6. अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी


अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी
राजघाट पर पुराने किले के खंडहर में पड़ी ब्रिटिश फ़ौज की छावनी में सुबह होते ही तहलका-सा मच गया। सभी भयभीत हो उठे। बात भी असाधारण थी। रात को दस बजे अन्तिम ‘राउंड' लगाकर स्थानीय सैनिक-टुकड़ी के सर्वोच्च अधिकारी मेजर बकले भले-चंगे अपने शिविर में सोने गए। परन्तु सुबह अपनी कुर्सी पर मरे पाए गए।
मेजर बकले अभी बिलकुल तरुण थे और अपने अफसरों तथा मातहतों दोनों के प्रिय पात्र। इस बार छुट्टी में घर जाने पर उनका विवाह भी होनेवाला था। ऐसे सुखी आदमी द्वारा आत्महत्या की बात की तो कल्पना ही नहीं थी। इसलिए लोग मेजर की मृत्यु में किसी रहस्य की कल्पना कर रहे थे। उनके शरीर पर किसी प्रकार के अस्त्र-शस्त्र का घाव भी नहीं था। बाहर पहरे पर खड़े सन्तरी का बयान था-"मेजर साहब रात बहुत प्रसन्न थे, प्याले-पर-प्याला चढ़ाए जा रहे थे और भर्राए गले से 'व्हेन सैली केम इनटू द गार्डेन' (उपवन में जब सैली आई) गाए जा रहे थे। एक बार बाहर आकर मुझसे कहा कि 'मैं एक ज़रूरी पत्र लिखने जा रहा हूँ। तुम राउंड लगाने में खड़-बड़ करके डिस्टर्ब (अशान्ति) मत करना।' फिर वह भीतर जाकर पत्र लिखने लगे। बारह का घंटा बजने के ठीक बाद ही एक बार भीतर 'क्लैरा, क्लैरा' कहने की आवाज़
आई और किसी चीज़ के गिरने का धमाका हुआ। फिर सब शान्त हो गया। मैंने समझा कि मेजर साहब नशे में शायद कैम्प-बेड (शिविर शय्या) से गिर पड़े और फिर चुपचाप सो गए।"
मेजर के कैम्प में उनके उच्च सहयोगी उनकी लाश के इर्द-गिर्द कुरसियों पर बैठे थे। मिलिटरी सर्जन ने शव-परीक्षण के पश्चात् हृदय की गति बन्द हो जाने से मृत्यु की घोषणा कर दी। कप्तान गोवर ने यथासम्भव मुखमुद्रा विषाद, मलीन हुए कहा, “इस ट्रैजेडी (त्रासद दुखजनक घटना) में इतनी ही सन्तोष की क इस अपनी वाग्दत्ता के विश्वासघात का कड़वा प्याला नहीं पीना पड़ा।"

लेफ्टिनेंट हिल ने अपनी काहिल आँखें गोवर की आँखों से मिलाते हुए आश्चर्य-भरे स्वर से पूछा, "अच्छा?" "हाँ," गोवर ने कहा, "आज ब्राइटन से मेरे एक मित्र का पत्र आया है। वह एम.पी. (पार्लमेंट का सदस्य) है। उसी ने क्लेरिसा कीर्टिग से ब्याह किया है।"
“जो चिटठी लिखते-लिखते मेजर मरे हैं, उसे पढ़ना चाहिए। शायद हदय की गति बन्द होने के कारण का पता चल जाए।" फ़ौजी सर्जन ने कहा। गोवर ने भी स्वीकृति दी। हिल ने टेबल पर से चिट्ठी उठा ली और उसे रुक-रुककर पढ़ने लगा-
फ़ोर्ट, राजघाट
   बनारस
सितम्बर, 1858
"मेरे हृदय की रानी,
वेस्लियन मिशन के फादर मोनियर के हाथ तुमने जो चिट्ठी भेजी थी वह मुझे मद्रास में ही मिल गई। परन्तु मुझे उसी वक़्त कर्नल नील के साथ उत्तर भारत के लिए रवाना होना पड़ा। तुम्हीं समझो यह मेरा कितना बड़ा दुर्भाग्य था कि तुम्हारा चिर-प्रतीक्षित पत्र मेरे हाथ में हो और मुझे उसे खोलने तक का अवकाश न मिले! फिर भी मैंने उसे चूमा-बार-बार चूमा। मगर कीट्स की तरह मैं भी यह नहीं बता सकता कि चुम्बनों की संख्या फोर (चार) थी या एस्कोर (एक कोड़ी)। फिर इस समय भी पुरवा हवा चल रही है। मैं इसे चूम रहा हूँ। शायद मेरा चुम्बन यह तुम्हारे पास तक पहुँचा दे।
इस गरम मुल्क में रहने के बावजूद अत्यन्त स्वस्थ और प्रसन्न हूँ।
“गदर बिलकुल दबा दिया गया। अब हम लोग विद्रोहियों को दंड देने के बहाने हिन्दुस्तानियों को ऐसी सीख दे रहे हैं कि वे सैकड़ों वर्ष तक सिर न उठा सकेंगे। सचमुच कर्नल नील बड़ा बहादुर आदमी है। वह जैसा बहादुर है वैसा ही बुद्धिमान। उसने यहाँ सड़क की दोनों पटरियों पर सैकड़ों 'टाइबर्न' (लन्दन में वह स्थान जहाँ उन दिनों मृत्यु-दंड-प्राप्त अपराधियों की सजा सार्वजनिक रूप से कार्यान्वित की जाती थी) बना दिए हैं। वह अपने साथ फ़ौज और रस्सियों के हज़ारों टुकड़े लेकर चलता है। सड़क पर जहाँ कोई नेटिव (भारतवासी) दिखाई पड़ा कि फिर उसकी खैर नहीं। वह बूढ़ा हो या जवान, तुरन्त पकड़ लिया जाता है। रस्सी के एक टुकड़े से उसका हाथ पीछे बाँध दिया जाता है और दूसरा टुकड़ा गले में बाँधकर सड़क के किनारे किसी वृक्ष की डाली से उसे लटका देते हैं। यह वस्तुतः मज़ेदार चीज़ होती है-ऊपर हवा में पाँच मिनट अद्भुत नृत्य होता है और नीचे हम लोग 'इन ऑनर ऑफ ओल्ड इंग्लैंड' (वृद्ध इंग्लैड की प्रतिष्ठा के लिए) 'थ्री चीयर्स' देते (तीन बार हर्ष-ध्वनि करते) हैं।
"कल्पना करो, और इस दृश्य का मेरी ही तरह आनन्द लो। फ़ौज की एक टुकडी के साथ मुझे यहाँ छोड़ कर्नल नील कलकत्ता गया है।
हम लोग यहाँ एक खंडहर में रहते हैं, जिसे यहाँ वाले अब तक किला ही कहते हैं। यह शहर भी अजीब है, यहाँ के बहुत पुराने नगरों में है। मुसलमान जिस पज्य दृष्टि से मक्का, यहूदी फ़िलस्तीन और ईसाई यरूशलम या रोम को देखते हैं, इस नगर के प्रति हिन्दुओं की दृष्टि उससे भी अधिक श्रद्धा-सम्पन्न है। मेरे एक सिविलियन दोस्त ने मुझे बताया है कि यहाँ के लोग बड़े ही 'टर्बुलेंट' (दर्दान्त) हैं; वे गम्भीर बातों पर विज्ञतापूर्ण दृष्टि से मुसकराते हैं और छोटी-छोटी बात पर लड़ मरते हैं।
“गत सप्ताह की बात है। मेरी रेजिमेंट का कार्पोरल ब्लिस रात में चुपके से शहर चला गया था। यहाँ ब्रिटिश सैनिक प्रायः रात को छावनी से भाग जाया करते हैं। हम अफ़सर लोग भी इसमें कोई अन्याय या अनीति नहीं समझते। मानव-स्वभाव को कुछ छूट देनी ही होगी। खैर, सवेरे ब्लिस भटककर नगर के 'इंटीरियर' (भीतरी भाग) में जा पहुंचा।
“यहाँ यह बात जान रखनी चाहिए कि यहाँ की गलियाँ बड़ी ही तंग, गन्दी और बड़ी ही चक्करदार हैं। ऐसी ही एक गली में घुसकर ब्लिस ने देखा कि एक दुकान पर छोटी-छोटी, गोल-गोल, पीली-पीली कई चक्करवाली कोई मिठाई एक बहुत बड़े बरतन में भरे हुए रस में तैयार हो रही है। एक आदमी लोहे के किसी लम्बे औज़ार से उन्हें उसमें उलट-पुलट कर बाहर निकाल एक दूसरे बरतन में रखता जाता है।
"ब्लिस को भख लगी थी। उसने पैसा निकालने के लिए एक हाथ पैंट का जेब में डाला और दसरा हाथ मिठाई पर। बेचारे के दोनों हाथ फँसे थे। इतने में मिठाईवाले ने उसी गरम रस में सने लोहे के औज़ार को ब्लिस के सिर पर मारा। ब्लिस सिर बचा गया. परन्तु औज़ार कनपटी पर पड़ा और उसका कान कट गया। कोई नेटिव होता तो घबराकर वहीं 'कलैप्स' कर (ढेर हो) जाता। उसने 'रिट्रीट' (पलायन). इसे रिट्रीट तो नहीं कह सकते, इस प्रकार की 'सार्टी' (कावेबाजी) से काम लिया और गलियों का व्यूह भेदते हुए छावनी वापस आ गया। परन्तु फिर बाद में वह उस गली का न पहचान सका जहाँ उक्त दुर्घटना हुई थी। नहीं तो हम लोग हलवाई को कच्चा ही चबा जाते।
"प्रिये, पत्र लम्बा हुआ जा रहा है। पर क्या करूँ, लिखने का अवसर तो कम मिलता है। अब तक मैंने औरों के बारे में लिखा है। अब कुछ अपने बारे में भी लिखूँगा।
“जैसा मैं पहले लिख चुका हूँ, यह देश बड़ा विचित्र है और उसमें भी इस बनारस का तो कहना ही क्या! यहाँ आकर मैं भयंकर उलझन में फँस गया हूँ। हैमलेट' में किंग ऑफ़ डेनमार्क (डेनमार्क के राजा) का प्रेत जैसे अपनी कब्र से निकलता है वैसे ही यहाँ एक बुढ़िया भी गोर से बाहर निकलने के लिए बेचैन है। आधी रात होते ही वह कल कब्र से बाहर निकली थी। जिसे छोटी-सी मस्जिद में उसका मज़ार है वह भी उसकी बनवाई हुई है। दो बजे रात तक मस्जिद के खुले सहन में वह टहलती और गाती रही। सब तो समझ में नहीं आया, लेकिन गीत की पहली पंक्ति स्पष्ट सुन पड़ी-'अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी!' (हाउ ग्रैंड इज़ दाइ मॉस्क, ओ लॉर्ड!)
"प्रिय क्लैरा, पढ़कर चौंकना मत। यह औरत बेतरह मेरे पीछे पड़ी है। यह जानकर डरना भी मत कि मेरे ही हुक्म से परसों सुबह छह बजे इसे गोली मारी गई थी। यह बड़ी विचित्र औरत थी। इसकी कहानी मैं तुम्हें सुनाता हूँ। इससे तुम समझ सकोगी कि 'नेटिव' (देशी) औरतें 'लव अफेयर्स' (प्रेम-प्रपंच) में कितनी बुद्धिहीन होती हैं। सच तो यह है कि इन्हें प्रेम करना और उसे निबाहना आता ही नहीं।
"इस औरत का नाम रकिया था और मृत्यु के समय उम्र 58 साल। यह मुलतानी नाम से भी मशहूर है। 'अपने एक 'लव इंट्रीग' (प्रेम-प्रपंच) में इस अपनी नाक गँवानी पड़ी थी। इससे इसकी आकृति बड़ी भयावह हो उठा।
इसके बारे में मुझे जो पता लग सका है उसके अनुसार वह लड़कपन महा किसी को दिल दे बैठी थी, परन्तु वह आदमी इसकी पहुँच से बहुत ऊच था। विवाह की तो बात ही क्या, वह उसके सामने भी नहीं पहुँच सकती थी। दूत ओर, स्वभाव से अमाजान (चंडी) होने के कारण इसने किसी भी पुरुष से विवाह कर सहचरी का परावलम्बी पद ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया। सुनता है। उसके पास प्रचुर रूप था। बड़े-बड़े लोग उसे पत्नी का सम्मानित पद देना चाहते थे परन्तु उसने सबका प्रस्ताव ठुकरा दिया और स्वेच्छा से अनैतिक जीवन बिताती रही।
तुम्हें सुनकर आश्चर्य होगा कि यह औरत भी झाँसी की रानी की तरह गदर को आजादी की लड़ाई मानती थी। इसीलिए गदर के दिनों में यह फैनेटिक (हिंस्र और कट्टर) हो उठा थी। यद्यपि बनारस में गदर का जोर नहीं था, परन्तु कुछ अंग्रेज  अधिकारियों की कमज़ोरी से बड़ी गड़बड़ी मची। अंग्रेजों में भगदड़ पड़ गई वे  नावों पर बैठ-बैठकर चुनार की ओर चले इस नगर की यह भी विचित्रता है कि यहाँ पर हमारा राज्य होते हए भी एक दूसरा आदमी यहाँ का राजा कहलाता है। सुना है, परन्तु सबूत नहीं मिलता कि इसी राजा के बाप ने अपने किले के नीचे नदी में अंग्रेजों से भरी कई नावें डबा दीं। हम लोगों ने उसे फाँसी दे दी होती, पर जैसा कि कह चुका हूँ, सबूत नहीं मिलता।
उस घाट पर डूबनेवाली अभागी नौकाओं में से एक मिस्टर बेंटले नामक एक अंग्रेज व्यापारी का भी परिवार था। बनारस में उन्होंने मुलतानी को अपने बच्चों की आया नियुक्त कर रखा था। उस परिवार की अन्तिम यात्रा में मुलतानी भी उनके साथ थी। नाव डूबी, परन्तु यह बच गई। यह एक बार भी कह देती कि अमुक व्यक्ति की आज्ञा से नाव डूबाई गई और तट की ओर तैरनेवालों पर गोली चलाई गई, तो हमारा सारा काम बन जाता। लेकिन रकिया बड़ी जिद्दी औरत थी। सभी वैज्ञानिक यन्त्रणाएँ दी गई, परन्तु उसका एक ही जवाब था- मैं नहीं जानती, नाव कैसे डूबी'।"
“सुना था, उसी नाव पर झालर नाम का एक हिन्दू 'क्लर्जी' (पुरोहित) भी सवार था। वह बहुत खोज करने पर गिरफ़्तार किया जा सका। यहाँ के हिन्दू क्लर्जी साधारणतया बहुत तगड़े और बातूनी होते हैं परन्तु झालर अत्यन्त दुर्बल और ‘इम्बेसाइल' (मूढ़) निकला। उसे यह भी नहीं याद है कि उसकी नाव कभी डूबी भी थी। लाचार होकर उसे रिहा करना पड़ा। लेकिन वह औरत! उसका रोऑ-रोआँ विद्रोही था।
“जीवन-भर रकिया समाज-विद्रोह कर जीती रही और अन्त में राज्य-विद्रोह कर मरी।"
"बनारस से होकर जानेवाली विद्रोही सेना के स्वागत में इसने बनियों को भड़काकर कुओं में चीनी-भरे बोरे डालकर शरबत तैयार कराया था। इतनी ही बात पर इसे सौ बार गोली मारी जा सकती थी। परन्तु बड़ी मछलियाँ हाथ लग सकें, इसलिए मैंने इसे बहुत समझाया कि राजा के बाप प्रसिद्धनारायणसिंह के बारे में तू जो कुछ जानती है, सचमुच बता दे, मैं तेरी जान बचा दूंगा। मेरी बात सुनकर उसने कोई जवाब नहीं दिया; खड़ी-खड़ी मुसकराती रही। उसके नाक-कटे मुँह पर वह मुसकान सचमुच बड़ी भीषण थी। दोपहर का समय था, चारों ओर सशस्त्र सन्तरियों की भीड़ थी। फिर भी एक बार में डर गया, तथापि मैंने अपनी बात जारी रखी। आखिर मेरी बात सुनते-सुनते वह तैश में आ गई। अपना शैतान चेहरा और भी भीषण बनाकर उसने कहा, 'कैसी बात करते हो, साहब! कुछ देर के लिए तुम अपने को औरत समझ लो और फिर सोचो कि जब तुम दस बरस के थे उस समय किसी ने तुम्हारी जान बचाई। उसी दिन तुमने उसे दिल दे दिया. सारी उमर उसी की याद में बिता दी। आखिरी उमर में किसी ने तुमसे अपने माशूक के खिलाफ गवाही देने के लिए कहा। अब तुम्हीं कहो, क्या तुम सचमुच बयान दे सकोगे?'
“ अपनी जान सबको प्यारी होती है, उसे बचाना कौन न चाहेगा? मैंने कहा।
 'सात समुन्दर तेरह नदी पार तुम्हारे देस में ऐसा होता होगा, लेकिन यहाँ तो कोई जहाँगीर भी आए और मेरे माशूक के खिलाफ मुझसे कुछ कहलाकर मुझे नूरजहाँ भी बनाना चाहे तो भी मैं तख्ते-हिन्दुस्तान को ठोकर मार दूं।
"इस बेहूदा और बदसूरत बुढ़िया को अपनी तुलना नूरजहाँ से करते सुनकर मुझे हँसी आ गई। मैंने कहा, 'क्या जान बचाने के लिए भी नहीं
" “जान-जान क्या करते हो? जान तो एक दिन जाएगी ही,' उसने शेरनी की तरह दहाड़ते हुए कहा। मुझे भी उसकी गुस्ताखी पर गुस्सा आ गया।
"मैंने कहा, 'तुम्हारी जान कल ही जाएगी-सुबह ठीक छह बजे गोली मारकर। प्राणदान के सिवा जो इच्छा हो बताओ, पूरी कर दी जाएगी।
" 'मेरी कोई इच्छा आज तक पूरी नहीं हुई। कोई कर ही न सका। तब तुम क्या करोगे? फिर भी, उसने अपनी बनवाई हुई मस्जिद की ओर इशारा करके कहा, 'अगर तुमसे हो सके तो मुझे जुमेरात तक जीने दो। मैंने यह महजिद बड़े चाव से बनवाई, लेकिन कूढ़मगज मुल्ला ने फतवा दे दिया कि कसब की कमाई से बनी महजिद में मुसलमान को नमाज न पढ़ना चाहिए। खैर, कोई बात नहीं। मुझे दो-चार रोज और जीने दो, जमेरात को मैं वहाँ नमाज पढ़ लूं। उसी दिन ईद है, अपनी महजिद में मैं खुद रतजगा कर लें, फिर सुबह तुम खुशी से गोली मार देना। उसी महजिद में मैंने अपनी कब्र भी तैयार करा रखी है।
" 'अब कुछ नहीं हो सकता, हुक्म बदला नहीं जा सकता,' मैंने कहा। 'तब तुमने मेरी ख्वाहिश क्यों पूछी? झूठे कहीं के। लेकिन तुम भी इतना जान रखो कि मैं ईद की रात अपनी महजिद में जरूर नमाज पढ़ंगी और जरूर-जरूर रतजगा करूंगी। तुम मुझे रोक नहीं सकते, उसने कहा और इसके बाद हँसते हुए और 'अल्ला तेरी महजिद अव्वल बनी' गाते हए वह सिपाहियों के पहरे हवालात में चली गई।
"परसों सुबह उसे गोली मार दी गई, उसे मिट्टी भी दे दी गई। फिर भी जैसा कि में ऊपर लिख चुका हूँ, वह रात में मस्जिद में टहलते और गाते देखी गई । जिस सिपाही ने मुझे पहले यह खबर दी उसे मैंने डाँट दिया। परन्तु अपनी आँख और कान पर मैं कैसे अविश्वास करूं?
"प्रिय क्लैरा! आज ही ईद है। मस्जिद के ठीक सामने अपने कैम्प में बैठा हआ यह चिट्ठी मैं तुम्हें लिख रहा हूँ। रात के बारह बजना ही चाहते हैं। समूचे कैम्प में सन्नाटा छाया हुआ है। हवा साँय-साँय चल रही है। आसमान में चाँद नहीं है, तारे खूब खिले हैं। लो, सन्तरी ने बारह का घंटा भी बजा दिया, और वह देखो, मस्जिद के सहन में नकटी बुढ़िया ने भी चहलकदमी शुरू कर दी। उसके नकिया-नकियाकर गाने की आवाज़ मेरे कानों में आ रही है। अरे, आज यह क्या? वह शैतान मस्जिद से निकलकर मेरे कैम्प की ओर आ रही है। कितनी जल्दी-जल्दी आ रही है वह! लो, वह दरवाजे पर पहुँच गई! शायद सूअर का बच्चा मेरा सन्तरी सो गया। क्लैरा-क्लेरा, मुझे बचाओ! मेरी हालत खराब हुई जा रही है। अरे, वह तो कमरे में आ गई! इसका गाना सुनकर मेरा खून पानी हुआ जा रहा है। बन्द कराओ, बन्द कराओ, मेरा गला घुट रहा है। बन्द कराओ इसका यह गाना-“अल्ला तेरी महजिद...!"

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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