पूर्वी हिन्दी की बोलियाँ
अवधी – अवधी पूर्वी हिन्दी की प्रमुख बोली है। अयोध्या से औंध या अवध प्रान्त बनता है। इसी के आधार पर इसे अवधी कहते हैं। इस बोली के अन्य नाम भी सुझाये गये हैं जिनमें मुख्य हैं पूर्वी, कोसली तथा बैंसवाडी। पूर्वी (पूरविया) संज्ञा विहारी बोलियों के लिए भी चलती है । अत अवधी के लिए यह सार्थक नाम नहीं है । कोसली कुछ हद तक ठीक नाम है। बैसवाड़ी तो अवधी की एक क्षेत्रीय बोली है। इस नाम में अव्याप्ति का दोष है।
क्षेत्र-अवधी लखीमपुर खीरी, बहराइच, गोंडा, बाराबंकी, लखनऊ,उन्नाव, फैजाबाद (पूर्वी हिस्सा छोड़कर), सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, रायबरेली, जौनपुर और मिर्जापुर के पश्चिमी भाग फतेहपुर और इलाहाबाद में बोली जाती है।इसकी पश्चिमी सीमा में कन्नौजी और बुन्देली हैं और पूरब में भोजपुरी बोली का क्षेत्र है। दक्षिण में इसी की उपबोलियाँ बघेली-छत्तीसगढ़ी हैं। उत्तरी क्षेत्र नेपाली
भाषा का है।बोलने वालों की संख्या दो करोड़ से कुछ अधिक है।
उद्भव-अवधी का विकास अर्धमागधी से माना जाता है । अर्धमागधी का जो साहित्यिक रूप उपलब्ध है, उसमें अवधी की कुछ प्राचीन विशेषताएँ दृष्टिगत होती हैं। डॉ० बाबूराम सक्सेना का मत है पूर्वी हिन्दी का सम्बन्ध जैन अर्धमागधी की अपेक्षा पालि से ही अधिक है किन्तु वास्तव में पालि, जैन अर्धमागधी से पुरानी भाषा है, इधर जैन अर्धमागधी ग्रंथों का सम्पादन तो ईस्वी सन् की पांचवी शताब्दी
में हुआ था। इससे हम यह कल्पना कर सकते हैं कि प्राचीन अर्धमागधी बाद की अर्धमागधी से भिन्न थी और इस प्राचीन अर्धमागधी से ही अवधी की उत्पत्ति साहित्यिक भाषा तथा बोलचाल की भाषा में सदैव से काफी अन्तर रहा है। अर्धमागधी के प्राचीन और नव्य रूप की कल्पना करके अवधी की सार्थक उत्पत्ति सिद्ध नहीं की जा सकती है। वास्तव में भाषाओं के जो भी साहित्यिक साक्ष्य हमें उपलब्ध हैं उनका स्वरूप क्षेत्रीय बहुत कम है । व्यापक प्रचार-प्रसार की चिन्ता के कारण कई क्षेत्रीय बोलियों के तत्त्व उनमें सम्मिलित हो गये हैं। डॉ० रामविलास शर्मा का मत ठीक इसके विपरीत है अवधी किसी अर्धमागधी प्राकृत या अपभ्रंश की पुत्री नहीं है। अवधी का मूलाधार प्राचीन कोसली समुदाय की गणभाषाएँ हैं। कारक रचना और क्रियापद रचना दोनों में इस समुदाय की विशेषता थी। इसी से भाषा की संश्लिष्ट प्रकृति का जन्म हुआ।.....
__ कोसल की जनपदीय भाषा उत्तर भारत में लगभग डेढ़ हजार साल तक संपर्क भाषा रही है। गौतम बुद्ध और श्रावस्ती के वैभव काल से लेकर बारहवीं सदी में गोविन्द चन्द्र गहड़वार और दामोदर पंडित के समय तक अवधी यह भूमिका निबाहती रही थी। संस्कृत, पालि, प्राकृत का व्यवहार इस अवधी की अपेक्षा बहुत सीमित था ग्रंथ रचना में उनकी प्रधानता थी, बोलचाल के स्तर पर अवधी का व्यवहार होता था। शर्मा जी के मत को आसानी से स्वीकार करना संभव नहीं है । एक तो इनका मत कल्पनाश्रित अधिक है पुष्ट प्रमाणों पर आधारित कम।
संस्कृत, पालि, प्राकृत (साहित्यिक प्राकृतें) तीनों भाषाओं का निर्माण क्या बोलियों का आधार ग्रहण किए बिना ही हो गया था । बौद्ध तथा जैन प्रचारकों के द्वारा संस्कृत के विरुद्ध पालि या प्राकृत को धर्म प्रचार की भाषा चुनने के पीछे क्या सर्वसाधारण के बोधत्व का प्रश्न नहीं था तत्कालीन साहित्यिक भाषाओं में पुरानी अवधी के तत्त्व तो हैं किन्तु शत-प्रतिशत अर्धमागधी को अवधी का पूर्व रूप
नहीं माना जा सकता । बोलचाल की अवधी उससे भिन्न थी जिसे अवहठ में अधिक महत्त्व मिला है। तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में तो यह साहित्यिक भाषा के रूप में आगे आ गयी-उन भाषिक तत्त्वों को लिए दिये जिन्हें साहित्यिक भाषाओं से ग्राम्य मान कर उपेक्षित कर दिया था। ये तत्त्व आकाश से नहीं टपक पड़े थे।बल्कि लोक में अपनी सम्पूर्ण अर्थवत्ता के साथ मौजूद थे।
ध्वनिगत विशेषताएं
१. अवधी में हिन्दी की प्राय सभी ध्वनियाँ मिलती हैं । अ, आ, इ, ई. उ, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ प्रमुख स्वर ध्वनियाँ है । अवधि में ए, ओ के ह्रस्व रूप भी प्रचलित हैं। बेटवा, लोटवा में प्रयुक्त ए, ओ ह्रस्व स्वर हैं । ऐ, औ मूल स्वर न होकर संयुक्त स्वर हैं। इनका उच्चारण संस्कृत परम्परा की याद दिलाता है। अवधी में पैसा का पइसा तथा औरत का अउरत उच्चारण किया जाता है । ऋ की स्थिति मानक हिन्दी की तरह है। ऋ का स्वर-रूपान्तर अ, इ, उ परम्परागत तद्भव शब्दों में सुरक्षित देखा सकता है जैसे मातृमाइ (माई), बुड्ढा (वृद्धा) तिनका (तृण)। ऋ को अरि या इरि के रूप में भी उच्चरित किया जाता है जैसे-अमिरित, मिरगा, ऋ का रि भी होता है जैसे रितु । इ, ए, उ का जपित रूप भी प्रयुक्त होते हैं जैसे-भी जि, रामु, का हेसे । स्वरों के अनुनासिक रूप भी प्रचलित हैं-भींग, पूँछ, सोठि।
व्यंजन ध्वनि व्यवस्था में भी मानक हिन्दी से थोड़ा भेद परिलक्षित होता है। अवधी में ण ध्वनि नहीं है। इसका स्थान ग्रहण करती हैं न जैसे बाण से बान । ड के स्थान पर र और ल के स्थान पर र का आगमन शब्द के मध्य या अन्त में होता है। ड मानक हिन्दी में भी आरम्भ में प्रयुक्त नहीं है । आरंभिक र और ल दोनों सुरक्षित रहते हैं जैसे-राम, लाम (लम्बा या दूर) किन्तु शब्द-मध्य या शब्दांत में ल का स्थानापन्न र से होता है और ड़ का भी र से जैसे-थालीथारी हलहर, साड़ीसारी। पांड़े में ड सुरक्षित हैं। स, ष, श में से केवल स का प्रचलन है। ष, श को स की तरह ही उच्चरित किया जाता है जैसे शुक्ल सुकुल, कौशल क उसल, ष का एक उच्चारण ख भी
है जैसे-वर्षा-बरखा, पुरुष-पूरिख या पुरूख । ह के दो रूप अघोष और सघोष हैं जैसे-हम (अघोष ह), नह (सघोष ह)। उच्चारण की सुविधा के लिए व्यंजनों का संयोग भी कर दिया जाता है जैसे-बाप-महतारी = बाम्महतारी, चोर लइगा= चोल्लइगा। न्ह म्ह ल्ह रह संयुक्त व्यंजन ध्वनियाँ हैं जो शब्दों के मध्य में प्रयुक्त होती हैं।
व्याकरणगत विशेषताएं
संज्ञा-अवधी में प्रातिपदिक अधिकांशतः स्वरांत हैं। अन्य स्वरों की अपेक्षा अन्त्य अ की प्रधानता है। वैसे अन्य स्वरों से युक्त प्रातिपदिकों की भी प्रचुरता है।
अ- घोर जाप,(ड), घर
बाछा (बछवा),
भगति,
आँखि,
उ-
अंगुरी,
जीउ,
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