सिन्धुवादवृत्तम- द्वितीय सिन्धुयात्रा

 

द्वितीया समुद्रयात्रा

द्वितीया सिन्धुयात्रा

"प्रथमयात्रोत्तरमिह विदामपुरेऽवशिष्टमायुः सानन्दं यापयितुम् कृतसङ्कल्पोऽपि कैश्चिद्दिनैर्निरुद्यमावस्थानेन परिक्लान्तो भूयोऽपि सिन्धुयात्रोत्सुका पण्यवस्तूनि संगृह्य एकस्मिन् दिवसे प्रामाणिकैः कैश्चित् सार्थवाहैः सह प्रवहणमारुह्य यात्रायै निरगमम्।

द्वीपाद् द्वीपं परिभ्रमन्तः सलाभं विनिमयेन पयाजातं विक्रीणानः वयमेकस्मिन् दिने द्वीपमेकं फलभारावनमितैर्महीरुहै: समाच्छन्नमपि नितरां निर्जनं संप्राप्नुम। अथास्मत्सहचरेषु वनस्थल्या फलकुसुमावचयपरेषु सहानीतं किञ्चिदशनजातं गृहीत्वा घनच्छायस्य कस्यचित् स्त्रोतसस्तटभूमी स्थितोऽहं भुक्त्वा पीत्वा चापनीतश्रमो निद्रापरवशोऽभवम्। प्रबुद्धश्च  प्रवहणमनालोकयन् विस्मयाक्रान्तः सहचरवर्गमनिवष्यंस्तानप्राप्येतस्ततः

परिपश्यन् विदूरे महता वेगेनापसर्पत्तत्प्रवहणमद्राक्षम्। क्रमशश्चैतददृश्यतां गतमभिवीक्ष्य निराशतामगच्छम्।

ईदृशीं विषमां दशामनुप्रपन्नोऽवसितजीविताश: शुचा तारस्वरेण क्रन्दन् शिरस्ताडयन् शङ्काशताकुल आत्मानं मुहुर्मुहुरेतद्यात्राचापलाय विनिन्दन् कर्तव्यमूढः कञ्चन वृक्षमारुह्य सर्वतः पश्यन्नुपरि महाकाशमधश्च महासिन्धुमन्तरेण च न किमपि दृष्टिपथं नयन्, आराद्रोधसि स्थितं किमप्यवदातं वस्तु निरीक्ष्य तरोरवतीर्णो गृहीताशनजातशेषः किमेतदिति बुभुत्सुस्तत्सकाशमुपासरम्। उपसृत्य च हस्तशतप्रमाणमतिमसृणतया दुरारोहं किमपि वस्तु समालोकयम्।

अथास्ताभिमुखे भगवति भास्वति दुर्दिन इव सहसा तमोव्याप्ता दिशो भयमुदपादयन्। अकस्माच्च मदभिमुखं सवेगमापतन्तमतिमहापरिणाहं पक्षिविशेषमवलोक्य विस्मितोऽभवम्। पूर्वं पोतवाहेभ्यः श्रुतैतादृशमहाशकुन्तवृत्तान्तोऽहं तदवदातं वस्तु तस्यैवाण्डं निरधारयम्।

कियत्या च कालकलया विटपिस्कन्धविशङ्कटनखपञ्जरः स महाशकुन्त- स्तस्मिन्नण्डे समुपाविशत्। क्षणाच्च निद्रयाऽ पाह्रियत। अहं शनैस्तमुपगत्य स्वशिरःस्थचीरपट्टिकयाऽऽत्मानं तन्नखपञ्जरेऽबध्नाम्। 'कदाचित् प्रभात आहारान्वेषणायोत्पतिष्यतोऽस्य साहाय्येनास्मादतिनिर्जनात् स्थानाद्विनिर्मुक्तो भवेयम्' इति चेतसाऽऽशासाना प्रभातं प्रतीक्षमाणो निशीथिनीं तां तथैवाऽस्थाम्। प्रत्यूषे च वस्तुतस्तेन शकुन्तप्रकाण्डेन सवेगमदृष्टभूमिभागे

नभसि समुह्यमानो निश्चेतन इवाभवम्। अथावतीर्णमात्रः स सपदि कर्तितात्मबन्धने मयि सहसा दृष्टमाशीविषमेकमत्यायतं समाक्रम्य चञ्चूपुटेनोद्वहन्नदृश्यतामयासीत्।  अहं तु क्वचिदुपत्यकायामभितो गगनभेदिशृङ्गैर्दुरधिरोहैः शिलोच्चयैः

परिवृतायामशक्यनिर्गमनायामेकाकी पतितस्तया देशान्तरपरिवृत्या न मनाक् प्रसन्नः केवलं भागधेयमात्मीयमाक्रोशन् कञ्चित्कालं स्तम्भितमति- रतिष्ठम्।  अथोत्थितोऽहमितस्ततः परिक्रामस्तं प्रदेशमतिस्थूलप्रमाणैरसम- सुषमैीरकनिकरैर्व्याकीर्णं साश्चर्यमवालोकयम्। तांश्च सकौतुकं निर्वर्णयन्नदूरे दन्तावलनिगरणपर्याप्तायामिमुखकन्दरानतिपृथून् पर:

शतानजगरान् विलोक्य साध्वसाधीनोऽभवम्। ते ह्यजगराः पूर्वोपवर्णिततत्सहजवैरिपतत्रिभयविह्वला दिवसं गिरिकन्दरासु निगूढा अन्धकारावतारे ततो निष्क्रामन्ति। अहं तस्यामुपत्यकायां भ्रमन् यथावसरं विश्राम्यन् सकलं तं दिवसमयापयम्। अस्तङ्गत्ते च रवौ किञ्चिद्देवखातमुपलभ्य शिलयैकया पिहिततत्सङ्कुचितद्वारः सर्पभयात्

कथञ्चिदात्मानं सुरक्षितं मन्यमानः सहानीतं किञ्चिद्धोज्यं भुक्त्वाऽऽ- शीविषफूत्कारजनितसाध्वसोद्वेगो जाग्रदेव कथमपि तां निशामनैषम्।  उदिते च भगवति दिनकृति विनिर्गतेषु च तेषु कालसर्पेषु सातको हीरकखण्डेषु परिभ्रमन्नपि तानि ग्रहीतुमनुदितोत्साहलेशो रात्रिजागरण भृशं क्लान्त एकस्यां शिलायां पतित्वा निद्रितो मत्सविधे पततो महतो मांसखण्डस्य तारशब्देन प्रबुद्धो गिरितटेभ्या पतन्ति बहून्यपराणि

मांसखण्डानि पश्यन् विस्मित आसम्।  पूर्व नाविकगणैर्वर्णितायां हीरकोपत्यकायामत्र च वणिग्जनैहीरक- सम्पादनायाऽऽश्रियमाणे चित्रेऽभ्युपाये अश्रद्धालुरभवम्। स उपयो यथा वणिजो हि साहसिनोऽभितो गिरीन् समधिरुहृय ततो मांसखण्डान्यध उपत्यकायां निपात्य संसक्तानेकहीरकखण्डेभ्यस्तेभ्यो महागृधैः सन्निपत्य

गिरितटस्थान् कुलायान् नीतेभ्यस्तान् कोलाहलेन ततो विद्राव्य हीरकखण्डान्यात्मसात् कुर्वन्ति। तदेतत्सर्वमविश्वसन्नहं साम्प्रतं प्रत्यक्षीकुर्वन् संगृहीतस्थूलतमहीरकनिचय आत्मत्राणाय कैश्चिदतिपृथुलैर्मासखण्डै- रात्मानमावेष्ट्य गृध्रपातं प्रतीक्षमाणो निश्चेष्टोऽपतम्।  अथापतिते तत्र गृध्रगण एकस्तेषु स्थविष्ठो मांसखण्डसमावेष्टितं मां चंच्या विधृत्योपरि गिरिगतं स्वं नीडमनैषीत्। वणिजश्च कोलाहलं विदधुः। विद्राव्य च तां गृधं तत्र समेतास्ते मां तथाविधं विलोक्य

चकिता बभूवुः। मत्तश्च श्रुतनिखिलवृत्तान्तास्ते मद्धैर्यसाहसाध्यवसायांश्चिरं

प्रसशंसुः।  अथ तैर्वणिग्जनैः स्वशिबिरं नीत्वाऽऽतिथ्येन सम्भावितस्तां क्षपां तैः सार्धमतिवाह्य मदीयपृथुलहीरकैर्विस्मितान्तरङ्गांस्तान् कैश्चन

 हीरकोपहारः परितोष्य तादृशातिघोरविपदोऽभिमुक्तये भगवन्तमन्तः- स्तुवन् सूर्योदये तैः सह ततः सम्प्रस्थितः सकुशलमासन्नस्थितां पोता- वतारभुवं सम्प्राप्त: पोतमेकमारुह्य कपूरतरुभिः पूरितं घोणाग्रवर्तिपृथुशृङ्ग- बलात्करीन्द्रविदारणक्षेपणसमर्थैरनल्पैर्गण्डकैः समाकीर्ण रोहणं नाम द्वीपविशेषं पश्यन् कैश्चिद्धीरकाल्पखण्डैस्तद्वीपसुलभं वस्तुजातं संगृह्य कतिपयैर्दिवसैर्वासरपुरं ततश्च स्वनिवासभुवं विदामपुरं प्रत्यासदम्।  एवं सिन्धुवादः स्वां द्वितीयां सिन्धुयात्रामुपवर्ण्य हितवादाय पूर्ववच्छतं

दीनारान् प्रदाय भूयोऽपि परेऽहनि भोक्तुम् तृतीययात्रावर्णनश्रवणेनात्मानं विनोदयितुञ्च निमन्त्र्य सर्वैरतिथिभिः सह विससर्ज।  अन्येाश्च यथासमयं समुपस्थितेषु तेष्वभ्यागतेषु कृतभोजनेषु सिन्धुवाद एवं स्वां तृतीययात्रां वर्णयितुमारेभे।  

 

 

दूसरी समुद्री यात्रा

मैंने यद्यपि पहली यात्रा के बाद ही विदामपुर में शेष जीवन आनन्दपूर्वक व्यतीत करने का संकल्प किया था, तथापि कुछ दिनों में ही बेकार बैठने के कारण थक गया और फिर से समुद्री यात्रा करने के लिए इच्छुक हो, विक्रेय वस्तुओं का संग्रह कर, एक दिन कुछ विश्वस्त समुद्री यात्रियों के साथ जहाज पर सवार हो यात्रा के लिए निकल पड़ा।

एक द्वीप से दूसरे घूमते हुए, लाभ के साथ विनिमय द्वारा विक्रेय वस्तुओं को बेच कर हम लोग एक दिन ऐसे प्रदेश में आ पहुँचे जो फलों के बोझ से झुके हुए वृक्षों से घिरा होने पर भी अत्यन्त निर्जन था। पश्चात् जब मेरे मित्र उस अरण्य भूमि में फलफूल आदि बटोरने में लगे तो उस समय साथ में लाई हुई कुछ खाद्यसामग्री को लेकर छायादार झरने के किनारे बैठा हुआ मैं खा पीकर अपनी थकावट दूर करते हुए वहाँ सो गया। जागने के बाद उस जहाज को न देखकर आश्चर्यचकित होकर अपने सहयात्रियों को खोजने लगा और उन्हें न पाकर इधर-उधर देखते हुए मैंने बहुत दूर अत्यन्त बेग से बहने वाले उस जहाज को देखा। क्रमशः उस जहाज को आँखों से ओझल होता देखकर मैं निराश हो गया।

इस कठिन परिस्थिति में पहुँचकर मैं जीवन से निराश हो गया और शोक से उच्च स्वर में आक्रोश करते हुए सिर पटकने लगा। उस समय मैं सैकड़ों शंकाआ से घिरा था और बारंबार इस यात्रा की चपलता के लिए अपने को कोस रहा था। किकर्तव्यविमूढ़ हो में एक वृक्ष पर चढ़कर चारों ओर देखते हुए, ऊपर की ओर विशाल आकाश और नीचे की ओर महासमुद्र को छोड़कर कुछ भी न देख सका। पास में ही किनारे पर किसी सफेद वस्तु को देखकर, वृक्ष से उतर कर अवशिष्ट खाद्य सामग्री खाकर यह कौन-सी वस्तु है' इस प्रकार उसे देकने की इच्छा से उसके पास पहुँचा। पहुँचकर एक ऐसी वस्तु देखी जो सौ हाथ की थी तथा फिसलन-भरी होने कारण उस पर चढ़ना कठिन था।

पश्चात् जब सूर्यनारायण अस्ताचल चले गये तब दुर्दिन के समान अकस्मात्  अन्धकार से भरी हुई दिशायें भय उत्पन्न करने लगी। अकस्मात् मेरी ओर वेगपूर्वक आनेवाले अत्यन्त विशाल पक्षी को देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया। पहले मैंने नाविकों से इस प्रकार के विशाल पक्षी की कहानी सुनी थी। अतः मैंने यह निर्णय कर लिया कि यह सफेद वस्तु उसी का अण्डा हैं। कुछ क्षण में यह विशाल पक्षी वृक्षशाखाओं के समान विशाल नख पंजर रखते हुए उस अण्डे पर बैठ गया और थोड़ी देर में सो गया। मैंने धीरे-धीरे उसके पास आकर अपनी पगड़ी के वस्त्रखण्ड द्वारा स्वयं को उसके पंजे में बाधा कि  "कदाचित् प्रातःकाल भोजन के लिए उड़नेवाले उसकी सहायता से इस निर्जस्थान से छुटकारा पा जाऊँ।" मन में यह आशा रखते हुए प्रातःकाल की प्रतीक्षा करते हुए मैंने उस रात्रि को उसी प्रकार व्यतीत किया। प्रभात के समय वस्तुतः उस पक्षी के द्वारा वेगपूर्वक आकाशमार्ग से अदृश्य प्रदेश की ओर ले जाया जाता हुआ मैं अचेत सा हो गया। उतरते ही जब मैंने अपने बन्धन तत्काल काट लिए तब अकस्मात् उसने एक विशाल सर्प को अपनी चोंच से पकड़ा और उड़ चला।

मैं तो अकेले ऐसे घाटी में पड़ा हुआ था जो चारों ओर, कठिनता से आरोहण योग्य गगनचुम्बी शिखरों और चट्टानों से घिरी हुई थी तथा उसमें से निकलना कठिन था। मैं उस यात्रा से जरा भी प्रसन्न नहीं था और अपने भाग्य को कोस रहा था। कुछ समय तक कुण्ठित बुद्धि होकर बैठा रहा।  पश्चात् उठ कर मैंने इधर-उधर घूमते हुए आश्चर्यपूर्वक देखा कि वह प्रदेश अत्यन्त बड़े-बड़े हीरों के समूहों से पटा हुआ है। उनको आश्चर्यपूर्वक देखते हुए पास में ही सैकड़ों विशाल अजगरों को देखकर मैं भयपरवश हो गया।  गुफाओं के समान जिनके जबड़े इतने लम्बे चौड़े थे जिनमें कि हाथी  निगलने का भी पर्याप्त स्थान था।  वे अजगर पूर्ववर्णित उनके सहज शत्रु (गरूड़) पक्षियों के भय से आकुल होकर दिन में पहाड़ी गुफाओं में छिपे रहते थे और अन्धेरा होने पर वहाँ से बाहर निकलते थे। मैंने उस घाटी से निकलते हुए और अवसर पाकर विश्राम करते हुए पूरा एक दिन व्यतीत किया। सूर्य के अस्ताचल चले जाने पर मैंने

एक गुफा देखी। एक चट्टान से उस (गुफा) के द्वार को ढंकते हुए, अजगरों के भय से किसी प्रकार अपने को सुरक्षित समझते हुए, साथ में लाई हुई भोज्य- सामग्री को खाकर आनमरों की फुकार से उद्विग्न होकर मैंने जागते हुए वह रात  

किसी प्रकार व्यतीत की।  सूर्योदय होने पर और उन काल-सपों के चले जाने पर भयभीत होकर उन हीरे की चट्टानों पर घूमते हुए भी मेरे मन में उन्हें उठाने का जरा भी उत्साह नहीं था। रात में जागने के कारण मैं थक गया था। अत: एक चट्टान पर चढ़कर मैं

, सो गया और पास में ही विशाल मांसखण्ड के गिरने के शब्द से मैं जाग गया। पहाड़ी चट्टानों से दूसरे मांसखण्डों भी गिरते हुए देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गया।  पहले जहाजी यात्रियों ने इस हीरे की घाटी का वर्णन किया था और व्यापारियों द्वारा हीरों को प्राप्त करने के लिए किया जाने वाले विचित्र उपाय भी मैं सुन चुका था। उसके प्रति मेरे मन में जरा भी विश्वास नहीं था। वह उपाय यह है कि-साहसी व्यापारी चारों ओर से पहाड़ों पर चढ़कर वहाँ से इस घाटी में मांसखण्डों को गिराते थे। उन मांसखण्ड़ों में अनेक हीरे चिपक जाते थे, उन्हें विशालगिद्ध उठाकर पहाड़ी किनारों के घोसलों की ओर ले जाते थे। उन्हें बीच

में ही शोरगुल द्वारा उड़ाकर वे उन हीरों को आत्मसात करते थे। इस सब बातों पर मैं जरा भी विश्वास नही करता था। परन्तु इस समय मैं उन्हें प्रत्यक्ष देख रहा था। मैंने आत्मरक्षा के लिए पहले कुछ बड़े हीरों को बटोरकर, उन एकत्रित विशालतम हीरों की राशि में अत्यन्त विशाल मांसखण्ड़ों के द्वारा अपने को  

लपेट लिया तथा गिद्धोंके आने की प्रतीक्षा करता हुआ वहाँ निश्चेष्ट पड़ा रहा।  अनन्तर गिद्धों के झुण्ड के वहाँ आने पर उनमें से एक स्थूलकाय गिद्ध मांसखण्ड़ों से लिपटे हुए मुझे चोंच द्वारा पकड़कर ऊपर पहाड़ में स्थित घोसले में ले गया। व्यापारियों ने वहाँ कोलाहल किया। उस गिद्ध को उड़ाकर जब वे

वहाँ एकत्र हुए तो उस अवस्था में मुझे देखकर उन्हें आश्चर्य सम्पूर्ण कहानी सुनकर उन्होंने मेरे धैर्य, साहस और उद्यम की बार-बार प्रशंसा  हुआ।  मेरे द्वारा  

अनन्तर वे व्यापारी मुझे अपने शिविर में ले गए और मेरा यथोचित अतिथि सत्कार किया। मैंने वह रात उन यात्रियों के साथ बिताई। वे मेरे विशाल हीरों को देखकर आश्चर्यचकित हुए। उन्हें कुछ हीरे उपहार में देकर संतुष्ट करते

 

हुए उस भयानक विपत्ति से छुटकारा पाने के लिए मन ही मन भगवान् की स्तुति कर, मैंने सूर्योदय होने पर उनके साथ प्रस्थान किया और सकुशल निकट स्थित बन्दरगाह पहुँचा गया। एक जहाज पर आरूढ़ होकर मैं उस रोहण द्वीप पर पहुँचा जो कपूर के वृक्षो तथा ऐसे गैड़ों से भरा हुआ था जो अपने नाक के विशाल सींग की ताकत से हाथियों तक को चीर सकते थे। वहाँ से छोटे-छोटे हीरों से उस द्वीप में मिलनेवाली वस्तुओं को एकत्र कर थोड़े ही दिनों में वासरपुर पहुँच कर वहाँ से अपने निवासस्थान विदामपुर पहुंचा।

इस प्रकार सिंधुवाद ने हितवाद को अपनी दूसरी सिंधुयात्रा सुनाकर पूर्ववत् सौ दीनार देकर उसे पुनः दूसरे दिन भोजन के लिए निमन्त्रण देकर सब अतिथियों के साथ उसे विदा किया।  दूसरे दिन सब अतिथियों के यथासमय उपस्थित होने और भोजन करने पर सिंधुवाद अपनी तीसरी यात्रा का वृत्तांत इस प्रकार सुनाने लगा-

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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