ट को चित्र का स्वामी बनाकर तुझ पर चोरी
का अभियोग लगाया। तेरे दम्भ ने तुझे सत्य का दर्शन न होने दिया। तूने चोरी करना अस्वीकार किया, तेरा हाथ जला और तू सदा के लिए घर में मुंह छिपाकर बैठा रहा। कह दे, अपनी पत्नी से यह सब कह दे। तेरा भी बोझ उतर जाए!'
रामदयाल पत्नी की तरह मन को न डाँट सका। उलटे स्वयं अपराधी की तरह उसने बिना बोले ही कहा, 'यह जानता तो दिल्ली से न आता!' मन ने पुनः टोका, 'यहाँ आने में तूने कोई भूल नहीं की। भूलें की हैं तूने यहाँ आकर जब तू चित्र बनाकर नवाब के पास गया तो उनके यह कहने पर कि "बेगम का रंग बहुत उजला है, आपने यह रंग क्यों दिया," तू चुप क्यों नहीं रह गया? और यदि बोला भी तो यह क्यों कह बैठा कि रंग सफ़ेद नहीं है, किन्तु इस भूरे और फीके केसरिया रंग के साथ आकाशीय नीले रंग का जो सम्मिश्रण है उसकी शोभा का आनन्द रसिक वैष्णव ही जानते हैं। यह तेरी पहली भूल थी। दूसरी भूल तूने अमीरन से तसवीर लेते समय की। उससे वार्ता करने में तूने ख़याल न किया कि दरवाज़े से कान लगाए नवाब की बड़ी बीवी मुलतानी बेगम एक-एक शब्द सुन रही है।
चित्रकार को वे बातें स्मरण हो आईं। वह बेगम के पास रात्रि के समय प्रथम बार एकान्त में आया था। पूर्व-व्यवस्था के अनुसार बेगम उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। उसने उसे देखते ही कहा था-"तुमने तो वास्तव में बड़ी उन्नति की है हंस, याद है तुमने मुझे इसका वचन दिया था?" कहते-कहते उसका स्वर आर्द्र हो उठा था। वह गद्गद गले से बोली थी-“देखा, नारी का प्रेम पुरुष को उन्नत बनाता है, परन्तु पुरुष का प्रेम नारी को गिराता है।"
किंकिनी अपूर्व रूपशालिनी थी। वह आदर्श प्रतिमा थी, जिस पर कलाकार जान देते थे। सौ दीपकोंवाले झाड़ के उज्ज्वल प्रकाश में हंस किंकिनी को एकटक देख रहा था। उसने उत्तर नहीं दिया, स्वयं एक क़दम आगे बढ़ा। दो कदम पीछे हटते हए किंकिनी बोली, “आगे मत आओ, पतन की ओर न बढ़ो । मैं लाल-लाल आँखों के पहरे में रहकर अस्पृश्य हो गई हूँ।"
इस बार हंस का मुँह खुला। वह बोला, “ललाई की तलछट को हरियाली कहते हैं।" वह पुनः आगे बढ़ा। बाहर से किसी के ठठाकर हँसने की आवाज आई। किंकिनी ने तसवीर उठाकर हंस के हाथों में देते हए कहा कि और जल्दी चले जाओ।" हंस ने चित्र लिया और तत्काल ही चोर-दरवाजे में अदृश्य हो गया।
सोचते-सोचते रामदयाल के समक्ष मुलतानी का चित्र खड़ा हो गया।
मुलतानी के शरीर में सौन्दर्य के अनेक उपादान थे, परन्तु भेद-वृद्धि ने उन्हें ढंक रखा था। नाक के दोनों ओर स्थूल कपोल और अधरोष्ठ तथा चिबुक के नीचे एकत्र वसा का स्मरण आते ही रामदयाल ने घृणा से मुँह बिचका लिया और तत्काल ही अत्यन्त आवेश में आ अपनी अंगुलियों के बढ़े हए नखों पर अँगूठा फेरकर उनकी प्रखरता परखते हुए वह ज़ोर से बोल उठा, “यदि इस समय मुलतानी सामने होती तो अंगुलियों से उनकी आँखें निकाल लेता और नहीं तो मुँह का मांस नोच डालता।"
वैष्णव कलाकार ही मुखमुद्रा अत्यन्त हिंस्र हो उठी। पत्नी ने सत्ताईस वर्ष बाद जीवन में दूसरी बार पति का यह स्वरूप देखा। वह डर गई। किसी ने नीचे दरवाजा खटखटाते हुए कहा, “दरवाज़ा खोलो, मैं मुलतानी हूँ।"
5.
मुलतानी रामदयाल के सामने पहुँची। रामदयाल ने देखा कि सामने ग्यारह-बारह वर्ष की एक मैली-सी लड़की छींट का गन्दा कुरता-पाजामा पहने रटे हुए तोते की तरह कहती जा रही थी-
बुआ अमीरन बहुत बीमार है। उन्होंने कहा है कि मैं अब कुछ दम की ही मेहमान हूँ। क्या आप मेरे घर कभी न आइएगा? बुआ ने यह भी कहा है कि समझाकर कह देना कि मैं अपने घर की बात कर रही हूँ, उन घरों का नहीं जहाँ से कोई मुझे भगा या उठा ले जा सकता हो।"
"तुम बड़ी बहादुर हो मुलतानी, दंगे में भी घर से निकल पडी हो!"
"इसमें बहादुरी क्या है?" मुलतानी ने कहा, “सडक पर तो लोग चल-फिर रहे हैं। अलबत्ता, गली-कूचों में कहीं-कहीं लडाई हो रही है। मगर मेरा नाम मुलतानी नहीं, रकिया है। मैं नन्हें खाँ की लड़की हूँ।"
"तमने तो मुलतानी बताया था?'
"ओहो, वह तो अमीरन बुआ सभी पाजी लड़कियों और औरतों को मुलतानी पुकारती हैं। मेरी शराफ़तों से उन्होंने मेरा नाम मुलतानी रख दिया है," रकिया उर्फ मुलतानी ने कहा।
 रामदयाल चुपचाप उठ खड़ा हुआ। उसने एक चीथड़ा-सा कन्धे पर डाल लिया. टटोलकर लकड़ी उठा ली, फिर रकिया से कहा, चल!"
कृष्णप्रिया चुपचाप बैठी सब देख-सुन रही थी। अब उससे न रहा गया। उसने उठकर पति का हाथ पकड़ा, फिर पूछा, “कहाँ जा रहे हो?"
अमीरन के यहाँ,” भर्राए स्वर में रामदयाल ने कहा। कृष्णप्रिया ने क्षण-भर पति का मुख ध्यान से देख फिर हाथ छोड़ दिया। रामदयाल ने एक हाथ से रकिया का कन्धा पकड़ा और दूसरे से लाठी ठकठकाता हुआ घर से निकल गया।
वह पग-पग ठोकर खाता था, गिरते-गिरते बचता था, फिर भी आतुरतापूर्वक चलता जा रहा था। सहसा 'दीन, दीन' के नारों से एक बार उसके कान सुन्न-से हो गए। रकिया सकपकाकर रामदयाल से सट गई। इतने में ही दस-पन्द्रह आदमियों ने दोनों को घेर लिया। रामदयाल ने मन-ही-मन कहा, 'अब सचमुच मौत आ गई। आध घंटा बाद आती तो प्रसन्नता से स्वागत करता।' “मुसलमान की लड़की भगाए लिए जा रहा है। देखते क्या हो, मारो!" एक दंगई ने कहा।
दूसरे दंगई ने लड़की का हाथ पकड़कर उसे खींच लिया। उसके सहारे खड़ा चित्रकार मुँह के बल ज़मीन पर आ रहा। नाक और बचे-खुचे दाँत टूट गए।चेहरा रक्तरंजित हो गया।
सहसा दंगाइयों में भगदड़ मच गई। एक तेजस्वी तरुण ने तलवार से उन पर आक्रमण कर दिया था। क्षण-भर तो दंगई ठहरे, परन्तु तरुण की सहायतार्थ बरकन्दाज़ों की पलटन आते देख वे भाग खड़े हुए। तरुण ने आहत चित्रकार से कहा, “जहाँ कहो, तुम्हें भेज दूं। मैं काशी-नरेश का भाई प्रसिद्धनारायण हूँ।"
 "भगवान आपका भला करे," पुनः पार्श्व में आकर खड़ी रकिया के कन्धे पर हाथ रखते हुए कलाकार ने कहा, "मैं तो इस लड़की के साथ जाऊँगा।" तरुण चला गया। वे दोनों भी अपनी राह चले।
सहसा एक झोंपड़ी की चौखट पर चित्रकार को खड़ा करती रकिया ने कहा, “आप इसमें जाइए। बगल में मेरा घर है। अपने घर जाती हूँ।"
रकिया अपने घर चली गई। दुविधा में पड़ा रामदयाल चौखट पर खड़ा रहा। उसने सुना कि भीतर अमीरन वायु के प्रकोप में गाने का प्रयत्न कर रही है-“मोरे मन्दिर अजहूँ नहीं आए!"
अमीरन के स्वर में तेज का प्रकाश नहीं रह गया था। उसकी जगह करुणा की आर्द्रता आ गई थी। रामदयाल सुनने लगा-
"मैं का हाय करूँ मोरी आली,
किन सौतिन बिलमाए!"
उसने आलाप लेने का प्रयत्न किया। गिटकिरी भरना चाहा, परन्तु भीषण हिचकी आई। केवल इतना ही सुन पड़ा-“आए, आए, आए।"
रामदयाल अब न रुक सका। वह लपककर भीतर घुसा। उसने पुकारा, "किकिनी!"
परन्तु किंकिनी मौन पड़ गई थी। उसकी आँखें खुली थीं और उसके मुख पर विजय-गर्व की मुसकान थी।
कोठरी में स्वर गूंज रहा था-'आए, आए, आए!'
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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
फेसबुक - 'Chandra dev Tripathi 'Atul'
इमेल- atul15290@gmail.com
इन्स्टाग्राम- cdtripathiatul

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