महादेवी वर्मा

 

महादेवी वर्मा

मैं नीर भरी दुख की बदली!

मैं नीर भरी दुख की बदली!

स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,

क्रंदन में आहत विश्व हँसा,

नयनों में दीपक से जलते,

पलकों में निर्झणी मचली!

 

मेरा पग पग संगीत भरा,

श्वासों में स्वप्न पराग झरा,

नभ के नव रंग बुनते दुकूल,

छाया में मलय बयार पली!

 

मैं क्षितिज भृकुटि पर घिर धूमिल,

चिंता का भार बनी अविरल,

रज-कण पर जल-कण हो बरसी,

नव जीवन-अंकुर बन निकली!

 

पथ न मलिन करता आना,

पद चिह्न न दे जाता जाना,

सुधि मेरे आगम की जग में,

सुख की सिहरन हो अंत खिली!

 

विस्तृत नभ का कोई कोना,

मेरा न कभी अपना होना,

परिचय इतना इतिहास यही,

उमड़ी कल थी मिट आज चली!

 

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वसन्त-रजनी!

धीरे धीरे उतर क्षितिज से

आ वसन्त-रजनी!

तारकमय नव वेणीबन्धन

शीश-फूल कर शशि का नूतन,

रश्मि-वलय सित घन-अवगुण्ठन,

मुक्ताहल अभिराम बिछा दे

चितवन से अपनी!

पुलकती आ वसन्त-रजनी!

मर्मर की सुमधुर नूपुर-ध्वनि,

अलि-गुंजित पद्मों की किंकिणि,

भर पद-गति में अलस तरंगिणि,

तरल रजत की धार बहा दे

मृदु स्मित से सजनी!

विहँसती आ वसन्त-रजनी!

पुलकित स्वप्नों की रोमावलि,

कर में ही स्मृतियों की अंजलि,

मलयानिल का चल दुकूल अलि!

चिर छाया-सी श्याम, विश्व को

आ अभिसार बनी!

सकुचती आ वसन्त-रजनी!

सिहर सिहर उठता सरिता-उर,

खुल खुल पड़ते सुमन सुधा-भर,

मचल मचल आते पल फिर फिर,

सुन प्रिय की पद-चाप हो गयी

पुलकित यह अवनी!

सिहरती आ वसन्त-रजनी!

मन्दिर का दीप

यह मन्दिर का दीप इसे नीरव जलने दो!

रजत शंख-घड़ियाल, स्वर्ण वंशी, वीणा स्वर,

गये आरती बेला को शत-शत लय से भर;

जब था कल-कंठों का मेला

विहँसे उपल-तिमिर था खेला

अब मन्दिर में इष्ट अकेला;

इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो!

चरणों से चिह्नित अलिन्द की भूमि सुनहली,

प्रणत शिरों को अंक लिये चन्दन की दहली,

झरे सुमन बिखरे अक्षत सित

धूप-अर्घ्य नैवेद्य अपरिमित

तम में सब होगे अन्तर्हित;

सबकी अर्चित कथा इसी लौ में पलने दो!

पल के मनके फेर पुजारी विश्व सो गया,

प्रतिध्वनि का इतिहास प्रस्तरों के बीच सो गया;

साँसो की समाधि का जीवन

मसि-सागर का पंथ गया वन;

रुका मुखर कण-कण का स्पन्दन।

इस ज्वाला में प्राण-रूप फिर से ढलने दो!

झंझा है दिग्भ्रान्त रात की मूर्च्छा गहरी,

आज पुजारी बने, ज्योति का यह लघु प्रहरी;

जब तक लौटे दिन की हलचल,

तब कर यह जागेगा प्रतिपल

रेखाओं में भर आभा जल;

दूत साँझ का इसे प्रभाती तक चलने दो!

रे पपीहे पी कहाँ?

खोजता तू इस क्षितिज से उस क्षितिज तक शून्य अम्बर,

लघु परों से नाप सागर;

नाप पाता प्राण मेरे

प्रिय समा कर भी कहाँ?

हँस डुबा देगा युगों की प्यास का संसार भर तू,

कण्ठगत लघु बिन्दु कर तू!

प्यास ही जीवन, सकूँगी

तृप्ति में मैं जी कहाँ?

 

चपल बन बन कर मिटेगी झूम तेरी मेघवाला!

मैं स्वयं जल और ज्वाला!

दीप सी जलती न तो यह

सजलता रहती कहाँ?

साथ गति के भर रही हूँ विरति या आसक्ति के स्वर,

मैं बनी प्रिय-चरण-नूपुर!

प्रिय बसा उर में सुभग!

सुधि खोज की बसती कहाँ?


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मेरा नाम चन्द्रदेव त्रिपाठी 'अतुल' है । सन् 2010 में मैने इलाहाबाद विश्वविद्यालय प्रयागराज से स्नातक तथा 2012 मेंइलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही एम. ए.(हिन्दी) किया, 2013 में शिक्षा-शास्त्री (बी.एड.)। तत्पश्चात जे.आर.एफ. की परीक्षा उत्तीर्ण करके एनजीबीयू में शोध कार्य । सम्प्रति सन् 2015 से श्रीमत् परमहंस संस्कृत महाविद्यालय टीकरमाफी में प्रवक्ता( आधुनिक विषय हिन्दी ) के रूप में कार्यरत हूँ ।
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