अधकटे मृगछौने की तरह
बिछौने पर सारी रात तड़पते रहने के बाद अठहत्तर-वर्षीय वृद्ध पंडित पद्यानन्द
पांडेय ने भोर की दक्षिणी वायु में अपनी चिन्ता विभोर कर देने के लिए छत पर निकलकर
टहलना आरम्भ किया। उन्होंने देखा कि मधुमास में भी पावस की घटाएँ घिरी हुई हैं और
दूर गंगा की लहरों पर बुढ़वा का मेला नृत्य कर रहा है। उन्होंने अपनी धुंधली आँखों
से मेला देखने का प्रयत्न किया, परन्तु दृष्टि की दुर्बलता
के कारण वह केवल छिटपुट आलोक ही देख सके।
इतना अवश्य हुआ कि किसी बजड़े से
उठी भैरवी की सरस तान वायु का वितान विदीर्ण करती हुई उसके कानों से आ टकराई,
“जोबनवाँ चार दिना दीनो साथ!" पद्मानन्द ने जैसे गायिका के कथन
का समर्थन करते हुए गम्भीरता से अपना सिर हिलाया, कहा,
“सचमुच 'जोबनवाँ चार दिना दीनो साथ',” और उनकी झुकी हुई कमर कुछ और झुक गई।
नीचे
की मंजिल में किराए पर कोठरी लेकर रहनेवाली गंगा आँगन बुहारने के लिए निकल पडी थी।
धीरे-धीरे अन्धकार दूर होकर आकाश में ललाई छा गई। पद्यानन्द भी आँगन में आने के
लिए सीढ़ियाँ उतरे। आँगन में बँधीं उनकी
पगध्वनि से परिचित
दोनों गायों ने अपने कान खड़े किए। उनके मुँह से रम्भाने की दुर्बल ध्वनि निकली।
पद्मानन्द भी आँगन में आकर खड़े हो गए और हथिनी-जैसी डीलडौलवाली अस्थिसार अपनी
नन्दिनी और कामधेनु की ओर कुछ देर एकटक निहारते रहे। फिर लम्बी साँस भरकर बग़ल की
एक लम्बी-चौड़ी कोठरी-भूसेवाली कोठरी में घुसे और चारों ओर दृष्टि दौड़ाई। एक कोने
में भूसे की प्रायः आधसेर मिट्टी-मिली तलछट पड़ी थी। उन्होंने उसे हिलोरकर प्रायः
चार मूठी भूसा
उठाया और नन्दिनी तथा
कामधेनु की नाँदों में डेढ़-डेढ़ सेर पानी मिलाकर घोल दिया। दोनों ही गायें एक बार
तो बड़े चाव से नाँद पर टूट पड़ीं, परन्तु
दूसरे ही क्षण अपना मुँह हटा पद्यानन्द की ओर देखने लगीं। पद्मानन्द की आँखें भर आईं,
मानो वे कह रही थीं, 'मैं खुद कई दिन का भूखा हूँ, गऊ माता! क्या करूँ?
उधर
उनकी भडैत गंगा आँगन के एक कोने से अपनी कोठरी के सामने झाड़ लगाती और साथ ही
कनखियों से पद्मानन्द की गतिविधि भी देखती जाती थी। उसने उनकी आँखों में वह आँसू
भी देख लिया जिसे उन्होंने अपने शतछिन्न
अंगोछे से तत्काल
पोंछ लिया था। वह ससंकोच उनके पास आई और बोली "बाबा, इस महीने का भाड़ा तो चढ़ ही गया है। कई दिन से सोच रही हूँ कि दे दूँ,
पर हाथ में पैसा था नहीं। अब आ गया है। कहिए तो दे दूँ?"
पद्मानन्द चुप रहे। गंगा तुरन्त अपनी कोठरी में गई और पाँच रुपए का
एक नोट लाकर पद्मानन्द को देते हुए बोली, “बाबा, यह पूरा नोट ही रख लीजिए, ढाई रुपया इस महीने का और
ढाई रुपया पेशगी।"
पद्मानन्द
नोट लेकर बोले, “पाँच रुपए और न होंगे? मुझे दस रुपए की बहुत ज़रूरत थी।" गंगा ने दबी ज़बान से कहा,
"हैं तो नहीं, लेकिन, अच्छा ज़रा ठहरिए।" गंगा ने वहीं से आवाज़ दी, “गंगो, तुम्हारी माँ क्या नहाकर लौट आई?"
गंगा की आवाज़ पर पाँच-छह वर्ष की एक लड़की सामने की कोठरी से
निकली। उसने कहा,“हाँ जीजी, अम्मा
नहाकर आ गई हैं, बैठी जप कर रही हैं। क्या है?"
उसकी
बात का जवाब न देकर गंगा उसकी माँ के पास गई और अपने हाथ का चाँदी का कड़ा देते
हुए उसने कहा, “इस पर पाँच रुपए तुम मुझे उधार दे दो,
गंगा की माँ! टकासी सूद दूंगी और आज के महिनवें दिन छुड़ा लूंगी।"
प्रति
रुपए दो पैसे सूद की बात सुनकर गंगो की माँ आनाकानी न कर सकी। यदि गंगा ने सूद की
बात न कही होती और यों ही रुपया उधार मांगा होता तो निश्चय ही गंगो की माँ अपना
सीधा उत्तर देती, “मेरा रुपया तो राय साहब की
कोठी में जमा है, वह बेफजूल उड़ाने के लिए नहीं देते। कहत हैं
कि तेरे बाद तेरी गंगो के काम आएगा।" परन्तु प्रति मास दस पैसे की अनायास आमदनी
वह न छोड़ सकी। उसने गंगा के कड़े रख उसे पाँच रुपए दे दिए। गंगा ने भी वह रुपया
लाकर पद्मानन्द को दे दिया। रुपया पाते ही बूढ़ का चेहरा खिल उठा। वह तुरन्त ही घर
से निकल पड़ा।
2
पैर में पर लगाए काशी
की टेढ़ी-मेढ़ी गलियों में बूढ़ा उड़ा जा रहा था । उसे आतुरतापूर्वक घर से निकलते
देख गंगा ने समझा था कि वह अपने लिए गल्ला और अपनी गायों के लिए चारा लाने जा रहा
है। परन्तु यदि वह देखती तो सचमुच आश्चर्य से भर जाती कि मध्यकालीन संस्कृति में
पला बूढा न तो विश्वेश्वरगंज की ओर जा रहा है, और न खोजबाँ
के बाज़ार की ओर, जो नगर में गल्ले की मुख्य मंडियाँ हैं,
अपितु उसका लक्ष्य एक अंधी गली में स्थित एक खंडहरनमा मकान है।
बूढ़े ने वहाँ पहुँचकर कुंडी खटकाई । तत्काल ही खिचड़ी केश और दो-चार टूटे
दाँतोंवाली एक स्थूलांगी महिला ने द्वार खोल दिया और पूछा,"क्या रुपए लाए हो?"
वृद्ध ने वृद्धा की फैली हथेली पर पाँच-पाँच रुपए के दो नोट रखते
हुए उत्तर दिया, “हाँ, ले आया हूँ।
लेकिन तुमने तो मुझसे माँगा था नहीं।"
“फिर भी मैं जानती थी
कि तुम रुपए ज़रूर लाओगे," वृद्धा ने स्नेह-विगलित
स्वर में उत्तर दिया।
दोनों
ही जीवन के अस्ताचल पर खड़े थे। दोनों ही जानते थे कि मृत्यु-रूपी महानिशा की
गोधूलि-वेला उनके सामने है। फिर भी दोनों की बातों में तरुण स्नेह की रंगीनी उषा
की अरुण आशा के समान उनके मन की शून्यता को जैसे अनुरंजित कर रही थी। वृद्ध ने
हँसकर पूछा, “इतना तो बता ही दो कि तुमने यह कैसे जान
लिया कि तुम्हारे बलराम और बखेड़ द्वारा इसी द्वार पर बार-बार अपमानित होने के
बावजूद तुम्हारे बिना माँगे ही मैं रुपया ले आऊँगा?"
वृद्धा
खिलखिलाकर हँसी, बिहारी की 'दैन कहै
नटि जाई' वाली तरुणी नायिका की अदा से, और फिर कुछ संयत होकर बोली, “खैर, तुम जान भी कैसे सकते हो? मर्द हो न! मर्द की दृष्टि
होती है, केवल समूची दुनिया का रूप देखने के लिए. लेकिन औरत
के पास होती है अन्तर्दृष्टि। वह बाहर ही नहीं. भीतर भी झाँक लेती है, समझे!"
“न समझे होंगे तो अब मैं समझे लेता हूँ,” कहते हुए एक
हाथ में जूता उठाए बखेड़ राम बाहर निकले। उन्हें अपनी जननी सोनामती से पैदाइशी
घृणा थी। उनके पिता बुद्धिदत्त पांडे जन्म से बुद्ध थे। उनकी आँखों में धूल झोंकते
बखेड़ राम को तनिक भी
कठिनाई नहीं पड़ती थी। परन्तु उनकी माता उन्हीं के शब्दों में पूरी कज्जाक' थी और इसलिए उनकी स्वतन्त्रता में बाधक । परन्तु सौभाग्य से लड़कपन से ही
बखेड़ राम को अपनी माता के सम्बन्ध में एक ऐसी सूचना मिल गई कि वह उस दिन से शेर
हो गए।
अब से प्रायः पचास
वर्ष पूर्व उनकी माता ने पन्द्रह-वर्षीया वधू के वेश में अपने पति के चचेरे छोटे
भाई पद्मानन्द के घर अर्थात् अपनी ससुराल में प्रवेश किया था। उस समय उस परिवार
में एक साथ कई घटनाएँ घटी। सर्वप्रथम पद्मानन्द की पत्नी सहसा मर गई। प्रवाद फैला
कि उसने आत्महत्या की ललित कलाओं पर प्राण देने के लिए प्रसिद्ध पद्मानन्द तब तक
अपनी अधिकांश सम्पत्ति स्वाहा कर चुके थे। परन्तु फिर भी इतनी सम्पत्ति बच गई थी कि
तत्काल ही उनका दूसरा विवाह ठीक हो गया और उन्होंने सबको आश्चर्य में डालते हए
विवाह करना अस्वीकार कर दिया। उसके थोड़े ही दिन बाद पद्मानन्द पर पूर्ण रूप से
आश्रित बुद्धिदत्त ने उनके घर में रहना स्वीकार नहीं किया और किराए पर मकान लेकर
आलम चले गए। वहाँ भी पद्मानन्द पहुँचते थे और अपनी भावज सोनामती से पूर्ववत सम्मान
पाते थे। ऐसी बातों पर संसार जो कुछ सोचता आया है वही सोचता रहा और बखेड़ राम को
वह अस्त्र मिला जिससे वह अपनी माँ का कलेजा निरन्तर छेदने लगे। बुद्धिदत्त बीमार
पड़े थे। पैसा था नहीं कि चिकित्सा कराएँ, परन्तु उदंड
बखेड़ राम ने पद्मानन्द का त्याग नहीं समझा और उन पर जूता चला दिया। बूढ़े
पद्मानन्द रो पड़े, सोनामती सिहर उठी, बोली,
“अरे मुर्ख! जनक पर जूता?"
“बुद्धिदत्त
पंडित नहीं हैं, क्लीव हैं," वृद्धा
गरज उठी। बखेड़ राम घबरा उठे और इस स्थिति से लाभ उठाकर बूढ़े पद्मानन्द वहाँ से
खिसक गए।
3
पागलों
की तरह बड़बड़ाते हुए पद्मानन्द दिनभर इधर-उधर घूमते रहे और जब साँझ हुई तो
हरिश्चन्द्र घाट पर जा पहुँचे और बाढ़ के कारण तट पर जमी हुई बलुई मिट्टी के टीलों
को काट-काटकर निर्मित सीढ़ियों पर एकत्र बच्चों
का खेल देखने लगे। सबसे
ऊपर सीढ़ी पर खड़ी एक लड़की ने पूछा, “मछली-मछली,
कित्ता पानी?" सबसे नीची सीढ़ी पर खड़े
बालक-बालिकाओं के समूह ने कवायद की मुद्रा में एक साथ अपने दोनों हाथ अपनी पसलियों
से लगाते हुए एक स्वर से उत्तर दिया- “सोनचिरैया! इत्ता पानी!" और सबसे ऊँची
सीढी पर खड़ी लड़की दूसरा सीढ़ी पर उतर आई। उसने पुनः प्रश्न किया. “मछली-मछली,
कित्ता पानाः इसी प्रकार सोनचिरैया का अभिनय करनेवाली लडकी छन्द के
बन्धन में कसी हुई भावपूर्ण कविता के समान प्रत्येक सीढ़ी पर खड़ी होकर अपना
प्रश्न दुहराता एक चरण नीचे उतरती जाती थी और उधर नीचे फर्श पर खडे होकर अभिनय
करनेवाले लड़के लड़की अपनी पसली, पेट, कमर,
जाँघ,घुटना आदि पर क्रमशः हाथ रखते हुए उसके
प्रश्न का बँधा जवाब दिए जा रहे थे।
उनका
शोर-गुल पद्यानन्द को अच्छा न लगा। उन्होंने उनकी ओर से मुँह फेरकर अपनी धुंधली
आँखों से गंगाजी में एक-एक गज़ लम्बी लहरों को उठते और उन पर बड़े बजड़ों को डगमग
होते देखा। शरीर की झलती हई खाल पर उन्होंने प्रबल वेगमयी वायु के झकोरों का अनुभव
किया और उन्हें अपनी तरुणाई की वह घटना हो आई जबकि अपने पिता की मृत्यु का शोक
सालभर भी न मनाकर उन्होंने इसी चैत के महीने में बुढ़वा-मंगल के इसी अवसर पर
नावपटैया की थी और काशी-नरेश तथा विजयानगरम नरेश के कच्छे के बाद उन्हीं के कच्छे ने
मेले में सर्वाधिक धूम मचाई थी। इतने में ही हवा का एक करारा झोंका आया, पहले की अपेक्षा लहर कुछ और ऊँची हुई और तट पर बैठे पद्मानन्द नहा-से गए।
वह लहर जैसे गंगा की लहर नहीं, स्मृतिसागर की तरंग थी। छप्पन
वर्ष पूर्ववाले उस बूढ़वा-मंगल का विवरण, जो उस समय भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र के मासिक-पत्र 'कवि-वचन-सुधा' में प्रकाशित हुआ था, उनके मुँह से बड़बड़ाहट के रूप
में प्रकट हुआ। तीन बरस तक लगातार प्रतिदिन दो-तीन बार उक्त विवरण की उद्धरणी करने
के कारण वह उन्हें सदा के लिए रट-सा गया था। वह कह चले-“गत बुढ़वा-मंगल में एक बात
ऐसी अपूर्व हुई थी जो स्मरण रहे। वह यह है कि शुक्र के दिन वायु इस वेग से बही थी
कि उसने सब मेला इधर-उधर कर दिया और रामनगर के नीचे नावों का पहुँचना असम्भव हो
गया। श्री महाराज विजयानगरम के कच्छे इसी पार रह गए। परन्तु श्री महाराज काशीराज
ने जब देखा कि कच्छे आगे नहीं हटते, तब अपने हाथियों को
बुलवा भेजा। आज्ञा होते ही बड़े-बड़े मतंग नंग-धडंग झूमते हुए एकसंग गंगाजी में हल
गए। कोई
तो अपने दाँतों से दबाता
था और कोई सिर से ठोकन देता था और कोई पुढे का बल लगाता था और कोई अपनी दाढ़ों से
कच्छों की कोर पकड़कर खींचता था। निदान यह कौतुक और शोभा देखने ही योग्य थी, लिखी नहीं जा सकती।"
पंडित
पद्यानन्द अपने मन की तरंगों में उभ-बुभ होने लगे। उनकी दरिद्रता ने उन्हें महीनों
से आंशिक अनशन करा रखा था, उनकी अनैतिक जवानी ने उनकी
दुर्बल बढ़ौती के लिए एक भीषण समस्या पोस रखी थी और उनका चिरतरुण मन आज भी पुरानी
रंगरेलियों के लिए उन्मन हो रहा था। पेट में प्रज्ज्वलित भूख की आग के कारण उनकी
आँखों के आगे नाचनेवाली चिनगारियों की संख्या बढ़ चली थी। उन्होंने क्षुधा की
ज्वाला बुझाने के लिए गंगाजल का आश्रय लिया। कठिनाई से दो-तीन चुल्लू पानी वह पी
सके, परन्तु ज़्यादा पानी भी नहीं पिया जा सका। उनका पेट
मरोड़ उठा, वह अकुलाकर वहीं लोट गए। लड़के-लड़कियों का खेल
चल रहा था। अन्तिम सीढ़ी पर आकर लड़की ने पूछा-
“मछली-मछली, कित्ता पानी?" सधा हुआ उत्तर मिला, “सोनचिरैया इत्ता पानी।"
और लड़की धम्म से नीचे फर्श पर कूदी। मछलियों की भूमिका में खड़े बालक-बालिकाओं ने
सोनचिरैया को छिपा लिया। सोनचिरैया ने पहले फड़फड़ाने का अभिनय किया और तत्पश्चात्
उसने हाथ ढीले कर दिए।
पत्थर
की सीढ़ी पर पद्मानन्द ठंडे पड़े थे। उन्हें खोजती हुई उन्मादिनी के वेश में
सोनामती भी वहीं आ गई। कुछ निठल्ले दर्शक भी एकत्र हो गए। एक ने पूछा, “यह मर गया है क्या, उठता क्यों नहीं?"
सोनामती
उसे उत्तर देने ही जा रही थी कि दूर किसी बजड़े पर इस दुर्घटना से अनभिज्ञ गायिका
ने तान लड़ाई-"चैत की निन्दिया जिया अलसाने हो रामा!"
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