एही
ठैयाँ झुलनी हेरानी हो रामा!
महाराष्ट्रीय महिलाओं
की तरह धोती लपेट, कच्छ बाँधे और तंग चोली कसे दुलारी
दनादन दंड लगाती जा रही थी। उसके शरीर से टपक-टपककर गिरी बूंदों से भूमि पर पसीने
का पुतला बन गया था। कसरत समाप्त करके उसने चारखाने के अंगोछे से अपना बदन पोंछा,
बँधा हुआ जूडा खोलकर सिर पर पसीना सुखाया और तत्पश्चात आदमकद आईने
के सामने खड़ी होकर पहलवानों की तरह गर्व से अपने भुजदंडों पर मुग्ध दृष्टि फेरते
हए प्याज़ के टुकड़े और हरी मिर्च के साथ उसने कटोरी में भिगोए हुए चने चबाने
आरम्भ किए।
उसका
चणक-चर्वण-पर्व अभी समाप्त न हो पाया था कि किसी ने बाहर बन्द दरवाजे की कुंडी
खटखटाई । दुलारी ने जल्दी-जल्दी कच्छ खोलकर बाकायदे धोती पहनी, केश समेटकर करीने से बाँध लिए और तब दरवाजे की खिड़की
खोल दी।
बगल
में बंडल-सी कोई चीज़ दबाए दरवाजे के बाहर टुन्नू खड़ा था। उसकी दष्टि शरमीली थी
और उसके पतले ओंठों पर झेंप-भरी फाकी मुसकराहट थी। विलोल बेहयापन से भरी अपनी
आँखें टुन्नू की आँखों से मिलाती हई दलारी
बोली "तम फिर
यहाँ,
टुन्नू? मैंने तुम्हें यहाँ आने के लिए मना
किया था न?" टुन्न की मुसकराहट उसके होंठों में ही
विलीन हो गई। उसने गिरे मन से उत्तर दिया, “साल-भर का
त्यौहार था, इसीलिए मैंने सोचा कि..." कहते हुए उसने
बगल से बंडल निकाला और उसे दुलारी के हाथों में दे दिया। दुलारी बंडल लेकर देखने
लगी। उसमें खद्दर की एक साड़ी लपेटी हई थी। टुन्नु ने कहा, “यह
खास गांधी आश्रम की बनी है।"
"लेकिन
इसे तुम मेरे पास क्यों लाए हो?" दुलारी ने कड़े
स्वर से पूछा। टुन्नू का शीर्ण वदन और भी सूख गया। उसने सूखे गले से कहा,
"मैंने बताया न कि होली का त्यौहार था...।" टुन्नू की बात
काटते हुए दुलारी चिल्लाई, “होली
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