7. रोम-रोम में वज्रबल


रोम-रोम में वज्रबल
रस्सी के अभाव में अपनी धोती से ही फाँसी लगाने के लिए रामरज से ही दीवार के ऊपर टँगी बालब्रह्मचारी हनुमानजी की तसवीर के सामने निर्वसन होने की कल्पना मात्र से गोदावरी लजा गई। उसे ऐसा करने में आत्महत्या से भी बढ़कर पाप प्रतीत होने लगा। वह चित्र की ओर देर तक एकटक देखी रही और तब निश्चय कर बैठी कि मैं हनुमानजी के सामने नग्न होकर फाँसी नहीं लगा सकती। इससे अच्छा तो छत पर से नीचे गली में कूद पड़ना है।
 छत का ध्यान आते ही वह कोठरी से बाहर निकली। मुँडेर पर चढ़कर नीचे झाँकते ही उसे झाईं आने लगी। वह डर गई और उधर से उसने अपना मुँह फेर लिया। मुँह फेरते ही उसे सामने गंगा की धारा बहती हुई दिखाई पड़ी। उसने सोचा कि गंगा में डूबकर भी प्राण दिया जा सकता है। उसे आश्चर्य हुआ कि आत्महत्या का इतना सरल उपाय उसे अब तक क्यों नहीं सूझा था!
अब गोदावरी गंगा में डूबने चली। उसके जीवन में सूनेपन का विष शनैः-शनैः इतना अधिक घुल चला था कि वह प्रत्येक श्वास के साथ कड़वी निराशा पीने और निश्वास के साथ घूणा की दुर्गन्ध वमन करने लगी। वह स्पष्ट अनुभव करती थी कि जिस जीवन में स्नेह, सम्मान, धन आदि में से अहं की तृप्ति का एक भी सम्बल न हो, वह सचमुच मृत्यु है और ऐसे जीवन की मृत्यु ही वास्तविक जीवन। उसकी गिनती उन सुहागिनों में थी जिनका जीवन विधवाओं से भी अधिक दुर्वह होता है। तब उसने आत्महत्या का निश्चय किया। सर्वप्रथम उसने विष खाने की इच्छा की, परन्तु वह उसे मिल न सका; एक गज़ रस्सा के अभाव में वह फाँसी न लगा सकी: छत से कूदने में उसे भय लगता था। इसलिए वह गंगा में डूबने चली। माघ का सवेरा था। आकाश में घोर घटा छाई थी। सूर्य का दर्शन नहीं हो रहा था और तीर की तरह छेदती हुई तीखी हवा चल रही थी। फिर भी गोदावरी गंगा तट पर पहुँची। शीत की अधिकता के कारण दो-ही-चार स्नानार्थी इधर-उधर घाटों पर दिखाई पड़ रहे थे, घाट भी कम लगे थे, परन्तु और भी एकान्त स्थान की खोज में गोदावरी आगे बढती गई और दत्तात्रेय मन्दिर के नीचे से होती हुई भोसला घाट की सीढियाँ उतरी। यह देखकर कि घाट पर केवल दो आदमी है वह आश्वस्त हुई और उनके हट जाने की प्रतीक्षा में वह पानी में पैर लटकाकर अन्तिम सीढ़ी पर बैठी रही।
2.
गंगा में कमर-भर खड़े जीतू केवट ने पानी में छितनी छान, उसमें पड़ा कंकड़-पत्थर सीढ़ी पर उलट दिया और अपनी चपल परन्तु अभ्यस्त अँगुलियों से वह उस ढेरी में टटोलने लगा। धातु-खंड का स्पर्श होते ही उसकी संवेदनशील अंगुलि क्षण-भर रुकी। दूसरी अंगुली ने उसकी सहायता की और दोनों अंगुलियों ने मिलकर वह टुकड़ा उठाकर जीतू की आँखों को दिखाया। आँखों ने उस धातु-खंड का मूल्य आँका और बिचककर मुँह ने कह दिया, “बस, मद्धसाही!"
“का भयल, जीतू?" ऊनी कनटोप पर चारखाने का अंगोछा कसते और शरीर पर पड़ा कम्बल और भी कसकर लपेटते हुए ननकू घाटिये ने पूछा। मद्धसाही कान में खोंसते हुए जीतू ने परम असन्तुष्ट स्वर में उत्तर दिया, “न जाने केकर मुँह देखकर उठल रहली, गुरु। आज दमड़ी कऽ डौल नाहीं देखात। जाड़ा-पाला में घंटा-भर तऽ पानी में ऐंठन बीत गयल । एहर पेइ अइसन चंडाल हौ कि मानत नाहीं।"
“ई तऽ हई हौ! आज जर-जात्री के आवै कऽ तऽ कौनो लच्छन हौ नाही,हमहूँ घाट उठाय के घरे चल जाइत लेकिन बाबू सिबनाथ सिंह के आसरे बैठल हई। ऊ गंगा नहाए का नेमी हउअन। रोज हमरै घाट पर नहालन। लेकिन अब तोहऊँ पानी में से निकस आवऽ। बदरी कऽ हावा बेकार करी।" ननकू ने सहानुभूति-भरे स्वर में जीतू को समझाया। परन्तु जीतू पूरब की ओर से आते हुए एक बजड़े को बड़े ध्यानपूर्वक देख रहा था। बजड़ा लहरों पर तिनके की तरह नाच रहा था। स्पष्ट जान पड़ता था कि वह कर्णधारों के काबू के बाहर हो गया है। फिर भी वे जी-जान से उसे किनारे लगाने का प्रयत्न कर रहे हैं। बजडे पर निगाह जमाए हए ही जीतू ने उत्तर दिया, “अब तऽ ओखरी ममूड़ पड़ी गैल हो, मसर के चोट से कहाँ तक डेराब?" जीतू की बात के जवाब में ननकू कुछ कहने ही जा रहा था कि जीतू की अष्ठवर्षीय पुत्री मछिया की आवाज़ सुन पड़ी, “हे बाबू, मूंड़ी हम खाब।" ठीक उसकी आवाज़ का पीछा करते हुए उसके बेटे झिंगवा का स्वर सुन पड़ा, “नाहीं बाबू, मूंडी हम खाब!" और आगे-आगे मछिया तथा उसके पीछे झिंगवा दोनों ही भागते हए आकर बाप के पास ऊपर सीढ़ी पर खड़े हो गए।
बजड़े की ओर से निगाह हटाकर जीतू ने अपने बेटे-बेटी की ओर मुँह किया और कहा, “घरे रहीं तऽ तूं लोगन कऽ भाई करेजा खाय। बहरे रहीं ता तु लोग मूंड चबाए दौड़ल आवाऽ। हमार जान तऽ बड़ी साँसत में हौ भाई!"
जीतू की आँख में कौतुक नाच रहा था, परन्तु उसके स्वर की कठोरता से झिंगवा डर गया और उसका चेहरा उतर गया। उधर मछिया की आँखों ने पिता की आँखों में विनोद का संकेत देखा। वह हँस पड़ी और अपने आँचल में से एक बड़ी-सी रोहू मछली निकालकर दिखाते हुए उसने कहा, "तोहार मूँडी नाहीं बाबू, रोहू कऽ मूंड़ी खाब!"
रोहू देखकर जीतू के मुँह में भी पानी भर आया। उसने पूछा, “एतनी बड़ी रोहू तैं कहाँ पाय गइली, मछिया?" -
“मम्मा के घर से आइल हो,” मातुल-गृह के गर्व से गलकर मछिया ने उत्तर दिया। जीतू ने भी सन्तुष्ट होकर आदेश दिया, “लेजो! अपने माई से कह दे कि एकर रसा बनावै। जो!"
मछिया और झिंगवा दोनों चले गए। लहरों पर उछलता हुआ बजड़ा घाट के समीप आ रहा था। जीतू ने ननकू से कहा, "सायके जुगुत त बइठ गयल, गुरु! अब एक सूकी मिल जाए तऽ पियहू कऽ ठेकाना हो जाता।"
इतने में बजड़ा किनारे लगा। उस पर सवार एक बंगाली यात्री ने पूछा,"झालर ठाकुर का घर कहाँ है?"
3.
गोदावरी घाट खाली होने की प्रतीक्षा करते-करते ऊब गई। घुटने तक उसके दोनों पैर पानी में थे। शरीर में सरद हवा लग रही थी, परन्तु उसके हृदय में जो आग जल रही थी उसकी आँच ज्यों-की-त्यों थी। उसने ननकू और जीतू की बातचीत सुनकर इतना समझ लिया कि दोनों ही अभाव-पीड़ित हैं। उनका पीड़ा से उसे यह सोचकर एक प्रकार का सन्तोष हआ कि विश्व में मैं ही अकेला अभावग्रस्त नहीं हैं।
जीतू और मछिया की वार्ता से उसकी सन्तोष-भावना कुंठित हो गई। पति-पुत्र से भरे गार्हस्थ जीवन का मनोरम चित्र उसकी आँखों के सामने खींच गया। उसके हृदय में टीस-सी उठी और जिस समय जीत ने स्नेह-गद्गद कठस अपनी पत्नी की चर्चा चलाई तो उस अज्ञात केवट-कामिनी के सौभाग्य पर गोदावरी का मन ईर्ष्या से तिलमिला उठा। उसने उस घाट से उठकर और भी एकान्त गंगातट खोजने का विचार किया। वह अपना विचार कार्यान्वित करने जा ही रही थी कि उसने एक बजड़ा किनारे लगते और उस पर सवार एक परदेशी को अपने पति का नाम लेते सुना। वह चुपचाप बैठी रह गई। उसने सुना कि जीत परदेशी से कह रहा है, “झालर ठाकुर नाही, झालर महाजन।"
"माँझी ठीक कहत हौ, जीतू! बंगालिन में पंडा के ठाकुर कहल जाला। तूं जनतऽ नाही?" ननकू घाटिए ने कहा। “वाह रे, हम नाहीं जानति! लड़कइयों में झाला गुरु के संघे हम गुल्ली-डंडा खेलले हई। अउर हमहीं ओन्हें नाहीं जानित? खूब कहलऽ, गुरु!" अपनी जानकारी पर आक्षेप हुआ समझकर जीतू ने ननकू को कुछ गरमाकर जवाब दिया। नवागन्तुक यात्री ने जीतू से फिर पूछा, "झालर उपाध्याय ठाकुर को क्या जानता?"
“का नहीं जानता? सब जानता," कहकर जीतू ने झालर उपाध्याय की हुलिया बताना आरम्भ किया, "सिर की जैसन हाथ गोड़ रहल, रूखा-सूखा चेहरा।"
जीतू के मुँह से अपने पति की आकृति का निरूपण सुनकर गोदावरी को स्मरण हो आया कि उसके पति कितने भोले-भाले और दुर्बल थे। अपने भोलेपन और दुर्बलता के कारण वह समूचे समाज की परिहास-वृत्ति के आलम्बन थे। उन्हें लोग अनायास चपत जमा देते। वह बेचारे सिर खुजलाते हुए इधर-उधर देखकर चुप हो जाते। उन्हें राह चलते कोई अड़गी देकर गिरा देता। वह धूल झाड़कर चुपचाप घर लौट आते। घर में भी पुरुष उनका अपमान करते और स्त्रियाँ उपेक्षा गोदावरी को सुना-सुनाकर लोग झालर की मूर्खता, शक्तिहीनता और अक्षमता पर व्यंग्य करते और गोदावरी मन-ही-मन जलती। आज जीतू के मुख से भी वही बात सुनकर उसके हृदय का सूखा घाव हरा हो गया। उसने सुना कि बंगाली यात्री जीत से कह रहा है, “नहीं, नहीं, हमारा ठाकुर दुर्बल नहीं, बड़ा बलशाली है।" “अरे ऊतऽ हनुमानजी कऽ दरसन पउले के बाद न। हम पहिले का हाल कहत हुई," जीतू बोला।
उधर फिर बिना रुके श्रद्धा-विगलित स्वर में ननकू भी बोल चला, “झालर महाराज का नियम था कि वह बिना संकटमोचन हनुमान का दर्शन किए अन्न नहीं ग्रहण करते थे। दो साल हुए, सावन के महीने में सूर्य-ग्रहण पड़ा। यजमान यात्री के चक्कर में उस दिन झालर को हनुमानजी के दर्शन का ध्यान न रहा । दिन भर के थके-माँदे झालर रात के नौ बजे घर आए। नहा-धोकर भोजन के लिए आसन पर बैठे। परन्तु ज्यों ही उन्होंने पहला ग्रास उठाया कि उन्हें स्मरण पड़ गया कि आज हनुमानजी का दर्शन नहीं किया। बस वहीं हाथ रोक उन्होंने  अपनी माँ से कहा, 'माँ, मेरी थाली देखती रह. मैं दम भर में दर्शन करके लौट आता हूँ। माँ ने उन्हें मना किया, परन्तु उन्होंने नहीं माना और घर से निकलकर संकटमोचन का रास्ता पकड़ा। जानते हो बाबू, संकटमोचन का मन्दिर नगर से डेढ कोस दूर है। दिन-दोपहर भी वहाँ कोई अकेले जाने की हिम्मत नहीं कर सकता। बीच में रामापुरा है जहाँ तीर-कमानधारी डोम दिन-दहाड़े बटमारी करते हैं। मन्दिर के चारों ओर घना जंगल है जिसमें भयंकर जंगली जानवर ही नहीं, बड़े-बड़े ज़हरीले साँप-बिच्छू भी रहते हैं। रास्ते में अस्सी का विकट नाला है। बरसात में तो उसकी यही दशा हो जाती है कि यदि उसमें हाथी भी पड़े तो चीथड़ा होकर बह जाए। खयाल करो बाबू, उसी मन्दिर की ओर भरी बरसात, अमावस की रात में दुर्बल ब्राह्मण अकेला चल पड़ा। बादल घिरे थे. बँदें पड़ रही थीं, रह-रहकर बिजली चमक उठती थी। और उसी के प्रकाश में ब्राह्मण अश्वमेध के घोड़े की तरह निर्द्वन्द्व दौड़ा चला जा रहा था। जहाँ उसे डर लगता वह जोर से चिल्ला उठता-
'खल दल वन दावा अनल राम स्याम घन मोर।
रोम-रोम में वज्रबल, जय केसरी किसोर!'
और फिर दूने वेग से अपने मार्ग पर अग्रसर हो जाता। इस प्रकार दौड़ते-दौड़ते जब झालर नाले के किनारे पहुँचे तो उन्होंने देखा कि नाला उमड़कर समुद्र हो रहा है। उसे पार करने का कोई साधन न देख उन्होंने धोती और दुपट्टा उतारकर एक पेड़ की डाल पर रख दिया। लंगोट के ऊपर अंगोछा कसकर कूदने के लिए उछले। परन्तु आगे न बढ़ सके। उनका हाथ पकड़कर किसी ने पीछे से खींच लिया। अपना हाथ छुड़ाने के लिए झटका देते हुए जब वह घूमे तो उन्होने देखा कि एक हट्टे-कटटे आदमी ने उनका हाथ कसकर पकड़ रखा है। उन्होने दयनीय मुद्रा से उसकी ओर देखा। उसने झालर से पूछा, 'क्या आत्महत्या करना चाहते हो?
नहीं, मैं हनुमानजी का दर्शन करने जा रहा हूँ.' झालर ने उत्तर दिया।नाले की प्रखर धारा की ओर इशारा करते हुए उस अज्ञात व्यक्ति ने झालर से कहा, 'इस धारा में हाथी भी अपना पैर नहीं जमा सकता। तुम्हारी तो हड्डी का भी पता न लगेगा।
'अब चाहे जो हो, मैं तो संकटमोचन का दर्शन किए बिना अन्न नहीं ग्रहण कर सकता। यही मेरा नेम है, अत्यन्त विनीत स्वर में झालर ने आगन्तुकलको समझाया।
 'अब तुम समझ लो कि तुम्हें संकटमोचन का दर्शन हो गया और लौट जाओ, अज्ञात व्यक्ति ने कहा। यदि झालर को अवसर मिला होता तो वह अब तक उस व्यक्ति के पास से भाग निकलते, परन्तु उसने तो उनका हाथ पकड़ रखा था। दिन-भर के परिश्रम से तो वह परेशान थे ही, उधर उनके उदर में क्षुधा ने भी लंका-दहन मचा रखा था। अतः स्वभाव के प्रतिकूल आज वह कुछ कड़े पड़ गए और झल्लाकर बोले, 'तुम्हारे कहने से समझ लूँ कि दर्शन हो गया! यहाँ हनुमानजी कहा हैं?
“परम दुर्बल और निरीह झालर को गरमाते देख वह व्यक्ति मुसकराया और धीरे-धीरे बोला, 'समझ लो, मैं ही हनुमानजी हूँ।' इस पर झालर एकदम बिगड़ उठे। उन्हें जीवन में पहली बार क्रोध हो आया। उन्होंने दाँत पीसते हुए कहा, 'सभी ऐरे-गैरे हनुमानजी बनने लगें तो हो चुका! तुम हनुमानजी हो तो प्रमाण दो।
" 'क्या प्रमाण लोगे?
 “यदि तुम हनुमानजी हो तो मुझे वही रूप दिखाओ जो उन्होंने सीताजी को दिखाया था। वही रूप-कनक भूधराकार सरीरा, समर भयंकर अति बल बीरा। कछ सोचकर झालर ने कहा।
" 'डरोगे तो नहीं?
" 'नहीं?'
“अच्छा, तो देखो,' उस व्यक्ति ने कहा और सहसा उसका शरीर लगा बढ़ने। ऐसा जान पड़ा मानो उसका सिर आकाश छू लेगा। झालर उपाध्याय ने भयवश आँखें मूंद ली और घिघियाकर उस व्यक्ति के चरणों में गिर पड़े।
"जब उन्होंने आँखें खोली तो देखा कि पहलेवाला आदमी उनके सामने खडा है। उस आदमी ने फिर कहा, 'बोलो, तुम मुझसे क्या चाहते हो? जो माँगोगे वही पाओगे।
"झालर को उसी दिन दोपहर की वह घटना स्मरण पड़ी जिसमें एक पंडे ने झापड मारकर उनसे रकम छीन ली थी, और वह सदा की भाँति दुम दबाकर वहाँ से हट गए थे। यह ध्यान आते ही उनके मुँह से सहसा निकला, 'आप बहती अपनी कानी अँगुली का बल मुझे दे दीजिए।
"हनुमानजी फिर मुसकराए और उन्होंने कहा, 'तुम्हारा कलियुगी कलेवर इतना बल न सह सकेगा। तुम अपना मुँह ऊपर उठाकर खोल दो। ना शक्ति-मुख ऊपर उठाया।
स्वाती के प्यासे पपीहे की तरह झालर ने अपना शुक्ति-मख ऊपर उठाया । हनुमानजी ने भी अपना रोआँ तोड़कर उनके मुख में डाल दिया। मुँह में रोआँ पड़ते ही झालर के शरीर में बिजली-सी दौड़ गई और वह बायु वेग से दौड़ते हुए घर वापस आए। आते ही वे चौक में घुस पड़े और थाली में रखा भोज्य-पदार्थ दोनों हाथों से उठा-उठाकर मुह में ठूसने लगे। थाली का सामान समाप्त होने पर उन्होंने चौके में बचे सामान में हाथ लगाया और जब वह भी समाप्त हो गया तो 'भूख-भूख' चिल्लाते हुए वह भंडार में घुस गए आर आटा दाल, चावल जो भी चीज़ सामने आई सब भक्षण करने लगे।"
ननकू की बात सुनते-सुनते गोदावरी को उस रात की घटना स्मरण हो आई। झालर के उस अद्भुत आचरण से लोगों को 'ऊपरी फेर' का भ्रम हो गया। लोगों ने उन्हें भंडार में घुसा देख बाहर खिड़की लगा दी थी और झालर रात-भर भंडार में अन्न-ध्वंस करते रहे थे। उधर ननकू कहता जा रहा था-
हाँ बाबू, सवेरा होने पर झालर इसी घाट पर वह जो टेढ़ी मढी खडी है उसी पर हाथ टेककर खड़े हो गए। यही मढ़ी तब बिलकुल सीधी थी। लोगों ने समझा की यह वही रोनेवाला झालर है। कोई-कोई बोली भी काटने लगे। एक ने कहा, 'गुरु, तनी सँभार के, कहीं तोरे धक्के से मढ़ी न लोट जाए।' उस बखत झालर महाराज तो आपे में थे नहीं। सो उन्होंने गरजकर कहा, 'ई बात!' और मढ़ी पर जो उन्होंने अपने शरीर का दबाव दिया तो मढ़ी अरराकर झुक चली। देखने वाले लोग 'बाप, बाप' चिल्लाकर भागे। यह देख झालर महाराज बड़े जोर से हँसे और पत्थर का एक टकडा उठाकर मढी के नीचे रख दिया। मढ़ी उस पर आज तक रुकी खड़ी है। इसके बाद उन्होंने किलकिलाकर विकट ध्वनि की और उछलकर गंगा की बाढ में कद पडे। इसके बाद क्या हए, कहा कोई नहीं जानता।"
"इसके बाद वह कहाँ गए, मैं जानता हूँ" आगन्तुक बंगाली बोला।
“आप जानते हो?" आश्चर्य से ननकू ने कहा। उधर प्रत्येक लोमकूप को कान बनाकर आगन्तक बंगाली का उत्तर सुन आतुर हो गई। आगन्तुक भी कहने लगा-
"मेरे बड़े भाई मुर्शिदाबाद के राजा के दीवान हैं। राजा साहब भी झालर ठाकुर के यजमान हैं। यही दो वर्ष पहले सावन का महीना था। सवेरे का दरबार लगा था कि झालर ठाकुर पानी से तर केवल एक अंगोछा पहने दरबार में घुस पड़े औऱ राजा साहब से कहा कि 'मैं भूखा हूँ।' राजा ने ही नहीं, हम सभी ने यही समझा कि ठाकुर का मस्तिष्क विकृत है। परन्तु उन्हें कष्ट न होने पाए,यही सोंचकर हमने उनके निवास और रसद का प्रबन्ध कर दिया। थोड़ी ही देर में भंडारी ने आकर सूचना दी कि ठाकुर ने केवल आटा ही डेढ़ मन ले लिया है और उपले की ढेरी में आग दहकाकर उसी आटे का मोटा-मोटा लिट्टी बना उसमें सिद्ध कर रहे हैं । यह सुनकर हम सबको निश्चय हो गया कि ठाकुर पागल हो गए। परन्तु राजा साहब को न जाने क्या सूझी कि उन्होंने अपने मुसलमान महावत को बुलाकर कहा कि वह हाथी लेकर ठाकुर की ओर जाए और वह उधर न आने के लिए चाहे जितना कहें, उनकी एक न माने।
“महावत ने तुरन्त आदेश का पालन किया। वह हाथी लेकर ठाकुर की ओर बढ़ा। ठाकुर उस समय भोजन कर रहे थे। वह हाथी उधर न लाने के लिए हाथों के इशारों से बार-बार हूँ-हूँ' करने लगे, परन्तु जब हाथी न रुका तो उन्होंने लिट्टी का एक बड़ा टुकड़ा तोड़कर उसी से हाथी को मारा। हाथी 'पें-पें' करता हुआ उलटे पैर भागा। जब महावत ने राजा साहब को इसकी सूचना दी तो वह ठाकुर के पास गए और उनसे निवेदन किया कि 'मेरे उद्यान में कहीं से गैंडा आ निकला है। हम लोगों ने उसे उसी में साल-भर से बन्द कर रखा है। उसके कारण मेरा सुन्दर उद्यान नंष्ट-भ्रष्ट हो रहा है। आप हमारा संकट दूर कर दें।' ठाकुर ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली। हम सब लोग महल में से होकर उद्यान के ऊपरी खंड में जा बैठे। ठाकुर ने उद्यान का साल-भर से बन्द दरवाज़ा एक ठोकर मारकर तोड़ गिराया और भीतर प्रवेश कर गैंडे को ललकारा । गैंडा भी उद्यान में मानुस-गन्ध पाकर बफरता हुआ सामने आया। उसके सामने आते ही ठाकर बिजली की तरह उस पर झपटे। उसका एक पिछला पैर उन्होंने अपने पाँव से दबाकर दूसरा पैर हाथ से ऊपर उठाया और जैसे बजाज  कपड़े का थान फाड़ता है वैसे ही उसे फर्र से चीरकर दो-टूक कर दिया। तत्पश्चात वह बैठकर गैंडे का रक्त चुल्लू में भरकर वेदमन्त्रों से अपने पितरों का तर्पण करने लगे। उन्होंने राजा साहब को भी उसी से तर्पण कराया और इसके पश्चात वहाँ से विदा हो गए।"
आगन्तुक बंगाली की बात सुनकर जीतू और ननकू दोनों स्तब्ध हो उठे। गोदावरी की निस्तेज आँखों में भी चमक आ गई। इतने में आगन्तुक ने पुनः पूछा, "ठाकुर का कोई लड़का नहीं है?"
"नहीं, उनकी धर्मपत्नी है," ननकू ने उत्तर दिया।
"धन्य है, धन्य है। मैं उस साध्वी के दर्शन करूँगा जिसे ऐसा देवता पति मिला," श्रद्धा-विगलित होकर यात्री ने कहा।

गोदावरी की छाती गर्वस्फीत हो उठी। उसके भूखे अहं को भोजन मिला और वह पानी में से पैर निकाल उठ खड़ी हुई और घर लौटने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ने लगी।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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इमेल- atul15290@gmail.com
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