सुमित्रानन्दन पन्त

 

सुमित्रानन्दन पन्त

ग्रन्थि

इन्दु पर, उस इन्दु-मुख पर, साथ ही

थे पड़े मेरे नयन, जो उदय से

लाज से रक्तिम हुए थे, पूर्व को

पूर्व था पर वह द्वितीय अपूर्व था

बाल-रजनी-सी अलका थी डोलती

भ्रमित हो शशि के वदन के बीच में

अचल, रेखांकित कभी थी कर रही

प्रमुखता मुख की सुछवि के काव्य में ।

एक पल, मेरे प्रिया के दृग- पलक
थे उठे ऊपर, सहज नीचे गिरे,

चपलता ने इस विकम्पित पुलक से

दृढ़ किया मानो प्रणय सम्बन्ध था

लाज की मादक सुरा सी लालिमा

फैल गालों में, नवीन गुलाब-सी

छलकती थी बाढ़ सी सौंदर्य की

अधखुले सस्मित गढ़ों में

रूप के आवर्त से

घूम-फिर कर, नाव से किसके नयन

हैं नहीं डूबे भटककर, अटक कर

भार से दब कर तरूण सौंदर्य के

जब प्रणय का प्रथम परिचय मूकता

दे चुकी थी हृदय को, तब यत्न से

बैठकर मैंने निकट ही, शान्त हो,

विनय वाणी में प्रिया से यों कहा-

सलिल-शोभे जो पतित आहत भ्रमर

सदय हो तुमने लगाया हृदय से

एक तरल तरंग से उसको बचा,

दूसरी, में क्यों डुबाती हो पुनः?

प्रेम कंटक से अचानक बिद्ध हो

जो सुमन तरु से बिलग है हो चुका,

निज दया से द्रवित उर में स्थान दे

क्या न सरस विकास दोगी उसे?

मलिन उर छूकर तिमिर का अरुण-कर

कनक आभा में खिलाते हैं कमल,

प्रिय बिना तम शेष मेंरे हृदय की,

प्रणय कलिका की तुम्ही प्रिय कान्ति हो ।

यह बिलम्ब! कठोर हृदय! मग्न को

बालुका भी क्या बचाती है? नहीं?

निठुर का मुझको भरोसा है बड़ा,

गिरि शिलाएँ ही अभय आधार हैं ।

म्लान तम में ही कलाधर की कला

कौमुदी बन कीर्ति पाती है धवल ।

दीनता के ही बिकम्पित पात्र में,

दान बढ़कर छलकता है प्रीति से ।

प्रिय निराश्रित की कठिन बाँहे नहीं

शिथिल पड़ती है प्रलोभन भार से,

अल्पता की संकुचित आँखे सदा

उमड़ती है अल्प भी अपनाव से ।

दयानिल से विपुल पुलकित हो सहज,

सरल उपकृति का सजल मानस प्रिये ।

क्षीण करूणालोक का भी लोक को

है वृहत् प्रतिबिम्ब दिखलाता सदा ।

शरद के निर्मल तिमिर की ओट में,

नव मिलन के पलक-दल-सा झूमता,

कौन मादक कर मुझे है छू रहा

प्रिय! तुम्हारी मूकता की आड़ से?

यह अनोखी रीति है क्या प्रेम की,

जो अपांगो से अधिक है देखता,

दूर होकर और बढ़ता है तथा ।

वारि पीकर पूछता है घर सदा

इन्दु की छवि में, तिमिर के गर्भ में,

अनिल की ध्वनि में, सलिल की वीचि में,

एक उत्सुकता विचरती थी,

सरल-सुमन की स्मिति में,

लता के अधर में

निज पलक मेंरी विकलता साथ ही

अवनि से, उस से मृगेक्षिणि ने उठा

एक पल, निज स्नेह श्यामल दृष्टि से

स्निग्ध कर दी दृष्टि मेरी दीप-सी ।

 

परिवर्तन

अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही तांडव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन!
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान, पतन!
अहे वासुकि सहस्र फन!
लक्ष्य अलक्षित चरण तुम्हारे चिन्ह निरंतर 
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षस्थल पर !
शत-शत फेनोच्छ्वासित,स्फीत फुतकार भयंकर 
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अंबर !
मृत्यु तुम्हारा गरल दंत, कंचुक कल्पान्तर ,
अखिल विश्व की विवर 
वक्र कुंडल 
दिग्मंडल !

(२)
आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?
राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)

 

गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
ॠध्दि औ
सिध्दि अपार!
अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!

(३)
अह दुर्जेय विश्वजित !
नवाते शत सुरवर नरनाथ 
तुम्हारे इन्द्रासन-तल माथ;
घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
सतत रथ के चक्रों के साथ !
तुम नृशंस से जगती पर चढ़ अनियंत्रित ,
करते हो संसृति को उत्पीड़न, पद-मर्दित ,
नग्न नगर कर,भग्न भवन,प्रतिमाएँ खंडित 
हर लेते हों विभव,कला,कौशल चिर संचित !
आधि,व्याधि,बहुवृष्टि,वात,उत्पात,अमंगल 
वह्नि,बाढ़,भूकम्प --तुम्हारे विपुल सैन्य दल;
अहे निरंकुश ! पदाघात से जिनके विह्वल 
हिल-इल उठता है टलमल 
पद दलित धरातल !

(४)
जगत का अविरत ह्रतकंपन
तुम्हारा ही भय -सूचन ;
निखिल पलकों का मौन पतन 
            तुम्हारा ही आमंत्रण !

विपुल वासना विकच विश्व का मानस-शतदल 
छान रहे तुम,कुटिल काल-कृमि-से घुस पल-पल;
तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण-शस्य-दल 
दलमल देते,वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल !
अये ,सतत ध्वनि स्पंदित जगती का दिग्मंडल
नैश गगन - सा सकल 
तुम्हारा हीं समाधि स्थल !

 

नौका विहार

शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,


लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल
लहरे उर पर कोमल कुंतल।
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर 
चंचल अंचल-सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर।

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर।
सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर
लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर 
तिर रही, खोल पालों के पर।

निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर 
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।
कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन
पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।

नौका से उठतीं जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर।
विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल 
ज्योतित कर नभ का अंतस्तल,
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल 
फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल।
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल,
रुपहरे कचों में ही ओझल।
लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख 
दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।

अब पहुँची चपला बीच धार,
छिप गया चाँदनी का कगार।
दो बाहों-से दूरस्थ-तीर, धारा का कृश कोमल शरीर 
आलिंगन करने को अधीर।
अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल, लगती भ्रू-रेखा-सी अराल
अपलक-नभ नील-नयन विशाल;
मा के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप
ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप;
वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-शोक
छाया की कोकी को विलोक?

पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार,
नौका घूमी विपरीत-धार।
ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार
बिखराती जल में तार-हार।
चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल 
रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल।
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल 
फैले फूले जल में फेनिल।
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह 
हम बढ़े घाट को सहोत्साह।

ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
उर में आलोकित शत विचार।
इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम।
शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास,
शाश्वत लघु-लहरों का विलास।
हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार
शाश्वत जीवन-नौका-विहार।

मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण 
करता मुझको अमरत्व-दान।

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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
संपर्क सूत्र -8009992553
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