9.
इग्लैंड मगर कौन सा!-
धर्मवीर भारती ।
यात्राओं के बारे में एक बात मैंने महसूस
की है जो बड़ी अजीब है, लेकिन बहुत सच। मेरा ख्याल है कि दूसरे यात्रियों ने भी इसे
जरूर महसूस किया होगा लेकिन अचरज है कि उन्होंने कहा क्यों नहीं?
अक्सर ऐसा होता है कि इसके बहुत पहले कि हम सात समुद्र पार किसी अनदेखे देश में जायें,
उसे देखें- वह पहले से ही हमारी कल्पना में बसा हुआ है। कुछ सुना, कुछ पढ़ा, कुछ अनुमान
किया हुआ और जब हम सचमुच एक दिन वहाँ जाते हैं तो उसी का एक बिलकुल निजी, अपना संस्मरण
साथ लेते हुए जाते हैं। भूगोल एक बाहर का है, एक हमारे अन्दर का। यात्राएँ दोनों साथ
होती हैं। हम बाहर भी जाते हैं और साथ-साथ स्मृतियों और कल्पनाओं के देश में भी समानान्तर
यात्रा करते चलते हैं।
बचपन से
एक इंग्लैंड मेरा था, बिलकुल मेरा। कुछ बचपन से बनी धारणाओं, किताबों में पढ़े विवरणों-गोल्डस्मिथ
से लेकर आसबर्न तक की कृतियों से संकलित प्रतिक्रियाओं और कविता-पुस्तकों और एल्बमों
का एक बिल्कुल अपना निजी इंग्लैंड!
अपने देश की सीमा पहली बार लाँघकर अनजान दिशा में जाने का उचटाव जब जरा शमित हुआ तब
मैंने अकस्मात् महसूस किया कि मैं अकेले नहीं जा रहा हूँ, एक इंग्लैंड मेरे साथ जा
रहा है।
आधी रात!
गर्मियों का तारों भरा,
खुला असीम आकाश! तीस हजार फीट की ऊँचाई पर सैकड़ों मील रफ्तार से उड़ता हुआ जेट, लेकिन
अन्दर एक ठहराव, सन्नाटा और आधी रात की धुंधली रोशनी। दूर पर अपने से बहुत नीचे दिखने
वाले सितारों को निहारने का मोह छोड़कर आँखें बंद कर चुपचाप सोचना या बिना कुछ सोचे
सिर्फ महसूस करना। जेट-प्लेन सैकड़ों मील की रफ्तार से आगे जा रहा है, मन उम्र की डगर
पर उतनी ही तेजी से पीछे।
अँधेरा।
अकस्मात
एक तेज सुरीली आवाज से एक बच्चा चौंककर जाग जाता है। एक-दो तारे अब भी झिलमिला रहे
हैं लेकिन भोर होने को आ रही है। नींद में अधसुनी सुरीली आवाज गूंज उठती है-
जागो
ऐ हिन्द वालों,हर सू हुआ सवेरा!
सब
लूट करके अपने घर ले गया लुटेरा।
जगमग
महल बकिंघम,वर्धा में है अंधेरा.....
बच्चा गौर से सुनता है। वह जानता है कि
यह बेनी काका की आवाज है। रोज सुबह चार बजे जमुनाजी जाते हुए मुँह-अंधेरा बेनी
काका गिन-गिनकर पाँच सौ कदम पर रुकते हैं,यह टेर लगाते हैं ‘फिर वन्देमातरम्!’।
कहते हैं और आगे बढ़ जाते हैं। रास्ते में थाना पड़ता है। वहाँ तीन बार परिक्रमा
देते हैं। इसे बार-बार गाते हैं और फिर जमुनाजी की ओर निकल जाते हैं। थाना उनका
तीरथ है। यहाँ उनका जवान लड़का सत्याग्रह के दिनों में शहीद हो गया था। उनकी
जायदाद अंगरेजों ने जब्त कर ली थी तब से पियक्कड़ जुआरी और नाच-मुजरे के बेहद
शौकीन,रईस बेनी काका मैनचेस्टर और लंका-शायर के कपड़ों की होली जलाकर गाढ़ा खद्दर
पहनकर ‘सुराजी’ हो गये थे। ठीक मुँह-अंधेरा जमुनाजी जाते थे। ‘पुत्रतीरथ’ की
परिक्रमा करते हुए, टेर लगाते हुए..... ‘जगमग महल बकिंघम,वर्धा में है अंधेरा।’
बच्चा
फिर चादर ओढ़कर लेट जाता है। उसने बकिंघम का अर्थ पहले पहल बेनी काका से जाना था।
फिरंगी के टापू में जार्ज पंचम का बहुत बड़ा महल है बकिंघम। उसकी तस्वीर उसने देखी
थी और पहली बार देखी थी-लाल जरीदार वर्दी और काली-लम्बी बालदार टोपियो वाले राय़ल
गार्डों की तस्वीर ! बेनी काका ने
बताया था कि बकिंघम-महल के आसपास बड़े-बड़े तहखाने हैं जिसमें हिन्दुस्तान की सारी
दौलत लूटकर भर दी गयी है। इस फिरंगी के टापू को इंग्लैण्ड कहते हैं। जब सुराज होगा
तब सब दौलत गाँधी जी ले आएँगे और सबको सबकी चीज लौटा दी जाएगी।
कोई
मुझे छूता है। मैं चौककर जाग जाता हूँ। एयर-होस्टेस सहारे से मेरा सर उठाकर तकिया
लगा रही है। मेरी नींद उचट जाती है। मैं कॉफी माँगता हूँ। अँधेरे में फिर,
इलाहाबाद में सुना, देखा, जाना इंग्लैण्ड उभरने लगता है। वह, जिसे मैं कब का भूल
चुका था मगर जो कहीं ज्यों-का-त्यों मौजूद था और आज मेरे साथ जा रहा था।
एक
बादामी कागज की स्कूली कॉपी। चमकदार बैंजनी स्याही से लिखी हुई एक बड़े-बड़े
अक्षरों वाली कविता-
मुझे याद आता है याद आता है मुझे
वह घर जहाँ मैं पैदा हुआ था
वह छोटी सी खिड़की जिसमें से
सुबह-सुबह सूरज झाँककर कहता था ‘ता’!
मुझे याद आते हैं याद आते हैं मुझे
गुलाब कुछ लाल कुछ सफेद
वायलेट और लिलीकप
ये फूल मानों रोशनी के बसे हों,
लिलैंक का झाड़ जहाँ राबिन
चिड़िया का घोसला था
जन्मदिन पर मेरे भाई का लगाया लैबर्नम
आज भी वह पेड़ वहाँ खड़ा होगा।
कौन
था यह कवि टामस मूर? कहाँ है वह घर जहाँ
वह पैदा हुआ था....? और बच्चे होल्डर के
उल्टी तरफ से बैंजनी स्याही से मोटी-मोटी लाइनों से हाशिए पर एक घर बनाता है। टॉमस
मूर कौन था वह भूल गया। ये लाइनें अब उसकी हो गई हैं। यह घर उसका है। यहाँ वह पैदा
हुआ था। इसमें सबसे धूप झाँकती थी। यहाँ बाहर गुलाब और लिली और वायलेट के फूल थे। लिलैक
की झाड़ी में एक चिड़िया ने घोंसला बनाया है और उसके भइया ने लैबर्नम का पौधा लगाया
है। लिली,वायलेट और लिलैक उसने कभी नहीं देखे-मगर शायद कभी-ना-कभी जरूर देखे हैं, ऐसा
याद पड़ता है। वायलेट का फूल ऐसा होता होगा!
लिलैक की झाड़ी ऐसी होती होगी!
और चिड़िया कौन सी? जरूर यहीं गौरैया होगी जो उसके दर्जे में ब्लैकबोर्ड
के पास घोंसला बना रही है। वह पांचवे दर्जे में है। इंग्लिश पोएट्री पढ़ने और याद करने
में उसे एक सुन्दर किताब इनाम में मिली है जिससे वह बैठकर बादामी कॉपी में बैजनी स्याही
से उतारा करता है। उसको सपने में भी कयास नहीं कि लिली और वायलेट,लिलैक और डैफोडिल,
स्काईलार्क और नाईटेंगल उसी देश में है जहाँ बकिंघम-पैलेस है। उसे यह भी नहीं मालूम
कि शायद बकिंघम-पैलेस के बाग में लिली और वायलेट, चेरी और डैफोडिल फूलते होंगे। नहीं,
वहाँ तो बस तहखाने हैं और उसमें छिपी है हिंद की दौलत। इंग्लैंड शायद दो होंगे। एक
बकिंघम-पैलेस होगा, एक में वह घर जिसकी याद कवि को आती है और इसीलिए उस बच्चे को भी
आती है।
कॉफी खत्म हो गई है। हाथ बढ़ाकर मैंने जहाज की खिड़की
के ऊपर लगी पढ़ने वाली बत्ती बुझा दी है। अब प्लेन के इतने लम्बे-चौड़े कारीडॉर में
अँधेरा है। सिर्फ ऊपर छत पर एक बहुत बड़ा गोल अर्ध पारदर्शी शीशा लगा है जिसमें से
गुजरते हुए आसमान का प्रतिबिंब झलकता है। जहाज चल रहा है। उस शीशे झलकने वाले आसमान
के हल्के बैंजनी-से गोल टुकड़े में तारे स्थिर नहीं हैं। बिखरते हुए हीरों की तरह वे
केंद्र से ढुलकते हुए शीशे की गोल कोर की तरफ जाते हैं और फिर खो जाते हैं। आसमान खुद
शीशे में बैजनी फूलों के काँपते हुए गोल गुच्छे की तरह लगता है। कहाँ देखे हैं मैंने
ऐसे फूल? क्या नाम था उनका?
डाल में लदे-फँदे उन बैंजनी फूलों का नाम आत्मन्
ने बताया था, बहुत दिनों बाद ‘जैकरांडा’। पर वे फूल मैंने देखे थे बहुत पहले कैशोर्य
में जब बैंजनी और फालसही रंग से बेहद प्यार था। यूनिवर्सिटी-लाइब्रेरी के बाहर पतला
लम्बा जैकरांडा का पेड़ था। जहाँ तक मुझे याद है, फूलता था उन दिनों जब पढ़ाई जोरों
पर रहती है, यानी फागुन-चैत-वैशाख!
मेरे मन में वे फूल रोमांटिक काल के कवियों के साथ जुड़ गए हैं। शेले, कीट् स, वर्ड्सवर्थ
को पढ़ता था और बीच-बीच में जालीदार खिड़की में से जैकरांडा की बैंजनी फूल लदी डाली
का एक गोल झब्बा हवा में झूम-झूम कर मुझे झाँक जाता था। उमर वह जब जीवन के पहले-पहले
बहुत पवित्र, बहुत सुकुमार, बहुत तन्मय करने वाले प्यार में आकंठ डूबा था। कीट् स की
हर पंक्ति के साथ एक ममतामयी निगाह, कोई एक स्नेहभरा संस्पर्श, कोई एक मिसरीघुला
बोल मन को कचोटता रहता था। हर वक्त शेले कि वायवीय, अशरीरी,सूक्ष्मतम अनुभूतियों वाली
एक ज्योतिर्मयी संगिनी अपने निजी जीवन के आस पास बसी रहती थी।
प्रेम उस अशरीरी,
बहुत मीठी, तन्मय करने वाली अनुभूति
के साथ-साथ एक आग की लपट मन
में थी, शेले ने पहली बार ‘प्रामेथ्यूस
अनबॉउंड’ की कथा भी सुनाई थी, वह चिरंजन विद्रोही की कथा जो सत्य और आलोक के लिए बड़ी-से-बड़ी
सत्ता के खिलाफ विद्रोह करता है और बड़ी-से-बड़ी मार्मिक यांत्रणा के बिना उफ किए झेलता
है। मुझे उन दिनों अक्सर लगता था कि जिन्दगी उस हल्की खूबसूरत कैमिकल आग की लपट की
तरह होनी चाहिए जिसमें नीले रंग की धारी भी होती है और दहकते लाल रंग की भी, सौंदर्य
भी, विद्रोह भी। राजनीति में सब मुझे उलझे हुए और कुछ अंशों तक समझौतावादी लगते थे।
आदमी थे सुभाष! अंग्रेजों से उन्हीं
के राजनीतिक मुहावरें में मुंहफट बोलने का साहस रखने वाले, उन आडंबर-प्रिय गोरे उपनिवेश
वादियों के साम्राज्यवादी घमण्ड को सैन्यशक्ति के सहारे चुनौती देने वाले!
और अंग्रेजी भाषा और अंग्रेज जाति की उपनिवेशवादी आडंबर-प्रियता
को तहे-दिल से नफरत करने वाले
उस विद्रोही किशोर मन को सहारा और ताकत देती थी एक अंग्रेजी कवि की पंक्तियां। शेले
और सुभाष! अजीब समीकरण था।
.......यूनियन
का बरामदा खून से लथपथ, इंसानियत को नाजियों से बचाने का दावा करने वाले अंग्रेजो ने
सन् 1942 में आंदोलन का दमन करने में नाजियों को मात दे दी थी। शेली और कीट् स की किताबें
अलमारी में रख कर विद्यार्थी ‘भारत छोड़ो’ का नारा लगाते हुए निकल पड़े हैं। वे अकेले
हैं। जिन नेताओं से उम्मीद थी वे बिना कुछ रास्ता बताये जेल चले गए हैं और जेल जाकर
उनके कर्तव्य की इतिश्री हो चुकी है। कम्युनिस्ट, जो तरुण छात्रों की प्रेरणा थे, इस
समय अंग्रेजों की खुफिया-गिरी और जनयुद्ध का प्रचार करने में लगे थे। विद्यार्थी अपनी
लड़ाई खुद लड़ रहे हैं। अंग्रेजों ने संगीन लगी बंदूकें संभाल ली हैं, कचहरी के पास, चौक के पास, यूनिवर्सिटी
के पास, खून के सड़कें रंग दी हैं। बेनी काका के बच्चे फिर मारे जा रहे हैं। जोश मलीहाबादी
ने एक कविता लिखी है- हिटलर को पैगाम भेजते हुए लंदन जाना तो हमारी ओर से एक गोला बकिंघम-पैलेस
पर गिराते आना। मेरे सिरहाने शेले की किताब के नीचे छोटी-सी किताब छिपी हुई है- गाँधीजी
की ‘क्विट इंडिया’। ‘गोल्डन ट्रेजरी’ रीड की वर्डसवर्थ और ‘कीट् स लेटर्स टू फेनी’
के पीछे रखा हुआ है एक तेज वायर-कटर, प्लास जो हमें हमारी टुकड़ी के नेता ने दिया है
कि कल सुबह तक मोहल्ले के सारे तार कट जाने चाहिए। इस अंग्रेजी राज को हम उलट कर रहेंगे।
हमारे आंदोलन की तीखी आलोचना बहुत से भयभीत बुजुर्ग कर रहे हैं और कम्युनिस्ट और मैं
शेले का काव्य-संकलन खोलकर इन पंक्तियों के सामने हाशिए पर लिखता हूँ- अगस्त 42।
Such is this conflict-When mankind don’t
strive
With its oppressors in a strif of blood
Or when free thoughts, like lightenings,are
alive,
And in each bosom of the multitude
Justice and truth with custom’s hydra brood
Wage silent war……
Thw worlds foundations tremble!
कितना सुकून मिलता है इन्हें फिर पढ़कर!
“योर अटेन्शन प्लीज”-प्लेन के माइक्रोफोन
से आवाज आती है, “पेटियाँ बाँध लीजिए, जहाज कैरो के हवाई अड्डे पर उतरेगा।” काहिरा
काफी गरम है। हम लोग उतरकर हवाई अड्डे के स्वागत गृह में कॉफी पीने आये हैं। मैं
बाहर टहल रहा हूँ। इन बत्तियों की रोशनी के पास रेगिस्तान है, दूर तक फैला हुआ,
बंजर, रेतीला सूनसान!
और टी0 एस0 इलियट दिमाग में घूम जाता है-‘वेस्ट लैंड’ और इलियट से लेकर जान आसबर्न
की ‘एन्ग्री यंगमैन’ पीढ़ी तक एक दूसरे इंग्लैण्ड का स्वर उभरता है। विक्षुब्ध,
तीखी, आडम्बरों, झूठी नकाबों, गलत पाखण्डपूर्ण मूल्यों की धज्जियां उड़ाता हुआ,
किपलिंग से लेकर चर्चिल तक के इंग्लैण्ड से बिल्कुल पृथक्।
जीने पर पिरामिडों
के पुराने भित्तिचित्रों की अनुकृतियां बनी है, बैरे लम्बे मिस्त्री चोगें और तुर्की
टोपियां पहने हैं, तेज अरबी कहवे की महक खुशनुमा लग रही है। यात्रियों की भीड़ में
अफ्रीकी सरदारों की भरमार है, अपनी-अपनी कबीयली पोशाकें पहने। यह सब इतना अच्छा, तरो-ताजा
कर देने वाला लग रहा है पर मन अभी उचट कर घर की ओर क्यों लौटता है।
हम सब जहाज पर वापिस आ गए हैं और फिर वही
तीस-बत्तीस हजार फीट की ऊँचाई पर उड़ान। काहिरा पर मिस्र के स्वागत विभाग ने जहाज के
अन्दर पिचकारियों से इत्र छिड़क दिए हैं और सारा जहाज फूलों के कुंज की तरह महक उठा
है। मन फिर तितली की तरह उड़ रहा है- इस ख्याल से उस खयाल पर!
मई का महीना है। इंग्लैंड में बसंत होगा, कौन-से फूल मिलेंगे। क्या लीलैक की झाड़ी
खिल आई होगी? क्या सुनहले डैफोडिल
झाड़ों के किनारे झूमते हुए दिखाई देंगे?
मेरे साथ-साथ जाने कितने इंग्लैंड जा रहे हैं। सच, भूगोल कई स्तर पर होता है, बाहर
भी, अन्दर भी। यात्राएं समानांतर होती चलती हैं। मन उचटकर घर की ओर लौटता है। जिस पवित्र
तन्मय प्यार की आलोक में पहली बार लिलैक और डैफोडिल, शेले और कीट् स का जादू जाना था
वह प्यार कहाँ है? कीट् स की रूपाशक्ति
और शेले की वायवीयता के ताने-बाने से बुनी भाव-प्रतिमा जिन्दगी के हाथों तार-तार क्यों
हो गई? फिर मन पूर्ण संकल्प
से जिसे लाया वह तो मुट्ठी में बांधे आकाश सा आग्रह्य निकला और जो अनजाने ही घर के
आँगन में लिलैक की झाड़ी की तरह खिल आया, तन-मन में महक गया, वह.....!
और यह सब मैं क्यों सोच रहा हूँ और क्यों?
और क्यों सोच रहा हूँ कि घर से हजारों मील दूर निकल आया हूँ। घनघोर अन्धकार में, नीचे
अथाह गहरे भूमध्य सागर के ऊपर उड़ रहा हूँ और अभी इस हवाई जहाज को कुछ हो जाए तो?
अलविदा....! क्या यह मरण का अज्ञात
भय है? या अपनी जिन्दगी के
नैरन्तर्य से जरा ऊपर उठकर उसे देखने की प्रक्रिया है और लो, अब सब भूल गया है। यह
देश, यह देश, यह यात्रा, वह इतिहास, केवल मैं हूँ और बाहर का सीमाहीन अँधेरा, मैं एक
विराट शून्य के समक्ष घबराया हुआ और फल लदी लचकीली डालियों-सी दो बाहों की याद, मुझे
घेरकर माथा गोद में छिपाकर आश्वासन देने की मुद्रा में..........।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें