7.रामा-महादेवी वर्मा

 7.रामा-महादेवी वर्मा

रामा हमारे यहाँ कब आया, यह न मैं बता सकती हूँ और न मेरे भाई-बहिन। बचपन में जिस प्रकार हम बाबूजी की विविधता भरी मेज से परिचित थे, जिसके नीचे दोपहर के सन्नाटे में हमारे खिलौनों की सृष्टि बसती थी, अपने लोहे के स्प्रिंगदार विशाल पलँग को जानते थे, जिस पर सोकर हम कच्छ-मत्स्यावतार जैसे लगते थे और माँ के शंख-घड़ियाल से घिरे ठाकुरजी को पहचानते थे, जिनका भोग अपने मुँह अन्तर्धान कर लेने के प्रयत्न में हम आधी आँखें मींचकर बगुले के मनोयोग से घंटी की टन-टन गिनते थे, उसी प्रकार नाटे, काले और गठे शरीरवाले रामा के बड़े नखों से लम्बी शिखा तक हमारा सनातन परिचय था।

रहता था, उसकी स्थायी संधि केवल कहानी सुनते समय होती थी। दस भिन्न दिशाएँ खोजती हुई उँगलियों के बिखरे साँप के पेट जैसी सफेद हथेली और पेड़ की टेढ़ी-मेढ़ी गाँठदार टहनियों जैसी उँगलियों वाले हाथ की रेखा-रेखा हमारी जानी-बूझी थी, क्योंकि मुँह धोने से लेकर सोने के समय तक हमारा उससे जो विग्रह चलता कुटुम्ब को बड़े-बूढ़े के समान सँभाले हुए काले स्थूल पैरों की आहट तक हम जान गए थे, क्योंकि कोई नटखटपन करके हैले से भागने पर भी वे मानो पंख लगाकर हमारे छिपने के स्थान में जा पहुँचते थे।

                    शैशव की स्मृतियों में एक विचित्रता है। जब हमारी भावप्रणवता गम्भीर और प्रशान्त होती है, तब अतीत की रेखाएँ कुहरे में से स्पष्ट होती हुई वस्तुओं के समान अनायास ही स्पष्ट-से-स्पष्टतर होने लगती हैं; पर जिस समय हम तर्क से उनकी उपयोगिता सिद्ध करके स्मरण करने बैठते हैं, उस समय पत्थर फेंकने से हटकर मिल जाने वाली, पानी की काई के समान विस्मृति उन्हें फिर-फिर ढक लेती है।

                    रामा के संकीर्ण माथे पर की खूब घनी भौहें और छोटी-छोटी स्नेहतरल आँखें कभी-कभी स्मृति-पट पर अंकित हो जाती हैं और कभी धुँधली होते-होते एकदम खो जाती हैं। किसी थके झुँझलाए शिल्पी की अन्तिम भूल जैसी अनगढ़ मोटी नाक, साँस के प्रवाह से फैले हुए-से-नथुने, मुक्त हँसी से भरकर फूले हुए-से ओठ तथा काले पत्थर की प्याली में दही की याद दिलाने वाली सघन और सफेद दन्त-पंक्ति के सम्बन्ध में भी वही सत्य है।

                    रामा के बालों को तो आध इंच अधिक बढ़ने का अधिकार ही नहीं था, इसीसे उसकी लम्बी शिखा को साम्य की दीक्षा देने के लिए हम कैंची लिए घूमते रहते थे। पर वह शिखा तो म्याऊँ का ठौर थी, क्योंकि न तो उसका स्वामी हमारे जागते हुए सोता था और न उसके जागते हुए हम ऐसे सदनुष्ठान का साहस कर सकते थे।

कदाचित् आज कहना होगा कि रामा कुरूप था; परन्तु तब उससे भव्य साथी की कल्पना भी हमें असह्य थी।

वास्तव में जीवन सौन्दर्य की आत्मा है; पर वह सामंजस्य की रेखाओं जितनी मूर्तिमत्ता पाता है, उतनी विषमता में नहीं। जैसे-जैसे हम बाह्य रूपों की विविधता में उलझते जाते हैं, वैसे-वैसे उनके मूलगत जीवन को भूलते जाते हैं। बालक स्थूल विविधता से विशेष परिचित नहीं होता, इसी से वह केवल जीवन को पहचानता है। जहाँ से जीवन से स्नेह-सद्भाव की किरणें फूटती जान पड़ती है, वहाँ वह व्यक्ति विषम रेखाओं की उपेक्षा कर डालता है और जहाँ द्वेष, घृणा आदि के धूम से जीवन ढका रहता है, वहाँ वह सामंजस्य को भी ग्रहण नहीं करता।

 

इसी से रामा हमें बहुत अच्छा लगता था। जान पड़ता है, उसे भी अपनी कुरूपता का पता नहीं था, तभी तो केवल एक मिर्जई और घुटनों तक ऊँची धोती पहनकर अपनी कुडौलता के अधिकांश की प्रदर्शनी करता रहता था। उसके पास सजने के उपयुक्त सामग्री का अभाव नहीं था, क्योंकि कोठरी में अस्तर लगा लम्बा कुरता, बँधा हुआ साफा, बुन्देलखंडी जूते और गँठीली लाठी किसी शुभ मुहूर्त की प्रतीक्षा करते जान पड़ते थे। उनकी अखण्ड प्रतीक्षा और रामा की अटूट उपेक्षा से द्रवित होकर ही कदाचित् हमारी कार्यकारिणी समिति यह प्रस्ताव नित्य सर्वमत से पास होता रहता था कि कुरते की बाँहों में लाठी को अटकाकर खिलौनों का परदा बनाया जावे, डलिया जैसे साफे को खूँटी से उतारकर उसे गुड़ियों का हिंडोला बनने का सम्मान दिया जावे और बुन्देलखंडी जूतों को हौज में डालकर गुड्डों के जल-विहार का स्थायी प्रबन्ध किया जावे; पर रामा अपने अँधेरे दुर्ग में चर्रमर्र स्वर में डाटते हुए द्वार को इतनी ऊँची अर्गला से बन्द रखता था कि हम स्टूल पर खड़े होकर भी छापा न मार सकते थे।

                    रामा के आगमन की जो कथा हम बड़े होकर सुन सके, वह भी उसी के समान विचित्र है। एक दिन जब दोपहर को माँ बड़ी, पापड़ आदि के अक्षय-कोष को धूप दिखा रही थीं, तब न जाने कब दुर्बल और क्लान्त रामा आँगन के द्वार की देहली पर बैठकर किवाड़ से सिर टिकाकर निश्चेष्ट हो रहा। उसे भिखारी समझ जब उन्होंने निकट जाकर प्रश्न किया, तब वह ‘ए मताई, ए रामा तो भूखन के मारे जो चलो’ कहता हुआ उनके पैरों पर लेट गया। दूध, मिठाई आदि का रसायन देकर माँ जब रामा को पुनर्जीवन दे चुकीं, तब समस्या और जटिल हो गई, क्योंकि भूख तो ऐसा रोग नहीं, जिसमें उपचार का क्रम टूट सके। वह बुन्देलखंड का ग्रामीण बालक विमाता के अत्याचार से भागकर माँगता-खाता इन्दौर तक जा पहुँचा था, जहाँ न कोई अपना था और न रहने का ठिकाना। ऐसी स्थिति में रामा यदि माँ की ममता का सहज ही अधिकारी बन बैठा, तो आश्चर्य क्या !

                    उस दिन सन्ध्या समय जब बाबूजी लौटे, तब लकड़ी रखने की कोठरी के एक कोने में रामा के बड़े-बड़े जूते विश्राम कर रहे थे और दूसरे में लम्बी लाठी समाधिस्थ थी। और हाथ-मुँह धेकर नये सेवा-व्रत में दीक्षित रामा हक्का-बक्का-सा अपने कर्तव्य का अर्थ और सीमा समझने में लगा हुआ था।

                    बाबूजी तो उसके अपरूप को देखकर विस्मय-विमुग्ध हो गये। हँसते-हँसते पूछा-यह किस लोक का जीव ले आए हैं धर्मराज जी ! माँ के कारण हमारा घर अच्छा-खासा ‘जू’ बना रहता था। बाबूजी जब लौटते, तब प्रायः कोई लँगड़ा भिखारी बाहर के दालान में भोजन करता रहता, कभी कोई सूरदास पिछवाड़े के द्वार पर खँजड़ी बजाकर भजन सुनाता होता, कभी पड़ोस का कोई दरिद्र बालक नया कुरता पहनकर आँगन में चौकड़ी भरता दिखाई देता और कभी कोई वृद्ध ब्राह्मणी भंडारघर की देहली पर सीधा गठियाते मिलती।

बाबूजी ने माँ के किसी कार्य के प्रति कभी कोई विरक्ति नहीं प्रकट की; पर उन्हें चिढ़ाने में सुख का अनुभव करते थे।

रामा को भी उन्होंने क्षण भर का अतिथि समझा, पर माँ शीघ्रता में कोई उत्तर न खोज पाने के कारण बहुत उद्विग्न होकर कह उठीं—मैंने खास अपने लिए इसे नौकर रख लिया है। जो व्यक्ति कई नौकरों के रहते हुए भी क्षण भर विश्राम नहीं करता, वह केवल अपने लिए नौकर रखे, यही कम आश्चर्य की बात नहीं, उस पर ऐसा विचित्र नौकर। बाबूजी का हँसते-हँसते बुरा हाल हो गया। विनोद से कहा--‘ठीक ही है, नास्तिक जिनसे डर जावें, ऐसे खास साँचे में ढले सेवक ही तो धर्मराजजी की सेवा में रह सकते हैं।’

                    उन्हें अज्ञातकुलशील रामा पर विश्वास नहीं हुआ; पर माँ से तर्क करना व्यर्थ होता, क्योंकि वे किसी की पात्रता-अपात्रता का मापदण्ड अपनी सहज-संवेदना ही को मानती थीं। रामा की कुरूपता का आवरण भेदकर उनकी सहानुभूति ने जिस सरल हृदय को परख लिया, उसमें अक्षय सौंदर्य न होगा, ऐसा सन्देह उनके लिए असम्भव था।

इस प्रकार रामा हमारे यहाँ रह गया, पर उसका कर्तव्य निश्चित करने की समस्या नहीं सुलझी।

सब कामों के लिए पुराने नौकर थे और अपने पूजा और रसोईघर का कार्य माँ किसी को सौंप ही नहीं सकती थीं। आरती, पूजा आदि के सम्बन्ध में उनका नियम जैसा निश्चित और अपवादहीन था, भोजन बनाने के सम्बन्ध में उससे कम नहीं।

एक ओर यदि उन्हें विश्वास था कि उपासना उनकी आत्मा के लिए अनिवार्य है, तो दूसरी ओर दृढ़ धारणा थी कि उनका स्वयं भोजन बनाना हम सबके शरीर के लिए नितान्त आवश्यक है। हम सब एक-दूसरे से दो-दो वर्ष छोटे-बड़े थे, अतः हमारे अबोध और समझदार होने के समय में विशेष अन्तर नहीं रहा। निरन्तर यज्ञ-ध्वंस में लगे दानवों के समान हम माँ के सभी महान् अनुष्ठानों में बाधा डालने की ताक में मँडराते रहते थे, इसी से रामा को, हम विद्रोहियों को वश में रखने का गुरु-कर्तव्य सौंपकर कुछ निश्चिन्त हो सकीं।

रामा सवेरे ही पूजा-घर साफ कर वहाँ के बर्तनों को नींबू से चमका देता—तब वह हमें उठाने जाता। उस बड़े पलँग पर सवेरे तक हमारे सिर-पैर की दिशा और स्थितियों में न जाने कितने उलट-फेर हो चुकते थे। किसी की गर्दन को किसी का पाँव नापता रहता था, किसी के हाथ पर किसी का सर्वांग तुलता होता था और किसी की साँस रोकने के लिए किसी की पीठ की दीवार बनी मिलती थी। सब परिस्थितियों का ठीक-ठीक ज्ञान प्राप्त करने के लिए रामा का कठोर हाथ कोमलता से छद्मवेश में, रजाई या चादर पर एक छोर से दूसरे छोर तक घूम आता था और तब वह किसी को गोद के रथ, किसी को कंदे के घोड़े पर तथा किसी को पैदल ही, मुख-प्रक्षालन- जैसे समारोह के लिए ले जाता।

                    हमारा मुँह-हाथ धुलाना कोई सहज अनुष्ठान नहीं था, क्योंकि रामा को ‘दूध बताशा राजा खाय’ का महामन्त्र तो लगातार जपना ही पड़ता था, साथ ही हम एक-दूसरे का राजा बनना भी स्वीकार नहीं करना चाहते थे। रामा जब मुझे राजा कहता, तब नन्हें बाबू चिड़िया की चोंच जैसा मुँह खोलकर बोल उठता--‘लामा इन्हें कौं लाजा कहते हो ?’ र कहने में भी असमर्थ उस छोटे पुरुष का दम्भ कदाचित् मुझे बहुत अस्थिर कर देता था। रामा के एक हाथ की चक्रव्यूह जैसी उँगलियों में मेरा सिर अटका रहता था और उसके दूसरे हाथ की तीन गहरी रेखाओं वाली हथेली सुदर्शनचक्र के समान मेरे मुख पर मलिनता की खोज में घूमती रहती थी। इतना कष्ट सहकर भी दूसरों को राजत्व का अधिकारी मानना अपनी असमर्थता का ढिंढोरा पीटना था, इसी से मैं साम-दाम-दण्ड-भेद के द्वारा रामा को बाध्य कर देती कि वह केवल मुझी को राजा कहे। रामा ऐसे महारथियों को सन्तुष्ट करने का अमोघ मन्त्र जानता था। वह मेरे कान में हौले से कहता--‘तुमई बड्डे राजा हौ जू, नन्हें नइयाँ’ और कदाचित् यही नन्हें के कान में दोहराया जाता, क्योंकि वह उत्फुल्ल होकर मंजन की डिबिया में नन्हीं उँगली डालकर दातों के स्थान में ओठ माँजने लगता। ऐसे काम के लिए रामा का घोर निषेध था, इसी से मैं उसे गर्व से देखती; मानो वह सेनापति की आज्ञा का उल्लंघन करने वाला मूर्ख सैनिक हो।

                    तब हम तीनों मूर्तियाँ एक पंक्ति में प्रतिष्ठित कर दी जातीं और रामा बड़े-बड़े चम्मच, दूध का प्याला, फलों की तश्तरी आदि लेकर ऐसे विचित्र और अपनी-अपनी श्रेष्ठता प्रमाणित करने के लिए व्याकुल देवताओं की अर्चना के लिए सामने आ बैठता। पर वह था बड़ा घाघ पुजारी। न जाने किस साधना के बल से देवताओं को आँख मूंदकर कौव्वे द्वारा पुजापा पाने को उत्सुक कर देता। जैसे ही हम आँखें मूँदते वैसे ही किसी के मुँह में अंगूर, किसी के दातों में बिस्कुट और किसी के ओठो में दूध का चम्मच जा पहुंचता। न देखने का तो अभिनय ही था, क्योंकि हम सभी अधखुली आँखों से रामा की काली, मोटी उँगलियों की कलाबाजी देखते ही रहते थे। और सच तो यह है कि मुझे कौवे की काली कठोर और अपरिचित चोंच से भय लगता था। यदि कुछ खुली आँखों से मैं काल्पनिक कौव्वे और उसकी चोंच से रामा के हाथ और उँगलियों को न पहचान लेती तो मेरा भोग का लालच छोड़कर उठ भागना अवश्यम्भावी था।

                    जलपान का विधान समाप्त होते ही रामा की तपस्या की इति नहीं हो जाती थी। नहाते समय आँख को साबुन के फेन से तरंगित और कान को सूखा द्वीप बनने से बचाना, कपड़े पहनते समय उनके उलटे-सीधे रूपों में अतर्क वर्ण-व्यवस्था बनाये रहना, खाते समय भोजन की मात्रा और भोक्ता की सीमा में अन्याय न होने देना, खेलते समय यथावश्यकता हमारे हाथी, घोड़ा, उड़नखटोला आदि के अभाव को दूर करना और सोते समय हम पर पंख जैसे हाथों को फैलाकर कथा सुनाते-सुनाते हमें स्वप्न-लोक के द्वार तक पहुँचा आना रामा का ही कर्तव्य था।

हम पर रामा की ममता जितनी अथाह थी, उस पर हमारा अत्याचार भी उतना ही सीमाहीन था। एक दिन दशहरे का मेला देखने का हठ करने पर रामा बहुत अनुनय-विनय के उपरान्त माँ से, हमें कुछ देर के लिए ले जाने की अनुमति पा सका। खिलौने खरीदने के लिए जब उसने एक को कंदे पर बैठाया और दूसरे को गोद लिया, तब मुझे उँगली पकड़ाते हुए बार-बार कहा—उँगरिया जिन छोड़ियो राजा भइया।’ सिर हिलाकर स्वीकृति देते-देते ही मैंने उँगली छोड़कर मेला देखने का निश्चय कर लिया। भटकते-भटकते और दबने से बचते-बचते जब मुझे भूख लगी, तब रामा का स्मरण आना स्वाभाविक था। एक मिठाई की दूकान पर खड़े होकर मैंने यथासम्भव उद्विग्नता छिपाते हुए प्रश्न किया--‘क्या तुमने रामा को देखा है ? वह खो गया है।’ बूढ़े हलवाई ने धुँधली आँखों में वात्सल्य भरकर पूछा--‘कैसा है तुम्हारा रामा ?’ मैंने ओठ दबाकर सन्तोष के साथ कहा--‘बहुत अच्छा है।’ इस हुलिया से रामा को पहचान लेना कितना असम्भव था, यह जानकर ही कदाचित् वृद्ध कुछ देर वहीं विश्राम कर लेने के लिए आग्रह करने लगा। मैं हार तो मानना नहीं चाहती थी, परन्तु पाँव थक चुके थे और मिठाइयों से सजे थालों में कुछ कम निमन्त्रण नहीं था, इसी से दूकान के एक कोने में बिछे ठाट पर सम्मान्य अतिथि की मुद्रा में बैठकर मैं बूढ़े से मिले मिठाई रूपी अर्घ्य को स्वीकार करते हुए उसे अपनी महान यात्रा की कथा सुनाने लगी।

वहां मुझे ढूँढ़ते-ढूँढ़ते रामा के प्राण कण्ठगत हो रहे थे। सन्ध्या समय जब सबसे पूछते-पूछते बड़ी कठिनाई से रामा उस दूकान के सामने पहुँचा, तब मैंने विजय गर्व से फूलकर कहा--‘तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा !’ रामा के कुम्हलाए मुख पर ओस के बिन्दु जैसे आनन्द के आँसू लुढ़क पड़े। वह मुझे घुमा-घुमाकर इस तरह देखने लगा, मानों मेरा कोई अंग मेले में छूट गया हो। घर लौटने पर पता चला कि बड़ों के कोश में छोटों की ऐसी वीरता का नाम अपराध है, पर मेरे अपराध को अपने ऊपर लेकर डाँट-फटकार भी रामा ने ही सही और हम सबको सुलाते समय उसकी वात्सल्यता भरी थपकियों का विशेष लक्ष्य भी मैं ही रही।

          एक बार अपनी और पराई वस्तु का सूक्ष्म और गूढ़ अन्तर स्पष्ट करने के लिए रामा चतुर भाष्यकार बना। बस फिर क्या था ! वहाँ से कौन-सी पराई चीज लाकर रामा की छोटी आँखों को निराश विस्मय से लबालब भर दें, इसी चिन्ता में हमारे मस्तिष्क एकबारगी क्रियाशील हो उठे।

                    हमारे घर से एक ठाकुर साहब का घर कुछ इस तरह मिला हुआ था कि एक छत से दूसरी छत तक पहुँचा जा सकता था--‘हाँ, राह एक बालिश्त चौड़ी मुँडेर मात्र थी, जहाँ से पैर फिसलने पर पाताल नाप लेना सहज हो जाता।

                    उस घर आँगन में लगे फूल, पराई वस्तु की परिभाषा में आ सकते हैं, यह निश्चित कर लेने के उपरान्त हम लोग एक दोपहर को, केवल रामा को खिझाने के लिए उस आकाश मार्ग से फूल चुराने चले। किसी का भी पैर फिसल जाता तो कथा और ही होती, पर भाग्य से हम दूसरी छत तक सकुशल पहुँच गये। नीचे के जीने की अन्तिम सीढ़ी पर एक कुत्ती नन्हें-नन्हें बच्चे लिए बैठी थी; जिन्हें देखते ही, हमें वस्तु के सम्बन्ध में अपना निश्चय बदलना पड़ा; पर ज्योंही हमने एक पिल्ला उठाया, त्योंही वह निरीह-सी माता अपने इच्छा भरे अधिकार की घोषणा से धरती आकाश एक करने लगी। बैठक से जब कुछ अस्त-व्यस्त भाववाले गृहस्वामी निकल आये और शयनागार से जब आलस्यभरी गृहस्वामिनी दौड़ पड़ी, तब हम बड़े असमंजस में पड़ गए। ऐसी स्थिति में क्या किया जाता है, यह तो रामा के व्याख्यान में था ही नहीं, अतः हमने अपनी बुद्धि का सहारा लेकर सारा मन्तव्य प्रकट कर दिया, कहा- ‘हम छत की राह से फूल चुराने आए हैं।’ गृहस्वामी हँस पड़े। पूछा--‘लेते क्यों नहीं ?’ उत्तर और भी गम्भीर मिला--‘अब कुत्ती का पिल्ला चुरायेंगे।’ पिल्ले को दबाये हुए जब तक हम उचित मार्ग से लौटे तब तक रामा ने हमारी डकैती का पता लगा लिया था।

अपने उपदेशरूपी अमृतवृक्ष में यह विषफल लगते देख,वह एकदम अस्थिर हो उठा होगा, क्योंकि उसने आकाशी डाकुओं के सरदार को दोनों कानों से पकड़कर अधर में उठाते हुए पूछा- ‘कहो जू, कहो जू, किते गए रहे?’ पिनपिन करके रोना मुझे बहुत अपमानजनक लगता था, इसी से दाँतो से ओठ दबाकर मैंने यह अभूतपूर्व दण्ड सहा और फिर बहुत संयत क्रोध में साथ माँ से कहा-‘रामा ने मेरे कान खींचकर टेढ़े भी कर दिए हैं और बड़े भी, अब डॉक्टर को बुलवाकर इन्हें ठीक करवा दो और रामा को अँधेरी कोठरी में बंद कर दो।‘ वे तो हमारे अपराध से अपरिचित थीं और रामा प्राण रहते बता नहीं सकता था, इसलिए उसे बच्चों से दुर्व्यवहार करने के सम्बन्ध में एक मनोवैज्ञानिक उपदेश सुनना पड़ा। वह अपने व्यवहार के लिए सचमुच बहुत लज्जित था, पर जितना ही मनाने का प्रयत्न करता था उतना ही उसके राजा भइया को कान का दर्द याद आता था। फिर भी संध्या समय रामा को खिन्न मुद्रा से बाहर बैठा देखकर मैंने ‘गीत सुनाओ’ कहकर सन्धि का प्रस्ताव कर ही दिया। रामा को एक भजन भर आता था ‘ऐसो सिय रघुवीर भरोसो’ और उसे वह जिस प्रकार गाता था, उससे पेड़ पर के चिड़ियाँ-कौवे तक उड़ सकते थे। परन्तु हम लोग उस अपूर्व गायक के अद्भुत श्रोता थे- रामा केवल हमारे लिए गाता और हम लोग केवल उसके लिए सुनते थे।

मेरा बचपन समकालीन बालिकाओं से कुछ भिन्न रहा, इसी से रामा का उसमें विशेष महत्व है।

          उस समय परिवार में कन्याओं की अभ्यर्थना नहीं होती थी।आँगन में गानेवालियाँ, द्वार पर नौबतवाले और परिवार के बूढ़े से लेकर बालक तक सब पुत्र की प्रतीक्षा में बैठे रहते थे। जैसे ही दबे स्वर से लक्ष्मी के आगमन का समाचार दिया गया, वैसे ही घर के एक कोने से दूसरे तक दरिद्र निराशा व्याप्त हो गई। बड़ी-बूढ़ियाँ संकेत से मूक गानेवालियों को जाने के लिए कह देतीं और बड़े-बूढ़े इशारे से नीरव बाजेवालों को विदा देते- यदि ऐसे अतिथि का भार उठाना परिवार की शक्ति से बाहर होता, तो उसे बैरंग लौटा देने के उपाय भी सहज थे।

           हमारे कुल में कब ऐसा हुआ यह तो पता नहीं, पर जब दीर्घकाल तक कोई देवी नहीं पधारीं, तब चिंता होने लगी, क्योंकि जैसे अश्व के बिना अश्वमेघ नहीं हो सकता, वैसे ही कन्या के बिना कन्यादान का महायज्ञ संभव नहीं।

           बहुत प्रतीक्षा के उपरान्त मेरा जन्म हुआ, तब बाबा ने इसे अपनी कुलदेवी दुर्गा का विशेष अनुग्रह समझा और आदर प्रदर्शित करने के लिए अपना फारसी ज्ञान भूलकर एक ऐसा पौराणिक नाम ढूँढ लाए, जिसकी विशालता के सामने कोई मुझे छोटा-मोटा घर का नाम देने का भी साहस न कर सका। कहना व्यर्थ है कि नाम के उपयुक्त बनाने के लिए सब बचपन से ही मेरे मस्तिष्क में इतनी विद्या-बुद्धि भरने लगे कि मेरा अबोध मन विद्रोही हो उठा। निरक्षर रामा की स्नेह-छाया के बिना जीवन की सरलता से परिचित हो सकती थी या नहीं, इसमें संदेह है। मेरी पट्टी पूज चुकी थी और मैं ‘आ’ पर उँगली रखकर आदमी के स्थान में आम, अलमारी, आज आदि के द्वारा मन की बात कह लेती थी। ऐसी दशा में मैं अपने भाई-बहिनों के निकट शुक्राचार्य से कम महत्व नहीं रखती थी। मुझे उनके सभी कार्यों का समर्थन या विरोध पुस्तक में ढूँढ लेने की क्षमता प्राप्त थी और मेरी इस क्षमता के कारण उन्हें निरंतर सतर्क रहना पड़ता था। नन्हें बाबू उछला नहीं कि मैंने किताब खोल कर पढ़ा ‘बंदर नाच दिखाने आया’, मुन्नी रूठी नहीं कि मैंने सुनाया ‘रूठी लड़की कौन मनावे गरज पड़े तब दौड़ी आवे’, वह बेचारे मेरे शास्त्र ज्ञान से बहुत चिंतित रहते थे, क्योंकि मेरे किसी कार्य के लिए दृष्टांत ढूँढ लेने के साधन उनके पास नहीं थे। पर अक्षरज्ञानी शुक्राचार्य निरक्षर रामा से पराजित हो जाते थे। उसके पास कथा, कहानी और कहावत आदि का जैसा बृहत् कोष था, वह सौ पुस्तकों में भी न समाता। इसी से जब मेरा शास्त्रज्ञान महाभारत का कारण बनता, तब वह न्यायाधीश होकर और अपना निर्णय सबके कान में सुना कर तुरन्त सन्धि करा देता।

           मेरे पण्डित जी से रामा का कोई विरोध ना था, पर जब खिलौनों के बीच ही में मौलवी साहब, संगीत-शिक्षक और ड्राइंग-मास्टर का आविर्भाव हुआ तब रामा का हृदय क्षोभ से भर गया। कदाचित् वह जानता था कि इतनी योग्यता का भार मुझसे ना सँभल सकेगा।

                     मौलवी साहब से तो मैं इतना डरने लगी थी कि एक दिन पढ़ने से बचने के लिए बड़े से झाबे में छिपकर बैठना पड़ा। अभाग्य से झाबा वहीं था जिसमें बाबा के भेजे आमों में से दो-चार शेष भी थे। उन्हें निकालकर कुछ और भरने के लिए रामा जब पूरे झाबे को, उसके भारीपन पर विस्मित होता हुआ माँ के सामने उठा लाया तब समस्या बहुत जटिल हो गई। जैसे ही उसने ढक्कन हटाया कि मुझे पलायमान होने के अतिरिक्त कुछ न सूझा। अन्त में रामा और माँ के प्रयत्न ने मुझे उर्दू पढ़ने से छुट्टी दिला दी।

           ड्राइंग मास्टर से मुझे कोई शिकायत नहीं रही, क्योंकि वे खेलने से रोकते नहीं थे। सब कागजों पर दो लकीरें खड़ी करके और उन पर एक गोला रख कर मैं रामा का चित्र बना देती थी-जब किसी और का बनाना होता तब इसी ढाँचे में कुछ पच्चीकारी कर दी जाती थी।

                     नारायण महाराज से न मैं प्रसन्न रहती थी ना रामा। जब उन्होंने पहले दिन संगीत सीखने के संबंध में मुझसे प्रश्न किया, तब मैंने बहुत विश्वास के साथ बता दिया कि मैं रामा से सीखती हूँ। जब उन्होंने सुनाने का अनुरोध किया, तब मैंने रामा का वही भजन ऐसी विचित्र भाव-भंगिमा में सुना दिया कि वे अवाक् हो रहे। उस पर भी जब उन्होंने मेरे सेवक गुरु रामा को अपने से बड़ा और योग्य गायक नहीं माना तो मेरा अप्रसन्न हो जाना स्वाभाविक था।

                    रामा के बिना भी संसार का काम चल सकता है, यह हम नहीं मान सकते थे। माँ जब दस-पन्द्रह दिन के लिए नानी को देखने जातीं, तब रामा को घर और बाबूजी की देखभाल के लिए रहना पड़ता था। बिना रामा के हम जाने के लिए किसी प्रकार भी प्रस्तुत नहीं होते, अतः वे हमें भी छोड़ जाती।

           बीमारी के संबंध में रामा से अधिक सेवापारायण और सावधान व्यक्ति मिलना कठिन था। एक बार जब छोटे भाई को चेचक निकली, तब वह शेष को लेकर ऊपर के खण्ड में इस तरह रहा कि हमें भाई का स्मरण ही नहीं आया। रामा की सावधानी के कारण ही मुझे कभी चेचक नहीं निकली।

           एक बार और उसी के कारण मैं एक भयानक रोग से बच सकी हूँ। इंदौर में प्लेग फैला हुआ था और हम शहर से बाहर रहते थे। माँ और कुछ महीनों की अवस्था वाला छोटा भाई इतना बीमार था कि बाबूजी हम तीनों का खोज-खबर लेने का अवकाश कम पाते थे। ऐसे अवसरों पर रामा अपने स्नेह से हमें इस प्रकार घेर लेता था कि और किसी अभाव की अनुभूति ही असम्भव हो जाती थी।

          जब हम सघन आम की डाल में पड़े झूले पर बैठकर रामा की विचित्र कथाओं को बड़ी तन्मयता से सुनते थे, तभी एक दिन हल्के से ज्वर के साथ मेरे कान के पास गिल्टी निकल आई। रामा ने एक बुढ़िया की कहानी सुनाई थी जिसमें फूले पैर से में से भगवान ने एक वीर मेंढक उत्पन्न कर दिया था। मैंने रामा को यह समाचार देते हुए कहा-“मालूम होता है कि मेरे कान से कहानी वाला मेंढक निकलेगा।” वह बेचारा तो सन्न हो गया। फिर ईंट के गर्म टुकड़े को गीले कपड़े में लपेटकर उसने उसे कितना सेंका यह बताना कठिन है। सेंकते-सकते वह न जाने क्या बड़बड़ाता रहता था जिसमें कभी देवी, कभी हनुमान, कभी और भगवान का नाम सुनाई दे जाता था। दो दिन और दो रात वह मेरे बिछौने के पास से हटा ही नहीं। तीसरे दिन मेरी गिल्टी बैठ गई, पर रामा को तेज बुखार चढ़ आया। उसके गिल्टी निकली, चीरी गई और वह बहुत बीमार रहा, पर उसे संतोष था कि मैं सब कष्टों से बच गई। जब दुर्बल रामा की बिछौने के पास माँ हमें ले जा सकीं, तब हमें देखकर उसके सूखे होंठ मानो हँसी से भर आये, धँसी आँखें उत्साह में तैरने लगी और शिथिल शरीर में एक स्फूर्ति तरंगित हो उठी। माँ ने कहा-‘तुमने इसे बचा लिया था रामा! जो हम तुम्हें ना बचा पाते तो जीवन-भर पछतावा रह जाता। उत्तर में रामा बढ़े हुए नाखूनवाले हाथ से माँ के पैर छूकर अपनी आँखें पोछने लगा। रामा जब अच्छा हो गया, तब माँ कहने लगीं- ‘रामा, अब तुम घर बसा लो जिससे बाल-बच्चों का सुख देख सको।’ ‘बाई की बातें! मोय नासमिटे अपनन खौं का करने हैं, मोरे राजा हरे बने रहें- जेई अपने रामा की नैया पार लगा देहें’ ही रामा का उत्तर रहता था। वह अपने भावी बच्चों को लक्ष्य कर इतनी बातें सुनाता था कि हम उसके बच्चों की हवाई स्थिति से ही परिचित नहीं हो गए थे, उन्हें अपने प्रतिद्वन्द्वी के रूप में भी पहचान गए थे। हमें विश्वास था कि यदि उसके बच्चे हमारे जैसे होते, तो वह उन्हें कभी नासमिटा,मुँहझौंसा आदि कहकर स्मरण न करता।

           फिर एक दिन जब अपनी कोठरी से लाठी, जूता आदि निकाल कर और गुलाबी साफा बाँधकर रामा आँगन में आ खड़ा हुआ, तब हमसब बहुत सभीत हो गये, क्योंकि ऐसी सज-धज में तो हमने उसे कभी देखा ही नहीं था। लाठी पर संदेहभरी दृष्टि डाल कर मैंने पूछ ही तो लिया- ‘क्या तुम उन बाल-बच्चों को पीटने जा रहे हो रामा?’ रामा ने लाठी घुमाकर हँसते-हँसते उत्तर दिया- ‘हाँ राजा भइया, ऐसी देंहौं नासमिटन के’पर रामा चला गया और न जाने कितने दिनों तक हमें कल्लू की माँ के कठोर हाथों से बचने के लिए नित्य नवीन उपाय सोचने पड़े।

           हमारे लिए अनन्त और दूसरे के लिए कुछ समय के उपरान्त एक दिन सवेरे ही केसरिया साफा और गुलाबी धोती में सजा हुआ रामा दरवाजे पर आ खड़ा हुआ और ‘राजा भइया’, ‘राजा भइया’ पुकारने लगा। हम सब गिरते-पड़ते दौड़ पड़े पर बरामदे में सहमकर अटक रहे। रामा तो अकेला नहीं था। उसके पीछे एक लाल धोती का कछौंटा लगाये और हाथ में चूड़े और पाँव में पैजंन पहने, जो घूँघटवाली स्त्री खड़ी थी, उसने हमें एक साथ ही उत्सुक और सशंकित कर दिया।

          मुन्नी जब रामा के कुर्ते को पकड़ कर झूलने लगी, तब नाक की नोक को झू लेने वाले घूँघट में से दो तीक्ष्ण आँखें उसके कार्य का मूक विरोध करने लगीं। नन्हें जब रामा के कन्धे पर आसीन होने के लिए जिद करने लगा, तब घूँघट में छिपे सिर में एक निषेध-सूचक कम्पन जान पड़ा और जब मैंने झुककर उस नवीन मुख को देखना चाहा, तब वह मूर्ति घूमकर खड़ी हो गई। भला ऐसे आगन्तुक से हम कैसे प्रसन्न हो सकते थे। जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे रामा की अँधेरी कोठरी में महाभारत के अंकुर जमते गए और हमारे खेल के संसार में सूखा पड़ने की संभावना बढ़ती गई। हमारे खिलौने के नगर बसाने के लिए रामा विश्वकर्मा भी था और मय-दानव भी। पर अब वह अपने गुरुकर्तव्य के लिए अवकाश नहीं पाता था। वह आया नहीं कि घूँघटवाली मूर्ति पीछे-पीछे आ पहुँची और उसके मूल असहयोग से हमारा और रामा का ही नहीं, गुड्डे-गुड़ियों का भी दम घुटने लगता था। इसी से एक दिन हमारी युद्ध-समिति बैठी। राजा को ऊँचे स्थान में बैठना चाहिए, अतः मैं मेज पर चढ़कर धरती तक न पहुँचने वाले पैर हिलाती हुई विराजी, मंत्री महोदय कुर्सी पर आसीन हुए और सेनापति जी स्टूल पर जमें। तब राजा ने चिंता की मुद्रा से कहा- ‘रामा, इसे क्यों लाया है?’ मन्त्रीजी ने गम्भीर भाव से सिर हिलाते हुए दोहराया-‘रामा, इसे क्यों लाया है?’ और सेनापति महोदय न कह सकने की असमर्थता छिपाने के लिए आँखे तरेरते हुए बोले- ‘सच है, इछै कौं लाया है?

           फिर उस विचित्र समिति में सर्वमत से निश्चित हुआ कि जो जीव हमारी एकछत्र अधिकार की अवज्ञा करने आया है, उसे न्याय की मर्यादा के रक्षार्थ दंड मिलना ही चाहिए। यह कार्य नियमानुसार सेनापतिजी को सौंपा गया।

           रामा की बहू जब रोटी बनाती, तब नन्हें बाबू चुपके से उसके चौके के भीतर बिस्कुट रख आता। जब वह नहाती तब लकड़ी से उसकी सूखी धोती नीचे गिरा देता। इस प्रकार न जाने कितने दण्ड उसे मिलने लगे, पर उसकी ओर से न क्षमा-याचना हुई और न सन्धि का प्रस्ताव आया। केवल वह अपने विरोध में और अधिक दृढ़ हो गई और हमारे अपकारों का प्रतिशोध बेचारे रामा से लेने लगी। उसके साँवले मुख पर कठोरता का अभेद्य अवगुण्ठन पड़ा ही रहता था और उसकी काली पुतलियों पर से क्रोध की छाया उतरती ही न थी, इसी से हमारे ही समान अबोध रामा पहले हतबुद्धि हो गया, फिर खिन्न रहने लगा और अन्त में विद्रोह कर उठा। कदाचित् उसकी समझ में ही नहीं आता कि वह अपना सारा समय और उसने स्त्री के चरणों पर कैसे रख दे और रख दे तो स्वयं जिए कैसे! फिर एक दिन रामा की बहू रूठकर मायके चल दी।

          रामा ने तो मानो किसी अप्रिय बन्धन से मुक्ति पाई, क्योंकि वह हमारी अद्भुत सृष्टि का फिर वहीं चिरप्रसन्न विधाता बनकर बहू को ऐसे भूल गया, जैसे वह पानी की लकीर थी।

          पर माँ को अन्याय का कोई भी रूप असह्य था-रामा अपनी पत्नी को हमारे पुराने खिलौने के समान फेंक दे, यह उन्हें बहुत अनुचित जान पड़ा, इसलिए रामा को कर्तव्य-ज्ञान सम्बन्धी विषद और जटिल उपदेश मिलने लगे। इस बार रामा के जाने में वही करुण विवशता जान पड़ती थी, जो उस विद्यार्थी में मिलती है, जिसे पिता के स्नेह के कारण मास्टर से पिटने जाना पड़ता है।

          उस बार जाकर फिर लौटना सम्भव न हो सका। बहुत दिनों के बाद पता चला कि वह अपने घर पर बीमार पड़ा है। माँ ने रुपये भेजे,आने के लिए पत्र लिखा, पर उसे जीव-पथ पर हमारे साथ इतनी ही दूर आना था।

          हम सब खिलौने रखकर शून्य दृष्टि से बाहर देखते रह जाते थे। नन्हें बाबू सात समुद्र पार पहुँचना चाहता था,पर उड़नेवाला घोड़ा न मिल सकने से यात्रा स्थगित हो जाती थी। मुन्नी अपनी रेल पर संसार-भ्रमण करने को विकल थी, पर हरी लाल झण्डी दिखाने वाले के बिना उसका चलना-ठहरना संभव नहीं हो सकता था। मुझे गुड़िया का विवाह करना था, पर पुरोहित और प्रबन्धक के बिना शुभ लग्न टलती चली जाती थी।

          हमारी संख्या चार तक पहुँचाने वाले छोटा भैया ढाई वर्ष का हो चुका था और हमारे निर्माण को ध्वंस बनाने के अभ्यास में दिनोंदिन तत्पर होता जा रहा था। उसे खिलौने के बीच में प्रतिष्ठित कर हम सब बारी-बारी से रामा की कथा सुनाने के उपरान्त कह देते थे कि रामा जब गुलाबी साफा बाँधकर लाठी लिए हुए लौटेगा,तब तुम गड़बड़ न कर सकोगे। पर हमारी कहानी के उपसंहार के लिए रामा कभी न लौटा।

          आज मैं इतनी बड़ी हो गयी हूँ कि राजा भइया कहलाने का हठ-स्वप्न-सा लगता है। बचपन की कथा कहानियाँ कल्पना जैसी जान पड़ती हैं और खिलौने के संसार का सौंदर्य भ्रान्ति हो गया है,पर रामा आज भी सत्य है,सुन्दर है औऱ स्मरणीय है। मेरे अतीत में खड़े रामा की विशाल छाया वर्तमान के साथ बढ़ती ही जाती है-निर्वाक,निस्तन्द्र,पर स्नेहतरल।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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