सिन्धुवादवृत्तम- प्रथम सिन्धुयात्रा

 

प्रथमा सिन्धुयात्रा

"एषोऽहं यौवनावतारे नानाव्यसनलम्पटतया हापितात्मपित्र्यसम्पदधिकभागः सहसोन्मीलितलोचन ईदृशेष्वकार्येषु धनकालयोwयेनानुतप्यमानो, वार्द्धके निर्धनतया संभाव्यमानानि तानि तानि दुःखन्यालोचयन् व्यग्रमानसोऽभवम्।

“श्रेयो निधनं न निर्धनता” इति पितुरुपदेशमसकृत् स्मरन् तस्य च याथार्थ्यमन्तर्विभावयन्नवशिष्टं गृहतत्परिकरादि सर्वं वस्तुजातं

विक्रीय सञ्चितकिञ्चिद्धननिचयस्तेन च क्रीतनानानविधपण्यगण,सांयात्रिकैः सह कृतपरिचयः, समुद्रयात्राप्रवणमानसो वासरपुरं नाम सिन्धुरोधः स्थितं नगरवरं गत्वा वणिग्जनैः सम्भूय स्वधनव्ययेन सकलोपकरणैः सज्जीकृतं प्रवहणमेकं समधिरूढ़ः सिन्धुयात्रायै प्रचलम्। प्रस्थितमात्र एंव समुद्रयात्रापरायणजनसुलभाऽस्वास्थ्यं गतः किंचित्सचिन्तोऽपि कियता कालेन स्वस्थतनुरनेकान्यन्तरीपाणि सम्प्राप्य वस्त्वन्तरविमिमयेन सहानीतं वस्तुजातं विक्रीय किंचिद्धनमुपार्जयम्।

एकस्मिन्नहनि सवेगं वहति पोते तदधिरूढाः सर्वे वयं जलमध्यादुदत हरितवर्णेन तुलितनवशाद्वलस्थलं नातिविशालं  द्वीपमेकम- द्राक्ष्म। पोताध्यक्षे च पोतगतिं समवरुद्ध्य तं द्वीपमवरुरुक्षून् कांश्चित् प्रवहणाधिरुढाँस्तथा कर्तुम् कृतानुमतौ तैः सार्धमहमपि तत्रावातरम्।  अथास्मासु भोजनपानादिभिर्विनोदैः सिन्धुयात्राक्लममपनयत्सु सहसा विचलन् स द्वीपः कमप्यनुत्प्रेक्षणीयं महाभसम्भ्रमं जनयामास।  पोतस्था जनाश्च तं भूमिकम्पमवलोक्य सपदि प्रवहणमारोढुमस्मा- नुच्चैराह्वयन्। स चास्माभिरन्तरीपतया गृहीतो वस्तुतोऽनेकगव्यूतिपरिणाहो महाग्राह आसीत्, तत्र च केचिच्चपला: पोतसंप्राप्तये सपदि प्लवानारुरुहुः। परे चात्मानं सिन्धौ निक्षिप्य बाहुभ्यां तरणे तत्परा बभूवुः। अहं तु तत्रैव द्वीपत्वेनाध्यवसिते महाग्राहे स्थितः क्षणात्तस्मिन् सिन्धुतलनिमग्ने दैवादधिगतं काष्ठफलकमेकमवलम्ब्योत्तालकल्लोलमालाभिरुपर्यधश्च क्षिप्यमाणो दैवमाक्रोशन्ननन्यशरणोऽभवम्।  अत्रान्तरे पोताध्यक्षः पवनमनुकूलमुपलभ्य पोतोपस्थितैः कतिभिर्जनैः सह मां तस्यामवस्थायामाशरणं समुत्सृज्य प्रयाणमकरोत्। अहं च तं सकल दिवसं निशीथिनी च फलकाश्रयेण प्लवमानो नैर्बल्यनैराश्याभ्यां परिगृहीतः प्रत्यूषे सावशेषतयाऽऽयुषो दुरारोहरोधस्तटं किञ्चिदन्तरीपमा- साथ शाखिप्ररोहावलम्बेन कथङ्कथमपि तीरभूमावात्मानमपातयम्।  अथोदिते भगवति गभस्तिमालिनि परिश्रमातिशयेन नितान्तं क्लान्तगात्रश्चलितुमप्यक्षमः शुत्क्षामकण्ठो मन्दं मन्दं प्रसर्पन् वृक्षावशीर्णानि कानिचित्फलानि जग्ध्वा पीत्वा च दैवात् तत्राधिगतं स्त्रोतोजले किञ्चिदुच्छ्वसित इतस्ततो निरूपयन् कञ्चनातिमनोहरं शावलं तन च चरन्तीमेकस्यां स्थूणायां संयतां मनोहारिणीं वंडवामेकामपश्यम्। सभयकूतूहलं तामुपसृत्य निर्वर्णयन् भूमिग दुत्थितं मनुजशब्दमशृणवम्। एकश्च जनस्तत्क्षणं मामुपेत्य "भद्र! कस्त्वम्? कुतः समायातः?" इत्यपृच्छत्। श्रुतमदुदन्तोऽसौ मां हस्तेऽवलम्ब्य कतिपयैरपरैः पुरुषै- रधिष्ठितं गह्वरमेकमनयत्। तत्र तेषां सन्दर्शनेनाहमिव तेऽपि मां विलोक्य विस्मितास्तस्थुः।  तदनु तैरुपहृतं किञ्चिदशनं भुक्त्वा मया तत्र निर्जनोद्देशेऽवस्थितिकारणं पृष्ठास्त एवमब्रुवन् -  "वयं खलु एतद्द्वीपाधिपस्य महाराजमिहिरस्याश्वपालास्तदीया: काश्चिद्वडवा गहीत्वा प्रतिहायनमेतस्मिन् ऋताविहागमनशीलेन सैन्धवेन वाजिना ताः संयोज्याद्भुतनवतुरङ्गोत्पादने नियोजिता इहागच्छामः। आहितगर्भाश्च ताः गृहीत्वा भूयस्तं प्रापयामः। एवमुत्पन्ना अभिनवा वाजिनः सैन्धवा नाम कथ्यन्ते। केवलं राजवाह्यतां चोपयान्ति। श्वो वयमिता प्रस्थास्यामहे।  दिष्ट्याऽद्य सम्प्राप्तोऽसि। अन्यथा नूनमत्र विजनप्रदेशेऽलब्ध- जीवनसाधन उपरतोऽभविष्य इति।  तेषु चैवं वदत्सु सहसा तैरुपवर्णितः स सैन्धवोऽश्वो जलाभ्यन्त- रादाविर्भूय ता वडवा आक्रमितुम् कृतसंरम्भस्तैरश्वपालैः कोलाहलेन विद्रावितो भूयो जलाभ्यन्तरे न्यमज्जत्। अन्येचुर्गृहीतवडवैस्तैः सह तद्द्वीपाधिराजस्य महाराजमिहिरस्य राजधानीं गतोऽहं कृतराजदर्शनः सुकुतुकं पृष्टो निखिलं स्ववृत्तमाख्याय दयाहृदयेन तेनोदाराशयेन प्रसादीकृतेन द्रविणविसरेण प्रमुदित- मनास्तत्रैवाऽवात्सम्। तत्र च वसन् मदेककर्मभिः सार्थवाहैर्विशेषतो वैदेशिकैर्विदामपुरवार्ताजिज्ञासया तदुद्दिश्य गन्तुकामैः कैरपि सह 

प्रतिजिगमिषया चोपचितपरिचयः सद्भिः सङ्गच्छमानस्तद्वार्तालापेनात्मानं विनोदयन् मिहिरराजसभा प्रत्यहमुपतिष्ठमानस्तत्सामन्तभूमिपालैरधिकारिवगैश्च सह परिवर्धितप्रणयस्तान् स्वदेशवृत्तान्तैर्विनोदयन् कञ्चन कालमयापयम्।

एवं वहत्यनेहसि सोऽहमेकस्मिन्नहनि पोतावतारसिन्धुरोधसि स्थित आरात् द्वीपमुपसर्पन्तं पोतमेकं दृशोर्विषयतामनैषम्।

अथावतारितपोतावरोधनकीलेषु पोतवाहेषु पोतगतपण्यराशीनधितटं

प्रापय त्सु वणिग्जनेषु च रोधःस्थितेषु संसमभ्रमं स्वस्ववस्तुजातायत्तीकरणप्रवणेषु, विलिखितात्मनामधेयान् समुद्कान् निरीक्ष्य 'त इमे मदीया एव प्रयाणसमये पोतमारोपिताः समुद्गका' इति निश्चित्य प्रत्यभिज्ञाय च तं पोताध्यक्षमहमपृच्छम्

"आर्य! कस्यैते समुद्गका?" स प्रत्युवाच- "ऐते-खलु मत्पोतमधिरूढपूर्वस्य विदामपुरनिवासिन

आर्यसिन्धवादस्य सम्पुटकाः। एकस्मिन्नहनि सिन्धुमध्यान्निर्गत्यावस्थित महाग्राहमेकं भ्रमादन्तरीपं मन्वानेष्वस्मासु कतिपये सिन्धुवादसहितास्तत्राऽवतीर्य पाकादिक्रियां कर्तुमारभन्त। तत्तापेनोद्विग्नश्च स ग्राहः सहसैव सिन्धुतले न्यमज्जत्। तस्मिन्नतिघोरसङ्खटे तेषु बहवो जनाः सिन्धुतलं प्रापुः ससिन्धुवादा:। सांप्रतं तदीयं पण्यराशिमेतत्समुद्गकसन्दोहस्थं विक्रीय तल्लाभरूपमखिलं वसु यः कश्चन तस्य रिक्थहरस्तस्मै

प्रतिपाद्य विगतचिन्तो भवितुमिच्छामि" इति।

- अहं तमवदम् “आर्य! सोऽहं सिन्धुवादो यं भवानुपरतं मन्यते। तदेते मदीयाः सम्पुटका" इति। स पुनः "अहो अलीकपरता

स्वार्थपरस्य जनस्य। ननु साक्षात्कृततद्विनाशेन मया कथङ्कारं भवान् श्रद्धीयताम्"? इति सोल्लुण्ठमवदत्।

मा"अहं च तं मामेवमश्रद्दधानं सकलं भूतार्थमवर्णयम्।

मद्वचनाकर्णनविगतनमोऽसौ मां निर्वर्ण्य प्रत्यभिजानन् सप्रमोदमुवाच"दिष्ट्या भवाँस्तां प्रतिभयां विपदं समुत्तीर्णः। क्षमस्व मदविनयम् आयत्तीकुरु च स्वपण्यगणम्" इति। कृतज्ञतया मया प्रदीयमानं किमपि पारितोषिकं सविनयमसौ प्रत्याचख्यौ।

तेषु च पण्यद्रव्येषु कानिचिन्महा_णि मिहिरमहीपतये समुपहृत्य विज्ञाततदागमवृत्तेन प्रसन्नात्मना तेन सादरं सबहुमानं वितीर्णप्रचुर-विभवस्तमामन्त्र्य भूयस्तदेव प्रवहणमधिरूढा पण्यविनिमयेन संगृहीतचन्दन-कर्पूर-मरिच-मुखतत्रत्यवस्तुनिचयस्ततः प्रस्थितो वर्त्मनि नैकान् द्वीपान् विलोकयन् वासरनगरमेत्य ततः प्रयातः स्वं सदन प्रत्यागमम्। अनया च यात्रया समुपार्जितलक्षाधिकदीनारोऽहमिदं हमेवर दासान् दासीश्च पर: शता क्रीत्वाऽत्र प्रतिष्ठितोऽभवम्। विस्मृत्य चानुभूतपूर्वाः समस्ता विपदः सुखोपभोगैकप्रवणोऽवसम्।"

इत्येवमुक्त्वा स सिन्धुवादो भूयः पानभोजनसङ्गीतप्रभृतिभिः कञ्चन कालमात्मानं विनोद्य सर्वांस्तान् समेतानतिथिवरान् विसृज्य शतं दीनारान् हितवादाय प्रदाय “भद्र! गृहाणैतत्किमप्यस्मत्प्रणयचिह्नम्। श्वः पुनरागम्यताम्। अहं भूयोऽप्यात्मवृत्तं श्रावयितास्मि' इत्युत्वा तं स्वगृहं गन्तुम् समनुमेने। सानन्दो हितवादोऽन्येयुर्विधृतविमलनववेषः पुनस्तद्गृहं गतस्तेन

स्निग्धया दृशा स्वागतीकृतः कृतकृत्यमात्मानममन्यत। अथ समुपस्थितेष्वन्येषु सभ्यजनेषु सिन्धुवादोब्रवीत्-अद्याहं मामकी

द्वितीयसिन्धुयात्रां प्रथमयात्राया अत्यधिकचमत्कारिणीमुपवर्णयिष्यामि।

श्रूयताम्

 

पहली समुद्री यात्रा

मैं जवानी के आरम्भ में अनेक व्यसनों में आसक्त रहने के कारण अपनी पैत्रिक सम्पत्ति का अधिकांश भाग खर्च कर चुका था। अचानक मेरी आँखे खुली और इस प्रकार के दुष्कर्मों में धन और समय का अपव्यय करने से मैं पश्चाताप करने लगा तथा वृद्धावस्था में निर्धनता के कारण सम्भावित नाना दुखों की कल्पना करते हुए व्यग्र हो गया। मरण श्रेयस्कर है किन्तु निर्धनता नहीं। पिताजी के इस उपदेश को बारम्बार स्मरण करते हुए और उसकी वास्तविकता का मन में अनुभव करते हुए बचे हुये घर और सम्बद्ध चल- अचल सम्पत्ति को बेचकर मैंने उससे कुछ धन एकत्र किया और उसके द्वारा कुछ विक्रेय वस्तुयें खरीदी और यात्रियों से परिचय बढ़ाते हुये समुद्री-यात्रा करने की इच्छा से उनके साथ वासरपुर नाम के समुद्र तटवर्ती नगर में पहुँचा। व्यापारियों के साथ अपना धन खर्च करके सम्पूर्ण सामग्रियों से सुसज्जित एक जहाज पर सवार होकर समुद्र यात्रा के लिये चल पड़ा। प्रस्थान के उपरान्त ही यद्यपि समुद्री यात्रियों को होने वाली अस्वस्थता का अनुभव कर रहा था और कुछ चिन्तामग्न था तथापि कुछ समय के बाद स्वस्थताका अनुभव करते हुये मैं अनेक द्वीपों में पहुंचा और वस्तु-विनिमय प्रणाली द्वारा साथ लायी। सामग्री को बेचकर मैंने कुछ धनोपार्जन किया। एक दिन जब प्रवाह के साथ जब हमारा जहाज आगे की ओर बढ़ रहा था तह हम लोगों ने जल के बीच में से निकले हुये एक द्वीप को देखा जो हरे रंग का होने कारण हरे-भरे चरागाह के समान प्रतीत हो रहा था। जहाज के मालिक द्वारा उसकी गति रोके जाने पर सभी यात्रियों ने उस द्वीप पर उतरना चाहा। ऐसा करने की अनुमति मिलते ही उनके साथ मैं भी उस द्वीप पर उतर पड़ा। हम दो भोजन, जलपान आदि सैर-सपाटों द्वारा जहाजो यात्रा की थकावट को दूर कर ही रहे थे कि अकस्मात् वह द्वीप हिलने-डुलने लगा और उससे कल्पनातीत भयावह स्थिति उत्पन्न हुई।  जहाज पर सवार लोग उस भूकम्प को देखकर तत्काल जहाज पर सवार होने के लिए हम लोगों को जोर-जोर से पुकारने लगे। जिसे हमलोगों ने द्वीप समझा था वह वस्तुतः अनेकों कोसों (गव्यूति) में फैला हुआ महाग्राह था। उस पर सवार कुछ फुर्तीले लोग जहाज पर पहुँचने के लिए तत्काल नौकाओं पर सवार हुए और दूसरे समुद्र में कूदकर बाहुओं के सहारे तैरने लगे। मैं तो द्वीप के भ्रम में उस महाग्राह पर खड़ा ही था कि इतने में वह महाग्राह समुद्रतल में डूब गया। किन्तु भाग्यवश प्राप्त एक लकड़ी के लठे के सहारे उत्ताल तरंग-परम्पराओं से ऊपर-नीचे फेका जाता हुआ अशरण होकर भाग्य को मैं कोसने लगा।  इस बीच जहाज के मालिक ने हवा का रूख अनुकूल पाकर जहाज पर सवार कुछ लोगों के साथ उसी अवस्था में मुझ अनाथ को छोड़कर प्रस्थान किया : मैं उस पूरे दिन और रात भर पटरे के सहारे तैरता रहा तथा दुर्बलता और निराशा ने मुझे घेर लिया। प्रभातकाल में आयु शेष होने के कारण ऐसे द्वीप पर पहुँचा जिसके तट पर चढ़ना कठिन था, किन्तु वृक्षों की जड़ों के सहारे मैंने किसी प्रकार उसके तट पर अपने को पहुँचाया।  भगवान् सूर्य नारायण के उदय होने पर यद्यपि अत्यन्त परिश्रम के कारण मेरा शरीर खूब चकनाचूर हो गया था, मैं चल भी नहीं सकता था, भूख प्यास के कारण मेरा कण्ठ अवरुद्ध था, ऐसी स्थिति में धीरे-धीरे सरकते हुए पेड़ के नीचे गिरे हुए, कुछ फलों को खाकर और दैववश प्राप्त झरने के जल को पीकर मेरे प्राण में प्राण आये। मैं इधर-उधर देखने लगा। मैंने वहाँ एक सुन्दर चरागाह को भी देखा जहाँ एक खूटी से बँधी सुन्दर घोड़ी चर रही थी। भय और उत्सुकता से उसक पास आकर उसे देखते हुए मैंने जमीन के अन्दर से आने वाले मनुष्य के शब्द को सुना और एक व्यक्ति ने तत्काल ही मेरे पास आकर पूछा-  “महोदय ! आप कौन हैं? और कहाँ से आये।" उसने मेरी कहानी सुनकर मेरा हाथ पकड़ कर मुझे ऐसी गुफा में ले गया, जहाँ दूसरे लोग भी थे। वहाँ उन्हें देखकर मैं जिस प्रकार आश्यर्यचकित हुआ उसी प्रकार वे भी मुझे देखकर आश्चर्यचकित हुए। पश्चात् उनके द्वारा दी गयी। भोज्यसामग्री को खाकर जब मैंने उस निर्जन स्थान में रहने का कारण पूछा तब उन्होंने मुझसे इस प्रकार कहा.

"हमलोग इस द्वीप के स्वामी महाराज मिहिर के अश्वपाल हैं और उनकी कुछ घोड़ियों को लेकर प्रतिवर्ष इस ऋतु में यहाँ आनेवाले सैंधव (अरबी) घोड़ों के साथ उनका संयोग कराते हैं। क्योंकि हमलोग अद्भुत नवीन अश्वोत्पादन के लिए नियुक्त किए गये हैं और यहाँ आते। गर्भ धारण के पश्चात् उन्हें लेकर हम पुनः अपने स्वामी के पास पहुँचाते हैं। इस प्रकार उत्पन्न अभिनव अश्व 'सैंधव' कहलाते हैं, ऐसे घोड़े केवल राजा का वाहन ही बन सकते हैं। हम लोग कल यहाँ से प्रयाण करेंगे।  भाग्य से तुम आज यहाँ पहुँचे हो। अन्यथा निश्चित रूप से इस निर्जन प्रदेश में बिना जीने के साधन के तुम मर जाते।"  वे इस प्रकार बोल ही रहे थे कि इतने में उनके द्वारा वर्णित वह सैन्धव अश्व जल के भीतर से निकला और घोड़ियों से सम्भोग करने के लिए प्रयास करने लगा। अश्वपालों के कोलाहल से वह फिर जल के भीतर प्रविष्ट हो गया।.....

दूसरे दिन घोड़ियाँ लेकर वापस जाने वाले उन अश्वपालों के साथ मैं उस द्वीप के महाराज मिहिर की राजधानी पहुंचा और उनका दर्शन किया। उत्सुकतापूर्वक पूछे जाने पर मैंने अपनी सम्पूर्ण कहानी उन्हें सनाई और उन्होंने दयार्द्र होकर उदार अन्तःकरण से धनराशि उपहारस्वरूप अर्पित की, जिससे प्रसन्न होकर मैं वहीं रहने लगा। वहाँ पर रहते हुए मेरे सहकर्मी कतिपय सार्थवाहकों के विशेषतः विदेशी व्यापारियों के साथ जो विदामपुर की खबर जानने की इच्छा से

वहाँ जाना चाहते थे उनसे मैंने वापस जाने की इच्छा से परिचय बढ़ाया तथा सज्जनों से सत्सङ्ग करते हुए तथा वार्तालाप के द्वारा अपना मनोरंजन कर मैं प्रतिदिन राजा मिहिर की राजसभा में भी उपस्थित होने लगा और वहाँ उपस्थित सामन्तों, राजाओं और अधिकारियों के साथ प्रेम बढ़ाते हुए तथा उनका स्वदेश * सम्बन्धी वार्ताओं द्वारा मनोरंजन करके मैंनं वहाँ कुछ समय व्यतीत किया। इस प्रकार समय बीत ही रहा था कि मैंने एक दिन समुद्री बन्दरगाह के तट पर खड़े होकर पास में ही उस द्वीप की ओर आनेवाले एक जहाज को देखा। अनन्तर जब जहाज के चलाने वालों ने जहाज को बाँधने वाले लङ्गर (कीलों)

को उतार दिया तथा तब जहाज की विक्रेय वस्तुओं को किनारे पहुँचा दिया और उस पर के व्यापारी शीघ्रतापूर्वक उस पर रखी हुई माल की पेटियाँ जिनपर उनका नाम लिखा हुआ था उनको लेने लगे, उन्हें देखकर मैंने “यह मेरी पेटियाँ हैं जिन्हें प्रयाण के समय जहाज पर चढ़ाया था" इस प्रकार निश्चयपूर्वक पहचाना तब मैंने उस जहाज के मालिक से पूछा"महोदय !ये किसकी पेटियाँ हैं?" उसने उत्तर दिया-“मेरे जहाज पर सवार होनेवाले विदामपर के निवासी

आर्य सिंधुवाद की पेटियाँ हैं। एक दिन समुद्र के बीच से निकले हुए महाग्राह पर जिसे हम लोगों ने भ्रम से द्वीप समझ लिया था उनमें से सिन्धुवाद के साथ कुछ लोग वहाँ उतरकर रसोई आदि बनाने लगे। उसकी गर्मी से घबड़ाकर वह ग्राह

अकस्मात् समुद्र की तलहटी में डूब गया। इस भयावह विपत्ति में बहुत से लोग सिंधुवाद के साथ समुद्र की तलहटी में पहुँच गये। इस समय इन पेटियों में रखी हुयीं उसकी विक्रेय वस्तुओं को बेचकर उसके लाभ का धन जो कोई उसका

उत्तराधिकारी होगा उसे सौंप कर, मैं निश्चिन्त होना चाहता हूँ।"

मैंने उससे कहा-"महोदय! मैं ही सिंधुवाद हूँ। जिसे आप मृत समझते हैं। ये मेरी ही पेटियाँ हैं।" मावह फिर अविश्वासपूर्वक बोला-"अरे ! स्वार्थी लोग कितने झूठ बोलते हैं। मैंने स्वयं उसकी मृत्यु को देखा है। मैं आप पर किस प्रकार विश्वास करूँ।"

मेरे ऊपर इस प्रकार अविश्वास करने वाले उस व्यक्ति को तब मैंने सम्पूर्ण वास्तविकता समझाई। मेरा वचन सुनकर उसका भ्रम दूर हो गया और मुझे देखकर पहचानते हुए हर्षपूर्वक बोला

भाग्य से आप भयावह विपत्ति को पार कर गये हैं। आप मेरे अशिष्ट आचरण को क्षमा करें और अपनी वस्तुयें अपने अधीन करें। कृतज्ञता के कारण मेरे द्वारा दिए स्वल्प पारितोषिक को भी उसने नम्रता से लेना अस्वीकार कर दिया। उन विक्रेय वस्तुओं में से कुछ बहुमूल्य वस्तुओं को मैंने राजा मिहिर को उपहार के रूप में समर्पित किया। उन व्यापारियों के आगमन के वृत्तान्त से वे प्रसन्न हो गए और उन्होंने सादर प्रचुर धन समर्पित किया। मैं उनसे बिदा लेकर उस जहाज पर फिर से सवार हो गया और विनिमय प्रणाली से चन्दन, कपूर मरिच आदि वस्तुओं का संग्रह कर वहाँ से निकल पड़ा। वहाँ से मार्ग में अनेक द्वीपों का अवलोकन करते हुए वासरनगर आया। वहाँ से प्रस्यान कर अपने घर पहुँचा। इस यात्रा से मैंने लाखों दीनार (गिन्नी) अर्जित किए और उनके द्वारा महाप्रासाद तथा सैकड़ों दास दासियों को खरीद कर यहाँ प्रतिष्ठापूर्वक रहने लगा। इस समय पूर्वानुभूत समस्त आपत्तियों को भूलकर मैं अत्यन्त सुख का उपभोग कर रहा हूँ।"

यह कहकर सिंधुवाद ने पुनः पान, भोजन, संगीत आदि के द्वारा कुछ समय तक अपना मनोरंजन कर उन अतिथियों को बिदा कर सौ दीनार हितवाद को देते हुए उसने कहा-“महोदय ! हमारा यह स्वल्प प्रेमोपहार आप स्वीकार करें। कल पुनः आइए। मैं पुनः आपको अपनी कहानी सुनाऊँगा। ऐसा कहकर उन्होंने उसे अपने घर जाने की अनुमति दी।

दूसरे दिन हितवाद आनन्द के साथ स्वच्छ वेषभूषा में पुनः उसके घर गया।स्नेहमयी दृष्टि से उसके द्वारा स्वागत किए जाने पर अपने को कृतकृत्य समझा। पश्चात् सभासदों के उपस्थित होने पर सिंधुवाद ने उनसे कहा-“आज मैं आपको अपनी दूसरी समुद्री यात्रा की कहानी सुना रहा हूँ। जो पहली यात्रा से भी आश्चर्यकारक हैं। सुनिए

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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