ऊपर पीपल के विशाल वृक्ष
पर कौए बोलने लगे।
नीचे
प्रायः पाँच सौ व्यक्तियों का समूह गाने-बजाने में मस्त झूम रहा था। रात के दस बजे
से लावनी की जो ललकार आरम्भ हुई वह अब तक जारी थी। झाँझयुक्त चंग की आवाज़ पर पाँच
आदमी एक साथ गाते थे-
"सिवनाथ
बहादुरसिंह वीर का खूब बना जोड़ा,
सम्मुख
होकर लड़ेनिकलकर मुँह नाहीं मोड़ा।"
और तब एक आदमी
अत्यन्त सुरीले स्वर से अकेले ही चहकता-
"दो
कम्पनी पाँच सौ चढ़कर चपरासी आया,
गली-गली
औ'
कूचे-कूचे नाका बँधवाया,
मिर्जा
पाँचू ने कसम खाय के कुरान उट्ठाया...।"
इसी समय फेंकू ने बगल
में बैठे रूपचन्द का हाथ दबाकर उससे धीरे से कहा, “अब
चलना चाहिए।"
काशी
में नीलकंठ महादेव मन्दिर के उत्तर की ओर जहाँ आजकल दरभंगा-नरेश का शिवाला है, सदा की भाँति होली के ठीक पाँच दिन पूर्व उक्त मजलिस आरम्भ हुई थी। सवेरा
हो जाने पर भी गायन-वादन का क्रम टूटता न देख फेंकू का धीरज छूट गया। दो दिन पूर्व
मीर-घाट पर लाठी लड़ने में उसका सिर फट गया था। उस पर अब भी पट्टी बँधी हुई थी।
रात-भर के जागरण से उसके सिर में ही नहीं. सिर के घाव में भी दर्द हो रहा था। उधर रूपचन्द
की आँखें भी उनींदी हो गई थीं। अतः रूपचन्द ने फेंकू का प्रस्ताव तत्काल स्वीकार
कर लिया और घर चलने के लिए उठ खड़ा हआ। दक्षिण की ओर चार कदम चलकर दोनों दाहिनी ओर
मड़े और रूपचन्द ने सामने स्थित चौरे की ओर उँगली उठाकर कहा, "देखो भाई, वही जगह है जहाँ रात मेरे हाथ से मलाई का
पुरवा झटक लिया गया।"
रुपचन्द
सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र का बालक-मात्र था। अभी-अभी पंजाब से काशी आकर गढ़वासी
टोले में आकर बस गया था। पड़ोस में जो गाने-बजाने का सार्वजनिक आयोजन सुना तो रात
को दुकान से लौटकर नहीं गया, वरन आधा पाव मलाई लेकर
सीधे नीलकंठ जाने के लिए ब्रह्मनाल भी ओर से चौरी की ओर मुड़ा। चौरी के पास
पहुँचते ही किसी ने झटककर पुरवा उड़ा लिया। चतुर्दिक निगाह दौड़ाने और रात चाँदनी
रहने के बावजूद कोई नज़र न आया।
उक्त
घटना स्मरण आते ही उसके रोएँ इस समय भी भरभरा उठे। उसके साथी बीस-वर्षीय तरुण
पहलवान फेंकू ने विज्ञ की भाँति सिर हिलाया और कहा, "हूँ।" रहस्य का रंग और गाढ़ा हो गया।
सुबह
का रंग भी और अधिक निखर आया था। शाक-भाजी ख़रीद और गंगा-स्नान कर लोग उस रास्ते
लौटने लगे थे। कुछ बूढ़ी स्त्रियाँ चौरे पर अच्छत-फूल भी फेंक रही थीं। उन्होंने
रूपचन्द की बात सुनी, उसकी विवर्ण विकृति देखी और
कुछ स्मरण कर स्वयं भी काँप उठीं। बग़ल से गुज़रते हुए पुरुषों ने सुना; वे भी सिहर उठे।
फेंकू
यह सब देख मुसकराने लगा। एक वृद्ध ने कहा, “बेटा,
हँसने की बात नहीं है, यह बड़े वीर का चौरा
है।"
“अरे ठाकुर
सिवनाथसिंह का न? अपने राम को भी सब विदित है। इसी मुहल्ले
में पैदा हुए और पले,” फेंकू ने गर्व से कहा।
रूपचन्द
कभी उस वृद्ध और कभी अपने साथी की ओर देख रहा था। उसने पूछा, “वयो, बात क्या है? आप लाग बतात
क्या नहा?" फेंकू ने कहा, “चलो घर,
वहीं बता देंगे।"
बालकों
की तरह मचलते हुए रूपचन्द ने कहा, “नहीं-नहीं, पहले यह बताओ कि सिवनाथसिंह कौन थे और यह चौरा क्यों बना।"
“इतनी उतावली थी तो वहीं बैठकर पूरी लावनी ही क्यों न सुन ली?"
फेंकू ने डाँटा।
“गाना-वाना
मेरी समझ में नहीं आता। पंडितजी, आप कहिए, सिवनाथसिंह कौन थे?"
वृद्ध
पंडित ने उत्तर दिया, “सिवनाथसिंह क्षत्रिय थे और
थे नगर के विख्यात गुंडे। चौबीसों घंटे डंके की चोट सोलह परी का नाच कराते
थे-छमाछम! छह और नौ की ध्वनि से उनका घर गूंजता रहता थ। खुली कौड़ी पड़ता था। अटी
का लासा, सफा खेल खुलासा' वाला मामला
था उनका नाम तुम लागो का खून सरद होता था और वह खुद ऐसे तपते थे जैसा जेठ की
दुपहरिया में सूरज तपता है। जैसे सूरज का जवाब चन्द्रमा है वैसे ही बाबू
बहादुरसिंह सिंह के जोड़ीदार थे उन्हाका तरह बहादुर, उन्हीं
की तरह शेर! कहावत है कि घोड़े की लात घोडा सह सकता है। सो सिवनाथसिंह का बल
बहादुरसिंह और बहादुरसिंह का तेजी सिवनाथसिंह ही सह सकते थे। सागिरदों की 'धड़क' खोलने के लिए उन्हें दो दलों में बाँट दोनों
फागन-भर धर्म-यद्ध करते थे। वह धर्मयुद्ध ही था। पिता-पुत्र लड़ते थे और भाई पर
भाई वार करता था। आजकल की तरह बुराई नहीं निकाली जाती थी, जिसमें
ये सिर तडाए बैठे हैं।"
बृद्ध
ने जिस समय फकू की ओर उँगली उठाकर कहा उस समय फेंकू ने रूपचन्द का हाथ दबा रखा था
और उसके ताकने पर कनखी से घर चलने का इशारा कर रहा था। वृद्ध ने यही देख उस पर
व्यंग्य किया था।
उधर
रूपचन्द वृद्ध की एक-एक बात सुन नहीं, पी रहा था।
उसने फेंकू के इशारे की उपेक्षा कर दी। वृद्ध पुनः कहने लगा, “सौ बरस की बात है। बनारस में नया-नया अंग्रेजी राज हुआ था। तब पुलिस नहीं
थी, बरकन्दाज़ थे। तब जनानापन नहीं चलता था, मरदानेपन की इज्जत थी। मुक़दमा बनाया नहीं जाता था, मूंछों
की गुरॆरबाज़ी के कारण स्वयं बनता था। अंग्रेज़ी राज्य में देशी ढंग से जुआ खेलने
और देशी शराब पीने की रोक थी, आज भी है। परन्तु सिवनाथसिंह
के घर के आँगन में दो फड़ों पर कौड़ी फेंकी जाती थीं और एक-एक फड़ के सामने
सिवनाथसिंह और बहादुरसिंह एक हाथ में नंगी तलवार खींचे दूसरे हाथ से नाल की रकम
उतारकर सामने रखी पेटी में डालते जाते थे। दरवाजा चौबीसों घंटे खुला रहता था,
पर क्या मजाल थी कि पंछी पर मार सके ।
वृद्ध
ने रुककर साँस ली। रूपचन्द आश्चर्य के समुद्र में उभ-चुभ हो रहा था। उसके ऊपर भय
की भयावनी लहरें उठ-बैठ रही थीं। वृद्ध वक्ता मुसकराया और फिर कहने लगा, “उस समय मिर्जा पाँचू शहर-कोतवाल थे। वह अपने को दूसरा लाल खाँ समझते थे।
बरकन्दाज़ों की पूरी पलटन लेकर गश्त के लिए निकलते थे पाँच बार नमाज पढकर अपने
मजहबी' होने का प्रचार किया था। सिवनाथसिंह के कारण उनकी बडी
किरकिरी होती थी। मिर्जा पाँचू और उनके बरकन्दाज़ों ने सिवनाथ और बहादर से टक्कर
ली, लेकिन जैसे चट्टान से टकराकर लहर सौ टुकड़े होकर पीछे
लौट जाती है, वे भी पहले तो प्रशस्त और मस्त लेकिन बाद में
परास्त और त्रस्त होकर रह गए।
“अन्त में निवनाथ और बहादुर के विनाश के लिए मिर्जा पाँचू ने कुरान उठाकर
कसम खाई और एक दो कम्पनी याने पाँच सी सिपाही लेकर सिवनाथसिंह का घर घेर लिया।
सिवनाथसिंह बाहर गए थे, बहादुरसिंह मौजूद थे। परन्तु उनके
हाथ-पाँव फूल गए। जुआरियों की मंडली भी घबराई।
“सर्वाधिक चपल, साथ ही सर्वाधिक चालाक एक जुआरी ने
उछलकर द्वार बन्द कर लिया। बन्दूकों के कुन्दों से सिपाही फाटक पर चोट देने लगे। प्रहार
दरवाजे पर नहीं, सिवनाथसिंह की शान पर हो रहा था। वहादुरसिंह
ने उठने का प्रयत्न किया तो जुआरियों ने उन्हें बैठा दिया। इतने में बाहर भगदड़ मची।
लोगों ने खिड़की के बाहर झाँककर देखा कि सिपाही हथियार फेंक-फेंककर भाग रहे हैं,
दस-पाँच छटपटा रहे हैं और दो-चार ठंडे पड़े हैं। वहीं ठाकुर सिवनाथसिंह
खड़े हैं-खून से लथपथ, क्रोध से होंठ चबाते और मानसिक चंचलता
दवा न पाने के कारण तलवार नचाते।
"खिड़की से यह दृश्य देख बहादुरसिंह बहुत लजाए, दरवाज़ा
खुलवा दिया, परन्तु सिवनाथसिंह ने कहा कि जिसने दरवाज़ा बन्द
कर मेरा अपमान कराया है उसका सिर काट लेने के बाद ही अब मैं घर में प्रवेश करूँगा।
ठाकुर की बात सुनकर सब एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। अपराधी हाथ जोड़कर सामने आया। उसे
देखते ही सिवनाथसिंह के मुँह से निकला-'अरे पंडित, तुम!'
“हाँ, धर्मावतार,' सिर झुकाए
हुए जुआरियों की चिलम भरनेवाले ब्राह्मण ने कहा। कुछ सोचकर ठाकुर ने कहा, “अच्छा, सामने से हट जाओ! अब कभी मुँह न
दिखाना।"
“पंडित वैसे ही नतमस्तक वहाँ से हट गए। ठाकुर सिवनाथसिंह भी घर में गए।
स्नान कर क्रोध की ज्वाला कुछ बुझाई और तब आँगन में आकर बैठ गए। सामने ही
बहादुरसिंह भी बैठे थे। न वह इनकी ओर देखते थे और न यह उनकी ओर । इतने में वही
ब्राह्मण पुनः दौड़ता हुआ आया और हाँफते हुए बोला, 'सरकार,
दो कम्पनी फौज आई है। उसमें फिरंगी भी हैं। मिर्जा पाँच ने कुरान
उठाकर कसम खाई है कि मरेंगे या मारेंगे।'
"सिवनाथसिंह की भृकुटी में बल आ गया। वह उठे, दरवाजे
की ओर चले, फिर कुछ सोचा और पंडित से कहा, 'दरवाज़ा बन्द कर दो।
“पंडित ने मन-ही-मन मुसकराते हुए द्वार बन्द कर दिया। इतने में फौज आ पड़ी।
मकान घेर लिया गया। गोरे गाली देने और गोली बरसाने लगे। “कुछ
देर यह क्रम चला। सहसा बहादुरसिंह तलवार लिए उठे और झपटकर खिड़की से नीचे कूद
पड़े। अब सिवनाथसिंह भी बैठे न रह सके, वह भी कूदे ।
फिर
क्या कहना था। दोनों ने तलवार के वह हाथ दिखाए कि शत्रु मुँह के बल आ रहा। "उसी समय किसी गोरे की किर्च बहादुरसिंह के कलेजे में पार हो गई। एक दूसरे गोरे
की गोली ने भी उसी समय उनकी कपाल-क्रिया कर दी। अब तो सिदनाथसिंह को और रोष हो
आया। वह जी तोड़कर लड़ने लगे। इतने में एक तिलंगे की तलवार का ऐसा सच्चा हाथ उनकी
गरदन पर पड़ा कि सिर छटककर दूर जा गिरा। एक बार तो सिपाही प्रसन्न हो उठे, परन्तु दूसरे ही क्षण यह देखकर उनके छक्के छूट गए कि कबन्ध वैसे ही तलवार
चलाए और उनका नाश किए जा रहा है।"
कहते-कहते
ब्राह्मण रुककर और फिर तीव्र स्वर में रूपचन्द की ओर उँगली उठाकर बोला, “जहाँ आप खड़े हैं, वहाँ एक तमोली की दुकान थी।
सिवनाथसिंह यहाँ प्रायः पान खाते थे। कबन्ध भी तलवार घुमाते वहाँ पहुँचा जहाँ चौरा
है और अभ्यासवश खड़े होकर उसने एक हाथ तमोली की ओर पसारा। 'अरे-बप्पा
रे चिल्लाकर तमोली बेहोश हो गया। कबन्ध भी लड़खड़ाकर गिर पड़ा।"
रूपचन्द
का चेहरा फीका पड़ गया। उसे बेहोशी आती जान पड़ी। फेंकू ने कहा, “तब से वहाँ रात-विरात खाने-पीने की चीज़ लेकर आनेवालों के हाथ से ठाकुर
साहब छीन लेते हैं।"
रूपचन्द
पूरा बेहोश हो गया। फेंकू को डकार आई और अधपकी मलाई की खट्टी-सी हलकी दुर्गन्ध
वायु में व्याप्त हो गई। उधर गली के नुक्कड़ पर लावनी वाले गाए जा रहे
थे-"सिवनाथ-बहादुरसिंह वीर का खूब बना जोड़ा!"
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